सार :
स्त्री लेखन का आरंभिक दौर सामाजिक आदर्श और नैतिकता से प्रेरित था। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद बदले हुए माहौल और मध्यवर्ग के नए परिवेश में इनके कथावस्तु के केंद्र में स्त्री-पुरूष संबंध को अपने नजरीये से परिभाषित करने का हौसला नजर आता है। नई सदी के मुहाने पर आकर उनका कथा संसार व्यापक नजर आने लगता है। नारी जीवन के प्रश्नों के समक्ष आधुनिक महिला कथाकारों ने अपनी तीक्ष्ण लेखनी चलाई है। मैत्रेयी जी उन्ही में से एक जाना पहचाना नाम है। कथा भूमि का केंद्र है बुंदेलखंड और वहां का जनजीवन। इस परिवेश में रहनेवाली ‘उर्वशी’ की त्रासद जीवन कहानी को केंद्र में रखकर लिखा गया उपन्यास ‘बेतवा बहती रही’ मैत्रेयी जी का प्रथम उपन्यास है। स्त्री की सत्ता और क्षमता को स्वतंत्र रूप से उभारना स्त्री के प्रति रूढिबद्ध धारणाओं का निषेध करना एवं स्त्री की अस्मिता को उजागर करना मैत्रेयी जी का लक्ष्य रहा है। उपन्यास में मैत्रेयी जी ने कथा नायिका उर्वशी के माध्यम से त्याग, सेवा, समर्पण भावना को विस्तृत रूप से उल्लेखित किया है। पुरुष प्रधान समाज में पुनर्विवाह एक ऐसा विचार है जो पुरुष के लिए सुखद व सुलभ जीवन, स्वतंत्रता, मान-मर्यादा का हरण नहीं करता, परंतु एक स्त्री के जीवन के लिए पुनर्विवाह उसके स्वातंत्र्य चेतना, इच्छित जीवन की चाह, भविष्य के प्रति असुरक्षा को शंकामुक्त नहीं करता। इस उपन्यास में मैत्रेयी जी ने समाज की दुहरी मानसिकता और लैंगिक असमानता को दिखाने का प्रयत्न किया है।
की-वर्ड्स:
लैंगिक असमानता, विधवा विवाह, पुरुष प्रधान समाज।
परिचय :
आज का स्त्री साहित्य, स्त्री संवेदना, स्त्री भाषा, स्त्री के शब्दकोश, स्त्री के सम्मान, स्त्री की सत्ता में हिस्सेदारी और इतिहास में स्त्री की प्रतिष्ठा के लिए प्रयासरत है। नारी जीवन के प्रश्नों के समक्ष आधुनिक महिला कथाकारों ने अपनी तीक्ष्ण लेखनी चलाई है। मैत्रेयी जी उन्ही में से एक जाना पहचाना नाम है। ‘बेतवा बहती रही’ उनका प्रथम उपन्यास है। कथा भूमि के केंद्र में बुंदेलखंड और वहां का जनजीवन है। उपन्यास की नायिका उर्वशी की त्रासद जीवन कहानी हमारे समाज के किसी भी निर्धन असहाय स्त्री की हो सकती है। पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था ने नारी को हेय समझा है। नारी की लड़ाई पुरुष मानसिकता से है। पुरुष प्रधान समाज का चेहरा कितना भयावह तथा विद्रूप है, यही दिखाना उनके साहित्य का उद्देश्य रहा है। उनके साहित्य के केंद्र की दूरी में नारी है। नारी का अपना एक जीवन है, उसे सिर्फ महिमामंडित होकर जीना नहीं अपितु मानव समाज में गरिमापूर्ण सम्मान व अधिकार से जीना है।
‘बेतवा बहती रही’ उपन्यास एक तरफ सर्वहारा किसान की अंतहीन यातना को चित्रित करता है, वहीं दूसरी ओर कथा नायिका उर्वशी की दर्द भरी जिंदगी को भी स्वर देता है। उपन्यास के अन्य स्त्री चरित्र भी किसी न किसी दृष्टि से विशिष्ट है। मीरा, जीजी, नानी, दादी, बड़ी दादी, शेरा की साहसी पत्नी- ये सभी अविस्मरणीय चरित्र हैं। स्त्री की सत्ता और क्षमता को स्वतंत्र रूप से उभारना स्त्री के प्रति रूढिबद्ध धारणाओं का निषेध करना एवं स्त्री की अस्मिता को उजागर करना मैत्रेयी जी का लक्ष्य रहा है। उपन्यास में मैत्रेयी जी ने कथा नायिका उर्वशी के माध्यम से त्याग, सेवा, समर्पण भावना को विस्तृत रूप से उल्लेखित किया है। मौन बनी उर्वशी स्वजनों के स्वार्थ पोषने हेतु अपनी बलि बिना किसी हिचकिचाहट दे देती है। उपन्यास में भाई अजीत अपनी इकलौती बहन उर्वशी को अमीर दुहाजू को बेचने का प्रयत्न करता है लेकिन वह निष्फल रहता है किंतु बहन के विधवा होते ही उसके भाग्य का दरवाजा खुल जाता है। वह उर्वशी की शादी जबरदस्ती मीरा के बूढ़े विधुर पिता बरजोर सिंह के साथ करा देता है। अजीत अपनी बहन का विक्रय कर 10 बीघा खेत अपने नाम करा लेता है। उपन्यास में उर्वशी का त्याग एक प्रकार से मानो अपनी ही बलि है। सिरसा स्थित ससुराल की देहरी को उजली रखने के लिए और भाई की हिताकांक्षा हेतु स्वयं उर्वशी तथाकथित पुनर्विवाह के पवित्र यज्ञ में होम हो जाती है। उर्वसी का यातनामय जीवन उसे दृढ़तामयी बनाता है। बचपन से ही लगाया हुआ लगाम तोड़कर वह पुरुष वर्ग के खिलाफ विद्रोही बन जाती है। अपने भाई के विरोध में कुछ समय के लिए उसका तेवर विद्रोही हो जाता है-
‘काहे को करते हो ऐसा अन्याय? क्या बिगड़ रहा है तुम्हारा अजीत भैया? मैं कोई ढोर नहीं जिसे खूंटे, रस्से से बांधकर रखना लाजिमी है।‘[1]
नारी का जीवन हमेशा कॉंटों से घिरा है। विधवा उर्वशी को उसका अपना भाई अपने स्वार्थवश ससुराल में शांतिपूर्वक रहने नहीं देता। उसके जेठ का अपमान करके कलहपूर्ण रवैये से वह उसे अपने घर वापस लेकर आता है और पुनर्विवाह के नाम पर उसका विक्रय कर देता है। मैत्रेयी जी ने उर्वशी के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया है विधवा विवाह स्त्री की सुख सुविधा और स्वतंत्रता का पर्याय ना होकर उसके लिए यातना के नए द्वार खोल देता है। विधवा विवाह के नाम पर उर्वशी जैसे असंख्य लड़कियों का क्रय-विक्रय होता है। मैत्रेयी जी ने प्रस्तुत बात पर आक्रोश व्यक्त किया है विपन्न मानसिकता के दो-मुंहे समाज में नारी आज विनिमय की चीज है। यहां विधवा विवाह वरदान नहीं बल्कि अभिशाप की तरह है। उर्वशी अपने भाई अजीत के फैसले का विरोध करती है परंतु परिस्थितिवश भाई की गृहस्थी बचाने के लिए वह समर्पण कर देती है। परिस्थिति के अनुरूप उसे ढलना सीखा है।
उर्वशी अपने ऊपर होने वाले अन्याय को तो चुपचाप सहन कर लेती है परंतु विजय की नवोढ़ा विधवा बहू के लिए वह आवाज उठाती है और बरजोर सिंह के खिलाफ जाकर उदय की उससे दुबारा शादी कराती है। उसके अंदर की दबी-कुचली स्त्री विद्रोह करती है-
‘उदय की शादी के लिए जो लोग आए हैं पइसा वाले हैं, अपनी बिटिया के लिए आसानी से उदय जैसा वर खोज लेंगे……. लेकिन हमारे विजय की बहू….. कहां जाएगी वह? कौन ब्याहने आएगा उसे? तुमने कबहूँ सोंची जे बात? कैसे कटेगी उसकी जिंदगी……..? बेटा ना रहौ तो बहू बिरानी हो गई? धक्का मार दऔ वाय? हमारे रहते जा अनरथ नहीं हो सकत…… एक हजार तक नहीं……..’ [2]
एक ही स्त्री ही दूसरी स्त्री की पीड़ा को भली-भांति समझ सकती है और उसे समाज में यथोचित स्थान दिला सकती है। इसके लिए स्त्री को अपनी आत्मशक्ति को केंद्रित कर दृढ़ विश्वास के साथ अत्याचार के खिलाफ आवाज उठानी होगी तभी यह सच्चे अर्थ में नारी विमर्श होगा। जब तक स्त्री सशक्त होकर स्वयं के हक में फैसला लेने लायक नहीं होगी तब तक उसे इस गैर-बराबरी पुरुष समाज में समान अधिकार नहीं मिल सकता। मैत्रेयी जी ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि उर्वशी यहां घर की मुखिया के रूप में फैसला लेती है और बड़े समझदारी के साथ विजय की विधवा बहू को घर में इज्जत से रहने का हक दिलाती है। वह नहीं चाहती कि विधवा होने के कारण जो कुछ उसने सहा है, जो पीड़ा चली है, वह विजय की बहू को भी भुगतना पड़े।
उपन्यास के अन्य नारी पात्र भी नारी चेतना से सम्पन्न हैं। विधवा दादी अनुभव जगत से गुजरी हुई औरत है। वह स्त्री अपने लंपट चरित्रहीन विधुर पुत्र को आड़े हाथ लेती है। जब वह अपने अकेलेपन की दुहाई देता है तो दादी कहती है-
‘काऊ और की देहरी पै धर देते तुम्हें और पहर लेते दूसरे मरद की बिछिया तौ लला, आज मुंछ सीधी करके बात नहीं कर पाउते तुम। दूसरे के द्वारे कुत्ता कि-सी जिंदगी काटते।…आदमी की जात जनी को तो छाती लगा लेत है पर पहले मर्द के बच्चा को नहीं झेल पाउत और जो लला, तुम्हें यहीं पटक फेंक जाते तौ तुम ना जाने कौन गली में भटकते।‘[3]
यहां मैत्रेयी जी समाज की दुहरी मानसिकता को दिखाने का प्रयत्न करती हैं। पुरुष प्रधान समाज में पुनर्विवाह एक ऐसा विचार है जो पुरुष के लिए सुखद व सुलभ जीवन, स्वतंत्रता, मान-मर्यादा का हरण नहीं करता, परंतु एक स्त्री के जीवन के लिए पुनर्विवाह उसके स्वातंत्र्य चेतना, इच्छित जीवन की चाह, भविष्य के प्रति असुरक्षा को शंकामुक्त नहीं करता। अपनी संतान के प्रति दूसरे पति से मिलने वाला पक्षपातपूर्ण व्यवहार, आर्थिक व आत्मीय सहायता के अभाव का भय हमेशा उसे सताता रहता है। उसका मन इस संशयों से उबर नहीं पाता। इसलिए पुनर्विवाह एक कसौटी के रूप में स्त्री के सम्मुख खड़ा प्रश्न है जिसका वरण करना उसके लिए आसान नहीं होता। एक संतानवती स्त्री के लिए तो यह प्रश्न और भी विकराल रूप लेकर सामने आता है। संतान का मोह और भविष्य को लेकर होने वाली आशंका उसे पुनर्विवाह के बारे में पहल करने से आतंकित करता है। इसका संकेत मैत्रेयी जी ने उपन्यास की भूमिका में ही स्पष्ट किया है। वह लिखती है-
‘क्योंकि वह औरत है, औरत सदैव रहती है, सहने के लिए, झेलने के लिए और जूझने के लिए।‘[4]
दादी का प्रश्न है कि क्या वैधव्य झेलकर उन्होंने बच्चों की परवरिश नहीं की है? इनके लिए भी अकेलापन दुख ही था। पुरुष जब अकेलेपन के लिए चिंतित हैं तो क्या स्त्री अपने अकेलेपन के लिए चिंतित ना हो। पुरूष की मानसिकता में स्त्री के प्रति सोच व स्त्री की मानसिकता में पुरुष के प्रति सोच में भिन्नता क्यों? इसका कारण लैंगिक असमानता है। मैत्रेयी जी ने प्रस्तुत संदर्भ को उठाकर लैंगिक समानता का आह्वान किया है।
निष्कर्ष:
मैत्रेयी जी में अपने पात्रों के प्रति गहरी आत्मीयता है। विशेषत: वह अपने स्त्री पात्रों के साथ रहती है। स्त्री की पीड़ा, दुख दर्द को उभारकर उसे परिस्थिति के खिलाफ समाज में विद्रोही स्वर देने में सक्षम बनाती हैं। उपन्यास में मैत्रेयी जी ने उर्वशी की तुलना बेतवा नदी से की है। बेतवा स्वयं सुंदर, पवित्र एवं प्यासों के लिए जीवनदायिनी है। उर्वशी भी भाई की गृहस्थी, ससुराल की पवित्रता और सौतेली नवोढ़ा बहू के मंगल के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए अपना उच्च कामनाओं भरा जीवन विसर्जित कर देती है। यह उपन्यास स्त्रियों की प्रस्थिति का न केवल निदर्शन कराता है बल्कि उस प्रस्थिति से लड़ने का हौंसला भी देता है।
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संदर्भ:
[1] बेतवा बहती रही, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 117, किताबघर प्रकाशन
[2] बेतवा बहती रही, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 142, किताबघर प्रकाशन
[3] बेतवा बहती रही, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 126, किताबघर प्रकाशन
[4] बेतवा बहती रही, मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ संख्या 8, किताबघर प्रकाशन
डॉ. तेज नारायण ओझा
दिल्ली विश्वविद्यालय
रजनी पाण्डेय / रश्मि पाण्डेय