मनुष्य अपने व्यापक अर्थ में स्त्री-पुरुष का योग है। सभ्यता और समाज के विकास में इन दोनों का ही सहयोग समान रूप से आवश्यक माना गया है। लेकिन भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच जिस समन्वय भावना और परस्पर सहयोग की बात की जाती है, वह यथार्थ धरातल पर चरितार्थ दिखाई नहीं पड़ती। क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों ने धर्म और वर्ण-व्यवस्था का निर्माण कर स्त्री को अपने अधीन कर लिया। और यहीं से परिवार और समाज में स्त्री-पुरुष सम्बंधों में असमानता देखने को मिलती है। अमृतलाल नागर अपने उपन्यासों में स्त्री-पुरुष सम्बंधों में असमानता को चित्रित करते हुए परिवार और समाज में स्त्री-पुरुष सम्बंधों में समानता की बात पुरजोर तरीके से उठाते हैं। प्रस्तुत शोध आलेख में अमृतलाल नागर के उपन्यासों में स्त्री-पुरुष सम्बंधी दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला गया है।
बीज-शब्द: स्त्री-पुरुष, परिवार, विवाह, समाजिक व्यवस्था, पुरुष वर्चस्व, स्त्री मुक्ति, समानता।
साहित्य सृजन एक सामाजिक कर्म है, जिसमें मानव सम्बन्धों, मानव संस्कृति और मानव मनोवृत्तियों का चित्रण, विश्लेषण और परिष्करण किया जाता है। साहित्यकार बौद्धिक जागरूकता के साथ वस्तु स्थिति का रेखांकन करता हुआ जीवन से सीधा साक्षात् करता है। यदि कोई रचनाकार अपने सामाजिक दायित्व को भूलाकर वैयक्तिकता को आत्मसात् कर लेता है तो उसका सृजन अपनी अर्थवत्ता खो देता है। इसलिए एक रचना की सार्थकता, सामाजिक सरोकारों से परिचित हो समाज को एक नई दिशा की ओर अग्रसर करने में है। यही कारण है कि कोई भी रचनाकार अपने समय और समाज से अलग होकर नहीं लिखता है। प्रत्येक रचनाकार के रचनाओं में अपना समय और समाज अवश्य परिलक्षित होता है। अमृतलाल नागर ऐसी ही रचनाकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के लिए सामग्री भारतीय इतिहास, समाज और संस्कृति से ग्रहण की है। उनके उपन्यास सामाजिक संदर्भों से गहरे जुड़े हुए हैं। अपने उपन्यासों में अमृतलाल नागर ने सामाजिक संदर्भों के एक पक्ष स्त्री-पुरुष सम्बंधों पर गहन रूप से विचार-विमर्श किया है। परिवार और समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों, स्त्री-पुरुष भेदभाव और स्त्री-पुरुष समानता आदि मुद्दों को सशक्त रूप से उठाया है।
अमृतलाल नागर जब स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के बारे में विचार करते हैं तो वे मानव जीवन में ‘काम’ को पति-पत्नी के सम्बन्धों के अंतर्गत ही मान्यता देते हैं। उनके अनुसार, “एक पति पत्नीव्रत का सिद्धांत विकास-नियम का पोषक होकर स्त्री-पुरुष के समाज को कोरी देह-भोग की चेतना से ऊँची सतह पर उठाता है। मैं अनुभव से मानता हूँ कि स्त्री-पुरुष का ये सेक्सिया नाता स्त्री-पुरुष के सम्पूर्ण जीवन का एक अंग मात्र है। दरअसल होता यह है कि हममें से हरेक अपने लिए एक ऐसा अपोजिट सेक्स वाला साथी खोजता है जिससे उसके बहुत से विचारों, कामनाओं और आदतों की पटरी बैठ जाय। दु:ख-दर्द हारी-बीमारी की मैटिरियल रिस्पांसिबिलिटिस से लेकर सुंदर, नैतिक और आध्यात्मिक धरातल तक वह अपने जीवन साथ के सहारे उठ सके।”1 पति-पत्नी सम्बंधों में ही प्रेम और काम का समन्वय मानव के विकास का कारण बनता है।
‘बूंद और समुद्र’ उपन्यास में लेखक ने वनकन्या के भाई तथा वकील साहब की पुत्रवधू के कथा प्रसंगों द्वारा स्पष्ट किया है कि मनुष्य के स्वस्थ जीवन के लिए काम-तृप्ति अनिवार्य है लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट करते हैं कि आधुनिक समाज में आदिम समाज की तरह मुक्त भोग की अवस्था का पुनरुत्थान न तो सम्भव है और न ही काम्य ही। उपन्यास में वर्णित उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु के प्रंसग से स्पष्ट हो जाता है कि सम्बन्ध की एकनिष्ठता ही स्त्री-पुरुष के रिश्ते को देह-भोग से ऊपर उठाती है। वस्ततु: अमृतलाल नागर ने पति-पत्नी के सम्बन्धों की एकनिष्ठता को मान्यता देते हुए स्त्री-पुरुष के मुक्त-भोग और उच्छृंखल प्रेम का विरोध किया है। प्रेम और काम का समन्वय पति-पत्नी की एकनिष्ठता में निहित है।
“परम्परागत भारतीय परिवेश में विशेष रूप से हिंदू धर्म में विवाह को संस्कार के रूप में मान्यता प्राप्त है। स्त्रियों के लिए एकमात्र संस्कार विवाह है ‘जिसे दो परिवारों को जोड़नेवाला’, ‘स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को मान्यता प्रदान करने वाला’, ‘ग्रहस्थाश्रम में प्रवेश के लिए स्त्री-पुरुष के साहचर्य व सहधर्माचरण की भूमिका तैयार करने वाला’ माना जाता रहा है।”2 हम कह सकते हैं कि स्त्री-पुरुष का विवाह ही परिवार की आधारशिला होती है। ‘बूंद और समुद्र’ उपन्यास में शीला और सज्जन दोनों ही आरम्भ में पति-पत्नी के सम्बन्ध और विवाह को मान्यता नहीं देते, इसे केवल सामाजिक बंधनों के रूप में देखते हैं, अंतत: इस बात को स्वीकार करते है। तभी शीला कहती है, “खून के रिश्तों को तो मानना ही चाहिए और ये हर प्रोग्रेसिव सोसाइटी में माने जायेंगे।”3 अमृतलाल नागर स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का अंतिम रूप पति-पत्नी होने को ही मानते हैं।
अमृतलाल नागर प्रेम विवाह और आयोजित विवाह में से किसी एक का पक्ष नहीं लेते है। उन्होंने दोनों प्रकार के विवाह का सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष को अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। उनकी दृष्टि में मुख्य चीज है स्त्री-पुरुष का परस्पर अनुशासन। “यही वह सम्बन्ध है जिसमें दोनों का दोनों पर अनुशासन होता है और दोनों का अनुशासन सारे घर को बाँधता है।”4 नगीनचंद और उनकी पत्नी या शंकर लाल और छोटी का आयोजित विवाह उतना ही सफल है, जितना कि वनकन्या और सज्जन का या वर्मा और तारा का प्रेम विवाह। लेखक प्रेम विवाह को स्वीकार करते हैं लेकिन विवाह पूर्व देह भोग का निषेध करते हैं। मानवीय निष्ठा जागृत करने वाले प्रेम को विवाह और परिवार की ओर उन्मुख करते है। ‘बूंद और समुद्र’ में सज्जन और वनकन्या, वर्मा और तारा, ‘अमृत और विष’ में रमेश और रानी के प्रेम की परिणति विवाह में होती है।
मनुष्य अपने व्यापक अर्थ में स्त्री-पुरुष का योग है। सभ्यता और समाज के विकास में इस दोनों का सहयोग आवश्यक माना गया है। ऐसा कहा जाता है कि स्त्री-पुरुष समाज रूपी गाड़ी के दो पहियों के समान है, इनमें से यदि एक भी पहिया कमजोर हो तो समाज रूपी यह गाड़ी ठीक से नहीं चल सकती। परंतु प्राय: देखा यही गया है कि जिस समाज में स्त्री-पुरुष के बीच समन्वय भावना और परस्पर सहयोग की बात की जाती है, वह यथार्थ धरातल पर चरितार्थ दिखाई नहीं पड़ती, “स्त्री पुरुष का एक ऐसा उपनिवेश रही है, जिस पर अपना कब्जा जारी रखने के लिए उसे शायद ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी है। हालांकि दोनों ने इतिहास के बीहड़ राजपथ पर अपनी यात्रा साथ-साथ शुरू की थी, पर शीघ्र ही उनकी नियति अलग-अलग हो गयी। जैसे ही चीजें आसान होने लगी और घुमंतुओं ने अपनी बस्तियाँ बनाना शुरू किया, स्त्री- पुरूष का स्वाभाविक संतुलन गड़बड़ाने लगा।”5 इस प्रकार, पुरुष प्रधान समाज ने बाहरी दुनिया के साथ-साथ घर-परिवार की भीतरी दुनिया पर भी स्वयं का एकाधिकार कर स्त्री को पूर्ण रूप से पराधीन बना दिया। अमृतलाल नागर स्त्री की इस स्थिति के लिए उत्तराधिकारी की मनोवृत्ति को उत्तरदायी ठहराते है। उनके अनुसार, “तरह-तरह के उत्पादन बढ़ने के दौरान जब पुरुष वर्ग शक्तिशाली हो गया, तब स्वाभाविक रूप से सोचने लगा कि उसकी कमाई उसके बाद उन बच्चों को ही मिले जो उसके बाद उन से ही पैदा हुए हैं। अपने इस नीति जाल द्वारा पुरुष शक्तिशाली होता गया और स्त्री-पुरुष की दासी बनती चली गई।”6 समय के साथ-साथ स्त्री की स्थिति समाज और घर-परिवार में दयनीय होती चली गई।
स्त्री की समाजिक स्थिति में होने वाले निरंतर परिवर्तनों के फलस्वरूप, भारतीय समाज में विचार और व्यवहार के धरातल पर विरोधाभास की स्थिति पैदा हो गयी जिसे अमृतलाल नागर अपने उपन्यासों में अभिव्यक्त करते हैं कि, “ अधर्नारीश्वर के अनोखे प्रतीक द्वारा स्त्री-पुरुष की समानता स्थापित करने वाला और ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा स्त्री को ऊँचा दर्जा देने वाला यह समाज ही व्यावहारिक क्षेत्र में नारी का स्थान ढोल, गंवार, शूद्र और पशु के समान मानता आया है।”7 समाज में स्त्री की स्थिति को लेखक ने बड़ी के माध्यम से कहलवाया है, “धंधा पीटें, बच्चे जनें, मार खायें, सबके बोल-कुबोल सहें और फिर भी हमारी निगोड़ी कोई कदर नहीं।”8 वस्तुत: भारत में लम्बे समय से स्त्री को मनुष्य के स्थान पर वस्तु का दर्जा दिया गया है। यह सत्य है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ सूक्ति वाले हमारे देश में स्त्री की स्थिति शायद ही कभी सम्मानजनक और गरिमापूर्ण रही हो। यह कहना गलत न होगा कि आज भी स्त्री को वस्तु के रूप में ही देखा जाता है जहाँ स्त्री को मनुष्य का दर्जा प्राप्त न हो वहाँ स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में समानता की बात नहीं की जा सकती है।
अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यास ‘बूंद और समुद्र’ में स्त्री शोषण का यथार्थ चित्रण करते हैं। उत्तराधिकारी न दे सकने के कारण राजा बहादुर द्वारकादास अपनी पत्नी का परित्याग करके, दूसरा विवाह कर नया घर बसा लेते हैं और अतृप्त मातृत्वाकांक्षा और अपनों के प्रति घृणा में घुटती हुई ताई, पुरानी हवेली में रहने के लिए विवश होती है। तो वहीं सज्जन की माँ अपने पति की चरित्र-हीनता, मार-पीट और अत्याचार को बिना विरोध किए झेलती जाती है। महिपाल की पत्नी कल्याणी मानसिक यंत्रणा के साथ-साथ शारिरिक यातना और अपमान सहने के लिए विवश है। कल्याणी को पति का यह व्यवहार जरा भी अजीब नहीं लगता क्योंकि वह घर-घर देखती है कि पुरुष स्त्रियों पर कैसे शासन करते हैं। प्रेम विवाह के अंतर्गत भी लेखक ने स्त्री को शोषित होते दिखाया है। ‘अमृत और विष’ में भवानी, प्रेम विवाह करने पर भी संतुष्ट नहीं होता और अपनी पत्नी उषा पर अत्याचार करता है। “भवानी उषा से बोलता तक न था, जब बोलता तो झिड़क कर उसे अपने जीवन का अभिशाप बताता था।”9 उषा को बेसहारा छोड़ वह लेक्चरर युवती का रखैल बन जाता है इसी प्रकार बैनर्जी भी एक गरीब लड़की से प्रेम विवाह कर उसे दो बच्चों की माँ बनाकर उसे छोड़ देता है। एक पत्नी के रहते पुरुष दूसरी स्त्री से सम्बन्ध रखता है। लेखक इस प्रकार के सम्बन्ध को स्वस्थ समाज के लिए अमानवीय तथा अनैतिक घोषित करते हैं।
समाज में स्त्री- पुरुष के लिए मान- मर्यादा, नियमों आदि में दोहरा चरित्र देखने को मिलता है। पुरुष मन-मुताबिक जीवन साथी न मिलने पर अपनी इच्छानुसार अन्य स्त्रियों से सम्बन्ध बनाने के लिए मुक्त है। किंतु उसी कार्य कि लिए स्त्री को दण्डनीय मानता है? ‘बूंद और समुद्र’ में पति से असन्तुष्ट बड़ी (मोहिनी), विवाह के बाद स्वयं पर नियंत्रण न रख सकी और रात्रि में पति को सोता हुआ छोड़ कर अपने नये प्रेमी से मिलने चल देती है। इसी उपन्यास में महिपाल और शीला के सम्बन्ध को सहज भाव से स्वीकार करने वाला समाज बड़ी पर पाश्विक अत्याचार को देखते हुए मात्र दर्शक ही बना रहता है। ऐसे ही समाज में मनिया जैसा लम्पट और परस्त्रीगामी, अपराध-बोध से पूरी तरह मुक्त रह सकता है। लेकिन एक स्त्री के लिए यह अपराध बन जाता है। बिना सोचे-समझे परिवार और समाज ऐसी स्त्री को कुलटा, चरित्रहीन, वेश्या आदि उपाधियों से अलंकृत करता है।
अमृतलाल नागर का उपन्यास ‘अग्निगर्भा’ एक सामाजिक समस्यामूलक उपन्यास है। उपन्यास की केंद्रीय समस्या दहेज की है। सीता एक पढ़ी-लिखी मध्यवर्गीय युवती है। अपने बेटे रामेश्वर को सीता पर आसक्त देखकर माँ शुक्लाइन अपनी बात रखती है कि परिवार की मर्यादा का प्रश्न है-जिस बेटे के विवाह के लिए डेढ़ दो लाख रुपये दहेज का प्रस्ताव आ रहा है। उस बेटे का विवाह बिना दहेज लिए नहीं करेगी। माँ के फैसले के उपरांत रामेश्वर ने परिवार के सभी सदस्यों को अपना निर्णय सुना दिया की वह सीता से ही विवाह करेगा। और सीता को उसने यह कहा, कि विवाह में थोड़ा-सा दहेज ले लिया जाएगा क्योंकि परिवार की मर्यादा का प्रश्न है। वहीं वह अपनी माँ से सीता के लिए कहता है कि, “इस घर में लाऊँगा तो तुम्हारी दासी बना कर ही रखूँगा।”10 वस्तुत: विवाह कर आने के बाद सीता को अपनी सास से दहेज न लाने लिए ताने सुनने पड़ते है और रामेश्वर भी उसका पूरी तरह से शोषण करता है।
भारतीय समाज में स्त्री- पुरुष भेदभाव सामाजिक स्तर पर ही नहीं आर्थिक स्तर पर भी दिखाई देता है क्योंकि पुरुष ने अपने स्वामित्व की शाक्ति का लाभ उठाकर स्त्री को अत्यधिक शोषित और पराधीन बना दिया कि अब स्त्रियाँ उनकी सहायता के बिना अपने आप को असमर्थ समझने लगी। यही कारण है कि भारत में स्त्री आर्थिक दृष्टि से भी पराधीन रही है। वह आर्थिक रूप से सदैव पुत्र, पति और पिता के अधीन रही है और उनके न होने पर उन्हें आर्थिक विपन्नता का शिकार होना पड़ता है। सिमोन दा बोउवार स्त्री मुक्ति के लिए स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता की बात करती है क्योंकि वह समझ गई थी कि आर्थिक स्वतंत्रता के अभाव में स्त्री की स्वतंत्रता सिर्फ अमूर्त और सैद्धांतिक बन कर रह जाती है। यही कारण है कि स्त्रीवाद स्त्री मुक्ति के अंतर्गत स्त्री की आर्थिक मुक्ति की बात पुरजोर तरीके से उठाते है।
‘बूंद और समुद्र’ उपन्यास में वनकन्या की भाभी पर हुए अमानुषिक अत्याचार को चित्रित कर लेखक ने इस बात को अभिव्यक्त किया है कि आर्थिक रूप से परतंत्र स्त्री को पुरुष ने सदैव अपना गुलाम बनाया है। “घर के घर में ससुर, जेठ, बहुओं को ओने-कोने दबोच लेते थे, बिचारी शर्म के मारे, डर के मारे जबान तक न खोल पाती थी।”11 आर्थिक रूप से पुरुष पर आश्रित स्त्री पर पुरुष मनमाने अत्याचार करता है। वनकन्या अपनी भाभी के प्रसंग में कहती है, “मरद औरत को मजबूर करके जो चाहता है करा लेता है और भुगतना पड़ता है बिचारी औरत को।”12 तो वहीं ठीक इसके विपरित ‘अग्निगर्भा’ एक ऐसी युवती की कहानी है जिसे “आदमी की कामुक स्वार्थी और घिनौनी इच्छाएँ ‘अग्निगर्भा’ बना डालती हैं और जो जीवन पर्यंत धैर्यशीला वसुंधरा की तरह, अपने भीतर विखंडित होने वाली ज्वालाओं को निरंतर समेटती रहती है। वह जीवन भर अपनी अक्षय सम्पदा लुटाकर भी, आदमी की तृषा को नहीं बुझा पाती और रक्त की अंतिम बूंद चूसकर भी वह प्यासा बना रहता है। दहेज के लिए भारतीय नारी का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शोषण की क्रूरतम मनोवृत्ति का एक घिनौना उपहार है।”13 वस्तुत: शिक्षित तथा आर्थिक रूप से सुदृढ़ सीता रामेश्वर की सामंती प्रवृत्ति के कारण शोषण का शिकार होती है।
पितृसत्तात्मक समाज में आधी दुनिया की गुलामी का सवाल है जिसमें अमीर, गरीब, हर जाति और हर देश की स्त्री जकड़ी हुई है। कोई भी स्त्री मुक्त नहीं है। महादेवी वर्मा लिखती हैं, “यदि स्त्रियों को अर्थ सम्बन्धी वे सुविधाएँ प्राप्त हो जाएँ, जो पुरुषों को मिलती आ रही है, तो न उनका जीवन निष्ठुर कुटुम्बियों के लिए भार बन सकेगा और न वे गलित अंग के समान समाज से निकालकर फेंकी जा सकेंगी।”14 स्त्रियों को अर्थ सम्बन्धी सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम शिक्षित होना होगा और तभी वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त करने में सक्षम बन सकेंगी।
‘अमृत और विष’ की रानी और सुमित्रा द्वारा नागर जी ने स्त्री को आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान कर सामंती मानसिकता का विरोध किया है। विधवा रानी पढ़-लिख कर आर्थिक रूप से स्वतंत्र होकर जीवन जीना चाहती है और आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने पर वह अपने निर्णय स्वयं लेने लगती है तथा अंतरजातीय विवाह कर सुखी जीवन व्यतीत करती है। सुमित्रा भी रानी से प्रेरित हो कर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर अपने बूढ़े पति के अमानवीय अत्याचारों का विरोध करती है। सुमित्रा विधवा विवाह का समर्थन करती हुई कहती है जो बात पुरूष के लिए पाप नहीं वह स्त्री के लिए क्यों? “रंडुआ तो फिर ब्याह के ले आता है और वही काम करता है जिसके लिए रांड को अपना मन मारना पड़ता है।”15 लेकिन पुरुष का अहं इस बात को स्वीकार नहीं करता, इसलिए उसका पति उस पर अनेक दोषारोपण करता है। लेखक की मान्यता है कि यदि स्त्री उचित ढ़ग से संघर्ष करती हुई आगे बढ़ती है, तो उसके बढ़ते कदमों को कोई नहीं रोक सकता।
स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के विषय में लेखक ने समाज की रूढ़वादिता और संकीर्ण मानसिकता का विरोध करते हुए मिसेज खन्ना के माध्यम से कहा है, “हमारी समाजिकता में लड़के-लड़कियों का दोस्त बनकर रहना बुरा माना जाता है।….यह विपरित परिस्थितियाँ यदि हमारे समाज से चली जाए तो सुनहरा दिन हमारे समाज में जल्दी ही आ जाए।”16 वह समाज द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को स्वस्थ जीवन जीने के पक्ष में है। तभी वह रमेश और रानी के संबंधों को अनुचित नहीं मानती। वह उनका साथ दे समाज की रूढ़ियों का विरोध करती है। साथ ही स्त्रियों से यह भी अपेक्षा करती है कि वे राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना सहयोग दें। वनकन्या पति-पत्नी के माध्यम से स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में समानता की बात करती है, “मैंने ये कभी नहीं कहा कि मर्दों से लड़ना चाहिए। हम दोनों एक दूसरे के साथी है, अपनी-अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ हैं। अगर हमारा च्चा साथ है तो हमें एक दूसरे के लिए बर्दाश्त भी करना होगा। हाँ, बेजा बात पर न झुकेंगे, मगर पारस्परिक सहनशीलताका नाता तब भी न टूटेगा-यहीं स्त्री-पुरुष को अपनी शाक्ति से हरा सकती है और यह हार-जीत स्त्री-पुरुष को ऊँचा-नीचा नहीं बल्कि समान बनाएगी।”17
गीता, वनकन्या, सीता, सुमित्रा, रानी आदि स्त्री पात्र पुरुष वर्ग से समानता चाहती है। अपने मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष करती है। इनके द्वारा नागर जी ने दिखाया है कि मानव सभ्यता के अगले विकास में स्त्री समाज अन्याय मुक्त होगा। “जिस युग में सामूहिक रूप से नारी पुरुष की समता चाहती और माँगती है, उस युग को प्रबुद्ध नारी का सहज स्वाभिमान पुरुष की गलत ढ़ंग की गुलामी का यह साइन बार्ड अब बरदाश्त नहीं कर पाता। उसके इस स्वाभिमान के तेज स्वरूप मानव-सभ्यता नया उजाला पा रही है।”18 वस्तुत: अमृतलाल नागर अपने सामाजिक उपन्यासों में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के अतीत और वर्तमान को विश्लेषित करते हैं। और भविष्य में स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं। वह यह मानते हैं कि जिस दिन स्त्री जाति अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का अंत करने के लिए निश्चयपूर्वक खड़ी हो जायेगी उसी दिन दुनिया से हर तरह के अत्याचार मिट जायेंगे और प्रत्येक क्षेत्र में समानता स्थापित होगी।
संदर्भ ग्रंथ :-
1. अमृतलाल नागर; बूंद और समुद्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-95.
2. रेखा कस्तवार; स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2013,पृ.सं.-202.
3. अमृतलाल नागर; बूंद और समुद्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-94.
4. अमृतलाल नागर; बूंद और समुद्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-107.
5. राजकिशोर; स्त्री-पुरुष: कुछ पुनर्विचार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2007,पृ.सं.-13-14.
6. अमृतलाल नागर; बूंद और समुद्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-95.
7. अमृतलाल नागर; बूंद और समुद्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-110.
8.अमृतलाल नागर; बूंद और समुद्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-143.
9. अमृतलाल नागर; अमृत और विष, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-23
10. अमृतलाल नागर; अग्निगर्भा, राजपाल एण्ड सन्स, नई दिल्ली, संस्करण-2014,पृ.सं.-49.
11. अमृतलाल नागर; बूंद और समुद्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-62.
12. अमृतलाल नागर; बूंद और समुद्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-62.
13. अमृतलाल नागर; अग्निगर्भा, राजपाल एण्ड सन्स, नई दिल्ली, संस्करण-2014,भूमिका.
14. महादेवी वर्मा; श्रृंखला की कड़ियाँ, भारतीय भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद, संस्करण-2017,
पृ.सं.-20.
15. अमृतलाल नागर; अमृत और विष, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-389.
16. अमृतलाल नागर; अमृत और विष, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-157.
17. अमृतलाल नागर; बूंद और समुद्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2015,पृ.सं.-571
18. अमृतलाल नागर; ये कोठेवालियां, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2014,पृ.सं.-107.
आरती
शोधार्थी
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय