सार :
स्त्री जीवन के अनेक पहलू हैं जो उम्र, स्थान, प्रस्थिति के अनुरूप नये नये ढंग से परिचालित होती नजर आती हैं। इसे उभारने का काम जब से लेखिकाओं ने किया है, तब से पाठक वर्ग एक नये तरह के कथावस्तु से परिचित हुआ है। शिल्प के स्तर पर भी इन्होंने अपनी पहचान बनाई है। आंचलिक परिवेश और भाषा के कारण अपनी अलग पहचान बनाने वाली एक ऐसी ही लेखिका हैं- मैत्रेयी पुष्पा। मैत्रेयी जी के उपन्यास इदन्नमम के मूल में विंध्य के पिछड़े अंचल की नारी की त्रासद जीवन की कहानी है। इसकी नायिका मंदा एक ऐसी प्रगतिशील नारी का प्रतिनिधित्व करती है जो सामंतवादी शक्तियों से जूझते हुए वंचितों व शोषित वर्ग के अधिकारों के लिए लड़ती है तथा स्वयं एक औरत की अस्मिता के लिए संघर्षशील है। उपन्यास में तीन प्रमुख नारी चरित्र हैं जो सूत्रात्मक रूप से जुडे़ हैं। ये तीन सूत्र बऊ (दादी) प्रेम (मॉं) और मंदा है। तीनों की अपनी वेदना, समस्याएं और सीमाएं हैं तथा तीनों अपने ढंग से उत्पीड़न और अन्याय का प्रतिवाद करती है। मैत्रेयी पुष्पा के नारी पात्रों में सतर्क सामाजिक चेतना व आत्मा विश्लेषणात्मक विवेक है जो नारी विमर्श को ऊंचाइयां प्रदान करता है।
की-वर्ड्स:
सामंती समाज, परमार्थमूलक संस्कृति, वर्चस्ववादी सत्ता, विस्थापन, अंचल।
परिचय :
मैत्रेयी जी के उपन्यास इदन्नमम के मूल में विंध्य के पिछड़े अंचल की नारी की त्रासद जीवन की कहानी है। यहां मंदा के रूप में एक ऐसी युवती की विकास गाथा उद्घाटित हुई है जो अपनी धरती व मिट्टी से गहरे रूप से जुड़ी है। प्रस्तुत उपन्यास में सामंती समाज के हिंसक अंतर्विरोधों और दोहरे चरित्र को जानने समझने के साथ-साथ बदलते परिवेश में अन्य विकल्पों की संभावनाओं की तलाश में निकली ग्रामीण अनपढ़, अंगूठाटेक औरतों की व्यथा-कथा है।‘[1]
इदन्नमम के संदर्भ में राजेन्द्र यादव का कहना है- मंदा की लड़ाई दुहरी है, औरत होने की और वंचितों के अधिकारों की।[2]
‘इदन्मम’ यह मेरा नहीं या मेरे लिए नहीं- यह ऋषि परंपरा की परमार्थमूलक संस्कृति का सूत्र है। इस सूत्र की अभिव्यक्ति मंदाकिनी के व्यक्तित्व व चरित्र के माध्यम से होती है। मंदा एक ऐसी प्रगतिशील नारी का प्रतिनिधित्व करती है जो सामंतवादी शक्तियों से जूझते हुए वंचितों व शोषित वर्ग के अधिकारों के लिए लड़ती है तथा स्वयं एक औरत की अस्मिता के लिए संघर्षशील है। पुरूष वर्चस्ववादी सत्ता के बीच अपने हक के लिए आवाज उठाती है तथा ऐसे समाज की अगुआ बनकर उभरती है जहां स्त्री तथा वंचितों के अधिकारों का हनन न हो सके।
उपन्यास में तीन प्रमुख नारी चरित्र हैं। तीनो सूत्रात्मक रूप से जुडे़ हैं। ये तीन सूत्र बऊ (दादी) प्रेम (मॉं) और मंदा है। तीनों की अपनी वेदना, समस्याएं और सीमाएं हैं तथा तीनों अपने ढंग से उत्पीड़न और अन्याय का प्रतिवाद करती है। बऊ अपना पूरा जीवन संघर्ष में ही बिताती है। अकेली विधवा अपने इकलौते जवान पुत्र महेन्द्रसिंह की हत्या के बाद टूट जाती है। अपने बेटे की राजनीतिक हत्या तथा उसकी जवान विधवा प्रेम का घर छोड़कर चले जाने एवं मृतक महेंद्रसिंह की जायदाद के लिए मुकदमा लड़ने से आतंकित व लुटेरे रिश्तेदारों से बचने के लिए बऊ को अपना गांव छोड़कर पराए गांव में जाकर बसने का निर्णय लेना पड़ता है। बऊ की पीड़ा है कि इस दुख की घड़ी में उसे अपने गांववालों का सहयोग नहीं मिल पाता। मानसिक रूप से क्षुब्ध व लगभग टूटी हुई बऊ का दर्द यूँ उभरकर सामने आता है-
’बऊ की आंख भर आई। आवाज टूटने लगी, बखरी का ताला लगा के कुंची सलूका की जेब में डारी तो हमारी आत्मा टूक-टूक हो गई बेटा। लंबी जिन्दगानी जी है वहां। होस ही संभाला समझो उसी बखरी में। ब्याह को आए थे तो पालकी में से ओली में भरकर उतारा था पिरभुआ की दादी ने। सुख-दुखों की धूप-छांव तो आती जाती रही पर ऐसी मालूम नहीं थी कि इतेक भैयावनी आंधी चलेगी कि हम उड़ जाएंगे तिनके की तरह…….. और बीहड़ वीरान हो जाएगा हमारा आंगन।‘[3]
बऊ की पीड़ा विस्थापन की पीड़ा है। अपने ही घर से बेघर हो जाने का दर्द, अपनी मिट्टी से कटकर कहीं किसी और मिट्टी में जमने की कोशिश बऊ के लिए असह्य है। पंरतु वह अपने इकलौते बेटे की आखिरी निशानी को अपने पास रखने की कोशिश में सारे कष्टों को झेलती जाती है। हमारी सामाजिक व्यवस्था में एक औरत जब विवाह करके नए घर में प्रवेश करती है तो उसकी इच्छा यही होती है कि मृत्यु की घड़ी तक उसका घर-परिवार साथ-साथ रहे। बऊ का परिवार-पुत्र और बहु तो उसका साथ छोड़ चुके हैं, अब घर भी उससे छूट रहा है परंतु मरते दम तक वह अपनी पोती मंदा को अपने से जुदा नहीं करना चाहती, इसलिए उसे अपना दिल कड़ा करके गांव घर छोड़ने का फैसला लेना पड़ रहा है।
उपन्यास में प्रेम एक ऐसी स्त्री पात्र है जो परंपरागत समाज व्यवस्था का उल्लंघन कर अपने वैधव्य जीवन का पालन नहीं करती। स्त्री पुरूष संबंध को ही समाज पूर्ण मानता है। इसी पूर्णता की तलाश में प्रेम यह कदम उठाती है और घर से भाग जाती है। अधूरेपन को पूरा करने की आकांक्षा जो स्त्री के मन में होती है, उस आकांक्षा की पूर्ति कई बार वाजिब व कई बार गैर-वाजिब होती है। मैत्रेयी जी आधुनिक नारी के संबंध में केवल स्त्री-पुरूष समन्वय को ही पूर्ण नहीं मानती बल्कि खुद स्त्री के वजूद व अस्तित्व ही उसे पूर्ण बनाता है। प्रेम को जब रतनसिंह की असलियत पता चलती है तो वह विद्रोह कर उठती है और अंतत: उसके चंगुल से मुक्त होती है।
‘ खेती का पूरा-पूरा पइसा हड़प रहे थे। हमने कहा, चाहे पिरान कढ़ जाए, यह अमानत न देंगे किसी तरह। सोनपुरा की धरती हमारी बिटिया की विरासत है, उसके पिता की जायदाद थी। मन्दा का हक्क बनता है उस पर, छूने नहीं देंगे किसी को।‘[4]
नारी चेतना आने पर उसमें विरोध करने की शक्ति का संचार होता है और वह अपने अधिकारों के प्रति सजग हो जाती है। यह सजगता ही उसे मुखर बनाती है और अपने खिलाफ होनेवाले अत्याचार से लड़ने की ताकत भी जुटा लेती है। मैत्रेयी जी ने यहां आधुनिक स्वरवाली नारी की छवि प्रस्तुत की है जो तर्क बुद्धि का प्रयोग करती है।
मंदा उपन्यास की नायिका है। मंदा के चरित्र के माध्यम से मैत्रेयी जी उपन्यास में यह संकेत देती है कि जब तक मनुष्य अपनी आत्मचेतना से जागृत नहीं होता, तब तक वह व्यक्तिगत दुख के कुचक्र में फंसा रहता है, उसे मुक्ति नहीं मिलती। मंदा अपने व्यक्तिगत दुख से परे होती ग्रामीण जनता के साथ तादात्मय स्थापित करती उसमें विलीन हो जाती है। मंदा व्यक्तिगत मंदा न रहकर परोक्ष रूप से ग्रामीण चेतना बन जाती है। वह सोनपुर के शोषितो के साथ जुड़ जाती है। अपने प्रति हुए अत्याचार को वह आत्मबल के विकास के बल से पराजित करती है। मन की व्यथा से वह कुछ इस प्रकार उबरती नजर आती है-
’कन्या की जिस परिभाषा को वे जानती हैं, मंदाकिनी उसकी कसौटी पर खरी कहां उतरती है? वह तो कब की भंग हो गई? कैलास मास्टर के हाथों बिरगवां में। सचमुच उसे पैसे नहीं लेने चाहिए थे। नहीं, वह कन्या ही है। मन की पवित्रता पर टिका है कन्या का स्वरूप। देवी की शक्ति और सरस्वती का वरद हस्त। वह दृढ़ हो आई।‘[5]
मैत्रेयी जी मंदा के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास करती है कि ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।‘ स्त्री आघात का शिकार मंदा मन को प्रबल करके उस वयक्तिगत दुख से उबरने का रास्ता बनाती है। आत्मसंघर्ष से उसके भीतर आजादी जन्म लेती है। जीवन के जहरीले कटु अनुभवों को जैसे-जैसे वह झेलती है, वैसे-वैसे उसमें एक जुझारू दृढ़ता पनपती है। मंदा दो स्तरों पर लड़ती है- एक स्त्री होने की पहचान को कायम रखने की तो दूसरी दुर्बलों के शोषण मुक्ति की।
उपन्यास की एक अन्य प्रमुख स्त्री पात्र कुसुमा भाभी है जो अपनी स्त्री अस्मिता के लिए संघर्षशील है। वह आधुनिक स्त्री की बदलती सोच व पुरूषप्रधान समाज के प्रति अपना विद्रोह प्रकट करती है-
‘अगिन साच्छी करके ही आए थे तुम्हारे पूत के संग। सात भवरे फिर के। लिहाज रखा उसने? दूसरी बिठा दी हमारी छाती पर। अंधेर पीते रहे तुम लोग। खाक है बूढ़ेपन पर। उस दिन से कोई संबंध कोई नाता नहीं रहा हमारा। जो ब्याहकर लाया उससे ही कोई ताल्लुक नहीं, तो इस घर में हमारा कौन ससुर व कौन जेठ?‘[6]
स्त्री जब वैवाहिक बंधन में बंधती है तो वह पत्नी के रिश्ते के साथ-साथ dbकई रिश्तों को जीती है, परंतु इन सारे रिश्तों की कड़ी या यूं कहें धूरी उसके पति के साथ की होती है और जब यही साथ या संबंध खंडित होता है तो परिवार के अन्य रिश्ते भी उसके लिए बिखर जाते हैं। यहां कुसुमा भाभी भी इसी पीड़ा से गुजर रही है और परिवार से जिस सहयोग व सहानुभूति की उसे अपेक्षा रहती है वह उसे नहीं मिल पाता। फलत: उसकी पीड़ा विद्रोह के रूप में उभर के सामने आती है। स्त्री पुरुष समानता की पक्षधर कुसुमा समाज की दोहरी मानसिकता पर सवाल उठाती है जो समाज एक पुरुष को उसकी स्वेच्छा से जीने का अधिकार देता है, उस पर किसी प्रकार के बंधन की जवाबदेही नहीं होती, वही समाज स्त्री के पक्ष में इतना कठोर कैसे हो जाता है कि उसे सिर्फ नाम के बंधनों से जुड़े रिश्ते को ताउम्र ढोने को बाध्य कर देता है। ऐसे सभी बंधनों को, पारिवारिक रिश्तो को, ऐसे समाज के बारे में कुसुमा कहती है कि यहां एक स्त्री के वजूद को नकारकर सिर्फ व सिर्फ उसे नाम के बंधन में बांधे रखे जाने की साजिश की जाती है।
उपन्यास का ही एक पात्र सुगना भी है जो नारी शक्ति का प्रतीक बन कर उभरती है। स्त्री भक्षक अभिलाख सिंह सुगना का भक्षण करता है और सुगना उस भक्षक का वध करके यह संकेत देती है कि मुक्ति का द्वार आत्मरक्षात्मक हिंसा की ओर भी जाता है।
निष्कर्ष:
‘इदन्नमम’ अर्थात ऊर्जा जो दूसरों के हित के लिए हो, स्वयं के लिए नहीं। उपन्यास के स्त्री पात्र मंदा, कुसमा भाभी, सुगना आदि पात्रों की लड़ाई अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए, गांव व समाज के लिए है। मैत्रेयी पुष्पा के नारी पात्रों में सतर्क सामाजिक चेतना व आत्मा विश्लेषणात्मक विवेक है जो नारी विमर्श को ऊंचाइयां प्रदान करता है। इनके उपन्यासों की नारी परंपरागत चेतना से आगे बढ़कर आधुनिक समाज की नारी की छवि को सामने रखती है।
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संदर्भ:
[1] नई सदी के उपन्यास, संपादक डॉ. नवीन चंद्र लोहनी पृष्ठ 174
[2] उद्धृत, दसवें दशक के प्रतिनिधि उपन्यास, प्रो. मालती आदवानी, पृष्ठ 47
[3] इदन्नमम, मैत्री पुष्पा, पृष्ठ संख्या- 43, किताबघर प्रकाशन
[4] इदन्नमम, मैत्री पुष्पा, पृष्ठ संख्या-272, किताबघर प्रकाशन
[5] इदन्नमम, मैत्री पुष्पा, पृष्ठ संख्या-175, किताबघर प्रकाशन
[6] इदन्नमम, मैत्री पुष्पा, पृष्ठ संख्या-146, किताबघर प्रकाशन
डॉ. तेज नारायण ओझा
दिल्ली विश्वविद्यालय
रजनी पाण्डेय / रश्मि पाण्डेय