नाश्ते के अंतिम निवाले को मुँह में निगलते हुए अश्वनी ने बैग उठाया और जल्दी से घर से बाहर की राह ली और भीड़-भाड़ वाली गलियों से होता हुआ मैट्रो स्टेशन की ओर निकल आया था । पर यहाँ नीचे सीढ़ियों से ही लाइन देखकर अश्वनी के होश उड़ गए वो हांफता हांफता लाइन में लग गया और एक पल घड़ी के टाईम को देखता तो दूसरे पल धीमे धीमे आगे बढती लाइन को।अभी घड़ी में साढ़े आठ ही बजे थे पर इतनी भीड़ को देख आभास हो रहा था कि सारे शहर के लोग यहीं आ गए हो।एक एक मिनट तेजी से निकल रहा था पीछे मुड़कर देखने पर एक लम्बी कतार विशाल सर्प सी लहरती शनै: शनैः आगे बढ़ रही थी।नज़र सामने की ओर किये अश्वनी आगे बढ़ ही रहा था कि दूसरी ओर से भीड़ को चीरता एक परिचित चेहरा जाने किसे खोज रहा था वो जिस गति से आ रहा था उसी गति से आगे निकल गया ।दस बारह मिनट के बाद अश्वनी प्लेटफार्म पर था सहसा तेज बिगुल बजाती मैट्रो ने वहां प्रवेश किया तेज भीड़ के धक्के से दूसरे ही पल मैं मैट्रो के अन्दर था। यहाँ सोमवार होने के कारण कुछ ज्यादा ही धक्का मुक्की थी यहाँ तक कि खड़ा होना दुश्वार हो रहा था।शीशे से बाहर झांकने पर बादलों का एक बड़ा पहाड़ दूर क्षितिज की ओर लौट रहा था।पंछियों का एक झुंड बादलो को चीरता गुज़र रहा था।अभी तीन चार स्टेशन के पढ़ाव ही पार किये थे कि अगले स्टेशन पर दरवाजा खुलते ही भीड़ का एक बड़ा सा पहाड़ सबको अंदर की और धकेलता घुस रहा था।एक अंजान धक्के से गिरता गिरता अश्वनी दूसरी बार बचा था ।एक मध्यम कद का आदमी उसके पास पास खड़ा था जिसके बायें हाथ पर बंधी घड़ी हाथ को ऊपर ले जाने या नीचे लाने में मुझसे स्पर्श हो रही थी।भीड़ में दो एक बार मुझे देख उसने अपनी आंखों को छोटा करते हुए मेरी ओर देखा पर यहाँ की लाचारगी देख वह सामान्य सी प्रतिक्रिया करने लगा।अब ऐसा दूसरी बार होने पर कई प्रतिक्रिया न कर सामान्य सी मुस्कान उसके चेहरे पर थी और फिर उसने औपचारिक्ता से मेरा गंतव्य पूछ लिया ।कुछ ही देर में कुछेक विषयों पर अपनी अपनी राय व जानकारी साझा कर चुके थे।तेज धक्के के बाद आचानक ब्रेक से गिरते हुए बचने के बाद उसने मैंने उसका शरीर थामना चाहा पर इससे पहले उसने मेरा हाथ पकड़ मुस्कराते हुए उन्हीं बातों मे शामिल कर लिया सामान्य सी बात समझते हुए।बातों बातों में कई स्टेशन निकल गए भीड़ अब कुछ कम हो रही थी
होज़खास की उदघोषणा होते ही मैं पैरों में रखे बैग को थामने के लिए झुका ही था कि वो भी मेरे साथ उतरने को चल पड़ा ।हम बाहर आकर खड़े थे हम दोनों ने सामान्य सी कुछेक बाते की मसलन ऐसा तो नित्य ही होता है खासकर सोमवार को पर ये सब तो मुझे पता ही थी देते हुए शाम सात बजे मिलने का समय निहित कर दूसरी ओर रुकी मैट्रों में सबार हो गया। आफिस पहुंच कर आज का समय और काम किसी तरह पूरा कर मैं सवा सात बजे पुनः होज़खास था पर वो मुझसे पहले ही वहां मौझुद था।
उसने मुझे देखते ही पहचान लिया कुछ मिन्टों के बाद हम मैट्रों मे चढ़ गए थे।मैट्रो के भीतर की लाईटस के सामने बैठी युवती के मोबाइल पर छिटककर मेरी आंखों पर लग रही थी।मैं शीशे से बाहर देखा बड़े बिशालकाय पेड़ एक एक कर तेज गति से हमें पीछे छोड़ रहे थे।पेड़ों पर रोशनी पड़ने पर वो रंगीन और भयाभय से लगते थे।
कुछ ही देर बाद हमारी मैट्रो ने तीन चार पढ़ाव पार कर लिए थे अब तक हम दोनों एक दूसरे को बता चुके थे कि हम दोनों का नित्य समय लगभग यही है।उसकी आसमानी कमीज पर अब दो तीन सलबटे पढ़ चुकी थी पर आंखे सूबह की सी ताजा थी।उसके स्याह बालों के मध्य से निकलता सफेद बालों का गुच्छा माथे पर गिरा हुआ था छाती और गर्दन पर उगे कुछ बाल बन्द बटनों से बाहर निकल रहे थे जो सफेद और काले व घुंघराले और मुड़े हुए भी थे पर इनकी संख्या कम ही थी। कोई बात थी जो बार बार बाहर आते हुए मुँह में ही रुक जाती थी पर वो कह न सका ।बात उसकी ज़िन्दगी से झुड़ी थी या किसी और से वो शाम बिना किसी खास बात के कहे बिना योंही गुजर गयी थी ऐसा लगा कि कोई बात है जो उसके अधरो के किसी कोने में अटकी है पर फिर किसी रोज़ या किसी सन्डे को मिलने की बात कर उसने विदा ली वो मुझसे तीन चार स्टेशन पहले ही उतर गया था।उसकी पेशानी पसीने की बूंदों से लवरेज़ थी मुझे पता नहीं चला कि ऐसी कुछ बात हुई कि वो अचानक ही सामने आए स्टेशन पर उतर गया।ऐसा लगा कि किसी बात को वो दिल में लिए जा रहा है सीढियों पर चढ़ने तक वो मुझे देखता रहा और शायद बाद तक भी उस दिन की बात मेरे अंदर घर कर गयी थी मैंने उसको खूब तलाशा अगले दिन और बाद में भी और शायद आज भी अभी भी पर वो मुझे नहीं मिला मैं कई मर्तवा होजखास और दूसरी जगह भी खोजा पर फिर कभी भी नहीं दिखा ।आज दो सप्ताह बीत गए पर वो नहीं मिला पर उसका चेहरा आज भी यहीं कहीं साथ होता है मेरे साथ मैट्रो में और कहीं भी।
मनोज शर्मा
स्वतंत्र लेखक, दिल्ली