शमशेर प्रयोगशील कवि हैं जो प्रयोगवाद से चलकर प्रगतिवाद की और आकर्षित हुए फिर नई कविता से जुड़े है। अपनी स्वगत संलाप शैली में कविता करना उनके कवित्व को उनके चित्रकार से अलग करता है। किन्तु फिर भी उनकी कविताओं में बिखरे रंग और अनोखे प्रतीक मानवीय संवेदनाओं को नई भाषा में प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविताओं में समाज शामिल है पर उनकी कवितायें सामाजिक नहीं हैं। कुछ समय तक वे प्रगतिवाद से प्रभावित रहे, उन्होंने प्रगतिशील कवितायें भी लिखीं किन्तु वे प्रगतिवादी नहीं हैं। छायावाद और रोमांटिसिज्म से प्रेरित शमशेर नए प्रतीकों एवं बिम्बों के साथ अपनी कविता को एक नया आयाम देते हैं।
इस शोध आलेख की मुख्य विषय वस्तु शमशेर की रचना प्रक्रिया को समझना है। शमशेर की कविता में क्या तत्व निहित हैं? उनकी कविता को समझने के लिए क्या दृष्टि अपनायी जानी चाहिए? अथवा पाठक को अपनी संवेदना को किस स्तर पर ले जाना पड़ेगा? उनका शिल्प ही उनकी कविता को पढ़ने की कुंजी कैसे है? इत्यादि प्रश्नों का विश्लेषण इस शोध पत्र का विषय है। शमशेर की कविताओं में वास्तविकता और कल्पना के सम्मिश्रण का अनुपात उनके अपने ही निराले ढंग का है। सौन्दर्य की विविध तरंगे उनकी कविताओं में अनुभूत होती हैं। यह सौन्दर्य प्रकृति, स्त्री अथवा भावों के सहज उच्छलन के रूप में हमें उनके काव्य में दिखाई पड़ता हैं। प्रयोगधर्मिता ही उसका सत्य है। उनकी गहरे मानवीय सरोकारों से जुड़ी कवितायें काव्यानुभूति के आकाश को छूती हैं।
शमशेर की रचना प्रक्रिया को उनके चिंतन, उनकी रुचियों, उनके भाषिक व्यवहार तथा प्रस्तुतीकरण की शैली द्वारा समझा जा सकता है। शमशेर का व्यक्तित्व बेहद संवेदनशील है कोई घटना जो उनके मन को छू जाती है उसे वे स्मृति में संजो लेते हैं। चूँकि वे उर्दू शेर और ग़ज़लें भी लिखते हैं जोकि मुहावरेदार भाषा में कम शब्दों में अधिक बात कह देने की सिर्फ है, विधा है इसलिए उनकी हिंदी कविता की शैली भी कुछ वही धार अपनाती है। केवल कुछ प्रतीकों व बिम्बों से पदबंध बना कर वे कविता में अपनी सारी बात कह देते हैं। वे उदासी या अवसाद को पीली शाम का नाम देते हैं, विश्व को वे सात आसमान या सात समुन्द्र कहते हैं। हिंदी के ये नए मुहावरे उनके अपने हैं। इनके द्वारा वे अपनी संजोयी हुई प्रसुप्त यादों को नए रचनात्मक ढंग से कविता का रूप देते हैं।
शमशेर की कविताओं के मुहावरों में छिपे संकेतों को अपने सम्वेदनात्मक ज्ञान के आधार पर ही समझा जा सकता है। रूप, रस, गंध, स्पर्श की इन्द्रियबोधों से उत्पन्न संवेदनाओं को वे नई शक्ल में चित्रित करते हैं। जिसमें कोई नाट्य विधान नहीं है, कोई सामान्यीकरण नहीं है। उनकी कविताओं के सभी चित्र विशिष्ट हैं। वे अपनी कविताओं को रोमानियत के ज्यादा नजदीक मानने के पक्ष में हैं। वे अपनी कविताओं में त्रिलोचन के समान सरलता की कामना करते हैं किन्तु असफल होते हैं। इसलिए सामान्य पाठक को इनकी कवितायें क्लिष्ट और जटिल लगती हैं।
शमशेर ने नए शब्द ही नहीं गढ़े बल्कि शब्दों को पदों मे ऐसे बांधा है कि उनके अर्थ प्रचलित अर्थ से भिन्न हो जाते हैं। बिना संदर्भ तथा इतिहास बोध के उन पदों के अर्थ जान पाना कठिन हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि संदर्भ के अनुसार भावना या संवेदना जागृत होने पर ही पाठक उस कविता से जुड़ पाता है।
शमशेर के काव्य में संवेदना का गुण उथला नहीं बल्कि बहुत गहरा है। उसमें संप्रेषित प्रेम ओर सौन्दर्य एक आयामी न होकर वैश्विक स्तर पर मानवीयता से जुड़े है। इसी समग्रता में उनके काव्य पर विचार करना चाहिए। स्वयं शमशेर मानते हैं : “ हर कवि का मोटे तौर पर, एक निजी काव्य संसार होता है, जिसमें वह प्रायः रमा रहता है। अगर ऐसा नहीं है तो वह वास्तव में कवि नहीं है। ज़रूरत इस बात की है कि कवि अपने इस निजी काव्य संसार को निरंतर अधिक से अधिक समृद्ध करता चले। समृद्ध करने का अर्थ है अपनी विषय वस्तु को लेकर अंदर ही अंदर गहरा चिंतन। जो भी विषय –वस्तु या उस विषय वस्तु की जो दुनिया उसे आकृष्ट करती है, उसे अपनी भावनाओं में जितना भी अधिक मूर्त कर सकता है, उसे करना चाहिए। उसके हर पक्ष का विश्लेषण भी उसकी चेतना में जारी रहना चाहिए।1 ” डॉ. नगेंद्र ने रोमानियत से भरी आधुनिक काव्यधारा छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कहा है। शमशेर उसे ही नई कविता में नयी दृष्टि से प्रयोग करते हैं। वे भावगत को वस्तुगत रूप में प्रस्तुत करते हैं।
शमशेर शब्दों में प्रचलित अर्थ सत्ता से विद्रोह के समर्थक हैं इसलिए वे शब्दों के संयोजन में अपनी विशिष्ट छाप रखते हैं। स्थूल प्रतीकों में अपनी सूक्षम संवेदनाओं को वे पाठक के समक्ष रखते हैं। शमशेर के कई काव्य संग्रह प्रकाशित हुए – कुछ कवितायें (1959), कुछ और कवितायें (1961), चुका भी नहीं हूँ मैं (1975), बात बोलेगी (1981) एवं काल तुझसे होड़ है मेरी।
शमशेर की काव्य भाषा मे बिंबों की अद्भुत छटाएँ देखने को मिलती हैं। शुक्लजी भी चिंतामणि में कहते हैं –‘काव्य का काम है कल्पना में बिम्ब या मूर्त भावना उपस्थित करना |’ इसे उनकी ‘सींग और नाखून’ कविता के संदर्भ में समझा जा सकता है –
“सींग और नाखून
लोहे के बख्तर कंधों पर।
सीने मे सुराख हड्डी का।
आँखों में : घास काई की नमी। ”2
द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका और अमानवीयता को दर्शाती यह कविता मनुष्यता के ह्रास को विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करती है।
इसी तरह एक ‘पीली शाम’ कविता में –
“पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सांध्य तारक –सा
अतल में। ”3
अथवा
“चुका भी हूँ मैं नहीं
कहाँ किया मैंने प्रेम
अभी।
जब करुंगा प्रेम
पिघल उठेंगे
युगों के भूधर
उफान उठेंगे
सात समंदर|”4
प्रतीकों के चुनाव में ऐसा प्रतीत होता है कि किसी घटना को वे स्मृति मे जिन सम्बन्धवाचक चिन्हों के रूप से जोड़ कर याद रख पाये उन्हें ही अपनी कविता में उन्होनें रखा है। उनकी कविता में ध्वनि की, लय की तारतमयता नई कविता के गद्य कवियों से अलग, छंदबद्ध न होकर भी एक पद्य का आनंद देती है। इस कार्य को शमशेर अपने काव्य मे बखूबी अंजाम देते हैं। शमशेर की प्रगतिशीलता पर चर्चा करते हुए डॉ० विजयदेव नारायण साही लिखते हैं लिखते हैं-“ प्रगतिवाद शमशेर के लिए मात्र वह नहीं है जो वह है, बल्कि वह है जो उनकी निजी जरूरत को पूरा करता है; उनकी काव्यानुभूति की बनावट का अंग बनकर प्रस्तुत होता है| इसी अर्थ में उनके लिए अभिनय नहीं वास्तविकता है. . . . काव्यानुभूति और प्रगतिवाद एक तरह के सह अस्तित्व में आमने-सामने दर्पण की तरह रखे हुए हैं. . . . यह सह अस्तित्व निरपेक्षता नहीं साक्षात्कार है| रिश्ते का आभाव नहीं है, रिश्ते की संभावना है|”5
आलोचकों के अनुसार शमशेर की कविताओं का शिल्प अँग्रेजी साहित्य से ऊर्जास्वित हुआ है। शमशेर ने स्वयं स्वीकार किया है कि इलियट –एजरा पाउंड एवं उर्दू दरबारी कविता का प्रभाव उन पर है। लेकिन उनका स्वस्थ सौन्दर्य –बोध इस प्रभाव को ग्रहण करके भी उनकी शमशेरियत को विशेष बना देता है। उदाहरण के लिए कबीर आध्यात्मिक संत थे। उनकी मूल प्रवृत्ति संतों की तरह दार्शनिक थी इस चेतना का प्रयोग करके ही वे कविता द्वारा सामाजिक रूढ़ियों – पाखंडों का विरोध कर पाये किन्तु आज उन्हें समाज सुधारक अधिक घोषित किया जाने लगा है बजाय संत या कवि के। अतः किसी भी कवि की मूल संवेदनात्मक प्रवृति ही उसे परिचालित करती है जिसे जाने बिना या समझे बिना हम उसका मूल्यांकन नहीं कर सकते। शमशेर के संदर्भ में भी यही बात सामने आती है उन्होंने बिंबों की चित्र भाषा का प्रयोग किया। ये भाषा केवल एक दृश्य या चित्र उपस्थित करती हैं जिसका अपना संदर्भगत अर्थ है
। उनकी मूल प्रवृति निजी संवेदन को समष्टि से जोड़कर देखने की और व्यक्त करने की थी।
निष्कर्ष रूप में कहा जाए तो प्रगतिवाद से प्रेरणा लेते हुए शमशेर कविता में कवि के सामाजिक दायित्व को समझते हैं पर वे कविता का अर्थ प्रचार करना नहीं मानते। वे तो अपनी व्यक्तिगत समाज संवेदना को ही सामाजिक संवेदना का विस्तार देते हैं। इसलिए शमशेर की कवितायें पढ़ने से पूर्व उस कविता के रचना काल को जानना आवश्यक है। देश – काल में चल रही परिस्थितियों का कविता से क्या संबंध है यह जानने के पश्चात कवि की मनः स्थिति समझते हुए उस कविता में लिखे प्रतीकों से उसकी संवेदना को जोड़कर पढ़ना चाहिए, तभी उनकी कविताओं का अर्थ स्पष्ट रूप से समझ आएगा। शमशेर न सौन्दर्यवादी हैं, न छायावादी, न प्रगतिवादी और न ही वे किसी प्रकार के दार्शनिक कवि हैं। इन सब में से किसी एक धारा के न होते हुए भी वे इन सब के कवि हैं। यही उनकी शमशेरियत है।
सन्दर्भ ग्रन्थ :
- कवि कर्म:प्रतिमा और व्यक्तित्व-शमशेर, कुछ और गद्य रचनाएं, राजकमल],१९९५, पृ.सं.-२३३
- http://www.hindisamay.com
- http://www.hindisamay.com
- http://www.anubhuti-hindi.org/gauravgram/shamsher/chuka.htm
- शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट- डॉ० विजयदेवनारायण साही, विवेक के रंग, सम्पादक- देवीशंकर अवस्थी, वाणी प्रकाशन, १९८५, पृष्ठ संख्या – ७६-७७
रीता रानी
शोधार्थी
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय