हिन्दी साहित्य में भक्ति काल विशेष रूपेण भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन एवं सम्मिश्रण का युग रहा है। विदेशी आक्रांताओं ने भारतीय दुर्बल राजव्यवस्था का लाभ उठाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उनकी सीमाएँ पश्चिमोत्तर सहित सुदूर पूर्व बंगाल, बिहार से लेकर दक्षिण भारत तक जा पहुँची। ये विदेशी आक्रांता शनै: शनै: भारतीय जीवन शैली में रच बस गए। उनका खान-पान, वेशभूषा, शिल्प-कला शैली द्वारा नवीन सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना हुई। सामाजिक परिदृश्य में धर्म का परिवर्तन, भाषा शैली आदि का प्रचलन भी सामान्य बात हो गई। राज्य में इस्लाम का प्रचार-प्रसार बढ़ा। ग्रामीण बोलियों से भिन्न अरबी-फारसी प्रशासन की भाषा बनी। हिन्दी में भी अरबी-फारसी के शब्दों का प्रचलन बढ़ा। इस प्रकार के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में हिन्दी भक्तिकालीन साहित्य की ज्ञानाश्रयी संत परंपरा का आविर्भाव हुआ। जिनमें रैदास, कबीरदास, गुरुनानक देव, दादूदयाल, लालदास, मलूकदास आदि संत प्रमुख रूप से दृष्टिगोचर हैं।
गुरुनानक देव हिन्दी भक्तिकालीन ज्ञानाश्रयी शाखा में संत मत के प्रमुख स्तंभ थे। गुरुनानक देव जी सिक्ख धर्म के प्रवर्तक एवं प्रथम गुरु हैं। इनके पिता का नाम श्री कालूराम तथा माता का नाम श्रीमती तृप्ता था। गुरु नानक देव जी का जन्म पंजाब के ननकाना साहब (तलवंडी ग्राम) में 1469 ई. को एक खत्री परिवार में हुआ। गुरु नानक देव जी जीवन पर्यंत अपने लोक कल्याण व ईश्वरोपासना के व्रत पर अडिग रहे। गुरु नानक देव जी के पिता श्री कालूराम खत्री पटवारी का कार्य करते थे।गुरुनानक देव जी का मन सांसारिक बंधनों, भौतिक सुख-सुविधाओं में नहीं लगता था। मोह-माया की सीमा से दूर वे वैराग्य में अपना जीवन व्यतीत करना चाहते थे। परंतु “सांसारिक कार्यों से विरक्त देखकर इनके पिता ने इनका विवाह सत्रह वर्ष की अवस्था में गुरुदास पुर के मूलचंद्र खत्री की कन्या सुलक्षणी से कर दिया। इनके दो पुत्रों-श्रीचंद और लक्ष्मीचंद-में से बड़े ने उदासी संप्रदाय का प्रवर्त्तन किया।”[1] गुरुनानक देव जी के संदेशों को शनै: शनै: इसी संप्रदाय से प्रचार-प्रसार मिला व कालांतर में गुरु गोविंद सिंह जी ने सिक्ख धर्म को संत मत के साथ क्षात्र धर्म से संबद्ध कर खालसा पंथ की नींव रखी।
गुरु नानक देव जी ने अपने बहुमुखी प्रतिभा के आलोक में अनेक रचनाएँ निर्मित की। जिनमें जपुजी, असा दी वार, रहिरास तथा सोहिला, नसीहतनामा आदि उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। गुरुनानक देव जी के पदों का संकलन गुरु ग्रंथ साहब के नाम से संकलित है। गुरु नानक देव जी ने समाज में मानवीय मूल्यों की स्थापना, लोक कल्याण, शांति-बंधुत्व, मैत्री भावना तथा धार्मिक जागरण हेतु काव्य को माध्यम बनाया तथा आम-जनमानस तक अपना संदेश पहुँचाया। गुरु “नानक देव की काव्य भाषा के तीन रूप हैं : हिन्दी, फारसी बहुल पंजाबी और पंजाबी। ‘नसीहतनामा’ की भाषा में खड़ी बोली का रूप व्यक्त है।”[2] गुरुनानक देव जी के साहित्य में अतिशय पंजाबी भाषा का प्रयोग अधिक है परंतु उन्होंने ब्रज, अरबी-फारसी सहित प्रचलित बोलियों की शब्दावलियों व उनकी शैलियों का प्रयोग भी बहुलता से किया है। निर्विवाद रूप से इसी कारण गुरुनानक देव हिन्दी साहित्य परिप्रेक्ष्य में प्रमुख धार्मिक प्रवर्त्तनकारी व समाज सुधारक संत कवि के रूप से अग्रणी हैं। उनकी सामान्य जनमानस में अद्यतन प्रासंगिकता इसका जीवंत उदाहरण है। “नानक वाणी में अलंकारों का सहज प्रयोग हुआ है। उपमा, रूपक, प्रतीक और अनुप्रास कवि के प्रिय अलंकार हैं। छंदों का प्रयोग उन्होंने नहीं किया, उनके पद राग-रागिनियों में रचित हैं। शांत रस की निर्बाध धारा उनके काव्य में प्रवाहित हुई है। ऐतिहासिक वर्णनों में करूण रस एवं शृंगार के पद भी विरचित हैं।”[3] ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आलोक में अनेक किंवदंतियाँ गुरुनानक देव पर आधृत सामान्य जनमानस में अद्यतन विद्यमान हैं। जिनमें गुरु नानक देव जी की मक्का यात्रा तथा पिता से व्यवसाय हेतु प्राप्त धन का गरीब संतों में बाँट देना प्रमुख रूप से श्रव्यमान है।
स्पष्ट शब्दों में गुरुनानक देव मनुष्य वेश में एक महान आत्मा के अवतार थे। जिन्होंने सरल स्वभाव व निर्मल हृदय पाया था। मानवीय करूणा, दु:ख, संवेदनाएं उन्हें ईश्वरोपासना में बंधन जान पड़ते थे। फलतः उन्होंने गृहस्थी छोड़ आजीवन धर्म प्रचार में जीवन व्यतीत किया। गुरुनानक देव जी ने समाज में फ़ैली बुराइयों व सामाजिक-सांस्कृतिक विद्वेष को मिटाने के लिए सदैव तत्पर रहे। उन्होंने जीव हत्या, हिंसा, मूर्ति-पूजा, धन संचय की अतिशयता आदि का विरोध किया। उन्होंने अपने संदेशों के माध्यम से समाज को आत्म चिंतन, गुरु की महिमा, ओहमकार जप, क्षण भंगुरता, सात्विक्ता तथा ईश्वरीय अनुकंपा हेतु प्रार्थना आदि का मार्ग प्रशस्त किया।
गुरु नानक देव जी ने तत्कालीन परिवेश में हिन्दू-मुसलमान की मिश्रित सांस्कृतिक व्यवस्था निहित समाज को समान रूप से अपना वचन सुनाया। “पंजाब में मुसलमान बहुत दिनों से बसे थे जिससे वहाँ उनके कट्टर एकेश्वरवाद का संस्कार धीरे-धीरे प्रबल हो रहा था। लोग बहुत से देवी-देवताओं की उपासना की अपेक्षा एक ईश्वर की उपासना को महत्व और सभ्यता का चिह्न समझने लगे थे। शास्त्रों के पठन-पाठन का क्रम मुसलमानों के प्रभाव से प्रायः उठ गया था जिससे धर्म और उपासना के गूढ़ तत्व को समझने की शक्ति नहीं रह गई थी। अतः जहाँ बहुत से लोग जबरदस्ती मुसलमान बनाएँ जाते थे वहाँ कुछ लोग शौक से भी मुसलमान बनते थे। ऐसी दशा में कबीर द्वारा प्रवर्तित ‘निर्गुण संतमत’ एक बड़ा भारी सहारा समझ पड़ा।”[4] गुरु नानक देव जी इसी निर्गुण संत परंपरा की ज्ञानाश्रयी शाखा से संबद्ध थे। इसी परंपरा में सिक्ख धर्म के वे आदि गुरु हो पंजाब से सुदूर क्षेत्रों तक कबीर के निर्गुणोपासक व अपने मत-संदेश को लेकर प्रसारूढ़ हुए। कबीर के समान ही उनकी शिक्षा अधिक नहीं हो पाई थी। परंतु उनकी भक्ति भावना एवं काव्य कला में इस कारण किसी प्रकार का अवरोध द्रष्टव्य नहीं है। “भक्ति भाव से पूर्ण होकर वे जो भजन गाया करते थे उनका संग्रह (संवत 1661) गुरु ग्रंथ साहब में किया गया है। ये भजन कुछ तो पंजाबी भाषा में हैं और कुछ देश की सामान्य काव्य भाषा हिन्दी में हैं। यह हिन्दी कहीं तो देश की काव्यभाषा या ब्रजभाषा है। कहीं खड़ी बोली जिसमें इधर-उधर पंजाबी के कुछ रूप भी आ गए हैं, जैसे-चल्या, रहया।”[5] गुरु नानक देव जी के वाचनानुसार भागवत एवं संत मंतव्यानुसार पद्यांशों का उदाहरणार्थ अवलोकन इस प्रकार से निम्नलिखित है-
“ओंकार सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सेभं गुर प्रसादि।”[6]
गुरु नानक देव जी द्वारा प्रस्तुत मूल मंत्र में ईश्वर के स्वरूप की आत्मिक भक्ति भाव से व्याख्या की गई है जिसमें आशय है कि वह एक शब्द ओहमकार सत्य नाम है। वही सृष्टि का चालक निर्भय, निर्वैर, अनादि, पुरातन, शाश्वत है। वह मृत्यु से मुक्त, स्वयंभू, सर्वशक्तिमान है। वह प्राप्य है परंतु वह गुरु की कृपा उसके ज्ञानाशीर्वाद से ही प्राप्त किया जा सकता है।
इसी प्रकार एक अन्य पद्यांश में गुरु नानक देव जी का भक्तिभाव दर्शनीय है। जिसमें हिन्दी निहित पंजाबी, फारसी का प्रभाव दर्शनीय है-
“सुखि बड़ा आखे सब कोई।
केवड़ा बड़ा डीठ होइ॥
कीमती पाई न कहिआ जाई।
कहणे वाले तेरे रहे समाई॥
आखण वाला किया विचारा।
सिफती भरे तेरे भंडारा॥
जिसे तू देहि टीसे कि आचारा।
नानकु सचु संवारण हारा॥”[7]
एक अन्य पद्यांश में गुरुनानक देव जी हिन्दी निहित ब्रज प्रभावित शुद्ध रूप का प्रयोग करते हैं। ईश्वर के शुद्ध निवास स्थान की चर्चा करते हुए मानव को सात्विकता का संदेश देते दृष्टिगोचर हैं-
“नहीं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह-अभिमाना।
हरष सोक तें रहै नियारौ, नाहिं मान-अपमाना॥
आसा मनसा सकल त्यागि कै जग तें रहै निरासा॥
काम, क्रोध जेहि परसे नाहिं न, तेहिं घाट ब्रह्म निवासा॥
गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्हीं, तिन्ह यह जुगुति पिछानी।
नानक लीन भयो गोबिंद सो, ज्यों पानी संग पानी॥”[8]
अस्तु, सारगत गुरु नानक देव जी सरल स्वभाव, करूण दयाभाव हृदय के मर्मस्पर्शी संत कवि थे। जिनका काल परिवेश सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन तथा नवीन संस्कार के सम्मिश्रण का था। उन पर कबीर व निर्गुण पंथ का विशेष प्रभाव था। उन्होंने जीव हत्या, मूर्ति पूजा, हिंसा, मानवीय दुर्बलता, भोग-विलास आदि का विरोध किया। उन्होंने आत्मशक्ति का निरीक्षण व ईश्वरीय सत्ता का निर्गुण ओहमकार रूप में उपासना पर ज़ोर दिया। उनकी निकटता इस्लाम पंथ से भी थी। उन्होंने बिना भेदभाव के समान रूप से अपना धर्म संदेश समाज में वितरित किया। उन्होंने अपना संदेश पंजाबी एवं हिन्दी की बोलियों आदि में सामान्य जनभाषा तक काव्य रूप में पहुँचाया।
[1] गुप्त, डॉ. गणपतिचन्द्र, हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, पृष्ठ-162, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली।
[2] डॉ. नगेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-123, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
[3] वही, पृष्ठ-123
[4] शुक्ल, आचार्य रामचंद्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-68, कमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
[5] वही, पृष्ठ-68
[6] मिश्र, डॉ. जयराम, श्री गुरु ग्रंथ दर्शन, पृष्ठ-61, साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद।
[7] गुप्त, डॉ. गणपतिचन्द्र, हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, पृष्ठ-162, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली।
[8] शुक्ल, आचार्य रामचंद्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-69, कमल प्रकाशन, नई दिल्ली।