(क) हरामी के सकोरा में भात

सीरिया में राहतकर्मी सेक्स के बदले बेच रहे भोजन’ बी.बी. सी. का समाचार
पढकर रफीक आजाद की अशोक भौमिक अनुदित कविता को याद करते हुए)
भात अक्सर हरामी के सकोरे में ही होता है
भूख कमीनी हलाल अंतड़ियों में धँसी होती है
भूख और भात के बीच हमेशा रस्साकशी होती है
हलाल भूख दो मुट्ठी भात भर है
हराम भूख सब कुछ निगल लेने की घात पर है
जैसे तुझे भात-भात में फर्क नहीं है
वैसे उसे जात-जात में फर्क नहीं है

जिससे तुम भात माँग रही हो
वह सचमुच हरामी है
तुमको भले न हो अकारण किसी चीज की भूख
उसको अनंत भूख है

दो साँझ दो मुट्ठी भात के बदले
पूरे भूगोल को खंगालेगा हरामी
वह जानता है पूरा मानचित्र
वह घूर रहा है तुम्हारे सकोरे से स्तन
नाभि की गहराइयों से होकर उतरना है उसे अनंत गहराई में
उसके निशाने पर हमेशा हो तुम
विधवा और तलाकशुदा उसके परम स्वादिष्ट भोज्य हैं

बिना भोग लगाए नहीं मिलेगा भात
दुनिया के हर कोने में रंग अलग है
हरामी एक रंग है- एक अलग रंग आठवाँ
धोखा मत खा लेना भात की जगह
माँगने पर मुट्ठी भर भात
नहीं सुनेगा तुम्हारी बात
रखकर जीभ पर तेज धार
पूछेगा तुमसे तुम्हारा आधार
तुमसे तुम्हारा फोन नंबर और कोठरी का पता

उसे इंतजार है तुम्हारे भूखे होने का
जहाँ भी धधाकर उठती है भूख
और नहीं होता कुछ भी खाने लायक
हरामी भात के सकोरे पर कब्जा कर बैठता है
उसकी होती है सत्ता चारो ओर तुम्हारी सीमाओं पर
तू कुछ माँग न माँग, वह मांगेगा तुम्हारा माल-असबाब
वह सबकुछ जिससे उनकी जागेगी और भूख

जब-जब तुमने माँगा भात
जहाँ कहीं भी तुमने माँगा भात
उस-उस जगह पर तुम्हें लेना होगा अतिरिक्त भूख
जेठ की झुलसती खेत की तरह
आग की तरह समेटना होगा भूख
तब ही आयेंगे जलजले
ये हरेक घास से हरे-भरे ख्वाब पे
बारूद से जहर भरे
हरामी के शरीर को जलाने के लिए

चाहती हो स्वर्ग जो जमीन पर
हर बार, बार-बार तुम्हें खुद ही लड़ना होगा
वो वक्त जो गया गुजर तो ये भी जाएगा गुजर
जब तक जिंदा है जमीन पर
खुद की जिन्दगी पर यकीन कर
यह बहुत है हरामी के शरीर को जलाने के लिए

 

(ख) मेरा क्या है

मेरा क्या है
कब कुछ अपने जैसा लगता है
मेरी नजर हुई है कमजोर
चश्मा जैसा दिखाता है देखता हूँ
मेरा क्या है
कब कुछ अपने जैसा लगता है
चाहे गेरुए रंग की तितली हो या हरे रंग का राम जी का घोड़ा
किसी भी सूरत में किसी की हत्या के पक्ष में नहीं हूँ
चाहे जंगल में शिकार हो या बस्ती में हुंकार
किसी भी तरह से हुए हत्या के पक्ष में नहीं हूँ
चश्मा भले ही कोई रंग दिखाए कमजोर आँखों को-
खून पीने वाला किसी भी धर्म का देवता हो
प्रवचन के शब्द कितने ही महान हों
धरती के मुँह में ठूँसा गया शव और उड़ेला गया खून
उजड़ा हुआ आँचल और उजड़ा हुआ आँगन
इतनी समझ है
किसी भी जगह किया गया हो
मैं हत्या के पक्ष में नहीं हूँ

(ग) किताबों से झाँकते पुरखे

किताबों में गुम हूँ और;
तुम्हें नजरअंदाज किया
दरकिनार किया
ऐसा तुमने देखा
देखो जरा मुझे मेरी नजर से
मेरी जगह पर खड़ा होकर
जो देख रही मेरी नजर है
मैं जब भी किताबों की अलमारी के सामने होता हूँ
लगता है पुरखों के सामने खड़ा हूँ
वे पुरखे जो पुरखों से मेरे इंतजार में हैं
मुझे देखते हैं हसरत भरी नजर से
जब भी किताबों को छूता हूँ
पलटता हूँ
पढ़ता हूँ
पुरखों को छूता हूँ
पुरखों के मन की तहें खोलता हूँ
उनसे बातें करता हूँ
वे अपने स्नेह से, अनुभव से सींचते हैं मुझे

(घ) अब कुछ भी नहीं रहा निर्जन
अब कुछ भी नहीं रहा निर्जन
तुम जो आई थी हल्दी, दूब, धान हथेली में उठाए
हल्दी रंग की किरणें उतर रही है
दूबहर रंग की छाई लता,पल्लव,काई
धान की कचलोइहा बालियों से बना फाता (धान का झालर)
बाजार में उतारा जा रहा है

बीच-बीच में चिड़चिड़ी,धतूरे खिल रहे हैं
गुलाबी-सफेद सदासुहागन बातें कर रहे हैं
तितलियों की आवाजाही लगी हुई है
बच्चे तितलियों के पीछे भाग रहे हैं
बच्चों के पीछे भाग रही है माँ
माँ के पीछे भाग रही है स्त्री
स्त्री के पीछे भाग रहा है सृजन
…और अब कुछ भी नहीं रहा निर्जन

 

अभिषेक चन्दन

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