महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पश्चात् कृष्ण के मन में जो संकल्प-विकल्प, जय-पराजय और नैतिकता-अनैतिकता के भाव उमड़-घुमड़ रहे थे, उस द्वन्द्वात्मक मनःस्थिति को ‘उपसंहार’ की केन्द्रीय वस्तु के रूप में विन्यस्त किया गया है। इसका कथानक भले ही ‘महाभारत’ की कथा पर आधारित है, किन्तु इसकी अन्तर्वस्तु में वर्तमान की अनुगूँज बराबर सुनायी पड़ती है। यह उपन्यास ऐसे समय में रचा गया है जब विभिन्न विचारधाराओं, अवधारणाओं, राजनीतिक प्रारूपों, अस्मितावादी विमर्शों और साम्प्रदायिक- जातिवादी आग्रहों-दुराग्रहों के बीच महाभारत चल रहा है। ‘‘महाभारत संपत्ति और प्रतिष्ठा पर अधिकार के लिए भाइयों के बीच हुए लड़ाई-झगड़े की कथा है। यह लड़ाई-झगड़ा भिन्न-भिन्न स्तरों पर सभी भारतीय परिवारों में तबसे लेकर आज तक चल रहा है।’’(इरावती कर्वे: युगान्त, पृ.183) व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं और समाज के शक्ति-संतुलन की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसीलिए इसे रचनात्मक बनाना प्रासंगिक लगता है। अपने समकाल से जोड़ने के लिए उपन्यासकार ने ‘उपसंहार’ के पात्रों, घटनाओं और परिवेश पर अलौकिकता का आरोपण नहीं किया है, यहाँ तक कि कृष्ण के चरित्र पर भी नहीं। वे मानवीय चरित्र की अनुभूति कराते हैं। यदुवंशी कृष्ण की कथा को आधुनिक भावबोध के सन्दर्भ में रचते हुए उपन्यासकार की सर्जनात्मक दृष्टि उस बिन्दु पर जाकर अटकती है जहाँ महाभारत का यह सूत्रधार निर्बल, असहाय और व्यर्थताबोध से ग्रस्त एकाकीपन से जूझ रहा होता है। जब ‘अठारह अक्षौहिणी सेना में सिर्फ़ दस लोग बचे रह गये’ हों, कोई महत्तर उपलब्धि प्राप्त न हुई हो; तब युद्ध के औचित्य एवं उसके परिणाम पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। क्या इसे वास्तव में धर्मयुद्ध कहा जा सकता है? हजारों-लाखों जीवित लोगों की बलि देकर धर्म की स्थापना का विचार अटपटा लगता है। इस उपन्यास के एक पात्र गोपाल भोज की ‘टूटी-फूटी बातों से जो निचोड़’ निकलता है उससे स्पष्ट होता है कि महाभारत के युद्ध में आर्यावर्त के सभी राजा किसी न किसी के पक्ष में खड़े थे। इसमें हर प्रकार के उपलब्ध अस्त्रों का उपयोग किया गया। मनुष्यों और पशुओं के शवों से कुरुक्षेत्र का समूचा मैदान पट गया था। धरती बंजर हो गयी थी। जंगल जल उठे थे। नदियों का जल सूख गया था। स्थान-स्थान पर रक्तकुण्ड दिखायी देते थे। समूचे कुरुक्षेत्र में भयावह दुर्गन्ध व्याप्त हो गयी थी। यहाँ तक कि कृष्ण का समूचा वंश परस्पर लड़कर नष्ट हो गया। कृष्ण की हत्या कर दी गयी। तत्पश्चात् उनके प्राणप्रिय अर्जुन और अन्य पाण्डवों ने आत्महत्या कर ली। उस युद्ध के विनाशकारी परिणाम को देखते हुए उपन्यासकार की प्रश्नाकुलता धर्मयुद्ध की पुनर्व्याख्या की माँग करती है। यह प्रश्न खड़ा होना स्वाभाविक है कि इस महायुद्ध से मानवता को क्या मिला?
‘उपसंहार’ के वृतांत पर पिछली सदी के विश्वयुद्धों की छाया प्रतीत होती है। यह उपन्यास युद्ध के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करता है। ‘महाभारत’ भी आनृशंस्य, अर्थात् नृशंसता के विरोध की बात करता है। किसी भी सर्जनात्मक कृति से ऐसी ही आशा की जाती है। महाभारत के युद्ध में केन्द्रीय भूमिका निभाने वाले कृष्ण भी युद्ध के दुष्प्रभाव से बच नहीं पाते। उनके पास सब कुछ था लेकिन ‘एक चीज नहीं थी, जो उनकी पहचान बन गयी थी। वह चीज थी-मुस्कान। ओठों, आँखों और नीले चेहरे पर दिपदिपाती निश्छल पारदर्शी मुस्कान।’ यह दीप्ति ही वासुदेव होने की पहचान है। कृष्ण को अपनी पहचान से वंचित होना पड़ता है। ऐसा क्यों हुआ? उपन्यासकार इसका उत्तर ढूँढ़ने का प्रयास करता है। यहाँ कृष्ण चौंसठ कलाओं से युक्त ईश्वर के अवतार नहीं हैं। वासुदेव, पुरुषोत्तम एवं जनार्दन जैसे सम्बोधनों को सुनते-सुनते थक चुके कृष्ण कालल्ला सम्बोधन के लिये तरसना और अपराधबोध से भर उठना ईश्वरत्व का लक्षण नहीं, एक सामान्य मनुष्य का स्वभाव है। वे दारुक से कहते हैं कि ‘मेरी आँखों से आँसू क्यों नहीं आते?…भगवान होने के लिये पत्थर होना ज़रूरी हैें?’ इस बात पर जोर देते हैं कि ‘किसी राजा का महल इतनी ऊँचाई पर नहीं होना चाहिए कि वह लोगों का रोना-गाना न सुन सके।’ इन शब्दों में निहित आशय कृष्ण की मानवीय प्रतिमा का निर्माण करते हैं। जनता से निकट जुड़ाव राजा के लिये आदर्श स्थिति है, लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं है। कृष्ण अपने स्तर पर ऐसा प्रयास करते रहे। ईश्वरत्व का चोला उतारकर मनुष्य होने की अनुभूति करने वाले कृष्ण का चरित्र इस उपन्यास का उल्लेखनीय पक्ष है। इसके माध्यम से लेखक ने शासक और जनता के बीच के पारस्परिक सम्बन्धों को पुनर्व्याख्यायित किया है। इरावती कर्वे का कहना है कि ‘‘कृष्ण की एक व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा थी। उनकी महत्वाकांक्षा ‘वासुदेव’ बनने की थी, जो एक दैवीय पद माना जाता था। महाभारत के कृष्ण निश्चित रूप से ईश्वर नहीं हैं, जैसाकि परवर्ती साहित्य में चित्रण मिलता है। वे एक असाधारण व्यक्ति थे और उनकी महान् निजी महत्वाकांक्षा वासुदेव कहलाने की थी।’’(वही, पृ.167) इरावती कर्वे यह भी कहती हैं कि वासुदेव एक उपाधि है जिसे एक समय में एक व्यक्ति ही धारण कर सकता है। अधःपतन के दौर में पैदा होने वाले राम और कृष्ण दोनों वासुदेव थे। कृष्ण बचपन से लेकर महाभारत के युद्ध तक ईश्वरत्व के आभामण्डल से मण्डित रहे, वही युद्ध की समाप्ति पर मानवता और शान्ति के पक्ष में मुखर दिखते हैं। यह सिर्फ़ कृष्ण का ही नहीं, शासक वर्ग का वैचारिक अन्तर्विरोध है। ‘उपसंहार’ की अनेक घटनाएँ कृष्ण के ईश्वरत्व को प्रश्नांकित करती हैं। कंस-वध के पश्चात् यादव-कुलों को सुरक्षा देने के लिये मथुरा से द्वारका जाने का निर्णय भी उनके ईश्वरत्व को सन्दिग्ध बनाता है। अन्यथा उनके द्वारका में रहते यदुवंशी उच्छंृखल, उन्मत, व्यभिचारी, अराजक और हिंसक क्यों हो जाते हैं? उन्होंने गणराज्य के रूप में जिस द्वारका की परिकल्पना की थी, वह उनकी आँखों के सामने छिन्न-भिन्न क्यों हो जाती है? महाभारत के युद्ध की रणनीति और व्यूह-रचना करके पाण्डवों के लिए विजय का मार्ग प्रशस्त करने वाले कृष्ण को अन्ततः मोहभंग क्यों होता है? वासुदेव कहलाने की उनकी महत्वाकांक्षा भले ही पूर्ण हो गयी हो, किन्तु द्वारका को गणराज्य बनाने की उनकी परिकल्पना मूर्त नहीं हो सकी। स्वेच्छाचारिता और सुखोपजीविता शासक वर्ग की प्रकृति का अपरिहार्य अंग है। सत्ता-सुख भोगने का अभ्यस्त सामन्त वर्ग गणराज्य की व्यवस्था को स्वीकार नहीं कर पाता। इस बिन्दु पर पहले के और आज के शासकों में तात्विक अन्तर नहीं दिखता। ‘उपसंहार’ के कृष्ण लोक को जानने और उससे जुड़े रहने के इच्छुक दिखते हैं। ‘जो राजा लोक को नहीं जानता, वह अपने राज्य को नहीं जानता।…लोक को, उसके महत्व को न जानने का ही परिणाम था कि भारत के किसी नरेश का असुरों-राक्षसों के अत्याचार की ओर ध्याान नहीं गया।…उनके इस लोकहित के काम ने द्वारका को वैभवशाली बनाया, प्रतिष्ठा दिलायी और उन्हें ईश्वर की गरिमा दी।’ यहाँ ईश्वरत्व को लोकहित से गहरी सम्बद्धता में देखा गया है। उपन्यास में यह तर्क प्रस्तुत किया गया है कि जनता ही किसी शासक को ईश्वरत्व प्रदान करती है, वह स्वयं ईश्वर नहीं होता। महाभारत के युद्ध की समाप्ति के पश्चात् कृष्ण जब द्वारका में वापस लौटते हैं तो उनकी आँखों से नींद और मन से शान्ति गायब हो चुकी होती है। द्वारका के ‘आसपास यादव-बहुल राज्य थे।’ फिर भी कृष्ण उसकी सुरक्षा को लेकर चिन्तित दिखते हैं। स्वार्थ की प्रबलता व्यक्ति और समाज की एकता में बाधक बनती है। आत्मकेन्द्रिकता के सामने जाति-कुल-गोत्र का भी विचार धूमिल हो जाता है। ‘उपसंहार’ के वृतांत से मालूम होता है कि ऋषियों-मुनियों-तपस्वियों की रक्षा तथा असुरों-राक्षसों का संहार करके ‘अवतारी पुरुष’ के रूप में कृष्ण की जो छवि निर्मित हुई थी, वह महाभारत युद्ध के पश्चात् क्रमशः धूमिल होती चली गयी। द्वारका का नागरिक समाज रोष प्रकट करते हुए कहता है कि ‘क्या पता कि हमें उजाड़कर उन्हें ‘भगवान’ बनना था? उनके तो अस्सी के अस्सियों बेटे सण्ड-मुसण्ड घूम रहे हैं छुट्टा साँड़ की तरह और हमारे तो दो ही थे, कहाँ से लाएँ उन्हें?’ कृष्ण के पास इसका उत्तर नहीं है। वे ईश्वर हैं तो फिर ऐसी निरुपायता क्यों? उनके अन्तर्मन मन में इतनी अशान्ति क्यों? वे किसी प्रश्न का सामना क्यों नहीं कर पाते? द्वारका का जनसमुदाय यदि कृष्ण की सर्वोच्चता को प्रश्नांकित करता है तो उसके निहितार्थ हैं। युद्ध के बारे में लिया गया निर्णय कृष्ण का अपना है। उसमें जनता की सहमति नहीं है। धर्म, न्याय और सत्य के पक्ष में खड़ा होने का दावा करने वाले कृष्ण इन मूल्यों की अवहेलना करके जनता का समर्थन कैसे प्राप्त कर सकते हैं? कृष्ण के अस्तित्व पर द्वारका के नागरिक समाज का अँगुली उठाना आधुनिक राष्ट्र-राज्य में जनता की असहमति एवं विरोध के स्वर को इंगित करता है। इस बिन्दु पर ‘उपसंहार’ समकाल के यथार्थ से जुडकर अपनी सार्थकता प्रमाणित करना चाहता है। यह समकाल की राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक चुनौतियों के सन्दर्भ में पात्रों और घटनाओं को देखने का एक रचनात्मक प्रयास है।
कृष्ण का वासुदेवत्व स्थायी नहीं, परिवर्तनशील है। यह उपन्यास ईश्वर की शाश्वत-सार्वभौम सत्ता को चुनौती देता है जो बलराम, द्वारका के नागरिक समाज, राजसभा और स्वयं उनके भीतर से भी मुखर होती है। कृष्ण की बातों पर विश्वास करें तो यहाँ ईश्वर के बारे में पूर्व से भिन्न एक नयी अवधारणा को विकसित होते देखा जा सकता है। इस धारणा के अनुसार ईश्वर की निर्मिति का सम्बन्ध उस विषम परिस्थिति से है जिसमें जनसाधारण की विवशता, निरुपायता और यातनाएँ चरम पर पहुँच जाती हैं। इस कठिन परिस्थिति से मानव समाज को त्राण दिलाने वाला ईश्वर की उपाधि से विभूषित होता है। इस तरह ईश्वर में संवेदनशीलता, करुणा, न्याय और व्यापक सामाजिक सरोकार की भावस्थिति काम्य होती है। इनके अतिरिक्त चमत्कारपूर्ण कार्रवाइयाँ ईश्वरत्व को सुनिश्चित करती हैं। उपन्यासकार ने लिखा है कि ‘सूर्य बड़ी देर से समुद्र के अन्तिम छोर पर बैठा हुआ है जैसे किसी का इन्तजार कर रहा हो!…ऐश्वर्य की भी एक मियाद होती है और वह पूरी हो गयी।…आखिर ईश्वर है क्या? मनुष्य की श्रेष्ठता का प्रकाश ही तो? और यह प्रकाश प्रत्येक मनुष्य के भीतर होता है। लेकिन फूटता तभी है जब किसी को कातर, बेबस, निरुपाय और प्रताड़ित देखता है। मैं भी था ईश्वर।’ ‘उपसंहार’ के कृष्ण चाहकर भी बलराम से नहीं मिल पाते। इन दोनों पात्रों के बीच की असहमति से कुछ धारणाएँ भी टूटती हैं। बलराम कृष्ण की रणनीति, कूटनीति और पक्षधरता का समर्थन नहीं करते। कृष्ण पर कौरव-पाण्डव दोनों पक्षों को सन्तुष्ट करने तथा युद्ध में अधर्म-अन्याय की रणनीति का सहारा लेने का आरोप लगता है। ‘महाभारत’ के कृष्ण का काशीनाथ सिंह के ‘उपसंहार’ में रूपान्तरण एक ऐसे आधुनिक व्यक्ति के रूप में हुआ है जिसमें दुविधा, पक्षपात, प्रदर्शनप्रियता और स्वार्थपरता जैसी प्रवृत्तियों का समावेश है। भयानक युद्ध, असहाय कृष्ण और स्वयं को मरने-मारने वाला बताने की नियति उन्हें ईश्वर के आसन से उतारकर सामान्य मानव के धरातल पर खड़ा कर देती है। वैसे भी, कृष्ण का ईश्वरीकरण उपन्यासकार का अभीष्ट नहीं है। उपन्यास के पात्रों, घटनाओं और परिणति पर हमारे समय की छाया स्पष्ट है। द्वन्द्व, दुविधा, सन्देह, असहमति एवं आक्रोश जैसे भाव ‘उपसंहार’ के वृतांत को स्वाभाविक बनाते हैं। जनता का विक्षोभ स्वातन्त्र्योत्तर भारत में उत्पन्न राजनीतिक -सामाजिक परिस्थितियों को प्रतिबिम्बित करता है। बलराम की यह टिप्पणी कि ‘सेना दान-दक्षिणा में दी जाने वाली इसकी निजी सम्पत्ति नहीं है’, लोकतान्त्रिक विमर्श की पृष्ठभूमि रचती है। उपन्यास में युधिष्ठिर को धर्मराज नहीं माना गया है। यह प्रचलित धारणा का अस्वीकार है। लोक में जिस युधिष्ठिर को सत्यवादी व्यक्ति के रूप में जाना जाता है, उन्हें ‘उपसंहार’ में एक अकर्मण्य, जड़ और बात-बहादुर व्यक्ति के रूप में सम्बोधित किया गया है। बलराम कहते हैं कि ‘तुमने किस घामड़ और निकम्मे आदमी के लिये लाखों के खून बहाये किशन?’ ऐसा शासक न राज्य का शासन सुचारु ढंग से संचालित कर सकता है, न ही किसी प्रकार लूट को रोक सकता है। भीम के इस कथन में सच्चाई और उपेक्षा व्यक्त हुई है कि ‘हमने अपने जीवन में जितनी मुसीबतें झेलीं, सब आपके कारण, लेकिन अब नहीं झेलेंगे।’ युधिष्ठिर में इतना साहस और पराक्रम नहीं है कि वे अपनी आकांक्षाओं को फलीभूत कर सकें। इसके लिये उन्हें अपने भाइयों के पराक्रम का उपयोग करना पड़ता है। इसमें विवशता और कूटनीति दोनों समाहित हैं। राज्य को अराजकता की स्थिति में धकेलकर भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाने वाला व्यक्ति शासन करने के योग्य नहीं हो सकता। अयोग्य व्यक्ति की महŸवाकांक्षाएँ समाज के लिये अत्यन्त घातक होती हैं। ऐसे व्यक्ति में न समाज के प्रति कोई सरोकार होता है और न ही दायित्वबोध। ऐसा व्यक्ति अपने निहित स्वार्थ के लिये किसी को भी दाव पर लगा सकता है। युधिष्ठिर ने भी सम्पत्ति और द्रौपदी को दाव पर लगा दिया। वृद्धावस्था में प्रवेश कर चुके कृष्ण अन्ततः सोचते हैं कि आखिर ‘दुर्योधन क्या बुरा था?…प्रजा को कोई शिकायत तो न थी।’ प्रश्न न्याय-अन्याय के विचार को निरपेक्ष दृष्टि से देखने का नहीं, नागरिक समाज के वृहत्तर जीवन से जुड़ा है। जिस कृष्ण ने ऋषि-मुनियों की रक्षा के लिये लुटेरों, आतंकियों एवं हत्यारे असुरों का संहार करके ‘ईश्वर की गरिमा’ पायी थी, वे महाभारत के युद्ध में आर्यावर्त के गौरवशाली वीरों के विनाश को देखकर चुप क्यों रहे? ‘निरर्थक मारे गये थे वे और जिस तरह मारे गये वह युद्ध नहीं, हत्या थी। वह एक ऐसा नरसंहार था जिसके पीछे कोई तर्क नहीं था।’ यह तर्कहीनता युद्ध को अन्ततः निरर्थक, अनुपयोगी, अनौचित्पूर्ण और मनुष्यविरोधी बना देती है। किशोरियों को कामेच्छा से पीड़ित बताकर उनको यौन-सुख प्रदान करने के लिये तत्पर युवकों का अमर्यादित आचरण वस्तुतः युद्ध का सहउत्पाद है जो किसी राज्य अथवा भूखण्ड को लम्बे समय तक प्रभावित करता है। युद्ध मूलतः राजसत्ता के अहं तथा एकाधिकारवादी सोच का विस्फोट होते हैं। इसलिए युद्ध प्रायः अनिवार्य नहीं, निर्मित होते हैं। इस प्रसंग को रचना में युद्धविरोधी विचार की सार्थक उपस्थिति के रूप में देखना चाहिए। काशीनाथ सिंह ने इस उपन्यास के नायक कृष्ण के भीतर पश्चाताप, निरर्थकताबोध एवं द्वन्द्वात्मकता की सृष्टि करके उनके भीतर की मनुष्यता को टटोलने का प्रयास किया है।
‘उपसंहार’ के वृतान्त में प्रश्नों की बहुलता है। समस्याओं और चुनौतियों का अम्बार है। कृष्ण के द्वारपालों द्वारा उनसे मिलने आने वालों से पण लेना व्यवस्था में घुस आये भ्रष्टाचार को इंगित करता है। इस प्रवृत्ति की हमारे वर्तमान से गहरी सम्बद्धता है। काशीनाथ सिंह ने समकालीन यथार्थ को व्यक्त करने के लिये मिथक का और मिथक को समझने के लिये समकालीन यथार्थ का सहारा लिया है। पात्रों के महिमामण्डन में काशीनाथ सिंह रुचि नहीं लेते। इसलिए ईश्वरीय शक्तियों से परिपूर्ण कृष्ण भी इस उपन्यास में एक सामान्य व्यक्ति के रूप में दिखने के लिये विवश हैं। कथानक की यही माँग है। वस्तुगत स्थिति से अवगत होने के बाद भीम की अनिच्छा जनता के एक बड़े हिस्से की मनःस्थिति को व्यक्त करती है। यह उपन्यास राज्य को विपत्ति में झोंककर राजा के तीर्थाटन को राजधर्म नहीं मानता। जिस महाभारत के युद्ध को धर्मयुद्ध के रूप में देखने का चलन है, उस तर्क को यहाँ भोथरा कर दिया गया है। न्याय युद्ध में दुर्योधन को पराजित कर पाना सम्भव नहीं था। उसे मारने के लिये अधर्म का आश्रय लिया जाता है। बलराम इसे हत्या कहते हैं। वैसे भी युद्ध में धर्म, न्याय और संयम का विचार यथार्थसम्मत नहीं, आरोपित या बनावटी लगता है। धर्म की स्थापना के लिये किये जाने वाले युद्ध यदि प्रेम, शान्ति और सौहार्द्र की स्थापना नहीं करते, तो इस धारणा पर पुनर्विचार किये जाने की आवश्यकता है। इतना तो तय है कि छल- प्रपंच और कूटबुद्धि के प्रयोग से धर्म की स्थापना नहीं हो सकती। बलराम का आक्रोश वासुदेवत्व के समक्ष असहमति के साहस का उदाहरण है। यह उपन्यास कृष्णकथा के माध्यम से युगीन सत्य का उद्घाटन करता है। ‘उपसंहार’ में मानवता के विनाश के बरक्स उसके संरक्षण पर जो बल दिया गया है वह किसी परिपाटी का पालन भर नहीं, हमारे समय की अनिवार्य आवश्यकता है। उपन्यास में व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया एवं उसके उद्देश्य का उल्लेख मिलता है। कृष्ण स्वयं को वासुदेव बनाने के लिये अनेक तर्क गढ़ते हैं। वासुदेव बनने की प्रक्रिया में वे धर्म एवं न्याय के नाम पर छल-कपट, झूठ, अन्याय और अधर्म का प्रच्छन्न समर्थन कर बैठते हैं। यह भूल उनके प्रभामण्डल को श्रीहीन करती है। क्या विजय को सुनिश्चित करने के लिये ऐसा करना आवश्यक होता है? क्या यह रणनीति वासुदेव की गरिमा के अनुरूप है? कृष्ण की रणनीति आज के राजनेताओं की नीतियों और कार्य-प्रणाली से मेल खाती है। यदि विजय ही अन्तिम लक्ष्य है, तो साधन की शुचिता का विचार सिर्फ़ आडम्बर बनकर रह जाता है। इस उपन्यास में बलराम को आदर्शवादी और कृष्ण को व्यवहारकुशल पात्र के रूप में चित्रित किया गया है। कृष्ण के चारित्रिक विकास में निरन्तरता दिखती है। वे कान्हा, कन्हैया, कृष्ण से होते हुए अन्त में वासुदेव तक पहुँचते हैं। कान्हा में स्वाभाविकता है, कृष्ण में चतुराई। कान्हा प्रकृत रूप हैं, जबकि कृष्ण राजन्, रणनीतिकार और ईश्वर हैं। कान्हा में आत्मीयता है, कृष्ण में औपचारिकता। इस सन्दर्भ में राधा का यह कथन गौरतलब है: ‘मेरा साजन राजन कब से हो गया कान्हा?…बावरी की तरह प्यार किया है मैंने। पूरा गोकुल इसे जानता है।’ कृष्ण के प्रति राधा के प्रेम में कुछ भी गोपन नहीं है। इस प्रेम में कोई अवरोध नहीं है। यह लौकिक है। इसमें वेदना और टीस है। कृष्ण स्वयं स्वीकार करते हैं कि राधा ही प्रेमयोग की उनकी प्रथम दीक्षागुरु हैं। फिर भी यह कहना अनुचित नहीं होगा कि प्रेम-प्रसंगों की अभिव्यक्ति में काशीनाथ सिंह अपेक्षित गहराई, सूक्ष्मता, ऐन्द्रियता और प्रभावान्विति नहीं ला पाये हैं। प्रेम-चित्रण उनकी रचनाशीलता का दुर्बल पक्ष है।
‘उपसंहार’ के केन्द्रीय पात्र कृष्ण को थकान का अनुभव, उनका सलेटी हो चुका रंग और सफेद दाढ़ी दुर्बलता एवं क्षरण के चिह्न हैं। दुर्बल का सम्बन्ध शरीर और मन से है, जबकि क्षरण उनके वासुदेवत्व की दीप्ति का होता है। ‘जिस मुस्कान के लिये वे जाने जाते थे वह कुरुक्षेत्र में ही कहीं खो गयी थी।’ क्या उनके अन्तर्मन में कोई अपराधबोध घर कर चुका है अथवा महायुद्ध की विभीषिका के मर्मान्तक प्रभाव से उनकी सहजता छिन्न-भिन्न हो गयी है? चिन्ता, बेचैनी, बाँसुरी से पृथक्ता, प्रकृति से अलगाव तथा पशु-पक्षियों से बढ़ती दूरी का कारण क्या है? ऐसे अनेक प्रश्न इस औपन्यासिक कृति को हमारे समय और समाज से सम्बद्ध करते हैं। इससे उपन्यास प्रासंगिक बनता है। कृष्ण के बारे में प्रद्युम्न की टिप्पणी गौरतलब है: ‘उन्हें ‘पुरुषोत्तम’, ‘जनार्दन’, ‘जगदीश्वर’ जो कुछ होना है हुआ करें, हमारे ठेंगे पर।’ यह एक पुत्र का अपने पिता के बारे में व्यक्त विचार है। इससे दो पीढ़ियों के पारस्परिक सम्बन्धों में होने वाले बदलाव को समझ सकते हैं। ‘उपसंहार’ में मिथकीय पात्रों के माध्यम से पुरानी पीढ़ी की व्यापक सामाजिकता के बरअक्स नयी पीढ़ी की आत्मकेन्द्रिता तथा दोनों पीढ़ियों की चेतना में होने वाले बदलाव को चित्रित किया गया है। युवा पात्रों के प्रश्न, असहमति, आक्रोश, उच्छृंखलता, यौन-सम्बन्ध, टकराव, अभद्रता, हिंसा, अपहरण, बलात्कार और इन सबका प्रत्यक्षदर्शी बनकर देखते रहने की कृष्ण की निरुपायता आज के यथार्थ के साथ मिलकर अधिक चाक्षुष् हो गयी है। इस उपन्यास के पात्र भले ही मिथकीय हैं, किन्तु उनके चरित्र और परिवेश यथार्थ का बोध कराते हैं। वर्तमान जीवन के यथार्थ की प्रवृत्तियों को यह जिस प्रकार व्यक्त करता है उससे काशीनाथ सिंह की कथाभाषा एवं सर्जनात्मक चेतना में आये बदलावों को भी लक्षित किया जा सकता है। ‘उपसंहार’ की संरचना में उन्होंने कहन की नयी भंगिमा को अपनाया है। यह नयापन उनके अपने ही पुराने से अलग है। वे ऐसा प्रायः करते हैं। इसे उनका साहस, नये के प्रति ललक अथवा पाठकों को नयी रचना-प्रविधि से चौंकाने का प्रयास भी कह सकते हैं। वे इस उपन्यास में गद्य और छन्दमुक्त कविता को एक में मिलाते तथा एक-दूसरे से अलगाते हुए रचना की मनोभूमि को दार्शनिकता की ओर ले गये हैं जहाँ युगीन यथार्थ की अनेक छवियाँ झलक मारती हैं। उपन्यास कहता है कि ‘कृष्ण के भाग्य में एकान्त नहीं रह गया था।’ प्रश्न उठता है कि भाग्य ईश्वर को कैसे संचालित कर सकता है? कृष्ण के राज्य में बलात्कार की घटना उनके ईश्वरत्व की गरिमा को धूमिल करती है। उपन्यासकार ने क्या इस शब्द का प्रयोग कृष्ण के प्रति अनास्था व्यक्त करने के लिये किया है अथवा तज्जुगीन परिस्थितियों में घटित सत्य से परिचित कराने के लिये, याकि एक समय विशेष में समादृत व्यक्तियों के धूमिल होते प्रभामण्डल की सापेक्षता दिखाने के लिये? कृष्ण की शक्तियाँ ही क्षीण नहीं होतीं, उनकी उपदेशकुशलता भी निष्प्रभ हो जाती है। कुलगुरु गार्ग्य मुनि कहते हैं कि ‘बड़े बुरे दिन आने वाले हैं द्वारका के। आपके महल के बाहर गरुड़ द्वार पर मैंने कलिकाल को खड़ा देखा है।’ भाग्य और कलिकाल का उल्लेख भी कृष्ण के वासुदेवत्व पर प्रश्नचिह्न लगाता है। मानवीय मूल्यों, नैतिकता, अनुशासन, प्रेम और सौहार्द्र का आग्रह तथा स्वेच्छाचारिता, उद्दण्डता, अनात्मीयता, सम्बन्धहीनता एवं पारस्परिक टकराव से बचने की सलाह देने वाला यह उपन्यास काशीनाथ सिंह के प्रचलित लेखन से भिन्न भावभूमि पर आधारित है। ‘लोकराज्य’ और ‘गणराज्य’ की स्थापना के लिये किये जाने वाले प्रयास और ‘राजतन्त्र’ के विरुद्ध संघर्ष का परिणाम स्थायी नहीं होता। यह एक सतत प्रक्रिया है जिसके माध्यम से लोकतान्त्रिक राजव्यवस्था में उत्पन्न होने वाली विकृतियों का परिष्कार आवश्यक है। स्थापना पर्याप्त नहीं होती, उसका समुचित विकास उससे अधिक आवश्यक होता है। आखिर क्या कारण है कि ‘द्वारका अपने ईश्वर की ऐसी-तैसी होते देखती रही-अवाक् और असहाय।’ स्थितिप्रज्ञ, जितेन्द्रिय और जयाजय से परे कृष्ण की ‘एक सामान्य आदमी जैसी मृत्यु’ क्या संकेत देती है? कृष्ण की अप्रत्याशित मृत्यु उनके ईश्वरत्व पर प्रश्नचिह्न लगाती है। एक प्रकार से यह ईश्वर की लोकप्रचलित अवधारणा को प्रश्नांकित करना हुआ। यह उपन्यास इस विचार का समर्थन करता है कि व्यापक जनसमूह ही किसी व्यक्ति को ईश्वर में रूपान्तरित करता है। वही अनुपयोगी हो जाने पर ईश्वर को उसकी गरिमा से च्युत् भी कर देता है। जनता से विच्छिन्न राजा अथवा जनसरोकारों से विमुख लोकतन्त्र का भविष्य नहीं होता। ‘उपसंहार’ के वृतान्त में कृष्ण की आठ रानियों और अस्सी बेटों का उल्लेख मिलता है। आदिवासी जनजाति की मूल की जाम्बवती से उत्पन्न पुत्र साम्ब को बालक कृष्ण की चारित्रिक विशेषताओं से युक्त बताया गया है। यादव युवकों के साथ उसका पिंडारक क्षेत्र के जंगलों में जाना, मदिरा से भरे घड़े को धरती में से खोदकर निकालना, हिरन का शिकार एवं मांस भक्षण करना तथा ऋषि-मुनियों के ज्ञान की परीक्षा लेने के लिये गर्भिणी स्त्री का स्वांग रचना द्वारकावासियों में बढ़ती उच्छृंखलता का सूचक है। ऋषि क्रोधाविष्ट होकर शाप देते हैं कि ‘क्रूर, धोखेबाज, दुष्ट, दुराचारी यादव कुमारो! कृष्ण का यह पुत्र साम्ब लोहे का एक भयंकर मूसल पैदा करेगा, जो तुम सभी यादव कुलों का नाश करेगा।’ ऋषि यादव कुमारों के लिये जिन विशेषणों का प्रयोग करते हैं, उन्हें देखकर कहा जा सकता है कि उन्होंने शाप देते समय कृष्ण के वासुदेव होने का लिहाज नहीं किया। यादव कुमारों की उद्दण्डता के बरअक्स ऋषियों का शाप आनुपातिक दृष्टि से सन्तुलित नहीं लगता। यह असन्तुलन भी एक तरह से अन्याय ही है। इसमें शक्ति का विवेकहीन प्रदर्शन दीख पड़ता है। क्या ऋषि होना क्रोध, असंयम, अधैर्य और असंवेदनशीलता का पर्याय है? इस प्रवृत्ति का राजनीति, समाज, व्यक्तित्व, व्यवस्था, विचार एवं आचरण से गहरा सम्बन्ध है। उपन्यास में कहा गया है कि ‘नियति एक बहाना ढूँढ़ रही थी द्वारका के विध्वंस के लिये’। इसलिए विनाश का कोई कारण बनना ही है। यदि दूसरों के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप होगा तो अनर्थ की सम्भावना बनेगी। समय के साथ व्यक्ति के जीवन में उतार-चढ़ाव आता है। जीवन की सान्ध्य-बेला में कृष्ण वासुदेव से एक साधारण व्यक्ति में परिवर्तित हो जाते हैं। स्पष्टतया यह शक्ति-संरचना में परिवर्तन का संकेत है। ‘उपसंहार’ के विकास-क्रम में हम महाभारत के युद्ध में निभायी गयी अपनी ही भूमिका पर कृष्ण के मन में सन्देह पैदा होता हुआ देखते हैं। उनका व्यक्तित्व सम्पूर्णता के स्थान पर खण्डित का आभास देता है। खण्डित व्यक्तित्व और स्वयं पर सन्देह होना आधुनिक युगीन व्यक्ति के लक्षण हैं। उपन्यासकार ने कृष्ण के चरित्र पर आधुनिक भावबोध का आरोपण करके इस रचना को समकालीन परिप्रेक्ष्य देने का प्रयास किया है।
‘उपसंहार’ के वृतान्त में ‘टूटी टाँग के साथ घिसटता हुआ दुर्योधन’ कृष्ण के अन्तःकरण को विक्षुब्ध करता है। युद्ध की समाप्ति पर वे एक बड़े सत्य का उद्घाटन करते हैं: ‘सुनो, पाण्डवो सुनो! कौरव महायोद्धा थे। तुम धर्मयुद्ध में किसी प्रकार उन्हें पराजित नहीं कर सकते थे। इसलिए मैंने तुम्हारे कल्याण के लिये छल, कपट और माया के सहारे उनका संहार किया। दुर्योधन को धर्मयुद्ध में पराजित करना यमराज के लिये भी असम्भव था।’ इस स्वीकारोक्ति के पश्चात् धर्म और न्याय के पक्ष में दिये गये सारे तर्क व्यर्थ, अनावश्यक एवं पाषण्ड बनकर रह जाते हैं। धर्म और न्याय की रक्षा के नाम पर लड़े गये युद्ध में मानवीय मूल्यों का तिरस्कार कार्य के प्रयोजन को सन्दिग्ध बना देता है। क्या यह मान लेना चाहिए कि धर्म, न्याय, सत्य और सदाचार की बातें सिर्फ़ दिखावा हैं। व्यक्ति के आचरण से इनकी कोई संगति और सरोकार नहीं है। जब ईश्वर ही अन्याय करने लगे, तो समाज किससे न्याय की आशा करे? उपन्यासकार ने शास्त्र और लोक दोनों की चेतना एवं विवेक को प्रश्नांकित किया है। यहाँ उस एकाधिकारवादी सोच पर अँगुली उठायी गयी है जो अपनी विजय को किसी भी माध्यम से सुनिश्चित कर लेना चाहती है। उच्चतर नैतिकता का दावा करने वालों का विचलन साधारण जनसमूह को भ्रमित कर अराजकता की ओर उन्मुख कर देता है। वास्तव में घटनाओं के लिए उत्तरदायी जनता नहीं, वे उच्चपदस्थ लोग होते हैं जिनके हाथ में शक्ति होती है। कर्ण के स्वप्न में रक्तरंजित पृथ्वी को फेंकते हुए दिखना तथा अग्निस्तूप के ऊपर खड़े सुवर्ण पात्र में घृत पायस खाने के लिये तत्पर, किन्तु खा नहीं पाने की विवशता से भरे युधिष्ठिर की निरीह आकृतियों का उभरना धर्म और न्याय के कथित तर्कों को ध्वस्त कर देता है। यह उपन्यास युद्ध का एक क्रिटीक रचता है। मौजूदा दौर में जिस प्रकार मानवीय मूल्यों और लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर आघात हो रहा है, जनसाधारण एवं समाज को उन्मादग्रस्त किया जा रहा है; वह शान्ति, सद्भाव एवं मैत्री के उदात्त मूल्यों के लिये गम्भीर चुनौती है।
‘उपसंहार’ के कृष्ण की यह स्वीकारोक्ति गौरतलब है कि उनमें ‘अब वह पौरुष नहीं रह गया है। अब तो अपने बेटे ही नहीं सुन रहे हैं…।’ इसमें कृष्ण की विवशता के अलावा वर्तमान के संकट और भविष्य की आहट की झलक मिलती है। कृष्ण का पौरुष ही नहीं क्षीण होता, उनके विचार भी बदलते हैं। उन्होंने कुरुक्षेत्र के रण में अर्जुन को कर्मयोग का जो सन्देश दिया था, वह अधूरा था। उन्होंने यह नहीं बताया कि ‘फल कर्म में ही निहित रहता है, भले ही दिखायी न दे।’ उनके व्यक्तित्व में अन्तर्विरोध है। उनकी दृष्टि कर्म पर नहीं, परिणाम पर टिकी है जो भविष्य को नहीं; वर्तमान को ही देख पाती है। वे यह अनुमान नहीं लगा पाते कि वे जो कर रहे हैं उसका द्वारका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। कृष्ण भी स्वयं को संकीर्णताओं से नहीं बचा पाते। ऐसे में उनके व्यक्तित्व पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। अतिशय स्वार्थ और कुटिलता मनुष्य को ही नहीं, जीव-जन्तुओं तथा प्राकृतिक उपादानों को भी प्रभावित करती है। कृष्ण की उपस्थिति में ही उनकी बनायी ‘अमरावती समझी जाने वाली द्वारका’ विनाश की ओर बढ़ने लगती है। क्रोध, विक्षोभ, असन्तोष, अराजकता और हाहाकार के बीच कृष्ण पर जनता का भरोसा तो बचा है, किन्तु जब कृष्ण स्वयं को ही विवश और असहाय पाते हैं तो उस भरोसे का अर्थ ही क्या रह जाता है? इस उपन्यास में दार्शनिकता का जो पुट दिया गया है, उससे इसके तेवर में बदलाव दिखता है। इस उपन्यास के कृष्ण अनेक प्रश्नों, सन्देह और दुविधा से घिरे दिखते हैं। वे द्रौपदी के मान की रक्षा करते हैं, लेकिन उसके पुत्रों के जीवन की रक्षा नहीं कर पाते। अर्जुन को विजयी बनाते हैं, किन्तु अभिमन्यु की हत्या नहीं रोक पाते। अश्वत्थामा के मस्तक की मणि छीन लेते हैं, लेकिन उसे परास्त नहीं कर पाते। ‘दुर्जनों का विनाश करने के लिये उन्हीं के स्तर पर उतर आते हैं।’ यह उनके ईश्वरत्व की पराजय है। भीष्म और द्रोणाचार्य दुर्जन नहीं थे, फिर भी मारे गये। भीतर का ईश्वर जब झूठ और कपट से कलुषित होता है तो नैतिकता, आदर्श और न्याय का विचार तिरोहित हो जाता है। यदि महाभारत का युद्ध पूर्णतः न्यायसम्मत था तो कृष्ण दुर्योधन के मृत शरीर को देखकर करुणा और अपराधबोध से क्यों भर उठते हैं? ईश्वर में अपराधबोध तो नहीं पैदा होता, तो फिर कृष्ण अपराधबोध से ग्रस्त क्यों हो जाते हैं? उन्हें पश्चाताप क्यों होता है? गान्धारी उनका उपहास करती है कि ‘आप देवत्व की चोटी से फिसल गये…। इसी को घोर पाषण्ड कहते हैं।’ वह उन्हें शाप देती है। उपन्यास के अन्त में उनके वंश का नाश हो जाता है और वे निपट अकेले हो जाते हैं। ‘उन्हें देखकर कौन कहेगा कि यही आदमी कभी ईश्वर था? सारी सृष्टि, ग्रह, नक्षत्र जिसकी आज्ञा के लिये तत्पर रहते थे? जिसे देखते ही लोग चौधिया जाते थे?’ बचपन की स्वाभाविकता और अन्तःकरण का रागभाव राजनीति-कूटनीति में घुलकर रंगहीन हो जाते हैं। वे अतीत के घटनाक्रमों को याद करके बुदबुदाते हैं: ‘जब मैं ही नहीं समझ सका इस जीवन और जगत् के रहस्य को, तो दूसरा क्या समझेगा?’ धर्म, अध्यात्म, दर्शन और विज्ञान सृष्टि के रहस्य को जानने-सुलझाने का निरन्तर प्रयास करते आ रहे हैं, किन्तु आज तक किसी अन्तिम निष्कर्ष तक नहीं पहुँच सके। इस सृष्टि में विचारों की बहुलता और उनमें परस्पर टकराव है। कोई एक विचार अथवा दर्शन समूची मानवता का प्रतिनिधित्व नहीं करता। द्वारकावासियों की गुटबन्दी, अक्रूर की व्यावहारिक बुद्धि, कृष्ण की आँखों के सामने उनके सबसे प्रिय पुत्र प्रद्युम्न की हत्या, सरपत का मूसल में रूपान्तरण और बलराम की जल-समाधि जैसी घटनाएँ इस औपन्यासिक वृतान्त को उपसंहार की ओर ले जाती हैं। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब कृष्ण के रहते ‘द्वारका की धरती अशुद्ध और अपवित्र’ हो सकती है, तो कृष्ण की अलौकिकता के मायने क्या रह जाते हैं? महाभारत के युद्ध के बाद उनके चित्त की चंचलता, अतीत की स्मृतियाँ और राधा के स्मरण की वेदनाजन्य अनुभूति का वर्णन कृष्ण को एक साधारण मनुष्य में रूपान्तरित कर देते हैं। उनके जीवन में स्थायित्व नहीं है। उनकी जीवन-यात्रा गोकुल से मथुरा, मथुरा से द्वारका और द्वारका से प्रभास पर जाकर ही समाप्त नहीं हो जाती। उनकी यात्रा स्थगित होती है गहन एकान्त वन में, जहाँ वे एक साधारण व्यक्ति की नियति को प्राप्त होते हैं। यही इस उपन्यास के कथ्य का मूल प्रयोजन है। ‘उपसंहार’ एक मिथकीय कथानक को आधुनिक दृष्टि से विन्यस्त करने का प्रयास है जिसमें धर्म, न्याय, राजनीति, समाज, परिवार और सत्ता समीकरणों के विभिन्न आयामों का स्पर्श किया गया है।