“जो समर्थ हैं और जो अँगरेज़ीदाँ बनकर, अनेक बातों में, अँगरेज़ी की नक़ल करना ही अपना परम धम्र्म समझते हैं, उनको कृपा करके किसी तरह जगा दीजिए। उन्हें अपने साहित्य की उन्नति से होनेवाले लाभ बता दीजिए और उनको इस बात की प्रेरणा दीजिए कि वे अँगरेज़ी तथा अन्य भाषाओं के आदरणीय ग्रन्थों का अनुवाद करके अपनी भाषा के साहित्य की वृद्धि करें।”
कानपुर में संपन्न तेरहवेें हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भाषण देते हुए आचार्य द्विवेदी ने समर्थ रचनाकारों से उपर्युक्त भावुक एवं उलाहना भरी अपील की। इस अपील में हिन्दी समाज को पूरी दुनिया के ज्ञान.विज्ञान से जोड़ने की उनकी जिजीविषा के दर्शन होते हैं।
वस्तुतः अनुवाद करना सबके बूते की बात नहीं है। कम से कम दो भाषाओं का जानकार ही एक भाषा में कही गई बात को दूसरी भाषा में रूपान्तरित कर सकता है।
द्विवेदी युग की परिस्थितियों पर नज़र डालें तो ज्ञात होता है कि उस समय भारत में शिक्षित जनता का प्रतिशत बहुत कम था। उस पर अंग्रेज़ी तथा अन्य विदेशी भाषाएँ जाननेवाले तो बहुत ही कम थे। ऐसे में अनुवादक के रूप में योग्य व्यक्तियों को ढूँढ़ निकालना कठिन काम था।
साहित्यिक रूप से हिन्दी चार भाषाओं, क्रमशः अंग्रेज़ी, संस्कृत, बाङ्ला और मराठी से अपेक्षाकृत अधिक नज़दीक थी। इसलिए अनुवाद हेतु इन्हीं चार भाषाओं से मुख्यतः कृतियों का चयन किया जाता था। इन चारों भाषाओं में से अंग्रेज़ी जाननेवालों के साथ एक विशेष किस्म की समस्या थी। भारत में उस समय अंग्रेज़ी प्रभुवर्ग की भाषा थी। अतः अधिकांश काले.अंग्रेज़ स्वयं को उसी प्रभुवर्ग का समझने लगते थे। ग़रीब.गुरबों के लिए उनके मन में कोई जगह नहीं होती थी। अंग्रेज़ी जानने का मतलब सरकारी नौकरी पर कब्जा जमाना था या फिर, शान के फेर में पड़ा रहना।
अंग्रेज़ी शिक्षितों का अल्पांश ही राष्ट्रीय विकास के प्रति जागरुक था। कितु, उनमें भी एक दोष था। यह छोटा सा वर्ग अंग्रेज़ी में ही अपनी बात कहकर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री समझ लेता था। भारतीय भाषाएँ जाने.अनजाने उनके द्वारा उपेक्षित हो जाती थीं।
दूसरी तरफ, भारतीय जनता का अधिकांश एकल भाषाभाषी था। कोई केवल हिन्दी जानता था, कोई केवल बाङ्ला, कोई केवल मराठी; और अंग्रेज़ी तो ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ थी। ऐसे में आधुनिक चिंतन.प्रणाली का प्रसार असंभव था।
द्विवेदी जी जानते थे कि उनके स्वप्न केवल उनके उद्यम से पूरे नहीं हो पाएँगे। ज्ञान.राशि अनन्त है। एक अकेला व्यक्ति सम्पूर्ण ज्ञान.राशि को पढ़ भी नहीं सकता, अनूदित करना तो दूर की बात है। अतः द्विवेदी जी ने अपने लिए एक अनुवादक.मण्डल तैयार करना शुरू किया।
आचार्य द्विवेदी ने अंग्रेजी के प्रथम निबन्ध लेखक माने जानेवाले बेकन के 36 निबन्धों को अनूदित किया। 1901 ई. में यह निबन्ध.संग्रह बेकन.विचार.रत्नावली शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व ही गंगाप्रसाद अग्निहोत्री विष्णु कृष्ण चिपलूणकर के कई मराठी निबन्धों को अनूदित कर निबंधमालादर्श नाम से प्रकाशित करा चुके थे। इन दोनों निबन्ध संग्रहों ने हिन्दी में निबन्ध.विधा के विकास में महती भूमिका निभाई।
द्विवेदी जी ने बेकन के कुछ निबंधों का अनुवाद इसलिए नहीं किया था, क्योंकि वे निबन्ध भारत की सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थे। द्विवेदी जी ने उन निबंधों को अनुपयोगी मानकर छोड़ दिया था। किंतु, अग्निहोत्री जी ने चिपलूणकर के जिन निबंधों को अनूदित नहीं किया था, वे आचार्य को अत्यंत उपयोगी लगे।
‘सरस्वती’ के संपादक का पदभार संभालते ही, जनवरी, 1903 ई. की ‘सरस्वती’ में द्विवेदी जी ने चिपलूणकर जी की संक्षिप्त जीवनी ‘विष्णु शास्त्री चिपलूनकर’ नाम से लिखी। इस जीवनी में चिपलूणकर जी के अन्य निबंधों की उपयोगिता बताते हुए द्विवेदी जी ने अपने समकालीनों को उलाहना दिया – “विष्णु शास्त्री के कई निबन्धों का अनुवाद पण्डित गंगाप्रसाद अग्निहोत्री ने हिन्दी में किया है। क्या ही अच्छा हो यदि कोई शास्त्रीजी की समग्र ‘निबन्धमाला’ का अनुवाद हिन्दी में करके उनके प्रचण्ड पाण्डित्य से परिपूर्ण निबन्ध हिन्दी जानने वालों के लिए भी सुलभ कर दे। परन्तु, करे कोई कैसे? हमारे प्रान्त के निवासियों को तो अपनी मातृ.भाषा का आदर अपमान.जनक सा जान पड़ता है। देश का दुर्भाग्य! और क्या?”
द्विवेदी जी के इस प्रकार के उलाहनों का एक और गुण था। कभी तो वे सामान्य हिन्दी जनता को उलाहना देते थे, कभी एक विशेष वर्ग को और कभी.कभी तो वे कुछ ख़ास विद्वानों को लक्ष्य कर भी उलाहना देते थे। मदनमोहन मालवीय और निहाल सिंह इस प्रकार की उलाहना पानेवालों में सर्वप्रमुख थे। द्विवेदी जी से परेशान होकर इन दोनों महानुभावों ने ‘सरस्वती’ के लिए हिन्दी में लेख लिखे।
द्विवेदी जी श्रेष्ठ अनुवादकों को व्यक्तिगत पत्र लिखकर भी उत्साहित करते थे। इस परिप्रेक्ष्य में श्रीधर पाठक से उनका पत्र.व्यवहार विशेष महत्त्वपूर्ण है। पाठक जी ने ही सर्वप्रथम साधिकार खड़ी बोली में उत्तम काव्य रचना की थी। खड़ी बोली का अनन्य भक्त मानकर द्विवेदी जी उनका अत्यंत आदर करते थे। पत्र लिखकर वे पाठक जी को नई काव्य.कृतियों के अनुवाद हेतु प्रेरित करते थे – “इलियट के पैराडाइज़ लास्ट इत्यादि और भी मनोहर काव्य अँगरेज़ी में हैं। आप चाहेंगे तो उन्हें भी किसी विचित्र मीटर में अनुवाद करके अपूर्व रस का आस्वादन हम सबको सुलभ कर देंगे।”
अपने समकालीन अनुवादकों को प्रेरित करने के लिए द्विवेदी जी कई अन्य प्रकार के उपाय भी अपनाते थे। एक विशेष उपाय के तहत वे पहले किसी महत्त्वपूर्ण अनुवाद की सूचना देते थे और फिर, किसी अन्य ग्रन्थ की उपयोगिता बताते हुए उसके अनुवाद पर बल देते थे। तेरहवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भाषण देते हुए उन्होंने पहले हैकल के विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ रिडिल आॅफ द यूनिवर्स के अनूदित होने की सूचना दी, और फिर, सुयोग्य लोगों से जगदीश चंद्र बसु के ग्रन्थों को अनूदित करने की प्रार्थना की – “काशी की नागरी.प्रचारिणी सभा के प्रयत्न से हैकल के इस ग्रन्थ का अनुवाद हिन्दी में हो गया, यह बहुत अच्छा हुआ। यदि अध्यापक बसु के ग्रन्थों का भी अनुवाद हो जाय तो हम लोगों में से अनभिज्ञों और सन्दिहानों को अपने स्वरूप का कुछ अधिक ज्ञान हो जाय।”
द्विवेदी जी हिन्दी में हुए महत्त्वपूर्ण अनुवादों की सूचना तो अपने पाठकों को देते ही थे, साथ ही, वे अन्य भारतीय भाषाओं में हुए उपयोगी अनुवादों से भी पाठकों को परिचित कराते थे। जनवरी, 1908 ई. की ‘सरस्वती’ में उन्होंने विभिन्न भारतीय भाषाओं में हुए अनुवादों की जानकारी देते हुए ‘पुस्तक.प्रकाशन’ लेख प्रस्तुत किया। अपने विवरण में उन्होंने ‘दाभोलकर जी’ के उद्यम की विशेष प्रशंसा की – “दक्षिणात्य प्रकाशकों में हम ‘दाभोलकर’ उपनामधारी एक सज्जन के प्रकाशन सम्बन्धी काम को सबसे अधिक प्रशंसनीय समझते हैं। उन्होंने कई साल से उत्तमोत्तम अँगरेज़ी.ग्रन्थों का अनुवाद, प्रतिष्ठित विद्वानों से मराठी में कराकर, प्रकाशित करने का क्रम जारी किया है।”
अर्थात्, अनुवाद करिए और अपनी भाषा का विकास करिये। यदि नहीं कर सकते तो सुयोग्य लोगों को प्रोत्साहित करिये और अपनी मातृ.भाषा में उपयोगी पुस्तकों का अनुवाद करवाइये।
द्विवेदी जी ने अन्य भाषाओं के विद्वानों द्वारा स्व.भाषा विकास एवं अपनी भाषा में नई जानकारी को समाहित करने के लिए किए गए कठोर परिश्रम को प्रमुखता से प्रकाशित किया। यह हिन्दी जनता को नये ज्ञान से जुड़ने के लिए उत्साहित करने का एक तरीक़ा था।
जून, 1908 ई. की ‘सरस्वती’ में आचार्य द्विवेदी ने ‘सर विलियम जोन्स ने कैसे संस्कृत सीखी’ शीर्षक लेख लिखा। उन्होंने यह लेख जून, 1907 ई. के ‘हिन्दुस्तान रिव्यू’ में प्रकाशित एस.सी. सान्याल, एम.ए. के एक लेख की सहायता से लिखा था। जोन्स द्वारा अभिज्ञानशाकुन्तलम् के अंग्रेज़ी अनुवाद किए जाने के पश्चात् ही पाश्चात्य सभ्यता ने भारतीय सभ्यता को सांस्कृतिक रूप से विकसित माना था। अतः हर प्रकार से अनुवाद की उपयोगिता सिद्ध मानते हुए द्विवेदी जी ने संस्कृत सीखने के बहाने कठोर परिश्रम करने का आह्वान किया – “क्या हम लोगों में एक भी मनुष्य ऐसा है जो सर विलियम की आधी भी कठिनाइयाँ उठा कर संस्कृत सीखने की इच्छा रखता हो।”
हिन्दीभाषी जनता अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करे, यह उनकी सद्इच्छा थी। इसके लिए जनता को व्यापक तौर पर सांस्कृतिक अवयवों से परिचित किया जाना ज़रूरी था।
द्विवेदी जी पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि वे विदेशी विद्वानों द्वारा किए गए कार्यों को बढ़ा.चढ़ाकर बता रहे थे। किन्तु, योग्य लोगों को अनुवाद.कर्म की ओर ढकेलने की यह एक चाल हो सकती है। अपने मुँह से अपनी संस्कृति की प्रशंसा तो सभी करते हैं, लेकिन दूसरे देश के लोग यदि अपनी संस्कृति की प्रशंसा करें तो बड़ी बात है। यह और भी बड़ी बात है कि जिस देश का भारतवर्ष गुलाम था, उसके नागरिक स्वयं इस देश की सांस्कृतिक उपलब्धियों का बखान कर रहे थे। इसीलिए द्विवेदी जी ने हमेशा योग्य लोगों से अपील की कि वे अपनी संस्कृति को हीन न समझें, उसके जीर्णोद्धार हेतु कृतसंकल्पित हों और अनुवाद के माध्यम से भारत की उपयोगी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों को भारतीय जनता तथा सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करें।
आचार्य द्विवेदी ने विदेशों में हो रही नई वैज्ञानिक एवं वैचारिक प्रगति से भी हिन्दीभाषी जनता को जोड़ने का बीड़ा उठा रखा था। संस्कृति का अर्थ अनर्थकारी रूढ़ियाँ नहीं हैं, यह बात उन्होंने बार.बार कही। वे परंपरा के नाम पर ऐसी रूढ़ियों को ढोते चले जाने के घोर विरोधी थे। ‘पहली दुनिया’ में चल रहे आधुनिक ज्ञान.यज्ञ से हिन्दी.जनता को जोड़ने के लिए उन्होंने अनुवादकों से निरंतर अनुरोध किया।
इस परिप्रेक्ष्य में अनुवादकों को प्रेरित करनेे के लिए उन्होंने दो मुख्य उपाय अपनाये। पहला उपाय था – अपने ही कार्यों का विषयानुकूल प्रचार। दूसरा उपाय था – हिन्दी में श्रेष्ठ एवं उपयोगी अनुवाद करनेवाले अनुवादकों की प्रशंसा तथा प्रोत्साहन।
अगस्त, 1905 ई. की ‘सरस्वती’ में द्विवेदी जी ने जे. एस. मिल की संक्षिप्त जीवनी ‘जान स्टुअर्ट मिल’ नाम से लिखी। 1905 ई. में ही मिल की स्पइमतजल का स्वाधीनता शीर्षक से किया गया उनका अनुवाद प्रकाशित हुआ। एक प्रकार से इसे पुस्तक.प्रचार का तरीक़ा भी कह सकते हैं। इसी प्रकार जुलाई, 1906 ई. की ‘सरस्वती’ में उन्होंने हरबर्ट स्पेन्सर की संक्षिप्त जीवनी प्रकाशित की। 1907 ई. में स्पेन्सर के म्कनबंजपवद का शिक्षा शीर्षक से किया गया उनका अनुवाद प्रकाशित हुआ। स्पेन्सर के संक्षिप्त जीवन चरित में उनकी पुस्तकों के बारे में भी द्विवेदी जी ने अवगत कराया। साथ ही, उन्होंने समकालीन अनुवादकों को स्पेन्सर की उपयोगी पुस्तकें अनूदित करने के लिए प्रेरित किया – “ईश्वर करे इस महादार्शनिक की पुस्तकों का अनुवाद इस देश की भाषाओं में हो जाय जिससे इस बूढ़े वेदान्ती भारतवर्ष के निवासियों को भी उसके सिद्धान्त समझने में सुभीता हो।”
द्विवेदी जी प्रेरणास्पद अनुवादों के अत्यधिक आग्रही थे। युगीन अनुवादकों को उन्होंने ऐसे अनुवाद विपुल मात्रा में करने की ताक़ीद दी, जिनसे आम जनता जीवन.संघर्ष की प्रेरणा ले सके।
फरवरी, 1914 ई. की ‘सरस्वती’ में उन्होंने ‘बुकर टी. वाशिंगटन’ शीर्षक जीवनी लिखी। यह जीवनी वासुदेव गुणाजी की मराठी पुस्तक आत्मोद्धार से द्विवेदी जी ने अनूदित की थी। वाशिंगटन अमेरिका के महानतम राष्ट्रपतियों में गिने जाते हैं। उनका जीवन एक ग़रीब बालक के कठोर जीवन.संघर्ष और उस संघर्ष से तपकर महान् बनने की महागाथा है। वासुदेव गुणाजी की पुस्तक को अत्यंत प्रेरणास्पद मानते हुए आचार्य द्विवेदी ने युगीन अनुवादकों को सूचित किया – “हाँ, इस बात की सूचना देना हम अपना कत्र्तव्य समझते हैं कि यदि इस पुस्तक का अनुवाद हिन्दी में किया जाय तो उससे देश का बहुत हित हो।”
द्विवेदी जी इस वास्तविकता को समझते थे कि उनके स्वप्न को साकार करने के लिए जितनी विपुल मात्रा में अनुवाद किए जाने की ज़रूरत है, उतना वे अकेले एक जीवन में, अपना पूरा शरीर और मन झोंककर भी नहीं कर सकते। अतः उन्होंने चुन.चुनकर अन्य भाषाओं की उपयोगी पुस्तकों के बारे में बताया। द्विवेदी जी द्वारा चयनित पुस्तकों को उनके समकालीन अनुवादकों ने प्रमुखता से अनूदित किया।
’सरस्वती’ के अगस्त, 1909 ई. के अंक में आचार्य द्विवेदी ने ‘राजा सर टी. माधवराव, के. सी. एस. आई.’ नाम से ट्रावनकोर, इंदौर और बड़ौदा रियासत के दीवान रह चुके सर टी. माधवराव के जीवन एवं कार्यों के बारे में लेख लिखा। इस लेख में उन्होंने सर टी. माधवराव की महत्त्वपूर्ण पुस्तक माइनर हिंट्स के बारे में बताया। यह पुस्तक सर टी. माधवराव ने ट्रावनकोर के अनुभवहीन राजा को शासकीय कार्य सुचारु ढंग से चलाने के प्रति शिक्षित करने के लिए लिखी थी। “इस पुस्तक में राज्य प्रबंधन में आनेवाली कठिनाइयों, राजा एवं प्रजा के मध्य संबंध तथा प्रशासकीय पेचीदगियों की चर्चा की गई है।”
वस्तुतः 1909 ई. तक हिन्दी में प्रशासन.व्यवस्था के ऊपर कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं थी। अतः निर्विवाद रूप से माइनर हिंट्स जैसी इस विषय से संबंधित अच्छी पुस्तकों को अनूदित किया जाना अत्यंत ज़रूरी था।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने माइनर हिंट्स का अनुवाद राज्य प्रबंध.शिक्षा शीर्षक से किया। यह अनुवाद उस इंडियन प्रेस में छपा, जिसमें ‘सरस्वती’ छपती थी। यद्यपि राज्य प्रबंध.शिक्षा की भूमिका में शुक्ल जी ने द्विवेदी जी का नाम तक नहीं लिया और किन्हीं ‘राजा साहेब’ की इच्छा एवं उदारता को इस अनुवाद का प्रेरक माना – “परम विद्योत्साही राजा साहब भिनगा की इच्छा और उदारता से यह पुस्तक सभा द्वारा प्रकाशित की गई है।” यह है ‘इच्छा’ और ‘उदारता’! शुक्ल जी जैसे उदात्त व्यक्ति से ऐसी आशा नहीं का जा सकती। फिर भी, शुक्ल जी ने द्विवेदी जी के मूल मंतव्य को राज्य प्रबंध.शिक्षा की भूमिका में अपने शब्दों में लिखा – “समाज के हित और सुभीते के लिए यह आवश्यक है कि उसमें अनुभव की हुई बातों का अच्छा संचय रहे जिससे लोगों को अपना कर्तव्य स्थिर करने के लिए इधर.उधर बहुत भटकना न पड़े।”
द्विवेदी जी अपने युग के निर्माता एवं नियंता थे। सबको साथ लेकर चलना और अच्छा कार्य करने पर प्रोत्साहित करना, वे अपनी जि़्ाम्मेदारी समझते थे। ऐसा उन्होंने अनुवाद के संदर्भ में भी किया। जो भी अच्छा एवं उपयोगी अनुवाद उनके सामने से गुज़रता था, वे उससे अपने पाठकों को अवश्य परिचित कराते थे। साथ ही, वे अनुवादक की प्रशंसा में दो शब्द कहना कभी नहीं भूलते थे।
श्रीयुत् बाल गंगाधर तिलक की विद्वत्ता एवं राष्ट्र तथा समाज सेवा से द्विवेदी जी अत्यंत प्रभावित थे। तिलक की पुस्तकों और कार्यों से उन्होंने लगातार अपने पाठकों को परिचित कराया। तिलक के प्रसिद्ध ग्रन्थ गीता.रहस्य (मराठी) पर इसी शीर्षक से लेख लिखते हुए उन्होंने श्रीयुत् माधवराव सप्रे के इस ग्रंथ के अनुवाद में संलग्न होने की सूचना दी। जब सप्रे जी द्वारा किया गया गीता.रहस्य का अनुवाद प्रकाशित हो गया, तब इसकी पुनश्च सूचना देते हुए आचार्य द्विवेदी ने ‘गीता.रहस्य.विवेचन’ शीर्षक से लेख लिखा। इस लेख में उन्होंने सप्रे जी की अनुवाद.शक्ति की प्रशंसा की और उन्हें कोटिशः धन्यवाद दिया – “पण्डित माधवराव सप्रे हिन्दी.भाषा.भाषियों के धन्यवाद के पात्र हैं। यह आप ही की कृपा और परिश्रम का फल है जो हम लोग तिलक महाशय के ‘गीता.रहस्य’ को अपनी मातृभाषा में पढ़ रहे हैं।”
एक पिछड़े हुए समाज में अनुवाद की महत्ता को द्विवेदी जी समझ रहे थे। साथ ही, वे उन्नत मौलिक साहित्य की रचना के लिए भी प्रयत्नशील थे। यदि तत्कालीन साहित्यिक परिदृश्य का समाकलित आकलन किया जाए तो ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से अनुवाद कर्म को जितना प्रभावित किया, उतना ही अपने अनुवाद कर्म के माध्यम से युगीन रचनात्मकता को भी प्रभावित किया।
जुलाई, 1908 ई. की ‘सरस्वती’ में उन्होंने श्रीयुत भुजंगभूषण भट्टाचार्य छद्म नाम से ‘कवियों की उर्मिला.विषयक उदासीनता’ शीर्षक लेख लिखा। यह लेख रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रसिद्ध लेख ‘काव्यारेर उपेक्षिता’ से प्रभावित था। अपने लेख में द्विवेदी जी ने लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला और गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा के विरह से सम्पूर्ण भारतीय साहित्य को हीन बताया। विश्व.कवि टैगोर से प्रभावित द्विवेदी जी ने उर्मिला के विरह को सीता के वनवास से कहीं अधिक पवित्र एवं सात्विक बताया। यशोधरा का विरह भी सिद्धार्थ के प्रति मूक स्नेह की अभिव्यक्ति था। इन दोनो विरहनियों के महान् दुख से सम्पूर्ण भारतीय साहित्य वंचित था। रवीन्द्र की राह पर चलते हुए आचार्य द्विवेदी ने इन दोनों विरहनियों के दुःख को साहित्यिक अभिव्यक्ति देने की आवश्यकता पर बल दिया।
द्विवेदी जी के लेख से प्रभावित होकर उनके ‘मानसपुत्र’ और सबसे प्रिय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत एवं यशोधरा महाकाव्यों की रचना की। साकेत की नायिका उर्मिला हैं और यशोधरा की नायिका यशोधरा। अर्थात्, द्विवेदी जी से प्रभावित होकर गुप्त जी ने सदियों पुराने उदात्त नायक के मानदण्ड का खण्डन कर दिया। अब महाकाव्य का नायक एक स्त्री थी!
द्विवेदी जी ने अनुवादकर्म को तत्कालीन हिंदी साहित्य के संस्कार एवं विकास के लिए अनिवार्य माना। अपने समकालीन अनुवादकों तथा मौलिक रचनाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने प्रत्येक संभव मार्ग का उपयोग किया। द्विवेदी युग के साहित्य का अधिकांश इसका साक्ष्य प्रस्तुत करता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ –
- महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली, भाग.1, पृ.77-78
- खेमराज श्रीकृष्णानंद द्वारा वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई, प्रथम संस्करण 1901 ई
- कोविद-कीर्तन में संकलित
- महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली, भाग.5, पृ.39
- महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली, भाग.14, पृ.57-58
- हैकल के इस विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ का अनुवाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने विश्व.प्रपंच शीर्षक से किया था। दृष्टव्य – विश्व-प्रपंच, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी, संवत् 2019 वि.
- महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली, भाग.1, पृ.77
- साहित्य – सीकर में संकलित
- महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली, भाग.2, पृ.404
- साहित्य – सीकर में संकलित
- महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली, भाग.4, पृ.47
- संकलन में संकलित
- विदेशी विद्वान में संकलित
- महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली, भाग.4, पृ.245
- विदेशी विद्वान में संकलित
- महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली, भाग.4, पृ.316
- चरित चय्र्या में संकलित
- अनुवाद के निकष पर बुद्धचरित का अध्ययन’, आनन्द कुमार शुक्ल, लघु शोध.प्रबंध, भारतीय भाषा केंद्र, जे.एन.यू., 2005 ई.
- राज्य प्रबंध शिक्षा, रामचंद्र शुक्ल, काशी नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी, प्रथम संस्करण 1913 ई.
- चिंतामणि, भाग.4, रामचंद्र शुक्ल, (सं.) कुसुम चतुर्वेदी एवं ओमप्रकाश सिंह, आचार्य रामचंद्र शुक्ल साहित्य शोध संस्थान, वाराणसी, प्रथम संस्करण 2002 ई., पृ.230
- वही, पृ.228
- ‘सरस्वती’, अंक – अक्टूबर, 1915 ई.
- ‘सरस्वती’, अंक – अप्रैल, 1917; आलोचनांजलि में संकलित
- महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली, भाग.8, पृ.425
- रसज्ञ-रंजन में संकलित