कुंजी वाक्य:सॉत, फूलदेई, ठेस्या देवता, गोगा-पीर, फ्यूली, मरोज, गीमा, भिटौली, लगड़, बिखोत, इगास, भैलू ।
सारांश तथा भूमिका :
लोक पर्व हमारे समाज के सांस्कृतिक-सामाजिक समरसता के प्रतीक माने जाते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, हमारे पर्व तीज-त्योहार उसे सामाजिक रूप से जोड़ने का कार्य करते हैं। यह शाश्वत सत्य है, कि मनुष्य के जीवन में अगर पर्व त्योहार ना रहे तो वह कहीं ना कहीं सांस्कृतिक सामाजिक संवेदनशीलता को प्राप्त नहीं कर पाएगा। पर्वों के द्वारा ही हम अपनी सांस्कृतिक विरासतओं को संजोकर रख पाते हैं, फिर वह चाहे राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाले पर्व हो या फिर क्षेत्रीय पर्व यानी लोक पर्व । लोक पर्व हमें अपने क्षेत्र अपनी मिट्टी से जोड़े रखने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।हर क्षेत्र के लोक पर्व वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को समाए हुए रहते हैं। लोकपर्वों के माध्यम से कई बार किसी क्षेत्र विशेष की पहचान भी बन जाती है जैसे लोहड़ी पर्व का नाम लेते ही उत्तर प्रांत पंजाब का ज़ेहन में नाम आ जाता है। उत्तराखंड क्षेत्र अपनी भौगोलिक विषमता के लिए जाना जाता है यहां के वासियों ने प्रकृति पर्यावरण के साथ संतुलन बनाते हुए अपने जीवन यापन को करने की जिजीविषा हमेशा दिखाई है,और यही उनके लोक पर्वों में भी झलकती है। उत्तराखंड एक ऐसा क्षेत्र माना जाता है, जहाँ विभिन्न जगहों के लोगों ने अपने कदम रखें,उन्होंने इस क्षेत्र को अपना मान कर यहां की संस्कृति को सहज रूप में अपनाया और इसी के साथ अपने साथ लाई कई सांस्कृतिक विरासतों को सांझा भी किया। यही कारण रहा, कि उत्तराखंड क्षेत्र में सांस्कृतिक-सामाजिक समरसता बहुलता देखने के साथ ही सांस्कृतिक विशिष्टता भी दिखती है,और इसी कारण उत्तराखंड क्षेत्र की लोक संस्कृति अन्य प्रांतों की लोक संस्कृति,लोक परंपराओं की भांति समृद्ध एवं विशिष्ट मानी जाती है। प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से उत्तराखंड क्षेत्र में मनाए जानेवाले लोकपर्वों के वर्णन के साथ ही उनके सामाजिक समरसता के प्रतीक के महत्व पर भी प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जाएगा। ताकि आने वाली पीढ़ियां उत्तराखंड की समृद्ध लोक संस्कृति की धरोहरों को सही रूप में समझें एवं उन्हें अपने जीवन में भी आत्मसात करे ताकि ऐसे लोक पर्वों एवं परंपरों को भारतीय ज्ञान परंपरा के संवाहक रूप में जीवंत तथा संरक्षित रखने का प्रयास किया जा सके।
नाग पंचमी – सॉत : सावन के महीने में उत्तराखंड के रवाई क्षेत्र में सॉत नामक पर्व मनाया जाता है। जिसमें ग्रामवासी 1 सप्ताह तक पूरा दूध इकट्ठा करते हैं और फिर मिलकर उसका घी बनाते हैं,फिर सामूहिक रूप से उस घी से नाग की आकृति बनाते हैं। घी निर्मित नाग को कृष्ण का प्रतीक मानकर उसकी पूजा करते हैं। इस पूजा को ‘अस्तु पूजा’ कहा जाता है,यह सामाजिक समरसता का एक अद्भुत उदाहरण है जिसमें सभी वर्ग के लोग एक साथ मिलकर इस पर्व को मनाते हैं।1 (दिवा भट्ट,1999,पेज नंबर 72 ,हिमालय लोकजीवन कुमाऊं व गढ़वाल,प्रकाशक- आधारशिला प्रकाशन हल्द्वानी उत्तराखंड) उत्तराखंड में नाग पूजा को समर्पित नाग पंचमी का पर्व बड़े धूमधाम से अन्य क्षेत्रों में भी मनाया जाता है। नाग देवता को समर्पित कई मंदिर उत्तराखंड में विद्यमान है, जिनमें कुमाऊं और गढ़वाल दोनों क्षेत्रों में नाग मंदिर हैं। नागेश्वर के रूप में शिव मंदिर बोरारों में, कोटिया में, और देहरादून में है। श्रावण के शुक्ल पक्ष की नाग पंचमी के दिन उत्तराखंड के घरों में नाग की पूजा होती है, इसके लिए जमीन के एक हिस्से को गाय के गोबर और मिट्टी से लीपा जाता है, और उस पर चंदन की लकड़ी या हल्दी के चूर्ण से 5,7 या 9 सांपों के अनगढ़ से चित्र बनाए जाते हैं। सांपों के लिए फूल, चंदन की लकड़ी, हल्दी,चीवड़े,सेम,बेसन या बाजरे का आटा रखा जाता है। दीपक जलाकर आरती की जाती है, इस तरह की पूजा अर्चना सुबह व शाम दो बार होती है। यह एक सामूहिक रूप से मनाया जाने वाला पर्व है, जिसमें गांव के सभी लोग एक साथ बैठकर नागों की प्रशंसा करते हैं और कथा को सुनते सुनाते हैं। इसी के साथ सभी घरों से इकट्ठा दूध दीवारों के उन स्थानों के आगे रख दिया जाता है,जिसके बारे में यह माना जाता है कि वहां सांप रहते हैं। संध्या पूजा में सांपों की प्रशंसा में नाग स्रोत का भी पाठ किया जाता है।2 (एटकिंसन,2003 ग्रंथ 2 भाग 2, पेज नंबर 564) उत्तराखंड में शिव के बाद जिस देव शक्ति की सर्वाधिक मान्यता है,वह है, भगवान कृष्ण के अवतार के रूप में बहुमान्य नागराज,इनको समर्पित ऐसा ही एक प्रसिद्ध देवस्थल पौड़ी जनपद में उसके मुख्यालय से लगभग 40- 41 किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी के ऊपर स्थित है। जो कि ‘डांडा नागराज’ के नाम से जाना जाता है। यहां पर वैशाख के महीने में एक बहुत बड़े मेले का आयोजन होता है जिसमें विशेषकर गोपियों की भूमिका में महिलाएं अपने परंपरागत वेशभूषा में सिर पर अलंकृत मटकी लेकर उसके ऊपर नारियल को सजा कर शोभायात्रा निकालती है,और भगवान कृष्ण को नृत्य के रूप में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करती हैं।3(शर्मा डीडी 2006 पेज नंबर 205) उत्तराखंड में मनाया जाने वाला नाग पूजा को समर्पित लोकपर्व यह दर्शाता है, कि मनुष्य को प्रकृति में व्याप्त सभी जीव जंतुओं के साथ अपना सही तालमेल बनाकर ही जीवन यापन करना होगा, तभी वह सही मायने में लोक कल्याण की परंपरा का निर्वाह कर पाएगा ।
फूलदेई पर्व: उत्तराखंड के निवासियों का प्रकृति के साथ गहरा संबंध है,प्रकृति के साथ समन्वय को लेकर एक लोकपर्व यहां का बहुत ही प्रसिद्ध है,जोकि बसंत के मौसम से शुरू होता है, और लगभग एक महीना चलता है। इस पर्व को उत्तराखंड में ‘फूलदेई’ या ‘फूल संक्रांत’ कहा जाता है। फूलदेई का पर्व कहीं-कहीं सात दिनों,कही पंद्रह दिनों, कहीं महीने भर और कहीं सिर्फ एक दिन यानी मेष-संक्रांति को ही मनाया जाता है। इसलिए इसे फूल-संक्रांति भी कहते हैं।4 (चातक गोविंद 1996 पेज नंबर 148 ) फूलदेई पर्व,फूल संक्रांति के दिन नए वर्ष शुरू होने की खुशी में मनाया जाता है। चैत्र मास का पहला दिन मेष-संक्रांति का दिन होता है। इस दिन की शुरुआत में गढ़वाल कुमाऊं की कन्याए, बच्चे वनों से ‘फ्यूली’ (एक प्रकार का जंगली पीले रंग का फूल) बुरांस और पाषाणभेदी,शीलपाड़ा के फूलों को चुन- चुन कर लाती हैं,और गांव भर के घरों की देहलियों पर चढ़ाकर द्वार की पूजा गीत गाती हैं-
फूलदेई छम्मदई, दैणी द्वार, भर भंडार,5(नौटियाल शिवानंद 1989, पेज नंबर 37) यह एक ऐसा पर्व है, जिसमें बच्चों की भूमिका सबसे ज्यादा होती है, बच्चे इस पर्व के प्रमुख संवाहक होते हैं। उन्हीं के द्वारा फूलों को चुना जाता है और फिर पूरे गांव व अन्य जगहों पर उनको डाला जाता है।यहाँ विशेष बात यह है की सभी फूलों को ओस् की बूंदों से स्वयं ऐसे ही उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र में गांव के समीप ठेस्या देवता (ग्रामदेवता) की ‘कुड़ी’ यानी उनके रहने का स्थान में जाकर उनकी पूजा करते हैं।फूलदेई में हलवा पूरी बनाने व नाच गाने की परंपरा है। ठेस्या देवता को गढ़वाल में “गोगा पीर” के नाम से भी जाना जाता है।6 (पुंडीर सुरेंद्र, 2014,पेज नंबर 75) इनकी पूजा का कारण पशुधन की समृद्धि का धेय्य होता है,सभी लोग एक साथ मिलकर इस पर्व को मनाते है।
फूलदेई पर्व के चित्र -साभार लेखिका
मरोज पर्व : उत्तराखंड के पर्व कई प्रकार के प्राकृतिक तालमेल को दर्शाते हैं जिसमें विषम परिस्थितियों में जब अन्न की उपलब्धता कम हो जाती है, तब यहां भोजन के लिए पशुओं पर निर्भरता बढ़ जाती है। अमूमन यह माना जाता है, कि शीत प्रधान देश या क्षेत्र में मांस सेवन की संख्या अधिक पाई जाती है। इसका कारण यहाँ शीत की अधिकता से बचने के लिए गर्म तासीर वाले पदार्थों का सेवन करना माना जाता है।7 (रतूड़ी हरीकृष्ण 1995 पेज नंबर 95) जिसमें मांस खाने को भी पर्व के रूप में मनाया जाता है। यहाँ एक प्रसिद्ध पर्व मरोज पर्व है, जो की उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है।इस पर्व में पशु मांस से एक विशिष्ट व्यंजन ‘गीमा’ बनता है। 8(नैथानी शिवप्रसाद 2014 पेज नंबर 337 ) मरोज का अर्थ है- बकरे मारने का पर्व । ये पर्व उत्तराखंड के जौनपुरक्षेत्र समेत अन्य स्थानों में माघ से एक दिन पूर्व मासांत यानी तेरह जनवरी को अपने ईष्ट देवता को खुश करने के लिए मनाया जाता है। आखिरी दिन गांव-गांव में बकरा काटा जाता है तथा संगरांत के दिन घरों में साफ-सफाई आदि कर ईष्ट देवता की पूजा की जाती है, तत्पश्चात पूरे महीने बकरा खाया जाता है। प्रत्येक घर में रोजाना नृत्य गीत होता है, बेटियां- बहने मायके आती हैं। माना जाता है कि जब द्रौपदी का अपमान दु:शासन और दुर्योधन ने किया तो द्रौपदी ने कसम खाई थी, कि “जब तक मैं दुशासन के रक्त से अपनी वेणी को ना गूथूँगी ,तब तक मैं अपने बाल खुले रखूंगी” दु:शासन को प्रतीक मानकर यहां बकरे की बलि दी जाती है। द्रौपदी की आत्मा को खुश करने की यह प्रथा मातृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था को भी पोषित करती है। 9(पुंडीर सुरेंद्र 2014,पेज नंबर 73)
भिटौली पर्व– उत्तराखंड में भाई बहन के प्यार को दर्शाता एक पर्व मनाया जाता है,जिसे भिटौली कहते हैं। जैसे पूरे देश में रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता है,उसी प्रकार उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में भी भिटौली का पर्व मनाया जाता है।भिटौली विवाहिता पुत्री या बहन को चैत मास में मायके की ओर से दी जाने वाली भेंट है। यह भेंट प्रमुख रूप से खाद्यान्न रूप में पूरी-पकवान,खाजे- खजूरे आदि वस्तु होती है। भिटौली की यह परंपरा कुमाऊं कि उस जीवंत और सशक्त सांस्कृतिक परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है, जो भाई-बहन, पिता-पुत्री,मां-पुत्री के प्रेम संबंध को दर्शाती है। इस पर्व में मुंह अंधेरे उठकर ससुराल स्थित लड़की के लिए ‘लगड़’ (एक प्रकार का पकवान) पकाती मां और लकड़ी की डलिया पीठ पर रखें पुत्री या बहन के घर जाता पिता या भाई और मायके से आने वालों की बाट जोतती स्त्री के हृदय का भाव10(पोखरियाल देव सिंह,1994, पेज नंबर-30 )एक ऐसा अनुभव है जो इस पर्व को विशेष बनाता है, यहाँ विशेष रूप में ये बात इंगित करनी है की गाँव मोहल्ले में यदि लोगों को पता लगता की आज फलाने के घर से भिटौली बेटी के घर जा रही है तो अन्य लोग भी अपने यहाँ से सामर्थ्य के अनुसार भेंट आदि भेजते है, सामाजिक समरसता को दर्शाता ये पर्व इसलिए विशेष महत्व रखता है, और शायद यही कारण है कि कुमाऊं की स्त्री हमेशा यह चाहती है कि उसे जीवन भर अपने मायके से भिठौली पर्व पर मायके के याद स्वरूप कुछ ना कुछ भेंट खाद्य पदार्थ के रूप में मिलती रहे जिससे उसके जीवन में उसका मायका से हमेशा नाता बना रहे।
बिखोत पर्व: उत्तराखंड में बैसाखी पर्व को बिखोत पर्व कहा जाता है। इस पर्व में लोकगीत गायन की शुरुआत होती है। इस पर्व में रातभर लोग एकसाथ मिलकर लोकगीत गाते है और ये लोकगीत नृत्य प्रधान होते है। जिसमे थाडया,चौपला, माँगल, झूमेलों (उत्तराखंड में गए जाने वाले लोकगीतों के प्रकार) लोग अपने मन के अनुसार गाते है। ये गीत अधिकतर संवाद प्रधान होते है जिसमे अपने मन के भावों को सभी लोग व्यक्त करते है। ये आपसी प्रेम भाव को बढ़ाने में सहायक होते है। बिखोत पर्व को विश्व संक्रांति भी कहते है। ये पर्व नए अनाजों की उपज को ले कर मनाया जाता है, इसमे मेले भी लगते है। इस पर्व को ले कर एक विशेष गीत भी गया जाता है- फूलों खिलाला चेतात मेना , आली बिखोत बैसाख मेना ये बारामासा गीत है, जिसमे कहा गया है की चेत के महीने में फूल खिलेंगे और बैसाख के महीने में बिखोत आएगी। उत्तराखंड में फूल संक्रांति पर्व की जो शुरुआत चेत के महीने में होती है बिखोत के दिन इसका समापन होता है। बच्चों को इस दिन पारितोष देकर प्रोत्साहित किया जाता है।11 (बर्थवाल माधुरी, भेंटवार्ता,देहरादून)
इगास पर्व– गढ़वाल में इसे बूढ़ी दीपावली कहा जाता है। यह मुख्यता पूरे हिमालय क्षेत्रों में मनाई जाती है। इसी कारण इस दीपावली को पहाड़ी दीपावली भी कहा जाता है। इसे मनाने के कारण के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं। जिसमें सबसे प्रसिद्ध माधो सिंह भंडारी की कथा है। इसके अनुसार माधो सिंह भंडारी एक वीर भड़ था। वह तिब्बत की लड़ाई लड़ने के लिए जाते हैं। और इस कारण उनके क्षेत्र के निवासियों ने उनके युद्ध में जाने के कारण दीपावली नहीं मनाने का प्रण लिया। इसके बाद जब वह युद्ध से विजयी होकर लौटे तो उनके स्वागत में उनके पूरे क्षेत्र के लोगों ने दीपावली बहुत ही धूमधाम से मनाई। ये पर्व सामाजिक समरसता के प्रतीक का उत्कर्ष उदाहरण है।माधो सिंह भंडारी अपनी वीरता के लिए पूरे गढ़वाल में बहुत ही प्रसिद्ध है। जब माधो सिंह युद्ध में गए तो उनके क्षेत्र के लोगों ने शोकाकुल होकर एक लोकगीत भी रचा जिसमें कहा गया की बारह दीपावली और सोलह श्राद्ध आकर लौट गए, पर माधो तुम लौटकर नहीं आए। पकवानों के लिए दाल पीसी और चावल कुटे रह गए,पर माधो तुम नहीं आए।
बार ऐन बग्वाली माधो सिंह
सोलह ऐन सराद माधो सिंह
दाल रैगी दलिंगी माधो सिंह
चौल रैगी छड़यांगा माधो सिंह
मेरो माधो नि आयो माधो सिंह।12 (बर्थवाल वीरेंद्र 2014 पेज नंबर 132)
बूढ़ी दीपावली के नाम से उत्तराखंड के कई क्षेत्र मैदानी दीपावली के एक महीने बाद कार्तिक कृष्ण अमावस्या को देवदार के फाडों (छाल) की मशाल जलाकर तथा उन्हें फूलझाड़ियों के समान घुमा घुमा कर आतिशबाजी कर मानते है। कुमाऊं में इसका आयोजन कार्तिक पौर्णमासी को सूत क्रीडा के रूप में किया जाता था।13 (शर्मा, डी.डी.2007,पेज नं.10) ईगास को गढ़वाल में मनाने को लेकर एक और कथा भी प्रचलित है। जिसमें माना जाता है, की वनवास के बाद पांडवों में से चार भाई घर वापस लौट गए थे। परंतु भीम किसी युद्ध में रत होने के कारण ग्यारह दिन बाद घर लौटे थे। तब से अब तक उनके घर वापसी की खुशी के प्रतीक स्वरूप दीपावली मनाई जाती है।गढ़वाल के चमोली क्षेत्र में मनाई जाने वाली दीपावली को कांणसी (कनिष्ठ) बग्वाल कहते हैं।इस दिन भीमल की लकड़ी से भैलो खेलते हैं।जो कि फुलझड़ी के समान घुमाकर खेला जाता है।इस दिन उड़द दाल के पकोड़े विशेष रूप में बनाए जाते हैं।14 (ढोड़ियाल,तोताराम,2022,देहरादून,भेंटवार्ता)
इगास का चित्र
चित्र साभार- तोताराम,ढोड़ियाल, गढ़वाली लेखक
उत्तराखंड के पर्व सही मायने में सामाजिक समरसता के प्रतीक है। जिसमे सभी के साथ मिलकर अपनी कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए भी सदभाव, प्रेम,आपसी भाईचारा दिखता है। जो हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। हमारी भारतीय ज्ञान परंपरा में भी वसुदेव कुटुंबकम का मूल तत्व समाहित है जो हमारी लोक परंपरा का भी संवाहक है। लोकपर्व हमें साथ मिलकर रहना तथा जनकल्याण के भाव उत्पन्न कराते है। आधुनिकता के दौड़ में हमे अपनी परंपराओं तथा रीति रिवाजों को नहीं बिसराना चाहिए,आज आवश्यकता है की हम मिल कर अपनी लोक धरोहरों को संरक्षित करे और नई पीढ़ियों को अपने पर्वों तथा परंपराओं के प्रति सचेत करे तभी हम सही रूप में भारतीय ज्ञान परंपरा को संजोह पायेगे।ऐसे कई पर्व उत्तराखंड में मनाए जाते है जो हमे सामाजिक समरसता का पथ पढ़ाते है कुमाऊ की होली के विभिन्न रूप बैठकी होली, खड़ी होली आज भी आपसी प्रेम-सौहार्द को बढ़ाती है।हमे अपनी पाठयपुस्तकों में अपने क्षेत्र के लोक पर्वों को पढ़ाना होगा,इसी के साथ कार्यशालाओं, नाट्य शैली, नृत्य -लोक गीतों का गायन अपने बच्चों को सीखना होगा, तभी हम सही रूप में अपनी माटी से अपनी नई पीढ़ियों को जोड़ पायेगे।
संदर्भ ग्रंथ सूची
- दिवा भट्ट,1999 ,हिमालय लोकजीवन कुमाऊं व गढ़वाल,प्रकाशक- आधारशिला प्रकाशन हल्द्वानी उत्तराखंड
- एटकिंसन, एडविन, अनुवादक-प्रकाश थपलियाल, ग्रंथ 2, भाग 2, 2003, हिमालयन गजेटियर,उत्तराखंड प्रकाशन, हिमालय संचेतना संस्थान, उत्तरांचल ।
- शर्मा डीडी ,2006, उत्तराखंड के लोक देवता ,अंकित प्रकाशन, हल्द्वानी उत्तराखंड
- चातक गोविंद ,1996, भारतीय लोक संस्कृति का संदर्भ :मध्य हिमालय तक्षशिला प्रकाशन ,नई दिल्ली
- नौटियाल शिवानंद,1989, गढ़वाली लोकगीत, प्रकाशक उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, लखनऊ
- पुंडीर सुरेंद्र ,2014, जौनपुर सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास प्रकाशक, समय साक्ष्य देहरादून
- रतूड़ी हरीकृष्ण, 1995, गढ़वाल का इतिहास, प्रकाशक भागीरथी प्रकाशन ग्रह, टिहरी गढ़वाल
- नैथानी शिवप्रसाद, 2014, उत्तराखंड गढ़वाल का जनजीवन पवेत्री प्रकाशन श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखंड
- पुंडीर सुरेंद्र, 2014 ,जौनपुर सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास समय साक्ष्य,देहरादून
- पोखरिया ,देव सिंह ,1994 ,लोक संस्कृति के विविध आयाम: मध्य हिमालय के संदर्भ में, श्री अल्मोड़ा बुक डिपो अल्मोड़ा
- भेटवार्ता,पदम श्री- बर्थवाल माधुरी, लोक गायिका,लेखिका,आकाशवाणी पूर्व संगीत निर्देशिका, 2023,देहरादून।
- बर्तवाल,वीरेंद्र सिंह,गढ़वाली गाथाओं में लोक और देवता,2014,विन्सर पब्लिशिंग कंपनी,देहरादून।
- शर्मा,डी.डी.,2007,उत्तराखंड के लोकोत्सव एवं पर्वोत्सव, अंकित प्रकाशन,हल्द्वानी।
- भेंटवार्ता, ढोड़ियाल,तोताराम, प्रसिद्ध गढ़वाली लेखक, 2022,देहरादून।