आजादी के पश्चात भारतीय समाज सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक रूप से सबसे अधिक 90 के दशक में प्रभावित होता है. वैश्वीकरण का यह दौर भारतीय समाज पर गहरा छाप छोड़ता है. फॉरेन एक्सचेंज की बुनियाद का कमजोर होना, ‘नेहरूवियन सोशलिस्ट आर्डर’ से ‘ओपन इकॉनमी’ के दौर का शुरू होना, राजनैतिक अस्थिरता का चरम पर होना, मंडल आयोग का लागू होना, कमंडल की राजनीति का शुभारंभ होना, काश्मीर की समस्याओं में ‘आजाद काश्मीर’ की मांग को खुले रूप में उठाना, सांप्रदायिक दंगों में इजाफ़ा होना, सेटेलाइट टेलीविजन का दौर, ब्रांड कल्चर और नए – नए उपकरणों के माध्यम से नए-नए घोटालों के दौर की शुरुआत जैसे मुद्दों ने भारतीय समाज की लगभग व्याख्या को बदल कर रख दिया. इस आधार पर यह देखना काफ़ी दिलचस्प होगा कि साहित्य की रचनात्मकता समाज में हुए इस व्यापक बदलाव के ग्राफ को किस तरह से रेखांकित करती है.

इस आधार पर विचार करें तो साहित्यिक पत्रिका हंस एक ऐसी पत्रिका के रूप में उभरकर आती है जिसमें साहित्य, संस्कृति तथा राजनीति के सभी पक्षों को समाहित रूप में देखा जा सकता है। यही कारण है कि यहाँ धर्म, राजनीति, बेरोजगारी, अस्मितावादी आदि प्रश्नों पर बहस का माहौल लगभग एक रूप में देखने को मिलता है । बावजूद इसके हंस के ‘कवर’ पर ‘जनचेतना का प्रगतिशील कथा मासिक’ का अंकित होना इस बात को स्पष्ट करता है कि ‘हंस’ कहानियों की प्रतिनिधि पत्रिकाओं में अपना सर्वोच्च स्थान रखती है । इस आधार पर कहानियों के मूल्यांकन से उस समय की सामाजिक परिस्थियों का स्वरुप स्पष्ट रूप में परिलक्षित होता दिखाई पड़ता है । ‘हंस’ पत्रिका की यह खासियत रही है कि उसने अपने दौर के सभी स्थापित और नए कहानीकारों को प्रमुखता से छापा । इसके साथ ही यहाँ पर एक और  बात ध्यान देने योग्य है वह यह कि जिस प्रकार पत्रिका के मुखपृष्ठ पर ‘कथा-मासिक’ अंकित होने के साथ ही अपने ‘कंटेंट’ के कारण यह सिर्फ कथा की नहीं बल्कि विमर्श की भी पत्रिका साबित होती है, ठीक उसी प्रकार से हंस की कहानियाँ सिर्फ़  स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श की ही कहानियाँ नहीं हैं बल्कि इसके साथ ही ऐसी भी कहानियाँ हैं जो वर्तमान में कई असमानताओं के कारण बनी थी । यही असमानताएँ हंस में वैचारिक विमर्श के रूप में भी मौजूद रही है ।

राजेन्द्र यादव ने 1986 में ही ‘राजीव गाँधी के नाम खुला पत्र’ में ही इसका संकेत कर दिया था कि किस प्रकार से पूँजीवादी शक्तियाँ वैश्विक पटल पर मजबूत हो रही हैं और किस प्रकार से उनकी मजबूतियों की कीमत आम जनता को चुकानी पड़ रही है । स्वाभाविक रूप से समझा जा सकता है कि ‘हंस’ में पूंजीवादी आधार पर हुए परिवर्तन के स्वरुप का रेखांकन अवश्य देखने को मिलेगा क्योंकि संपादक इस स्वरूप से एक कतरा भी अनभिग्य नहीं है.

90 के दशक में हम देखते हैं कि बाजारीकरण का प्रभाव तेज़ी से समाज पर पड़ता है । यह प्रभाव ‘पब्लिक-सेक्टर’ को कमज़ोर कर ‘प्राईवेट-सेक्टर’ को प्रभावी रूप से स्थापित करता है । इस भूमिका में विश्व-बैंक से लेकर पूँजीवादी राष्ट्रों की सारी ऊर्जा नए ढंग के उपनिवेश बनाने में रही । सभी सीमाएँ बाज़ार के लिए तोड़ दी गई और राज्य का चरित्र अचानक से पूँजीवादी गठजोड़ के साथ बदला । इस बदलाव के कारण उत्पादन, वितरण और खपत की प्रणाली का योग सीधे बाज़ार के पक्ष में जाकर खड़ा हुआ । इस गठजोड़ का प्रत्यक्ष-परोक्ष नुकसान सबसे अधिक किसान, मजदूर तथा समाज के सबसे निचले तबके पर पड़ा। मुक्तबाज़ार का सबसे ख़तरनाक पहलू यह रहा कि इसने धीरे-धीरे सामाजिक-व्यवस्था को तोड़ कर ऐसी व्यवस्था का निर्माण कर दिया जहाँ सम्पूर्ण ‘इकॉनोमिक-ज़ोन’ इस प्रकार से असंतुलित हो उठता है कि एक तरफ़ अमीर और अमीर होता चला जाता है तो दूसरी तरफ़ गरीब और गरीब । बावजूद इसके ऐसा छद्म बनाया जाता है जिससे हर वर्ष इकॉनोमिक-ग्रोथ को बढ़ते रूप में दिखाया जाता है । यहाँ राज्य की भूमिका सबसे संदिग्ध अवस्था में  होती है।

‘राज्य किसका है और किसके लिए है’ शीर्षक से अपने लेख में इन्हीं संदर्भों पर बात करते हुए रामशरण जोशी कहते हैं कि, “एक बार मनमोहन सिंह से मैंने विकास में हिस्सेदारी पर सवाल पूछा तो कहने लगे इकॉनोमिक ग्रोथ हुई है । हमने कहा चलिए मान लेते हैं । अब आप ये बता दीजिए कि इकॉनोमिक ग्रोथ का डिस्ट्रीब्यूशन कितना हुआ है । अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ठीक-ठीक जवाब नहीं दे पाए । कहते रहे कि गरीबी कम हुई है । अब जो ताजा आंकडे आए हैं उनसे पता चला है कि गरीबी बढ़ गई है । ये तमाम चीज़ें हैं जो तकलीफ़ देती हैं । दर्द देती हैं । जैसा कि सार्त्र ने कहा कि जब एक किसान हथियार उठाता है तो यह उसकी मानवता का प्रतीक है।”[1]

उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य का चरित्र 90 के दशक से परिवर्तित होता है जहाँ से संसाधनों की लूट का सिलसिला तेज़ी से उभरकर सामने आता है और इस लूट में सबसे अधिक ख़तरनाक भूमिका में पूँजीवादी व्यवस्थाएँ होती हैं ।

इस दशक में ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि मार्क्सवाद के सार्वभौम सिद्धांत के बावजूद इस दशक में ही इसकी चर्चा सबसे अधिक भारतीय परिपेक्ष्य में देखने-सुनने को मिलता है । ऐसा इसलिए भी है क्योंकि पूँजीवादी दौर में इसका मुकाबला करने के लिए मार्क्सवाद में जितने औजार सैद्धांतिक रूप से मौजूद थे उतने अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है । ‘ट्रैड यूनियन’, ‘वितरण प्रणाली’, ‘पब्लिक सेक्टर’ और ‘प्राइवेट सेक्टर’ का द्वंद्व उत्पादन संबंध आदि शब्दावली चर्चित होती हैं ।

स्वाभाविक है कि इसका प्रभाव कहानी लेखन पर भी पड़ता है । ‘हंस’ पत्रिका में इस आधार पर लिखी गई कहानियाँ एक विमर्श तक पहुँचती हैं ।

प्रभा खेतान की लंबी कहानी–‘तालाबंदी’ इस दशक की सबसे महत्त्वपूर्ण  कहानियों में से एक है।

‘तालाबंदी’ में प्रभा खेतान ने इस दौर के व्यावसायिक द्वंद्व को बहुत ही रोचक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। कहानी में व्यावसायिक अजित से पूछते हुए कहता है-

“तुमने मार्क्स को पढ़ा है ? नहीं सर मैं मार्क्स-वार्क्स नहीं जानता । बाबा खाँटी काँग्रेसी थे। काका ने कहा……बापी तुझे कमा कर खाना है तो राजनीति से दूर रहना । काकू ने इसलिए मुझे साइंस में मैथमेटिक्स ऑनर्स दिलाया। सर, इस राजनीति ने अच्छे-अच्छे बंगाली लड़कों का भविष्य बिगाड़ दिया ।”[2]

यहाँ व्यवसायिक व्यक्ति के मन में मार्क्स और मार्क्सवाद को जानने का द्वंद्व उसके विकास में बाधा के रूप में स्वीकृत है जबकि दूसरी ओर देखें तो पता चलता है कि भारतीय समाज में युवाओं की आस्था या उनका विश्वास राजनीति से उठता जा रहा है ।

प्रभा खेतान ने इस कहानी में मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी मान्यता के लोगों के बीच के संदर्भ को बहुत ही बारीकी से प्रस्तुत किया है ।

इस तरह के प्रसंगों से पता चलता है कि प्रभा खेतान ने इस तरह की घटनाओं का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर इसे कहानी में रोचकता से प्रस्तुत किया है । शुरुआती दौर में कम्यूनिस्टों के अंदर एक विशिष्ट भाव होता है जिसे वह तामझाम के साथ व्यक्त करता है । इस विशिष्ट भाव-बोध को हू-ब-हू उसी स्थिति में प्रस्तुत किया गया है
श्यामबाबू मार्क्स को समझने के लिए मास्टरजी तय करते हैं । मास्टर जी उनसे पूछते हैं – ‘तुम मार्क्स को क्यों समझना चाहते हो ?’

लेकिन श्यामबाबू अपने आप को मास्टरजी के सामने इस तरह से पेश करते हैं कि वे उनसे अनजान बने रह सकें । इसलिए वह इस बात से नकारते हैं कि उन्हें कभी राजनीति में भी जाना है । उसके बाद का प्रसंग ध्यान देने योग्य है – “तब तुम यूनियन तोड़ना चाहते हो?

श्यामबाबू चौंक उठे । जिस ख्याल को अचेतन में दबा रखा था, वह इस बूढ़े की ज़बान पर ! नहीं इतनी जल्दी आत्म-स्वीकृति और पहली बार में ही ? भेद खोलना ठीक नहीं ।”[3]

मास्टर और श्यामबाबू के बीच का यह प्रसंग मार्क्सवादी नज़रिए को सरलता से पाठकों के बीच परोसता है । मसलन एक मार्क्सवादी व्याख्याकार उत्पादन-शक्ति और उत्पादन संबंध के आधार पर वैज्ञानिक दृष्टि से किस प्रकार से संबंधों के उद्देश्य को देखता है इसका सटीक उदाहरण देखने को मिलता है ।

मास्टर डायलेक्टिक, द्वंद्वात्मक अवधारणा, जर्मन दार्शनिक हीगेल आदि के संबंध में बात करते हुए कहता है-

“यह तो तुम मेरे सामने बैठे हो, लेक्चर सुन रहे हो, यहाँ इस कमरे के भीतर तुम्हारी एक क्रिया है, यानी सुनने की चेष्टा एक विधेयक क्रिया है । अत: यह हुई अस्ति यानी थीसिस । तुम सुन रहे हो पर तुम्हारे भीतर सुनने की इस क्रिया में नहीं सुनने का, बात को जैसा बोला जा रहा है वैसा नहीं, बल्कि अपनी तरह उलटने-पलटने का एक विकल्प भी छुपा है । यह जो नकार या निषेध क्रिया है, यह हुई नास्ति यानी एंटी-थीसिस । अस्ति और नास्ति होना और उसी होने में नहीं होना समझे । अब तुम अपने व्यवसाय को लो । तुमने एक सिस्टम बनाया, वह है यानी तुम्हारा सिस्टम, अस्ति मगर इसी सिस्टम को तोड़ रहा है, वह कौन है ? ज़रा बोलो तो ……? मेरे कारखाने के मजदूर और कारीगर- यानी एंटी-थीसिस ।” [4].

इस संदर्भ में हम पाते हैं कि समाज में मानवीय-मूल्यों की परिभाषाएँ बदली, ग्रामीण स्तर के अपने हाट-व्यवसाय टूटे, राजनैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ और अंततः मनुष्य से मनुष्य के बीच दूरियाँ बढ़ी । इन आधारों पर हंस में सैंकड़ों कहानियाँ लिखी गई । इन कहानियों में सामाजिक-संरचना के बदलते इन प्रश्नों और स्थितियों को गंभीरता से देखा जा सकता है ।

सरयू शर्मा की कहानी- ‘विस्फोट’, परदेशीराम वर्मा की- ‘ऋण’, हरदर्शन सहगल की कहानी- ‘कब्जा’, विष्णु नागर की कहानी- ‘दर्जी’, श्याम नारायण की कहानी- ‘लोकतांत्रिक ताजमहल’, मैत्रेयी पुष्पा की कहानी- ‘ज़मीन अपनी’, मृणाल पांडे की कहानी- ‘हिर्दा मेयो का मंझला’, गुलज़ार की कहानी- ‘सनसेट बुलेवार’, दूधनाथ सिंह की कहानी- ‘जार्ज मेकवान’, नमिता सिंह की कहानी- ‘जंगल गाथा’, ओमप्रकाश वाल्मीकि की लंबी कहानी- ‘और अंत में प्रार्थना’, चंद्रमोहन प्रधान की- ‘राष्ट्र का निर्माण चालू है’, जैसी सैंकड़ों कहानियों में इन स्थितियों को देखा जा सकता है । इन कहानियों के अध्ययन से यह आसानी से पता चलता है कि एक तरफ जहाँ शोषण का जातिवादी हथियार इस्तेमाल किया जाता था, वहीं दूसरी ओर अब ‘कास्ट’ के साथ-साथ ‘क्लास’ का मसला भी प्रमुखता से रेखांकित किया जाने लगा ।

फिरंता अपने साहेब से कहता भी है कि, “क्या साहेब जगह जाति सब तो खेल है । आप साहेब हैं, हम चपरासी । जगह से क्या होगा और रोना भी तो जगह का है । यहाँ का आदमी कहीं है भी । है भी तो दबा-दबा सा । न नेतागिरी में न पेपरबजी में, न खेल में, न अफसरों में कहीं है साहेब यहाँ के लोग?”[5]

 ‘राज्य’ और ‘पूँजी’ के गठजोड़ का प्रभाव समाज पर हू-ब-हू  देखने को मिलता है । इस त्रासदी में महँगाई ज़ोर पकड़ती है और गरीबों का जीवन जीना और मुश्किल होता जाता है । खान-पान से लेकर रहने तक में किस प्रकार से मुश्किलें बढ़ जाती हैं इसका ब्यौरेवार वर्णन हंस की कहानियों में देखने को मिलता है ।

मृणाल पांडे की कहानी- ‘हिर्दा मेयो का मंझला’ इसका जीवंत उदाहरण है । संवाद में महँगाई से किस प्रकार जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, उसे इस प्रकरण से समझा जा सकता है ।

“कैसा-कैसा देखा ठहरा हमने पर ऐसा महँगाई का राज । गरीब के चूतडों पर दिन-रात लात, आज ही तो देख रहे हैं । जो हरामी कल तक ककड़ी-भुट्टे चोर के गली-गली खुजलिहा कुत्ते जैसे मरे फिरते थे उनके सिर पे ये तिर्छी टोपी, बदन पर आहा रे नेताछाप ये कुर्ता ! हो गया, जीप में बैठ के जब आते हैं तब टेढ़ी गर्दन करके- कौवे जैसी लला । समझे, कौवे जैसी पूछ भर जाते हैं- मिजाज़ अच्छे हो रहे हैं शाह जी ? करके बुजुर्ग मानुष तो सिर नीचा करके हाँ-हाँ करके गुजर जाए, आजकल के लड़के खब्बीस सांड जैसे उनको सींग मारने को दौड़ते हैं ।”[6]

इस तरह के प्रसंगों से स्पष्ट हो जाता है कि महँगाई एक सीमा के बाहर छाई रहती है जिसका प्रभाव गरीबों पर इस तरह से पड़ता है कि उसका जीवन दुश्वार हो जाता है । इस कहानी में मृणाल पांडे ने जहाँ एक ओर सामाजिक त्रासदी का चित्रण सफलतापूर्वक किया है, वहीं दूसरी ओर राजनैतिक उदासीनता को भी व्यक्त किया है । इसी आधार पर देखते हैं कि राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद समाज एक ऐसी परिपाटी का इस्तेमाल करने को आदि हो चुका होता है जहाँ से बाहर निकलने के सारे दरवाजे उसे बंद दिखाई देते हैं । इस कहानी में मृणाल पांडे ने समाज में तर्क-हीन राजनैतिक आस्था को वैचारिक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है । इस आस्था में आजादी-पूर्व से वर्तमान तक जिस प्रकार से कांग्रेस के प्रति भारतीय समाज में आस्था बनी रहती है उसका टूटना संभव न हो सकने के बावजूद मान्यताओं में कोई बदलाव देखने को नहीं मिलता है।

ध्यान से देखें तो इस दशक में सामाजिक सरोकार से संबंधित लगभग सभी संस्थाएँ प्रभावित होती हैं । पूँजी के विकास में इस तथ्य को देखा जा सकता है कि जितनी भी सामाजिक संस्थाएँ जो प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक विकास के लिए कार्यरत थीं उनका अप्रत्यक्ष रूप से पूँजीवादी दौर में पूँजी के विकास हेतु इस्तेमाल किया गया । यही कारण है कि भारतीय पत्रकारिता से लेकर शिक्षा संबंधी सभी संस्थाओं का इस्तेमाल किया गया ।

दूधनाथ सिंह की कहानी ‘जॉर्ज मेकवान’ इन परिस्थितियों की व्याख्या सटीक तरीके से करती है । इस कहानी में संपादक का दबाव और बिकने अर्थात् व्यवसाय का अतिआग्रह पत्रकार की व्यथा के रूप में व्याख्यायित होता है तो दूसरी ओर एक कलाकार के अभावग्रस्त जीवन का रूप भी सामने आता है ।

यहाँ दो पत्रकारों का आपसी द्वंद्व का रूप बदलते पत्रकारिता के स्वरुप को भी प्रदर्शित करता है । जोशी जी अपने साथी पत्रकार से कहते हैं कि –

“और सुनो, जॉर्ज ऐसे ही तो कौंधे हैं हमारे दिमाग में। क्या बेंद्रे काफी नहीं हैं। या चमत्कार ही पैदा करना हो तो प्रभा शाह भी हो सकती हैं । लेकिन हम बंधे भी तो हैं । हमारी एक विचारधारा भी तो है जो हमें महान मार्क्स ने दी है । और इस दुर्दिन में तो हम उसे बिलकुल नहीं छोड़ेंगे और देखो इन टके के विचारकों के कहने से कि ‘दुनिया को खुल जाने दो’, कुछ नहीं होता । दुनिया कोई खुल जा सिम-सिम नहीं है कि आपने कहा और वह खुल गयी । यह विश्वासघात है उस आदमी के साथ…………जो फँसा हुआ है, जो अपनी लत्ता-ज़िन्दगी की गठरी बनाए किसी पेड़ के नीच बैठा हुआ आपकी लूटपाट और आपकी नफ़ीस बड़बोली का तमाशा देख रहा है ।”[7]

उपर्युक्त प्रसंग से यह स्पष्ट हो जाता है कि पत्रकारिता का स्वरुप किस प्रकार से बदल रहा है । इस बदलते स्वरुप के कारण ही जोशी के अंदर एक द्वंद्व पैदा करता है कि वह किस प्रकार के विषय को प्राथमिकता  दे। चमत्कार पैदा करना और अपनी विचारधारा को भी जीवित रखने का द्वंद्व जोशी की बातों से स्पष्ट लक्षित होता है । यहाँ भी ध्यान देने योग्य बातें हैं वह है कार्ल मार्क्स के ज़िक्र का । जैसा कि पूर्व के प्रसंगों  में भी मार्क्स और मार्क्सवाद की चर्चा की गई है कि इस दशक में पूँजी के प्रभाव से जहाँ सब-कुछ उथल-पुथल होता दिखाई देता है, वहीं दूसरी ओर कम्यूनिज्म की सर्वाधिक चर्चा भी इसी दशक में होती है । इसके पीछे के कारणों में सबसे बड़ा कारण यह है कि 90 के बाद आर्थिक आधार पर प्रत्यक्ष रूप से शोषण अधिक तेज़ी से बढ़ा । स्वाभाविक है आर्थिक आधार पर की गई सामाजिक व्याख्या में सबसे अधिक व्याख्या मार्क्सवादी दर्शन में ही देखने को मिलता है, यही कारण है कि इस दशक की कहानियों में सर्वाधिक चर्चा मार्क्सवादी शब्दावलियों की की जाती है ।

          इसी संदर्भ में नमिता सिंह की कहानी- ‘जंगल गाथा’ ध्यान देने योग्य है । इस कहानी में नमिता सिंह ने जंगल की संस्कृति का मनोरम वर्णन करते हुए इसके अंदर बाहरी संस्कृति के दमन की व्याख्या की है ।

“यहाँ के लोग गायब हो रहे हैं । ठेकेदार मना करता है । इसी तरह फेकू के गायब होने पर उसकी दाई बहुत बुरी स्थिति में आ जाती है ।ठेकेदार उसे यह कहकर झांसा देता है कि कहीं कोई बाघ उसे खा गया है । दाई कहती है, “बाघ ! ना , फेकू की दाई नहीं मानती, परभू भी नहीं मानता । कहता है कि शहर के लोग यहाँ बस्ती में आते हैं और हमारे लड़कों बच्चों को उठाकर ले जाते हैं । बघेश्वर देवता नहीं रिसाये हैं । शहरी लकड़बग्घा आया है कोई । गुनिया भी यही कहता है कि जंगल का बाघ तो साधा हुआ है , भेंट-पूजा चढ़ाये हुए हैं । सब लोग देवता को, बस्ती के लोगों को देखता है तो बकरी की तईं  सिर झुकाकर चला जाता है ।”[8]

जंगल से लोगों के गायब होने पर ठेकेदार जो बहाना (कारण) बताता है उसे वहाँ के लोग अस्वीकार कर देते हैं । उपर्युक्त प्रसंग से यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ के लोग जंगल की संस्कृति में रचे-बसे लोग हैं, वे सदियों से जानवरों के साथ रहने की कला में माहिर रहे हैं । इसीलिए वे कहते हैं कि शहरी लकड़बग्घा आया है कोई । अर्थात् शहर के लोगों का, ठेकेदारों का, मिल मालिकों का कारनामा है । इस कहानी में नमिता सिंह ने ज़मींदारों के ज़ुल्म को भी सजगता के साथ दिखाया है जिससे यह परिलक्षित होता है कि वहाँ के युवा और युवतियों का शोषण कई चरणों में होता है । नमिता सिंह ने इस कहानी में शिकार होते आदिवासियों का मार्मिक चित्रण किया है । वीरभद्र बहादुर के लिए आदिवासी बस एक शिकार है । उन्हें वे इंसानी जानवर के रूप में देखते हैं जिसका केवल शिकार किया जा सकता है । सुरसती को भी वे एक सिंग वाली इंसानी जानवर के रूप में देखते हैं, जिसका शिकार करने के लिए उनके अंदर की व्याकुलता बढ़ गयी है । वे सुरसती को ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाने में नहीं बल्कि उनका इस्तेमाल अपने दोस्तों के साथ भी करना चाहते हैं । शोषण के इस बर्बर स्वरुप को जहाँ इंसानों को जानवर के समान समझा जाता है इस कहानी में आसानी से देखा परखा जा सकता है ।

इस तरह से देखा जा सकता है कि वैश्वीकरण के परिपेक्ष्य में साहित्य में समाज का स्वरुप किस प्रकार से बदलता है । इस दौर की कहानियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि पूँजी का विस्तार, औद्योगिक विकास के कारण भारतीय समाज का स्वरुप एक अलग दिशा में परिवर्तित होता है । ‘हंस’ में प्रकाशित 1990 से 2000 तक की कहानियों में हम इस बदलते स्वरुप का अध्ययन विस्तारपूर्वक कर सकते हैं । परितोष चटर्जी की कहानी-‘बिजनस’ (1993), महाराज कृष्ण संतोषी की कहानी- ‘हमारे ईश्वर को तैरना नहीं आता’ (1996), संजीव की कहानी- ‘सागर सीमांत’ (1994), गिरिराज किशोर की कहानी- ‘हमारे मालिक सबके मालिक’ (1998), राजेश रेड्डी की कहनी- ‘साहब का बटुआ’ (1997), जितेन्द्र भाटिया की कहानी- ‘अगले अंधेरे तक’(1997) तथा  विष्णु नागर की कहानी- ‘जंगल में डेमोक्रेसी’ (1997) जैसी सैंकड़ों कहानियाँ हैं जिसमें वैश्वीकरण के कारण हुए सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक बदलाव को देखा जा सकता है । सन् 1990 से 2000 तक की इन कहानियों की विशेषता रही हैं कि इसमें समाज में व्याप्त हर तरह की विसंगतियों तथा असमानताओं को रेखांकित किया गया है । मानव संबंध तथा उत्पादन संबंध का स्वरुप किस प्रकार से प्रभावित होता है इस संदर्भ को इन कहानियों के अध्ययन से विस्तारपूर्वक जाना जा सकता है ।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सन् 1990 से उदारवादी नीतियों के सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक बदलाव तथा इसके समक्ष मार्क्सवादी अवधारणाओं का वैकल्पिक संदर्भ इन कहानियों में वैचारिक तथा व्यावहारिक स्तर पर विस्तार पूर्वक देखने, समझने को मिलता है ।

संदर्भ ग्रंथ :-

  1. जोशी, रामशरण, राज्य किसका है और किसके लिए है, सं – राजेन्द्र यादव, हंस, सितंबर – 2010, पृ. 90.
  2. खेतान, प्रभा, तालाबंदी, सं – राजेन्द्र यादव, हंस, फ़रवरी, 1990, पृ. 71.
  3. खेतान, प्रभा, तालाबंदी, सं – राजेन्द्र यादव, हंस, फ़रवरी, 1990, पृ. 77).
  4. खेतान, प्रभा, तालाबंदी, सं – राजेन्द्र यादव, हंस, फ़रवरी, 1990, पृ. 78.
  5. वर्मा, परदेशी राम, ऋण, सं – राजेन्द्र यादव, हंस, अप्रैल, 1990, पृ. 79.
  6. पांडे, मृणाल, हिर्दा मेयो का मंझला, सं – राजेन्द्र यादव, हंस, अक्टूबर -1991, पृ. 18.
  7. सिंह, दूधनाथ, जार्ज मेकवान, सं – राजेन्द्र यादव, हंस, अप्रैल – 1991, पृ. 18.
  8. (सिंह, नमिता, जंगल गाथा, सं – राजेन्द्र यादव, हंस, सितंबर – 1992, पृ. 32).

डॉ. संजीव कुमार
वर्धा

 

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