संघर्ष किसी एक युग-विशेष की ही माँग नहीं है वरन् उसकी सार्थकता सभी युगों में स्वयं सिद्ध है, क्योंकि कुछ सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक तथा आर्थिक समस्याएँ ऐसी हैं, जो प्रत्येक काल-खण्ड के प्रगति के मार्ग के मध्य में खड़ी रहती हैं। इन समस्याओं के निवारण में संघर्ष की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जीवन के किसी महत्त्वपूर्ण पक्ष की प्रासंगिकता का अर्थ वर्तमान संदर्भ में उसकी उपादेयता से है। इस दृष्टि से भी संघर्ष को चिर प्रासंगिक सत्य कहा जा सकता है। आज से हजारों वर्ष पूर्व देवी-देवताओं ने असुरों से अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए: सत्य, धर्म, न्याय, शांति की सुरक्षा के लिए तथा अपनी संस्कृति एवं सभ्यता की सुरक्षा के लिए ‘संघर्ष’ के जिस मार्ग को अपनाया था, उसकी आवश्यकता वर्तमान युग में भी उतनी ही है। जो व्यभिचार, अनाचार तथा दुराचार मध्ययुगीन समाज में व्यप्त थे, वे आज पुनः मनुष्य के हृदय में घर करने लगे हैं। ‘‘आज जीवन के हर क्षेत्र में एक दौड़ लगी हुई है। धनोपार्जन की दौड़, सुख के साधनों को ढूँढ़ निकालने की दौड़, यहाँ तक कि घातक हथियारों को बनाने और मानवता का विनाश तक कर डालने की दौड़ भी हमें स्पष्ट ही दिखाई देती है। हर समाज, हर देश, हर तथाकथित धर्म इस दौड़ में सबसे आगे निकल जाने के लिए लालायति है। कहने को ऊपरी तौर पर हम एक दूसरे के पास आते जा रहे हैं पर अन्दर ही अन्दर हम एक दूसरे से कोसों दूर निकल जाने में ही अपनी शान समझते हैं।’’1 धर्म के वास्तविक स्वरूप की हत्या हो चुकी है तथा साम्प्रदायिकता की भावना बलवती हो गई है। तुच्छ स्वार्थ की भावना से परिचालित राजनेता धर्म का नारा लगाते हैं, लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से धार्मिक नहीं होते, संस्कृति के गुण गाते हैं किन्तु संस्कृति के अधोपतन को रोकने का प्रयास नहीं करते, नैतिक मूल्यों की चर्चा करते हैं परन्तु नैतिकता से कोसों दूर रहते हैं। साम्प्रदायिकता का विष समाज की रग-रग में इतना अधिक फैल गया है कि उसका एकमात्र निदान जातीय संघर्ष में ही दिखाई देता है। जातीय संघर्ष के ही माध्यम से भारतीय जन मानस को राष्ट्रीय एकता का वास्तविकत अर्थ समझाया जा सकता है। भारतीय संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों को पुनः प्रतिष्ठित किया जा सकता है तथा दया, परोपकार, त्याग, क्षमा, श्रद्धा, नैतिकता आदि मानवीय मूल्यों की उपयोगिता को प्रत्येक जन के हृदय में स्थापित किया जा सकता है।
संघर्ष का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय भावना की रक्षा करना होता है। प्रादेशिकता के संकीर्ण दायरे से निकलकर राष्ट्र व्यापक फलक का चिन्तन; उसकी प्रगति एवं उन्नति के लिए निजी स्वार्थों का त्याग, सम्प्रदाय, जाति, धर्म, भाषा आदि की दृष्टि से विभिन्नता में भी एकता तथा सांस्कृतिक पहलुओं के बहुमुखी विकास के प्रति जागरुकता आदि विविध तत्त्व ही जातीय एवं राष्ट्रीय बोध को प्रबल बनाते हैं। ऐसी मनःस्थिति में राष्ट्र का हित सर्वोपरि हो जाता है। क्षेत्रीयता तथा भौतिक सुख-सुविधाओं की आकांक्षा राष्ट्रीय गौरव एवं सम्मान के समक्ष गौण हो जाती हैं। किन्तु आज परिस्थितियाँ इसके विपरीत हैं। धार्मिक कट्टरता, अहंकार, मोहलिप्सा बाह्य चमक-दमक, स्वार्थ आदि हीन-मनोवृत्तियों का चारों ओर ढोल पीटा जा रहा है; जीवन-मूल्यों एवं मर्यादाओं की आड़ में विलासिता का भोग हो रहा है; आदर्शों की डुगडुगी बजाकर कुकृत्यों का नाच देखा जा रहा है; सत्य-न्याय के झूठे मुखौटे लगाकर अनैतिक आचरण सर्वप्रिय हो गया है तथा अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी ठहराया जा रहा है। मनुष्य की आर्थिक आकांक्षाएँ इतनी अधिक बढ़ गयी हैं कि वह राष्ट्र के आर्थिक विकास की अपेक्षा अर्थ-संचयन को अधिक महत्त्व देने लगा है। स्पष्ट है कि अर्थ संचयन की होड़ ने को एक ओर मात्र भौतिक दृष्टि प्रदान करके उसे बेचैन बना दिया है मनुष्य तथा दूसरी ओर विलासिता के गहन गर्त में डुबाकर पाश्विक भी बना दिया है।2 ज्ञान-विज्ञान के अतिशय विकास ने यद्यपि अनेक सूक्ष्मतर भेदों का उद्घाटन कर दिया है, किन्तु विडम्बना यह है कि मनुष्य सब कुछ समझकर भी अज्ञानियों का सा व्यवहार कर रहा है; अहंकार के दुष्परिणाम को जानकर भी उसी मार्ग पर चल रहा है तथा हाथ में दिया लेकर भी पतन के गहन अंधकार में डूब रहा है। परिणामतः राष्ट्रीय एकता नष्ट हो रही है, उसके सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, सामाजिक व्यवस्था विशृंखलित हो रही है, बाहरी शासकों से देश को सुरक्षित रखने की अपेक्षा मात्र अपने सम्प्रदाय को नष्ट होने से बचाने का दुराग्रह प्रचलित हो रहा है। ये ही वे तत्त्व हैं जो जातीय संघर्ष को प्रेरित करते हैं। यदि आज संघर्ष के माध्यम से साम्प्रदायिकता तथा संकीर्ण जातीयता के विरुद्ध आवाज उठाई जाए तो सम्भव है कि हम पुनः शान्ति-प्रिय, व्यवस्थित एवं सुसंगठित समाज की नींव को मजबूत कर सकें। संघर्ष वह प्रक्रिया है जिसे तरह-तरह के शोषणों के विरुद्ध समय-समय पर स्वीकार किया गया है। राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध आवाज उठाने वाले वीर-से-वीर योद्धा भी संघर्ष की ज्वाला में जलकर भस्म हो जाते हैं। ‘संघर्ष’ वह तेज शस्त्र है जिससे रुढ़ियों, अत्याचारों तथा अव्यवस्थाओं का बिहड़ जंगल स्वयंमेव नष्ट हो जाता है। किन्तु जातीय संघर्ष तभी सार्थक है जब वह राष्ट्र के हित के लिए किया जाए।
यदि भिन्न-भिन्न मतों एवं वैचारिकताओं को मानने वाले जन-समुदाय केवल अपनी सुख-सुविधाओं एवं भौगोलिक सीमाओं की वृद्धि के लिए संघर्ष करते हैं तब राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि मानने वाली जातियों को इस संघर्ष को समाप्त करने के लिए व्यापक फलक पर एक अन्य संघर्ष का सूत्रपात करना अनिवार्य हो जाता है।
विश्वासघात के चतुर्दिक वातावरण में आज मनुष्य मित्रता, सद्भावना जैसे उच्च मानवीय आदर्शों को विस्मृत करके संत्रास, विक्षोम, तनाव तथा एकाकीपन की भयावह परिस्थितियों को जन्म दे रहा है। संतोष, त्याग, संयम की शक्ति की उपेक्षा करके नाना विधियों के माध्यम से शान्ति की तलाश में भटक रहा है। ‘‘आज का सारा विश्व इसी शुद्ध ज्ञान के अभाव में विज्ञान का सहारा लेकर आत्मघाती आविष्कारों के द्वारा अपने लिए शंका, संदेह और मरण का मंदिर तैयार कर रहा है। हमें सुख की तलाश है और सुख के लिए प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की होड़ में हमने जिन रहस्यों का उद्घाटन कर लिया है उससे न तो हमारे जीवन में वस्तुतः सुख का कोई फूल खिला, न आनन्द का कोई नर्तन हुआ। हम जिस सुख की प्राप्ति में इतना बड़ा हंगामा खड़ा करते रहे, तूफान सिरजते रहे, अन्त में वे हमारे सुख के साधान नहीं, बाधक ही प्रमाणित हुए।’’3 आत्मघातक हथियारों, अस्त्रों-शस्त्रों के आविष्कार ने निश्चय ही मनुष्य के हृदय में भौगोलिक सीमाओं के विस्तार की आकांक्षा को बढ़ावा दिया है। यद्यपि इन शक्तियों का प्रयोग मनुष्य के हित में भी होता है, किन्तु आततायी राष्ट्र एवं जातियाँ दूसरे राष्ट्र के मूल्यों को नष्ट करने और वहाँ की सत्ता को हथियाने के लिए इनका प्रयोग करती हैं। स्पष्ट है कि स्वार्थी जाति के मान-मर्दन के लिए तथा अपने जातीय गौरव की रक्षा के लिए सुसंस्कृत राष्ट्रों को आज भी जातीय संघर्ष का आश्रय लेना पड़ता है। यदि वे नर-संहार के भय से संघर्ष से मुख मोड़ लेंगे तो सम्भव है कि एक दिन सम्पूर्ण विश्व पर किसी एक ऐसी जाति का निष्कंटक राज्य स्थापित हो जाए जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, स्वार्थ, हिंसा जैसी कुप्रवृत्तियों के विकास में ही जीवन की सार्थकता समझे। उस समाज की व्यवस्था कैसी होगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
आज के युग का मानव आध्यात्मिक मूल्यों से निरन्तर विलग होता जा रहा है। ज्ञान के क्षेत्र में उन्नति का अभिप्राय यह नहीं कि जीवन-मूल्यों को एक कोने में बन्द करके अलग रख दिया जाए। विज्ञान भी अध्यात्म के अभाव में पंगु होता है। मस्तिष्क की एकाग्रता और चित्त की शान्ति स्वस्थ समाज की प्रथम आवश्यकताएँ हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक है कि विघटनशील समाज से घृणा, द्वेष, ईष्र्या, वैमनस्य आदि दुर्भावनाओं को निष्कासित किया जाए तथा इन अमानवीय मूल्यों का निष्कासन तभी सम्भव है जब इनके विरुद्ध संघर्ष एवं विद्रोह का सूत्रपात किया जाए। संघर्ष के द्वारा ही विशृंखलित राष्ट्र को, टूटे हुए परिवेश को तथा बिखरे हुए मूल्यों को एकता के सूत्र में आबद्ध किया जा सकता है। समाज की बर्बरता और पशुता पर आघात किए बिना व्यवस्थाएँ उत्पन्न नहीं होतीं। इस प्रकार कह सकते हैं कि संघर्ष की सार्थकता सदैव समीचीन है। चाहे भूत हो, वर्तमान हो या भविष्य हो, प्रत्येक युग में कुछ राष्ट्र एवं समाज विरोधी शक्तियाँ तो विद्यमान रहती ही हैं। ‘‘पहले युग धर्मजीवी था तो विभिन्न प्रकार के धार्मिक संगठन जन-सामान्य को गुमराह किए हुए थे, आज का युग बुद्धिवादी राजनीतिक दांव-पेचों का युग है तो तरह-तरह के राजनीतिक संगठन हमें दिग्भ्रमित कर रहे हैं। सही दिशा की खोज दोनों जगह समान है। तरह-तरह की संकीर्णताओं से घिरे चन्द लोग, जिनमें निज की क्षमता इतनी भी नहीं है कि अपने किसी भी सामाजिक दायित्व का निर्वाह कर सकें-समाज के अगुवा होने का दंभ पहले भी और आज भी पाले हुए हैं।’’4 जातीय संघर्ष इन्हीं व्यक्तियों, समुदायों एवं सम्प्रदायों के विरुद्ध एक खुली चुनौती है। मनुष्य के द्वारा मनुष्य पर अमानुषिक अत्याचार जातीय संघर्ष को जन्म देता है। वस्तुतः संघर्ष ही समाज की गलित मान्यताओं एवं परम्पराओं का सही निदान है। यह संघर्ष दो स्तरों पर होता है – प्रथम, मनुष्य की मानसिकता को कलम की शक्ति से संघर्ष के लिए तैयार करना तथा द्वितीय, शस्त्र लेकर रणक्षेत्र में उतर जाना। दोनों स्तर जब मिलकर कार्यरूप में परिणत होते हैं, तब एक नवीन, चेतन, शक्तिसम्पन्न राष्ट्र की नींव मजबूत हो जाती है।
वर्तमान परिस्थितियों में तथाकथित प्रगतिवादिता से आगे बढ़कर सत्य का अनुसरण करने तथा दिगभ्रमित राष्ट्र को जन-कल्याण के मार्ग की ओर प्रशस्त करने की दिशा में संघर्ष की उपयोगिता स्वयं सिद्ध है। कुछ विद्वानों ने जातीय संघर्ष को संकीर्णता की जंजीरों में बाँधकर साम्प्रदायिकता के कटघरे में ला खड़ा किया है, किन्तु उनका यह एकांगी दृष्टिकोण राष्ट्र एवं समाज के हित में नहीं है। जाति से हमारा अभिप्राय कदापि सामाजिक विशृंखलता उत्पन्न करने वाली निष्कृष्ट व्यवस्था से नहीं है। यह तो एक ऐसी राष्ट्रीय भावना है जो भिन्न-भिन्न मतों एवं स्वभावों वाले मनुष्य समाज में एकता का बीज वपन करके राष्ट्रीय हित के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करती है। राष्ट्रीय संस्कृति, सभ्यता, भाषा, साहित्य एवं धर्म की रक्षा करना ही जातीय संघर्ष का मूल उद्देश्य है। अतः यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं होता कि जातीय संघर्ष किसी भी युग में एवं किसी भी दृष्टि से हेय अथवा निरर्थक नहीं है।
संघर्ष की इसी युग-सापेक्ष दृष्टि को ध्यान में रखते हुए हिन्दी साहित्य में आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक के विभिन्न प्रतिभाशाली लेखकों एवं कवियों ने अपनी साहित्यिक रचनाओं में जीवन के इसी महत्त्वपूर्ण पहलू को अपनी ओजस्वी वाणी प्रदान की है। यह सत्य है कि आदिकाल में राष्ट्रीयता की भावना अपेक्षाकृत संकुचित थी। उस युग का मनुष्य मात्र अपने प्रदेश की सुरक्षा के लिए कटिबद्ध था। राष्ट्र के व्यापक स्वरूप की प्रायः अवहेलना ही की जाती थी। इतना होने पर भी यह स्वीकार करना होगा कि जातीय अस्मिता बोध उस युग में भी विद्यमान था। अपनी संस्कृति एवं धर्म की रक्षा के प्रति प्रत्येक मनुष्य जागरूक सगुण था। जैसे-जैसे सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ होती गई, राजनैतिक परिभाषाएँ बदलती गई, वैसे-वैसे जाति के स्वरूप में भी व्यापकता आती गई। भक्ति काल के और निर्गुण भक्त कवियों ने तो जाति को राष्ट्र की सीमा से भी बाहर निकालकर सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को एक जाति- ‘मानव जाति’ में समाहित कर दिया। कबीर ने हिन्दू मुस्लिम के भेदभाव को मिटाकर, ऊँच-नीच के वैमनस्य को समाप्त करके खण्डित हो रही मानवता की रक्षा की। उनकी वाणी से प्रभावित होकर जन-समाज में अधार्मिक एवं असामाजिक तत्वों के विरुद्ध संघर्ष की चेतना जागृत हुई। वैसे भी सामाजिक एवं धार्मिक चेतना को राष्ट्र से विलग करके नहीं देखा जा सकता क्योंकि राष्ट्र की पहचान सामाजिक धार्मिक मूल्यों से ही होती है। अतः जब संघर्ष इन मूल्यों की स्थापना के लिए किया जाता है तब उसका क्षेत्र सम्पूर्ण राष्ट्र के फलक से जुड़ जाता है। कबीर ने विशृंखलित समाज और विघटित राष्ट्रीय मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देकर भारतीय राष्ट्रीय जाति के गौरव को अक्षुण्ण बनाए रखने का सफल प्रयास किया।
हिन्दी साहित्य का रीतिकाल जो सामान्यतः शृंगारिक रचनाओं का काल माना जाता है, वीर भावना से शून्य न था। जहाँ एक ओर मतिराम, चिन्तामणि, सोमनाथ, केशव, देव, बिहारी, सेनापति आदि कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की रुचि के अनुरूप लक्षण ग्रन्थों का निर्माण करते समय शृंगार रस की सामग्री बहुतायत में प्रस्तुत की, वहीं भूषण, पद्माकर, सूदन, ग्वाल, खुमान, लाल कवि तथा गुरु गोविन्द सिंह ने युद्ध भूमि का सजीव चित्रण करते हुए अनेक ऐतिहासिक एवं पौराणिक महापुरुषों की युद्ध वीरता को अपनी काव्य-कृतियों का विषय बनाया। भूषण ने अपने आश्रयदाता छत्रपति शिवाजी के युद्ध कौशल और उनकी सेना के पराक्रम का प्रभावशाली वर्णन ‘शिवाबावनी’ तथा ‘छत्रसालदशक’ के अन्तर्गत किया है; लाल कवि ने ‘छत्रप्रकाश’ के अन्तर्गत महाराजा छत्रसाल की युद्ध वीरता का चित्रण किया है। सूदन ने ‘सुजान चरित’ में इतिहास सम्मत घटनाओं को दृष्टि में रखते हुए। अपने आश्रयदाता सुजानसिंह की वीरता का वर्णन किया है तथा पद्माकर ने ‘हिम्मतबहादुर विरुदावली’ के अन्तर्गत महाराजा हिम्मतबहादुर की युद्ध वीरता का शौर्यमयी गुणगान किया है। इन सभी रचनाओं में आश्रयदाताओं की कीर्ति गाथाओं का अतिरंजित वर्णन होते हुए भी देश भक्ति की भावना अपने वैभवशाली रूप में सामने आई है। ऐतिहासिक घटनाओं पर आधृत होने के कारण हिन्दी रीतिकालीन वीर काव्य जनता को आततायी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान करने में भी प्रभावशाली सिद्ध हुआ है।
रीतिकाल के समाप्त होते-होते देश में ब्रिटिश शासन स्थिर होने लगा। हिन्दू-मुसलमानों का पारस्परिक द्वेष अपेक्षाकृत कम हो गया किन्तु अब भारतीय जनता को ब्रिटिश लॉर्डो का सामना करना पड़ा। मध्यकाल में मुगल शासकों ने अपने धर्म को सम्पन्न करने के लिए भारतीय समृद्धि को तहस नहस किया था। दोनों ही युगों में आघात भारतीय राष्ट्रीय मूल्यों पर ही हुआ। अतः अपने राष्ट्र की अस्मिता की सुरक्षा के लिए समय-समय पर अनेक कुशल योद्धाओं ने सशस्त्र संघर्ष का सूत्रपात किया। मध्यकाल में राष्ट्रीयता की जो चिनगारी सुलगने लगी थी तथा जातीय संघर्ष का जो बीज प्रस्फटित हो गया था, वह आधुनिक काल तक आते-आते अपने पूर्ण रूप में विकसित हो गया। अंग्रेजों के शोषणों के विरुद्ध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम इसका ज्वलंत उदाहरण है। वस्तुतः राष्ट्रीय एकता एवं उसकी सुरक्षा का दायित्व मात्र राजनेताओं के कंधों पर ही नहीं होता, राष्ट्रीय कवियों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि कलम में वह शक्ति विद्यमान है जो बड़े से बड़े सूरमाओं को भी मिट्टी में मिला सकती है तथा निम्न से निम्न कही जाने वाली जातियों के मनुष्यों की शिराओं में शक्ति का अजम्न स्रोत प्रवाहित करके उन्हें राष्ट्र के उच्च सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर सकती है। साहित्य जातीय एवं राष्ट्रीय अस्मिता बोध को सुरक्षित रखने एवं उसको संबर्द्धित करने में सहायक सिद्ध होता है।
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्राकुमारी चैहान आदि अनेक कवियों ने देश के नौजवानों में स्वदेशाभिमान जागृत किया और प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए संघर्ष का संदेश प्रेषित किया। मध्यकाल के आक्रोश ने आधुनिक काल के विद्रोह से मिलकर क्रांति का रूप धारण कर लिया। ‘वन्देमातरम्’ का जयघोष सम्पूर्ण राष्ट्र में सुनाई देने लगा। अन्ततः अंग्रेजों को संघर्ष से विचलित होकर अपने देश वापिस लौटना पड़ा।
संघर्ष किसी एक युग विशेष की माँग नहीं है। जब भी अत्याचारी शासकों का साम्राज्य बढ़ने लगता है, राष्ट्रीय मूल्यों का हनन होने लगता है, जातीय संस्कृति विदेशियों की जंजीरों में बँध जाती है तथा काम, क्रोध, मोह, लोभ जैसी कुप्रवृत्तियाँ सामाजिक व्यवस्था को विशृंखलित करने लगती हैं तब राष्ट्रीय हित में संलग्न जातियों को आगे बढ़कर इस कुशासन को समाप्त करना पड़ता है। इस समय मानव जाति की सुरक्षा के लिए ‘संघर्ष’ के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग शेष नहीं रहता। संघर्ष केवल विनाश का अथवा नरसंहार का ही सूचक नहीं है, वह तो जीवन के सतत् परिवर्तनशील चक्र से सौन्दर्य को बाहर निकाल लाने वाला महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसी के माध्यम से जन समाज प्रगति करता हुआ अपने आदर्श को प्राप्त कर सकता है, अज्ञान की खाई से निकलकर ज्ञान का दीपक प्रज्वलित कर सकता है तथा मार्ग की बीहड़ समस्याओं से जूझकर मानव जाति का गौरव स्थापित कर सकता है। संघर्ष से मुख मोड़कर मानव कल्याण के स्वप्न देखना पूर्णतः निरर्थक है।
संदर्भ –
- सिख धर्म और दर्शन की रूपरेखा, डाॅ. जोधसिंह, पृ. 33.
- कबीर साहित्य की प्रासंगिकता, सं. विवेकदास, पृ. 36
- वही, पृ. 28-29
- वही, पृ. 129