स्वामी विवेकानंद भारतीय आध्यात्मिक और धार्मिक मनीषा के सिरमौर व्यक्तित्व थे। 40 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने देश और विश्व को अपने अवदान से इतना अनुप्राणित और समृद्ध कर दिया कि देश की युवा पीढ़ियाँ उनके दिखाए मार्ग पर चल कर अपना तो भाग्य संवार ही सकती हैं, वह पूरे विश्व में भारत का परचम लहरा कर उपभोक्तावाद और निरे भौतिकतावाद के भंवर में फंसे आज के संतप्त और अभिशप्त मानव को एक सार्थक दिशा प्रदान कर सकती हैं।
भारत के गौरवशाली वेदांत दर्शन के माध्यम से स्वामी विवेकानंद ने तत्कालीन अंधे युग की परिस्थितियों को चिह्नित कर मानवीय सहिष्णुता, विश्व बंधुता और अहिंसा का संदेश दिया था। आज से लगभग 125 वर्ष पहले उन्होंने युवाओं का आवाह्न करते हुए कठोपनिषद् के एक मंत्र को अपना जीवन दर्शन माना था जो आज भी सभी के लिए विशेष रूप से युवाओं के लिए उतना ही सार्थक एवं प्रासंगिक है जितना उस समय था बल्कि आज उससे भी कहीं अधिक सार्थक है। वह अमर संदेश था- ‘उत्तिष्ठित जागृत प्राप्य वरानिबोधतः’ अर्थात् उठो, जागो तथा तब तक मत रुकों जब तक कि अपने लक्ष्य तक न पहुंच जाओ। इसी आवाह्न को उन्होंने अंग्रेजी भाषा के प्रेरक शब्दों में कहा था- ‘Awake, arise and stop not till the goal is reached.’
स्वामी विवेकानंद ने मात्र 30 वर्ष की आयु में अमेरिका स्थित शिकागो में 11 सितम्बर, 1893 में आयोजित विश्व धर्मसभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदांत दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर देश मे स्वामी विवेकानंद की वाकृत्त्तृता के कारण ही पहुंचा। उनका शिकागो में विश्व धर्मसभा में दिया गया भाषण एक ऐसा अमर भाषण है जिस तरह का समानान्तर भाषण शायद ही कहीं उपलब्ध हो। आज का युग एक चेतनशील युग है, सभी प्रकार का ज्ञान पुस्तकों और अन्तर्जाल पर उपलब्ध है। हो सकता है आज बहुत से मनीषी अच्छे अच्छे भाषण दे तो शायद इतना आश्चर्य न हो किन्तु 18वीं-19वीं शती के उस अंधकार काल में स्वामी विवेकानंद ने जो भाषण दिया, वह स्वयं में एक मिसाल है। उन्होंने अपनी धीर एवं गंभीर वाणी में अपने भाषण का आरम्भ ही किया था, ‘अमेरिका के भाईयों और बहिनों’ से (जिसका उस सभागार में जोरदार तथा बड़ी देर तक करतल ध्वनि से स्वागत हुआ था)। इस संबोधन के पीछे भी वेदांत का वह गौरवशाली सिद्धांत ही था जिसे हम बड़े गर्व से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के नाम से अभिहित करते हैं। विवेकानंद जी के उस सम्पूर्ण भाषण को सुन कर ऐसा नहीं लगता कि वह भाषण 1893 में दिया गया बल्कि ऐसा लगता है कि मानो वे आज हमारे सम्मुख बोल रहे हैं क्योंकि उस भाषण में जिन बातों का उल्लेख है उन पर आज भी हम उतनी तत्परता से आत्ममंथन करते हैं।
उनके भाषण की कई ऐसी उल्लेखनीय बाते हैं जिनको मैं यहाँ रेखांकित करना चाहती हूँ। पिछले 2-3 वर्ष से कुछ लोग भारत में सहिष्णुता पर कई तरह के प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं किंतु उनको यहाँ स्मरण दिलाने की आवश्यकता है कि सहिष्णुता हमारे रोम रोम में समाई है अगर ऐसा न होता तो भारत में सभी धर्मों को फलने फूलने का अवसर नहीं मिलता। इतिहास साक्षी है कि हमारे मुस्लिम भाई कभी हिंदू हुआ करते थे, भारत में इसाई भी कभी हिंदू ही थे। कह सकते हैं कि भारत जैसी सहिष्णुता, धार्मिक सहिष्णुता किसी और देश में शायद ही देखने को मिलेगी। भारत में समाज क्या, भारत के संविधान में भी सर्वधर्म सद्भाव का प्रतिपादन किया गया है। 1893 में भी स्वामी विवेकानंद उस धर्म संसद में भारत की उसी सहिष्णुता का उल्लेख कर एक सार्वभौमिक तथ्य की ओर इंगित कर रहे थे जब उन्होंने कहा, ‘‘हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहष्णिुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि हम सभी धर्माें को सच के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूँ जिसमें सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहाँ शरण दी हैं।”
स्वामी विवेकानंद ने इसी भाषण में भारत के पवित्र महाग्रंथ गीता का भी उल्लेख करते हुए श्री कृष्ण के उस उपदेश का भी उल्लेेेेख किया था जिसमें श्री कृष्ण कहते हैं ‘‘जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो मैं उस तक पहुंचता हूँ लोग अलग अलग रास्ते चुनते हैं, परेशानियां झेलते हैं, आखिर में मुझ तक पहुंचते हैं।”
आज भी विश्व मानवता सांप्रदायिकता, कट्टरता और धार्मिक हठधर्मिता के अभिशाप से पीड़ित हैं। अपने भाषण में विवेकानंद ने इन बुराइयों की तरफ उस धर्म संसद का ध्यान दिलाते हुए कहा था कि यदि हम इन बुराइयों को दूर कर लें जिससे कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है, न जाने कितनी सभ्यताएं मिट गईं, कितने देश मिट गए, हम इस पृथ्वी को एक बेहतर स्थान बना सकते हैं। स्वामी विवेकानंद का यह अमर संदेश आज की संतप्त मानवता के लिए हम सब को आत्ममंथन करने के लिए बाध्य कर रहा है। आज भी धर्मांधता विश्व में युद्ध और खूनखराबे का मुख्य कारण बनी हुई है। कुछ दिन पहले ही इस बात की पुष्टि हुई कि इराक में हमारे 39 भारतीयों का आई.एस.आई.एस ने 2014 में ही वध कर दिया था जिसे सुन कर पूरे देश में शोक, क्रोध दौड गई । आज इन्ही नराधम तत्वों ने अफगानिस्तान में धमाके कर कई जाने लील ली और कईयों को जख्मी कर दिया है । इन तत्वों ने पृथ्वी को कई बार लहू से रंगा है और अभी भी बाज नहीं आ रहे हैं । स्वामी विवेकानंद ने अपने उस भाषण में उस समय की ऐसी ही स्थितियों का जिक्र किया था और बताया था कि अब उनका अन्त आ चुका है परन्तु विनाश की शक्तिशाली बलायें धरती से विदा होेने का नाम ही नहीं लेती। आज भी हम स्वामी विवेकानंद के दिखाये मार्ग को अपना कर हम विश्व को एक बेहतर स्थान बना सकते हैं।
स्वामी विवेकानंद के उपदेश वैसे तो समूचे विश्व के लोगों के लिए लाभप्रद हैं परंतु भारत का इस संबंध में दायित्व कुछ अधिक ही बनता है। वैसे भारत अपने गौरवशाली अतीत को भूल समूचे विश्व की भांति भौतिकतावाद के गर्त में समा चुका है जिससे वह सही और गलत में अंतर करना भी भूल गया है; मानव मूल्यों के कारण हमारी युवा पीढ़ी क्रोध, मद, मोह और हिंसा के जाल में फंसती जा रही है।
यह एक विचारणीय पहलू है कि जब विश्व के क्षितिज पर भारत के स्वर्णकाल का अभ्युदय होता दिखाई दे रहा है, और उसे शिखर तक पहुंचाने का दायित्व आज के युवा भारत पर है परंतु क्या हमारी युवा पीढ़ी पश्चिम की अपसंस्कृति का परित्याग करेगी और स्वामी विवेकानंद जी की दिखाई गई सही राह पर सक्रिय होगी ?
स्वामी विवेकानंद जीवनपर्यंत समाज और देश की भलाई के लिए सक्रिय रहे। उन्हें आभास हो गया था कि चालीस वर्ष होने से पहले ही वह अपनी देह का परित्याग कर देंगे। युवा होने के नाते उन्होंने हमेशा देश के युवाओं का आह्वान करते हुए उन्हें अपना जीवन सुधारने का उपदेश दिया। वह एक ऐसे समाज का निर्माण चाहते थे जिसमें धर्म और जाति के आधार पर मानव मानव में कोई भेद न हो। इसके लिए उनका मानना था कि मानव सेवा ही परमात्मा की सेवा है। चूंकि वह स्वयं भी एक महान देशभक्त, विचारक, लेखक और मानव प्रेमी थे, इस संबंध में देश के उत्थान के संबंध में उन्हें युवाओं से बड़ी आशाएं थी। इसलिए उन्होंने उन्हें प्रेरणा देने के लिए ऐसी कई बाते कहीं जिन्हें आज भी जीवन में उतार कर देश की उन्नति में योगदान दिया जा सकता है।
आज पूरे विश्व में और उसी प्रकार भारत में भी युवा हिंसा एवं सेक्स की अंधी आंधी में तिरोहित होते जा रहे हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि जैसे जिसके विचार होंगे, वैसा ही उसका चरित्र एवं जीवन बनेगा। जहाँ तक भारत का संबंध है, वर्तमान में यहाँ 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 वर्ष से कम आयु के युवाओं की है, कह सकते हैं कि भारत की वर्तमान आधी जनसंख्या 25 से कम आयु की है जिस आयु में उन्हें समुचित शिक्षा सुविधाएं मिलनी चाहिए। आज के युवा की आशाएं और आकांक्षाएं तो बहुत है वह स्वप्न भी बहुत ऊँचे देखते हैं परंतु हमारी शिक्षा पद्धति अधिक उत्साहवर्धक नहीं है। जीवन से संस्कार और मानव मूल्य नदारद हो रहे हैं। मानव का चरित्र उसके विचारों के अनुसार निर्मित होता है; स्वामी विवेकानंद ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था; युवाओं को अपनी आन्तरिक शक्ति को जागृत करना होगा, उन्हें अपने भाग्य का निर्माण स्वयं अपने परिश्रम और पुरुषार्थ से करना होगा। क्या हमारा आज का युवा भांति-भांति की भटकनों त्याग कर उनके दिखाए मार्ग पर चल कर संतप्त मानवता का परित्राण करेगा ?