मानव-जीवन पर प्रकृति के प्रत्येक व्यापार का अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभाव पड़ना अत्यंत स्वाभाविक है। बसंत ऋतु में प्रकृति के चुतन शृंगार से मानव-जीवन हर्षोल्लास से पूर्ण हो जाता है तो ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्डता से अखिल ब्रह्माण्ड के समस्त प्राणी व्याकुल हो उठते हैं। इस व्याकुलता की समाप्ति पावस ऋतु की शीतल फुहार से ही संभव होती है, किन्तु घनघोर वर्षा से उत्पन्न बीमारी बाढ़, कीचड़, की समाप्त के लिए पुनः ऋतु परिवर्तित होती है तथा शरद ऋतु की शीतल चाँदनी का साम्राज्य चहुँ ओर व्याप्त हो जाता है। शरद यामिनी के सुखद एवं आनन्ददायक वातावरण को हेमन्त ऋतु अपनी बर्फीली वायु से तुषारमय बना देती है तो शिशिर ऋतु की भयंकर सर्दी एवं ओला वृष्टि पृथ्वी की मनोरम छटा को भयावह रूप प्रदान कर देती है। पल्लवविहीन वृक्षों के इस कुरूप वातावरण को पुनः बसंत ऋतु का सुहावना स्पर्श प्राप्त होता है। इस प्रकार ऋतुओं का चक्र निरन्तर चलता रहता है तथा मानव की विभिन्न अनुभूतियाँ, इच्छाएँ एवं भाव इन्हीं के अनुरूप परिवर्तित होते रहते हैं। ब्रज प्रदेश के साहित्य में यूं तो समस्त ऋतुओं का मनोहारी वर्णन हुआ है, मोर नाचने लगते है, कोयल कूंकने लगती हैं, वृक्षों की डालियों में झूले पड़ जाते हैं, नारियों की मधुर कण्ठ-ध्वनि से निसृतः लोकगीतों से सम्पूर्ण वातावरण मनोरम बन जाता है। समस्त ब्रजवासी अत्यन्त व्याकुलता के साथ सावन का स्वागत करने के लिए तत्पर रहते हैं।
नायिकाओं के विविध मनोभावों से भी सावन का घनिष्ट संबंध है। ग्रीष्म ऋतु के प्रचण्ड ताप से नदी-नाले, बाग-बगीचे तो सूख ही जाते हैं, साथ ही प्रिय के वियोग में नायिका की स्थिति भी अत्यन्त दयनीय हो जाती है। कहा भी गया है-
‘‘प्रीतम न आए, जाय कुबिजा गृह छाए ऊधौ।
पातीं लै आए, यहाँ ग्रीष्म की टूक है।
पवन झहराने, धूल लागी फहराने
अब कामसर ताने हिए बेंधत अचूक है।।
सूरज की चमक, पूजै घाम की घमक,
तीजै लूह की रमक तें उठत तन तूक है।
कहे ‘बच्चूराम’ चोली-चीर न सुहाय अब,
बिना मिले श्याम के कलेजा टूक टूक है।।’’
ऐसी स्थिति में सावन का आगमन वरदान सिद्ध होता है। ज्येष्ठ मास की धधकती धूप तथा आषाढ़ मास की ऊमस से संत्रस्त जन-समुदाय आकाश में घिरे बादलों को देखकर प्रसन्नचित्त हो उठता है। जहाँ-तहाँ मयूर उच्च स्तर के कूकते हुए वर्षा ऋतु के आगमन की सूचना देने लगते हैं। नीम का वृक्ष जो कि चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है, सांस्कृतिक दृष्टि से भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। नीम की कच्ची निमोड़ी को देखकर हृदय को एक शीतल एवं सुखद अनुभूति प्राप्त होती है। वस्तुतः नीम के वृक्ष पर निमोड़ी का लगना सावन के आने का ही सूचक है। सावन की रिमझिम-रिमझिम करती बूंदों तथा वृक्षों की डालियों में पड़े झूलों का अपना अलग ही आनन्द है। ब्रजभाषा के सुप्रसिद्ध कवि पद्माकर ने झूला झूलने की इसी आनन्दमयी अनुभूति को विकसित करते हुए कहा है –
‘‘भौरन के गुंजन निहार बन कुंजन में,
मंजुल मरालन के गवनो लगत है।
कहै पद्माकर गाुमान हूँ मान तैं हूँ तैं,
प्राण हूं तै प्यारी मन भावनो लगत हैं।
मोरन को सोर घने-घोर चहुँ ओरन,
हिंडोरन को बृन्द छवि छाबनो लगत है।
नेह सरसावन में गेह बरसावन में,
सावन में झुलिबो सुहावनो लगत है।’’
ग्रीष्म की दुःखदायी रात्रि का अंत और सावन के सुखद प्रभात के प्रारंभ से भूमि की प्यास बूझ जाती है। यत्र-तत्र वर्षा के कारण बहता हुआ जल पोखर, कूप, ताल, सर-सरिताओं में एकत्रित होने लगता है। सरिताओं का कलकल का स्वर करता हुआ जल अपने प्रेमी सागर से मिल जाता है। लताओं, वृक्षों की डलियां पत्तों के बोझ से झुक जाती हैं। मेघ मालाओं के बीच बिजली सुशोभित होती है। पृथ्वी पर मोर नाचने लगते हैं, पक्षी गुंजार करने लगते हैं तथा प्रेमी-प्रेमिका का सुखद मिलन संभव हो जाता है।
‘‘केसव सरिता सकल, मिलत सागर मन मोहै।
ललित लता लपटाति, तकन लन तरुवर सोहै।
रुचि चपला मिलि मेघ, चाल चमकत चहुँ ओरन।
मनभावन कहँ भेंटि, भूमि कूजत मिसि मोरन।
इहिं रीति रमन रमनीत सों, रमन लगै मनभावनै।
पिय गमन करन की को कहै, गमन न सुनियत सावनै।।’’
सावन मास में ब्रज प्रदेश की छटा ही निराली हो जाती है। दादुर मोर कोकिला का कलरव सर्वत्र व्याप्त हो जाता है। इन्द्रधनुष के विविध रंगों से आकाश चित्रित हो जाता है। कदम्ब के वृक्ष के नीचे सखा-मण्डली एकत्रित हो जाती है। बादलों की गर्जन मृदंग की ताल की भाँति रुचिकर प्रतीत होता है। अष्टछाप के प्रमुख कवि परमानंददास ने सावन के इसी सुखद वातावरण में कृष्ण की वेणु लीला का वर्णन करते हुए लिखा है –
‘‘बादर भरन चले हैं पानी।
स्याम घटा चहुं ओर तें आवत, देखि सबै रति मानी।।
दादुर मोर कोकिला कलरत, करत कोलाहल भारी।
इंद्र-धनुष, जग-पाँति, श्याम छवि लागत है सुखकारी।।
कदम वृक्ष अवलम्ब स्यामघन, सखा मंडली संग।
बाजत बेनु अरु अमिय सुधा-सुर, गरजत गगन मृदंग।।
रितु आई, मनभाई सबै जिय, करत केलि अति भारी।
गिरिवर-धर की या छवि ऊपर, ‘परमानंद’ बलिहारी।।
वर्तमान समय में ऋतुओं का चक्र तो पूर्ववत् निरन्तर चलता जा रहा है, किन्तु शहरीकरण तथा मशीनीकरण ने मनुष्य को प्रकृति से बहुत दूर ला पटका है। लोक-संस्कृति में जिन ऋतुओं, पर्वों, त्यौहारों, उत्सवों, वृक्षों का महत्व अक्षुण्ण माना जाता रहा है, आज उन सबका आनंद लेना तो दूर मनुष्य को उनके नाम तक विस्मृत होते जा रहे हैं। सावन में प्रकृति में क्या परिवर्तन होते हैं, मनुष्य की मनोदशा पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है- इसका चिन्तन करने के लिए किसी के पास समय नहीं है। परम्परा एवं संस्कृति को यथावत् बना रखा है साथ ही किन्तु ब्रज लोकगीतकारों एवं साहित्यकारों ने ऋतु वर्णन की परम्परा को यथावत् बनाए रखकर जन-समुदाय में चेतना जागृत करने का यथासम्भव प्रयास किया है। सावन मास में सखियों से घिरी नायिका के अनुपम शृंगार तथा उसके हास-परिहास को व्यक्त करते हुए गिरिधरदास ने लिखा है-
‘‘सोना से सरीर पै सिंगारन सुभग सजि,
सेज रात्रि, साजि-साजि स्याम-संगम-सुरखन में।
सुंदरी सिरोमनि सोहागिनि सलौनी सुचि,
स्यामा सुकुमारि मोहै सीसा के सदन में।
सीस सीस सुमन सुहायौ ‘गिरिधरदास’,
सूर सरसात, ज्यों सकारे सरपन में।
सिंधु सुता, सैल-सुता, सारदा, सची सी सुचि,
सावन में सरसै सरस सखियन में।।’’
वस्तुतः सावन ऋतु समस्त पृथ्वी को हरियाली से मुक्त कर देने वाली अपूर्व ऋतु है। यद्यपि वसन्तु को ऋतुराज की पदवी से सम्मानित किया गया है तथापि सावन अथवा पावस ऋतु का महत्त्व कुछ कम नहीं हैं। सूखी नदियों को जल के आपूरित करने वाली, ग्रीष्म के ताप से संत्रस्त प्राणियों को शीतलता प्रदान करने वाली, वृक्षों की गलियों को फल-फूलों से भर देने वाली, मनुष्य के हृदय में नवीन उमंग, उत्साह एवं चेतना का संचार करने वाली ऋतु पर जब शरद ऋतु का प्रभाव दिखाई देने लगता है तब सभी मनुष्यों के कण्ठ से एक ही स्वर निकलता है- कच्चे नीम की निमोड़ी सावन जल्दी अईयो रे।