शोध सार:
आपदा अनपेक्षित घटित होने वाली विध्वंसक घटना है। इसका प्रभाव मानवीय, भौतिक, सामाजिक और वाणिज्यिक सभी पर पड़ता है। वर्तमान समय में हम सभी वैश्विक महामारी कोविड-19 से जूझ रहे हैं।हम सभी साक्षी हैं कि वैश्विक संकट के समय न केवल मानवीय बल्कि सामाजिक व्यवहार पर भी इसका दूरगामी प्रभाव पड़ा है। लॉकडाउन की स्थिति आने से अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।एक ओर हम यह समाचार सुनते हैं कि कोरोना के भयावह दु:स्वप्न मात्र से किसी ने आत्महत्या कर ली तो कोई असहनीय तनाव से जूझ रहा है। सामाजिक स्तर पर जितने आचार-व्यवहार थे, वे सभी प्रतिबंधित हो गये। लघु उद्योग धंधे बंद हो गये। बेरोजगारी की समस्या आने पर विवश श्रमिकों का पलायन आरम्भ हो गया।ये सभी आपदा के स्वरूप और दुष्प्रभाव के बहुआयामी पक्ष हैं।
प्रस्तुत शोध लेख में आपदा के इन्हीं पक्षों को उभारा गया है। आपदा के स्वरूपों- प्राकृतिक आपदा,मानव निर्मित आपदा और व्यक्तिगत त्रासदी (जिसमें तनाव झेलता हुआ मनुष्य आत्महंता हो उठता है)का विश्लेषण किया गया है।
हिन्दी साहित्य या भारतीय भाषा साहित्य की बात की जाए तो आपदा के स्वरूप और प्रभाव के अनेक भयावह और मार्मिक प्रसंग मिलते हैं। जयशंकर प्रसाद की कामायनी का आरंभ ही खंड प्रलय के दृश्य से होता है,जहां मनु पर्वत के ऊंचे शिखर पर बैठकर प्रलय की विभीषिका भीगे नयनों से देख रहा है।रांगेय राघव का रिपोर्ताज ‘तूफान के विजेता’ जहां एक ओर तूफान की विभीषिका दर्शाता है, वहां संकट के दौर में सुरक्षित मानवता के दर्शन भी करवाता है। इसी प्रकार इंडिया के प्रसिद्ध कवि जगन्नाथ प्रसाद दास की कविता ‘कालाहांडी’ अकाल की विभीषिका के बहुआयामी पक्षों को मार्मिक ढंग से रखती है।मोहन राकेश के शब्दों में यदि कहा जाए “चौराहे पर खड़ा हुआ नंगा आदमी,जिसे चारों दिशाएं लील जाना चाहती हैं।”
यदि हिन्दी सिनेमा की बात की जाए तो आपदा के विभिन्न रूपों और प्रभावों का मर्मस्पर्शी विश्लेषण किया गया है।मदर इंडिया, गाइड़, प्यासा, कागज़ के फूल,उजाला ,गमन, मासूम,लगान ,तुम मिले,तारे जमीं पर,ओह माई गॉड,वायरस आदि। यह सूची बहुत लंबी है, जिनमें आपदा की विभीषिका का चित्रण मिलता है।ये सभी फिल्में जहां एक ओर अनपेक्षित परिस्थितियों का यथार्थ अंकन करती हैं, वहीं दूसरी ओर हमें सजग करती हैं कि विपरीत परिस्थितियों से केवल मनुष्य की अपराजित जिजीविषा ही जीत सकती है।इन सभी फिल्मों के कथानक और गीतों में आपदा का वर्णन मिलता है।गुरूदत्त की फिल्म ‘प्यासा’, जिसके गीत साहिर लुधियानवी ने लिखे हैं ,से एक उदाहरण द्रष्टव्य है:
हर एक जिस्म घायल,हर एक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन ,दिलों में उदासी
ये दुनिया है आलम-ए- बदहवासी।
शोध आलेख के बीज शब्द (Key Words of Research Paper):
प्राकृतिक आपदा, मानव निर्मित आपदा, वैयक्तिक आपदा,न,खंड प्रलय, वैश्विक महामारी,कोरोना वायरस, तनाव,अवसाद,दबाव, अकेलापन, त्रासदी,, क्षणभंगुर जीवन, भौतिकतावादी समाज, आत्महंता परिस्थिति,आणविक युद्ध,भयावह परिस्थिति।
Early Warning System (EWS), Effectiveness, Efficiency, Equity, International Day For Disaster Reduction, Personal Disaster, Emotional Disaster, Human Engineered Virus.
आपदा का अर्थ एवं परिभाषा
आपदा अचानक घटित होने वाली विध्वंसक घटना को कहा जाता है, जिससे व्यापक भौतिक क्षति जान -माल का नुकसान होता है ।यह वह प्रतिकूल स्थिति है जो मानवीय ,भौतिक ,पर्यावरणीय , सामाजिक, वाणिज्यिक क्रियाकलापों को व्यापक तौर पर प्रभावित करती है । आपदा एक प्राकृतिक या मानव निर्मित संकट का ऐसा प्रभाव है जो समाज या पर्यावरण को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। ज्योतिष शास्त्र की अवधारणा है कि जब ग्रह नक्षत्र विपरीत स्थिति में होते हैं तब बुरी घटनाओं के वाहक बनते हैं ।ग्रहों की विपरीत स्थिति जलवायु परिवर्तन करती है और अनेक प्राकृतिक आपदाओं को जन्म देती है ।आधुनिक संदर्भों में प्राकृतिक एवं मानव निर्मित आपदा का सबसे अधिक प्रभाव विकासशील देशों पर पड़ता है ।आपदा के कारण 95% मौत विकासशील देशों में होती हैं।
प्राकृतिक आपदा: प्राकृतिक आपदा प्रकृति या पर्यावरण संबंधी विपरीत प्रभाव लिए हुए होती है यह एक आकस्मिक घटना है जिसका पूर्वानुमान लगाना अत्यंत कठिन है प्राकृतिक आपदा बाढ़ सूखा अकाल तूफान टोरनैडो बादल फटना अत्यधिक बर्फ पड़ना अथवा बर्फ का अनावश्यक पिघलना, बहुत गर्म अथवा शीत लहर का चलना, ज्वालामुखी, लैंडस्लाइड, वन की आग, नदियों या समुद्र में आया हुआ तूफान विस्फोट के रूप में परिलक्षित होता है । नीलगाय या टिड्डी दल का आक्रमण जो कि फसलों को नष्ट कर देता है”, भी प्राकृतिक आपदा के अंतर्गत आता है ।
जयशंकर प्रसाद ने “कामायनी में खंड प्रलय का चित्र खींचते हुए लिखा है-
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से,
देख रहा था प्रलय प्रवाह।
मानव निर्मित आपदा: मानव निर्मित आपदा मनुष्य की लापरवाही भूल या व्यवस्था की असफलता से उत्पन्न होती है मानव निर्मित आपदा के कुछ रूप हैं औद्योगिक रासायनिक त्रासदी एंटीबायोटिक प्रतिरोध परमाणु युद्ध सामग्री अपराधिक क्रिया भगदड़ युद्ध के रूप में देखी जा सकती है वर्तमान में संपूर्ण विश्व में फैलाकोरोनावायरस जिसके स्वरूप सारा विश्व महामारी की चपेट में है , मानव निर्मित आपदा के अंतर्गत आता है प्रकृति के विरुद्ध जाकर प्रकृति के नियमों से छेड़छाड़ करना भी मानव निर्मित (Human Engineer Virus) आपदा है महामारी प्राकृतिक आपदा भी हो सकती है और मानव निर्मित भी। डेंगू , प्लेग, मलेरिया आदि महामारी प्राकृतिक आपदा के अंतर्गत आती है
मानव निर्मित आपदा को जयशंकर प्रसाद ने ‘’कामायनी” में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है:
प्रकृति रही दुर्जेय , पराजित,
हम सब थे भूले मद में।
भोले थे हां तिरते सब
विलासिता के नद में।
वैयक्तिक त्रासदी
मानवीय त्रासदी एक अन्य रूप व्यक्तिगत रूप में भी परिलक्षित होता है। यदि कोई व्यक्ति बहुत तनाव का अनुभव कर रहा है और किसी भी परिस्थिति में उसे खुशी अनुभव नहीं हो रही है और वह किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रहा है तो वह व्यक्ति वैयक्तिक त्रासदी को दर्शाता है। ऐसा व्यक्ति आम सामान्य धारा से स्वयं को कटा हुआ एवं उपेक्षित अनुभव करता है। व्यक्तिगत त्रासदी की यह स्थिति सामान्यतः प्राकृतिक अथवा मानव निर्मित आपदा से गुजरने के पश्चात अभिव्यक्त होती है। प्रतिदिन के व्यक्तिगत अथवा कार्यालय तनाव से गुजरने की स्थिति में यह मन: स्थिति स्पष्ट परिलक्षित होती है। 14 जून 2020 को प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता सुशांत राजपूत ने पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली व्यवसायिक जीवन के तनाव ,अवसाद, दबाव और अकेलेपन की त्रासदी उनके अंतिम संदेश से अभिव्यक्त होती है।
आंसुओं से भीगा अतीत का जीवन,
मुस्कुराहट के एक अर्क को उधेड़ते सपने …।।
जीवन एक क्षणभंगुर है,
सपने…। दोनों के बीच
बातचीत है
मां
यह वह तनाव की पीड़ा है जो भौतिकतावादी समाज का व्यक्ति एकाकी झेल रहा है और आत्महंता परिस्थितियों में जीने के लिए विवश है तथा मरने के लिए लालायित है । व्यक्तिगत त्रासदी को चित्रित करते हुए जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है:
विस्मृति आ अवसाद घेर ले,
नीरवते बस चुप कर दे।
चेतनता चल जा, जड़ता से,
आज शून्य मेरा भर दे।
प्राकृतिक आपदा का पूर्व आकलन कर पाना बेहद कठिन कार्य है परंतु यदि थोड़ी सजगता बरती जाए तो प्राकृतिक आपदा का पूर्वानुमान कुछ हद तक किया जा सकता है।
आपदा के पूर्व अनुमान की परंपरागत अवधारणाएं:
- यदि चीटियां अपने अंडों को लेकर ऊपर की तरफ चलने लगे ।
- कीड़े राजमार्ग (हाईवे) पर एकत्रित हो जाएं।
- नदियों में भिन्न प्रकार की गंध परिलक्षित हो।
- किसी व्यक्ति की ओर देखकर नहीं बल्कि अकारण ही दिन में कुत्ते भोंकने लगे।
- बंधे हुए जानवर रस्सी छुड़ाकर भागने लगे।
- पक्षी व्याकुल होकर छटपटाते हुए आकाश में उड़ने लगे।
यह सभी प्राकृतिक आपदा के संकेत हो सकते हैं क्योंकि यह तो सर्वविदित ही है कि पशु पक्षियों की ग्रहण क्षमता {सेंस }मनुष्य से ज्यादा होती है।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्राकृतिक आपदा को जानने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर Early Warning System (EWS) के लिए कुछ अनिवार्य बातें हैं:
- Effectiveness
- Efficiency
- Equity
आपदा से पड़ने वाले प्रभाव: आपदा चाहे प्राकृतिक हो या मानव निर्मित सर्वाधिक प्रभाव बूढ़े बच्चे बीमार एवं महिलाओं पर पड़ता है क्योंकि यह तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाते।आपदा के समय बच कर निकल पाना इनके लिए संभव नहीं होता । कारण बहुत सारे हो सकते हैं ,जैसे घरेलू महिलाओं के पास त्वरित सूचनाओं का अभाव होना ,स्वयं को बचाने के स्थान पर परिवार को बचाने की असफल कोशिश करना ,साड़ी में भाग ना पाना, तैरना ना जानना आदि। इसलिए जब आपदा से होने वाली क्षति का आकलन किया जाता है ,तब इसी वर्ग की मृत्यु दर सर्वाधिक होती है।
प्रति वर्ष 13 अक्तूबर को ‘अन्तर्ाष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण दिवस(International Day For Disaster Reduction) मनाया जाता है।इस दिन आपदा के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से विश्व समुदाय के द्वारा किए गए उपायों का आकलन किया जाता है।
आपदा प्रबंधन अधिनियम सन् 2005 में बनाया गया।इस अधिनियम के अन्तर्गत आपदा से तात्पर्य किसी क्षेत्र में हुए उस विध्वंस , अनिष्ट, विपत्ति या बहुत गंभीर घटना से है,जो प्राकृतिक या मानव -जनित कारणों से या दुर्घटनावश अथवा लापरवाही से घटित होती है और जिसमें बहुत अधिक मात्रा में मानव जीवन की हानि होती है।
हिंदी कविता में विभिन्न प्रकार की आपदाओं और उनकी क्रांति के प्रभाव को मार्मिक ढंग से उकेरा गया है। सुशील कुमार शर्मा ने प्राकृतिक आपदा के तीन यथार्थ चित्र खींचे हैं:
सूखा:
सूखता जिस्म
धरती की दरारें
हत चेतन
झुलसी दूब
पानी को निहारते
सूखे नयन
ठूंठसे वृक्ष
झरते हैं परिंदे
गिद्ध की आंखें
जमीन पर बिछीं
वीभत्स लाशें
बाढ़
एक सैलाब
बहाकर ले गया
सारे सपने।
अपनी नदी
डूबते –उतर।ते
सारे कचरे।
मन की बाढ़
शरीर में भूकंप
कौन बचाए।
भूकंप
भूचाल आया
सब डगमगया
ध्वस्त धरती
कुछ सेकंड
मानव विकास का
टूटा घमंड
घमंड तनी
उत्तुंग इमारतें
धूल में मिली
जिंदा दफन
कितने बेगुनाह
सिर्फ कराह।
वैयक्तिक त्रासदी को गुलजार के शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है:
जख्म कहां कहां से मिले हैं
छोड़ इन बातों को…।।
जिंदगी
तू तो बता
सफर
और कितना बाकी है…
वैयक्तिक त्रासदी से ग्रस्त मनुष्य संवेदन शून्य जडवत हो जाता है। गुलजार के ही शब्दों में:
सहम सी गई है
ख्वाहिशें…।
शायद जरूरतों ने
ऊंची आवाज में बात की होगी।
“अकाल और उसके बाद”’ कविता में नागार्जुन लिखते हैं:
“कई दिनों तक चूल्हा रोया ,चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुत्तिया,सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
इसी प्रकार रघुवीर सहाय अपनी कविता अकाल में लिखते हैं:
मारते वही, जलाते वही ,दिलाते वही,
वही दुर्भिक्ष, वही अनुदान,
विधायक वही, वही जनसभा,
सचिव वही ,वही पुलिस कप्तान।
सिनेमा एक कला है और अन्य कलाओं से की तरह यह भी समय और समाज की बुनियादी तथा तत्कालीन चिंताओं, जिज्ञासाओं को अपनी सृजनशीलता का अनिवार्य अंश बनाता रहा है। मृणाल सेन की एक प्रसिद्ध फिल्म है “अकालेर संधाने“ इस फिल्म का संदर्भ बिंदु वर्ष 1943 के बंगाल का अकाल है। यह अकाल बंगाल की स्मृति का ऐसा हिस्सा है ,जो एक दु:स्वप्न की तरह उनका पीछा करता रहता है। मृणाल सेन स्वयं इस अकाल के साक्षी रहे हैं। भूख से रोती – कलपती आत्मा के विलाप को उन्होंने अपनी आंखों से देखा था .उन दिनों की याद करते हुए वे कहते हैं कि मुझे याद नहीं पड़ता कि कोई ऐसा दिन रहा होगा जब मुझे 7 या उससे अधिक लाशों के ऊपर से ना गुजरना पड़ा हो लाशें वहां सिर्फ पड़ी रहती थी लोग बस भूख से बेहाल होकर वहां लुढ़क कर मर जाते थे ।
अपनी पुस्तक “गरीबी और अकाल” अमर्त्य सेन लिखते हैं सन 1943 में के बंगाल के अकाल से संबंधित आयोग का कहना था कि लगभग 15 लाख लोग इस काल में अपनी जान से हाथ धो बैठे इस अनुमान के लिए उत्तरदायी आयोग के सदस्य डब्ल्यू. आर.एकारॉयड ने हाल में माना है यह आंकड़े वास्तविक अनुमान से कुछ कम ही है क्योंकि इसमें कहीं भी सड़क किनारे राह चलते जो लोग मर गए हैं ,उनकी गिनती नहीं हुई है।
यह सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि इतनी बड़ी मृतकों की संख्या किसी आणविक युद्ध की नहीं है यह लोग किसी परमाणु बम या टैंक से हताहत नहीं हुए हैं बल्कि अपनी आंत में अन्न के एक-एक दाने के लिए तड़पते हुए मौत के कौर बन गए थे ।
हिंदी सिनेमा के गीतों में अभिव्यक्त आपदा का स्वरूप:
मदर इंडिया (1957) फिल्म में प्राकृतिक आपदा तूफान के रूप में परिलक्षित है ।फिल्म में दिखाया गया है कि एक तूफान गांव को अपनी चपेट में ले लेता है और सारी फसल नष्ट हो जाती है। तूफान की मार झेलता हुआ सारा गांव पलायन करने के लिए विवश है अपनी जमीन से बिछड़ने की पीड़ा और पलायन की विवशता एक साथ उभरती है फिल्म का यह गीत जो शकील बदायूनी ने लिखा है और मन्ना डे ने गाया है “चुनरिया कटती जाए रे “ संपूर्ण गांव की पीड़ा को साकार कर देता है:
धरती पर कितने बारा-मासे
बीत गए रे आके रामा
दुनिया के लिए है लीला तेरी
हमारे भाग में फांके रामा
चुनरिया कटती जाए रे
उमरिया घटती जाए रे
यह पीड़ा तब और घनीभूत हो जाती है जब प्राकृतिक आपदा की मार झेलते किसान को साहूकार के ब्याज का अजगरी गुंजलक जकड़ लेता है। साहूकार का आपदा के समय अनाज और आवश्यक वस्तुओं का अनावश्यक संग्रहण भूख से मरते ग्रामीणों की स्थिति और दयनीय बना देता है।
दिन –रात बहाएं पसीना हम
कुछ हाथ ना आए हमारे
हमारी सारी मेहनत माया
ठगवा ठग ले जाए
चुंदरिया कटती जाए रे
उमरिया घटती जाए रे
सन 1965 में “”गाइड फिल्म आई जिसके गीत शैलेंद्र ने लिखे“। यह फिल्म प्राकृतिक आपदा की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है ।फिल्म में अकाल की भयावह स्थिति को दर्शाया गया है ।अकाल के कारण पूरा गांव भुखमरी का शिकार है ।मनुष्य और जानवर सभी अकाल से प्रभावित हैं ।फिल्म के प्रारंभ में ही एक संवाद के द्वारा स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि “‘जंगल बड़ा खतरनाक होता जा रहा है जानवर अंदर चले आते हैं ‘“-यह एक ऐसा गांव है जहां वर्षों से वर्षा नहीं हुई ,खेतों में दरारें पड़ने लगी है। गांव में अकाल के कारण ना केवल भुखमरी है बल्कि रोग और अंधविश्वासों की भी भयावह स्थिति है। भूख से त्रस्त ग्रामीण फटी आंखों से आकाश की ओर ताक रहे हैं। गीतकार शैलेंद्र का लिखा यह गीत ,जिसके संगीतकार और गायक सचिन देव बर्मन थे, अकाल और उसके प्रभाव की भयावह स्थिति को दर्शाता है:
अल्लाह मेघ दे ,पानी दे, छाया दे, रे रामा मेघ दे ,श्यामा मेघ दे।
आंखें फाड़े दुनिया देखे ,हाय ये तमाशा
है ये विश्वास तेरा, है तेरी आशा।
अकाल के प्रभाव के इतने डरावने चित्र हैं की सरकार सत्ता और स्वयं की जिजीविषा- से भी, सभी व्यवस्था से गांव वालों का विश्वास उठ चुका है। फटीआंखों से आकाश ताकते हुए एकमात्र ईश्वरीय सत्ता की आशा बची है ।आशा का वह क्षीण तार है,जो लगातार छीजता जा रहा है।
1959 में एक फिल्म आई उजाला जिसके गीतकार शैलेंद्र थे ,संगीतकार शंकर जयकिशन का यह गीत जो मन्ना डे ने गाया था ‘“सूरज जरा पास आ आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम” के बोल में प्राकृतिक आपदा और उससे उत्पन्न त्रासदी का उल्लेख किया गया है:
चूल्हा है ठंडा बड़ा और पेट में आग है,
गरमा –गरम रोटी कितना हसीन ख्वाब है।
भुखमरी की समस्या और उसके निदान का स्वप्न हर गरीब की आंख में पलता है। भुखमरी और महामारी की पीड़ा झेलती आंखों में विश्वास की सूक्ष्म किरण भी सम्मिलित है। शैलेंद्र द्वारा 1950 में रचित गीत तू जिंदा है जिंदगी की जीत पर यकीन कर “” मैं वे लिखते हैं :
ज़मीं के पेट में पली अगन,पले हैं ज़लज़ले
टिके न टिक सकेंगे,भूख रोग के स्वराज ये
मुसीबतों के सर कुचल , बढ़ेंगे एक साथ हम।
सन 2001 में “लगान फिल्म आई जो प्राकृतिक त्रासदी अकाल एवं राज तंत्र की क्रूरता को प्रभावशाली ढंग से प्रदर्शित करती है। भारत की ग्रामीण जनता एक और अकाल सूखा महामारी की पीड़ा झेल रही है तो दूसरी ओर अंग्रेजों ने अपनी तिजोरियां भरने के लिए उन पर मनमाने टैक्स लगा दिए हैं ।प्राकृतिक आपदा और सत्ता से त्रस्त आम जनजीवन को केवल ईश्वर की कृपा का एकमात्र आधार है:
ओ पालन हारे निर्गुण और न्यारे
तुम्हरे बिना हमरा कौनो नाहीं
हमरी उलझन सुलझाओ भगवन
तुम्हरे बिना हमरा कौनो नाहीं
जावेद अख्तर द्वारा लिखित यह गीत ग्रामीण समाज की पीड़ा को साकार कर देता है । पर इस भयावह परिस्थिति से संघर्ष करके विजय का स्वप्न भी जावेद अख्तर दिखाते हैं। सुन मितवा गाने के बोल हैं:
भले कितने लंबे हो रास्ते,
थके ना तेरा यह तन, हो
इस धरती का है राजा तू यह बात मान
कठिनाई से टकरा जा तू नहीं हार मान
सन 2009 में एक फिल्म आई तुम मिले”” जो कि आपदा ड्रामा फिल्म डिजास्टर ड्रामा फिल्म है सन 2005 में आई मुंबई की बाढ़ पर यह फिल्म आधारित है इस फिल्म के गीतकार हैं राकेश कुमार और सईद कादरी इस फिल्म का यह गीत व्यक्तिगत त्रासदी की पीड़ा को दर्शाता है:
ख्वाबों बिना निगाहे मेरी जी रही थी
कोई नहीं था यह अकेली मेरी थी जिंदगी
खामोश था होठों पर बात नहीं थी।
ओ माय गॉड फिल्म 2013 में आई यह फिल्म प्राकृतिक आपदा से हुई क्षति की व्याख्या करती है साथ ही यह पोल भी खोलती चलती है की बीमा कंपनियों और सरकारी योजनाओं की सहायता निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग तक नहीं पहुंच पाती फिल्म का यह गीत मेरे निशा है कहा”” इसी वर्ग की तकलीफ को दर्शाता है :
राहों में तेरी हां रहा मैं
हमसफर की तरह
उलझा है फिर भी
तू जालों में
ढूंढे सवालों
को दबावों में
खोया हुआ है
तू कहां तू कहां
हिंदी सिनेमा के गीतों में वैयक्तिक त्रासदी (Personal Disaster) और भावनात्मक त्रासदी (Emotional Disaster) को भी प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। बाहरी दुनिया की खोखली चमक-दमक के बीच का अकेलापन तनाव दबाव और अवसाद को सिनेमा के गीतों में बखूबी उभारा गया है।
सन 1957 में गुरु दत्त की फिल्म आई “प्यासा” जिसके गीत साहिर लुधियानवी ने लिखे थे। व्यक्ति के भावनात्मक अवसाद को उभरते हुए साहिर लुधियानवी लिखते हैं:
खुशियों की मंजिल ढूंढी तो गम की गर्द मिली
चाहत के नगमे चाहे तो आहें सर्द मिलीं
दिल के बोझ को दूनाकर गया जो गमखार मिला
यह व्यक्तिगत त्रासदी तब और घनी भूत हो जाती है जब वे इसी गीत में आगे लिखते हैं:
हर एक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
ये दुनिया है या आलम ए बदहवासी
आत्महंता परिस्थितियों में व्यक्ति समाज से छिटक कर इतनी दूर हो गया है कि वह ऐसा अनुभव करने लगता है कि समाज उसके वजूद को ही निगल जाएगा।मोहन राकेश के शब्दों में कहें तो “चौराहे पर खड़ा नंगा आदमी जिसे चारों दिशाएं लील जाना चाहती हैं “ यह दुनिया से कटे उस अकेले आदमी की पीड़ा है:
जला दो इसे फूंक डालो ये दुनिया
जला दो जला दो जला दो
जला दो इसे फूंक डालो ये दुनिया
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया
समाज की कुप्रथाओं, सत्तासीन धनाढ्य वर्ग की वासनाओं का शिकार विवश कोमल पुष्प किस तरह धूल में मिलने को मजबूर हो जाता है । उसकी समस्त कोमल आशाएं, स्वप्न, अभिलाषएं धूसरितहो चुके हैं। प्यासा फिल्म का यह गीत “जिन्हें नाज़ है हिंद पर” में साहिर लुधियानवी ने लिखा है:
ये सदियों से बे ख्वाब सहमी सी गलियां
ये मसली हुई अधखिली जर्द कलियां
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां है।
गुरुदत्त की एक अन्य फिल्म “काग़ज़ के फूल” 1959 मेंआई जिस के गीतकार कैफ़ी आज़मी है व्यक्तिगत तनाव ,उलझन और अकेलेपन को उन्होंने बहुत ही पीड़ा के साथ उभारा है:
जाएंगे कहां सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं दिल ख्वाब नंबर दम ब दम।
इसी फिल्म के एक अन्य गीत “”उल्टे सीधे दांव लगाए में गीतकार कैफी आज़मी व्यक्ति की विडंबना और विसंगति को उभारते हुए कहते हैं:
किसे ढूंढ रहा है
किसे ढूंढ रहा
है यार मेरे
वह रोज़ का था मेला
मोहन राकेश भी लिखते हैं कि “मनुष्य जीवन भर एक तलाश करता है पर उसे किसकी तलाश है, यही उसे पता नहीं है।” एकाकीपन और अवसाद में डूबा व्यक्ति जीवन को भार की तरह देखता है। 1983 में एक फिल्म आई “मासूम” जिसके गीत गुलजार ने लिखे हैं इस फिल्म के गीत “तुझसे नाराज नहीं जिंदगी” के बोल हैं :
जीने के लिए सोचा ही नहीं
दर्द संभालने होंगे
मुस्कुराए तो मुस्कुराने के
कर्ज उतारने होंगे
हो मुस्कुराऊं कभी तो लगता है,
जैसे होठों पर कर्ज़ रखा है।
अपने एकाकीपन से जूझते, समाज से कटा हुआ व्यक्ति दिल में तूफान और चेहरे पर खोखली हंसी लिए घूम रहा है। यह पूर्णत: आत्महंता स्थिति है, जिसमें व्यक्ति का स्वत्व कहीं खो गया है। 1978 में एक फिल्म आई “”गमन, जिस के गीत शहरयार ने लिखे हैं । सुरेश वाडकर द्वारा गाया यह गीत व्यक्ति की उसी पीड़ा की अभिव्यक्ति करता है:
सीने में जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यों है
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है
तनहाई की यह कौन सी मंजिल है रफीकों तन्हाई
जा-हद-ए-नजर नजर एक बयाबान सा क्यों है ।
यह एकाकीपन तनाव वयस्क व्यक्ति का ही नहीं है। यह तनाव बालमन में भी दिखाई पड़ता है। 2007 में एक फिल्म आई “तारे ज़मीं पर” जो डिस्लेक्सिया से पीड़ित बच्चे की त्रासदी को दर्शाती है । परिवार और स्कूल की भीड़ में बच्चे का व्यक्तित्व कहीं खो – सा गया है। इसका प्रभाव उसकी मानसिकता और पढ़ाई पर पड़ता है:
भीड़ में यूं ना छोड़ो मुझे
घर लौट के भी आ ना पाऊं मां
भेज ना इतना दूर मुझको तू
याद भी तुझको आ ना पाऊं मां
क्या इतना बुरा हूं मैं मां, मेरी मां।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आपदा मुख्य रूप से तीन रूप में हमारे समक्ष आती है :
- प्राकृतिक
- मानव निर्मित
- वैयक्तिक त्रासदी
हिंदी फिल्मों के गीतों में आपदा के सभी रूपों को मानवीय संवेदनाओं के साथ उभारा गया है इन गीतों में मुख्य रूप से यह बात उभरकर सामने आती है कि जो समाज का सबसे असहाय वर्ग है वही आपदा की त्रासदी को सर्वाधिक झेलता है । साथ ही आपदा के समय पर ही मानवीय संवेदनाएं सामाजिक एकता एवं सहभागिता के दर्शन भी होते हैं क्योंकि भयावह परिस्थिति की कोई जाति धर्म या वर्ग नहीं होता । इन गीतों में यह तथ्य भी स्पष्ट परिलक्षित होता है कि स्त्री आपदा की त्रासदी को सर्वाधिक झेलती है और उस आपदा से लड़ने में वह सर्वाधिक जिजीविषा भी दिखाती है और अंत में जगन्नाथ प्रसाद दास द्वारा लिखित उड़िया भाषा की प्रसिद्ध कविता है- “कालाहांडी”। कालाहांडी उड़ीसा राज्य का एक जिला है जो 100 से अधिक वर्षों से भयंकर अकाल और भुखमरी झेल रहा है:
मानचित्र को दूर रख दो।
अब वहां जाने के लिए
नहीं है जरूरत हैलीकॉप्टर की
जहां भी अकाल है
वहीं है कालाहांडी
इंद्र ने मुंह फेर लिया वहां से
नहीं रहे पेडों में पत्ते
सारा गांव शमशान बन गया
जमीन फटी नद की रेत भी सूखी
हो गई असफल योजनाएं
दरिद्रता की खिसकती चली गई सीमा रेखा
कालाहांडी है जहां भी देखो
पंजर की हड्डियों में
धंसी आंखों के कोटरों में
देह ढांपने के असमर्थ चीथडों में
बन्धक पड़े कांसे के बर्तनों में
फूस की झोंपड़ियों में उधडे छप्परों में
मिट्टी के दोनों हांडियों के सर्वस्व में,
कालाहांडी है हर जगह
मुफ्त बंटते खाने की जगह कंकालों के मेलों में
जहां बच्चे नीलाम होते हैं उन हाट –बाजारों में
वेश्यालय में बिकी किशोरी की उसांसों में
गांव की माटी छोड़ कर जा रहे लोगों की
गुमशुम खामोशियों में
और भी करीब से देखो कालाहांडी को
झूठे वक्तव्यों , खोखली घोषणाओं में
अविश्वसनीय भाषणों के घड़ियाली आंसुओं में
कम्प्यूटरी कागज़ की अंतरिम घोषणाओं में
सम्मेलन के प्रकरणों,सस्ती सहानुभूतियों में
और योजनाओं के अर्थहीन अंधे वायदों में
कालाहांडी हमारे एकदम क़रीब है–
आत्मा की सामयिक ताडना में
विवेक के अकस्मात् दंश में
अन्त:करण के पश्चाताप में
तृप्त नींद के दु:स्वप्न में
असहायता ,भूख और बीमारी में
खून–खराबे की आसन्न संभावनाओं में
इक्कीसवीं सदी की समृद्ध सुरक्षा तक
हम कैसे पहुंच सकते हैं
कालाहांडी को पीछे छोड़
संदर्भ ग्रंथ सूची –
1.भारतीय सिनेमा का अन्त:करण-विनोद दास
2. समकालीन हिन्दी सिनेमा-डॉ. सी. भास्कर राव
3.भारतीय सिनेमा- एक अनंत यात्रा-प्रसून सिन्हा
4. चयनम्- संपादक -अरूण प्रकाश
5. हिन्दी फ़िल्में- चन्द्र भूषण ‘अंकुर’
6. हिन्दी सिनेमा का समाजशास्त्र- जवरीमल्ल पारिख
फिल्में-मदर इंडिया,गाइड, प्यासा,कागज के फूल,उजाला,गमन,मासूम,लगान,तुम मिले,तारे जमीं पर,ओह माई गॉड!
डॉ. सीमा शर्मा
सहायक प्रोफेसर
जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय