मनुष्य से ही समाज का निर्माण होता है। व्यक्ति समाज की इकाई है। सामाजिक गतिविधियों का सीधा प्रभाव व्यक्तियों के मन-मस्तिष्क पर पड़ता है। सामाजिक गतिविधियों के परस्पर संबंध ही समाज की अवधारणा को सफल बनाते हैं। समाज व्यक्तियों के व्यवहारों, संबंधी, रीति-रिवाजों, सिद्धांत और नियमों से बनता है। “समाज एक स्थान पर रहनेवाले अथवा एक ही प्रकार के कार्य करनेवाले लोगों का दल किसी विशिष्ट उद्देश्य से स्थापित समूह।“1 हिंदी शब्द सागर में समाज का अर्थ इस प्रकार दिया गया है- “एक ही स्थान पर रहने वाले अथवा एक ही प्रकार का व्यवसाय आदि करने वाले लोग जो मिलकर अपना एक अलग समूह बनाते है। जैसे शिक्षित समाज ब्राह्मण समाज अथवा वह संस्था जो बहुत से लोगों ने एक साथ मिलकर किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्थापित की हो।“2
समाज व्यक्तियों से बनता है। समाज में अनेक वर्गों, धर्मों, जातियों, संप्रदाय के लोग रहते हैं। सामाजिक धरातल पर विचार करने से ज्ञात होता है कि व्यक्ति के परस्पर संबंध से ही अनेक प्रकार की संवेदनाओं का जन्म होता है। समाज में रहकर वह कई संघर्षों का सामना करता है। कई बार संघर्ष के कारण आदर्श मूल्यों की स्थापना होती है, जिससे समाज में व्याप्त सड़ी-गली मान्यताएँ समाप्त हो जाती हैं। तो कभी-कभी अविवेकपूर्ण गतिविधियों से संघर्ष उत्पन्न हो जाते हैं। इन स्थितियों से समाज को हमेशा नुकसान ही उठाना पड़ता है। वर्तमान समय में औद्योगीकरण के कारण मनुष्य समाज और परिवार से कटता जा रहा है। स्वयं को आगे बढ़ाने के लिए व्यवस्था तंत्र एवं भौतिक साधनों से संबंध जोड़ने को अभिशप्त है। परिणामस्वरूप वह सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं और रूढ़ियों के प्रति विरोधी स्वर का प्रयोग करने लगा है। जिसका प्रभाव व्यक्ति के अंत: और बाह्य दोनों स्तरों पर पड़ा है। आज जिधर भी दृष्टि डालो टूटन और बिखराव ही नज़र आता है। व्यक्ति एकल जीवन जीना चाहता है। संयुक्त परिवार को वह अपने प्रगति का रुकावट मानता है। इस संदर्भ में डॉ. दुबे का मत है– “आधुनिक युग विश्रृंखलता और बिखराहट का युग है। विश्व बिखर गया है राष्ट्रों में, राष्ट्र टुकड़ों में और टुकड़े बिखर गये हैं इकाइयों में।“3 भीष्म साहनी ने अपने नाटक ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ के माध्यम से सामाजिक विडंबनाओं को प्रस्तुत किया है।
‘कबीरा खड़ा बाजार में’ यशस्वी कथाकार भीष्म साहनी का एक ऐतिहासिक नाटक है। यह नाटक एक ओर कबीर के तत्कालीन समाज, उस समाज में उनके निर्भय व्यक्तित्व, सत्यभाषी तथा अन्याय, अत्याचार के खिलाफ आवाज उठानेवाले महान व्यक्तित्व का परिचय देता है और दूसरी ओर समाज में व्याप्त धर्मान्धता, बाह्याचारों, छुआछूत, तानाशाही, अनाचार आदि के प्रति अपना विरोध भी अभिव्यक्त करता है।
कबीर अनपढ़ थे किंतु उनके साहित्य का असर आज भी समाज में दिखाई देता है। ये अपने समय में पूरी समाज-व्यवस्था के खिलाफ लाठी लेकर खड़े हो गए थे। वे सामाजिक व्यवस्था को बदलना चाहते थे। हमारे समाज में धर्म, जात-पात के नाम पर बरसों से दंगे-फसाद होते आ रहे हैं। ऐसे समय में कबीर जैसे निर्भीक व्यक्तित्व की आवश्यकता आज भी हमारे देश में है। कबीर जी स्वयं को न तो हिंदू मानते हैं, न मुस्लिम और न ही किसी जाति में खुद को बंधा हुआ देखना चाहते थे। इन सबसे परे वे एक क्रांतिकारी समाज-व्यवस्था के हिमायती थे। उनके अनुसार सभी मानव एक हैं। समकालीन युग में, हमारे समाज में ऐसे क्रांतिकारी नेता का अभाव है। भीष्म साहनी ने इस नाटक के माध्यम से ऐसे व्यक्तित्व की पुनर्रचना की है।
इस नाटक के द्वारा धर्म और ईश्वर के नाम पर धार्मिक आडंबर तथा उसके माध्यम से आम-आदमी पर हो रहे अत्याचार, शोषण की परंपरा को चित्रित किया गया है। नाटककार ने कबीर के समय की सामाजिक मान्यताओं को जनता के सामने लाने के लिए ही इस कथावस्तु का चयन किया है। कबीर के उपदेश आज भी हमारे देश के लिए प्रासंगिक हैं। जिसके कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं–
“मनुष्य से प्रेम करना ही भगवान की सच्ची आराधना है।
मैं इंसान को इंसान के रूप में देखना चाहता हूँ।“4
नाटक में साधु, महंत के चरित्र को उभारा गया है। “एक महंत जी कुंभ मेला में भाग लेने के लिए शोभायात्रा चलाते हैं, वे तो सोने की पालकी में जाते हैं। भोजन भी सोने की थाली में करते हैं। पूजा-अर्चना भी सोने के पात्रों से होती है। मठ में एक सौ पंद्रह हाथी हैं। सुना है सौ-सौ स्त्रियों के साथ भोग करते हैं।”5 आज भी हमारे देश में ऐसे सन्यासी, साधु संत जनता का विश्वास जीतकर, जनता के पैसों पर ही करोड़-पति बनकर बैठ हैं। ऐसे लोग अपने लाभ और सुख के लिए कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे लोग ही जनता में अंधविश्वास को फैलाते हैं। सबकुछ जानते हुए भी जनता उनकी पूजा-अर्चना करती है एवं उनके चरणों में माथा टेकती है। उनके चरणों को धोकर उसी जल को पीती है और माथे पर लगाती है।
धर्म के नाम पर मनुष्यों को कई वर्गों में बाँट दिया गया है। कोई उच्च जाति का कहलाता है तो कोई निम्न जाति का। आज मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन बन गया है। जिस ईश्वर या अल्लाह के नाम पर वे स्वयं को कई वर्गों में विभाजित कर लिए हैं, उसने सभी को एक जैसे हाड़-मांस से ही बनाकर धरती पर भेजा है। यदि वह चाहता तो जन्म से पहले माँ के पेट में ही धर्म का ठप्पा लगाकर मनुष्य को बाहर भेजता। जब उसने ही मनुष्यों में भेदभाव नहीं किया तो ये साधु, संत कौन होते हैं मनुष्यों को धर्म में बाँटनेवाले?
इस प्रकार कहा जा सकता है कि भगवान सबके लिए के समान हैं। उसे प्राप्त करने का अधिकार सभी को एक समान है। वह किसी एक वर्ग के लिए नहीं हैं। कबीर अपने दोहों, उपदेशों के माध्यम से मनुष्य को मनुष्य रूप में देखने की प्रेरणा देते हैं। उनके अनुसार सभी को धार्मिक ग्रंथ पढ़ने का अवसर मिलना चाहिए। साथ ही गृहस्थ जीवन का ज्ञान भी प्राप्त करने का अधिकार मिलना चाहिए। इस प्रकार त्याग, दया, प्रेम, अहिंसा, सत्य आदि मानवीय मूल्यों, शस्त्रों से १५वीं शताब्दी का कबीर समाज में व्याप्त व्यवस्था, सड़ी-गली परंपराओं और धार्मिक भ्रष्टाचार का डटकर सामना करते हैं।
हमारे भारतीय समाज में छुआछूत, सांप्रदायिकता एक विकराल समस्या है। नाटककार ने अपने इस नाटक के माध्यम से इन समस्याओं को हमारे सामने लाने का प्रयास किया है। नाटक में कबीर के जैसे अन्य निम्न वर्ग की पीड़ा को भी प्रस्तुत किया गया है। जिनमें रैदास, पीपा, दादू, सेन, बशीरा और अंधा भिखारी सब शोषित एवं छुआछूत के शिकार हुए हैं। ये सब लोग भी कबीर की तरह समाज से भेदभाव को मिटाने के लिए कबीर के पद गाते हैं। एक दिन रैदास के गीत को सुनकर मंदिर का पंडित उन्हें आदर सहित मंदिर में लाता है और मंदिर की आरती गाने का अवसर प्रदान करता है, किंतु जैसे ही उसे पता चलता है कि रैदास चमार जाति के हैं, उन्हें डंडे मारकर भगा देता है। नाटककार ने उच्च वर्गों द्वारा निम्न वर्गों की दुर्दशा को अपने नाटक में चित्रित किया है। ऐसे लोग कोई शुभ यात्रा निकालते हैं तो शंख, डमरू, करतल, ढोल, मंजीरे और नगाड़े बजाते हैं। यह सब ख़ुशी या उल्लास में नहीं करते हैं। यह नीच जात को रास्ते से हटाने के लिए करते हैं और रास्ते को पवित्र बनाने के लिए गंगाजल छिड़कते हैं। मंदिरों की मूर्तियाँ मुसलमान कारीगर से ही बनवाते हैं किंतु उस मूर्ति की स्थापना से पहले उस मूर्ति की अशुद्धि को दूर करने के लिए उस पर गंगाजल छिड़कते हैं। इस प्रकार के धार्मिक अत्याचार और ढकोसले को ख़त्म करने के लिए कबीर रास्ते पर सत्संग करते हैं और भंडारा भी आयोजित करते हैं। जिससे चमार, नाई, मोची, हिंदू, मुस्लिम सब एक साथ भोजन कर सकें और उनके बीच की कड़वाहट मिट सके। इस तरह आज के समय में भी क्रांतिकारी चेतना की जरूरत है। जैसे कबीर अपने समय के शोषित वर्गों के अस्तित्व की रक्षा करते हैं वैसे कबीर की आज भी आवश्यकता है। जो ऐसे धर्माचारियों से हमारी रक्षा कर सके। अपने सत्संग द्वारा कबीर इन निम्नवर्गीय शोषितों को अपने अस्तित्व से परिचित करवाते हैं।
आज का धर्म राजनीति का रूप ले लिया है। जिस प्रकार से सत्ता अपनी कुर्सी बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है वैसे ही ये लोग धर्म के नाम पर लोगों को डराते-धमकाते हैं, उन्हें मंत्रों की जालों में फँसाकर लूटते हैं। जब आम जनता ऐसे अधिकार शक्तियों के खिलाफ आवाज उठती है तो उसे कई तरह से प्रताड़ित किया जाता है। आज के कबीर बदल गए हैं। राजसत्ता और धर्मसत्ता के साँठ-गाँठ से होने वाले अत्याचार, शोषण को देखकर आज के कबीर बौखला उठते हैं और हाथ में माला, माथे पर चंदन और मुहँ में राम का नाम तथा बगल में छुरी रखनेवाले या बुरी नियतवाले, दिन-भर रोजा करके रात को पशु की हत्या करनेवाले, ज़ोर-ज़ोर से अल्लाह को पुकारने का ढोंग करनेवाले, अल्लाह के उपदेश कहकर लोगों को भड़कानेवाले पंडितों और मुल्लों का मजाक बनाते हैं। उनके द्वारा हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए उनका विरोध करते हैं। आज के कबीर किसी उपदेश या सत्संग के द्वारा उनके अन्याय को नहीं रोकते हैं। आम जनता को साधुओं और मुल्लों से बचाने के लिए सीधा मारपीट कर लेते हैं।
प्रस्तुत नाटक में कबीर के बड़बोलेपन और साहस के कारण कबीर को मुल्लों और साधुओं की यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। सच कहने से कबीर कभी पीछे नहीं हटते हैं। जिसके कारण मुल्ला, साधु सभी मिलकर उन्हें पीटते हैं, गंगा में डुबाते हैं, उनकी चमड़ी को उधेड़ देते हैं, यहाँ तक की मस्त हाथी के आगे उसे फेंक भी देते हैं, उनका घर भी जला देते हैं। उन्हें शहर से बाहर निकालने के लिए उन पर कई अत्याचार करते हैं। इस तरह कबीर की चेतना को मिटाने का भरसक प्रयत्न करते हैं किंतु कबीर हार नहीं मानते हैं तथा उनके साथ संघर्ष को जारी रखते हैं।
यह नाटक कबीर के जीवन के भिन्न पक्षों को प्रस्तुत करता है। आज धार्मिक कार्य ने राजनीतिक का रूप ले लिया है। इस राजनीतिक कार्य में शासन के लोग एवं उनके परिवार अधिक सुखी से रहते हैं और जिनके पैसों से वे सुखी जीवन जीते हैं, वे आम-जनता चारों ओर शोषण, अत्याचार एवं दमन के शिकार होते हैं। ऐसे व्यथित जनता के प्रतिनिधि कबीर को भीष्म साहनी ने इस नाटक में चित्रित किया है। आज के निरंकुश और तानाशाही सत्ता के प्रतीक के रूप में उस समय के सिकंदर लोदी को प्रस्तुत किया है। जिसके संवाद से उसकी तानाशाही स्पष्ट होती है- “हमारे सिंहासन पर किसी नीच की छाया पड़ रही है।“6 कोतवाल आज की अफसरशाही का प्रतीक है। अंधा भिखारी वह अभागा आधुनिक जनता है जो ऐसे लोगों के हर जुल्म को सहने के लिए मजबूर है।
कबीर निर्गुण संत थे। वे किसी पूजा-पाठ, उपवास आदि पर विश्वास नहीं रखते थे। वे मनुष्य को मनुष्य की नजर से देखते थे और लोगों में प्रेम की भावना जगाना चाहते थे। आज समय के साथ मनुष्य बदल गया है। उसने आजादी के साथ अपने पुराने मूल्यों को भुलाकर नए मूल्यों को अपना लिया है। आज का मनुष्य लोभी हो गया है। वह हर समय अपने फायदे की बात ही सोचता रहता है। ऐसे समय में उसे अब किसी दूसरे मनुष्य पर विश्वास नहीं रह गया है। वह सभी को शंका की निगाहों से देखने लगा है। इसके विपरीत कबीर सभी इंसान में ईश्वर को देखते हैं। वे स्वयं कहते हैं- “मैं इंसान को इन्सान की नजर से खुदा के बन्दे की नजर से देखता हूँ।……और जिसके दिल में प्रेम है उसके दिल में भगवान वास करते हैं।“7 दक्षिण से आये महात्मा को देखकर कबीर कहते हैं- “मैं उनकी बातें सुनता हूँ तो लगता है, मेरे अंदर की गांठें खुल रही हैं। मेरे संशय दूर हो रहे हैं। वह प्रेम की बात कहता है, ऐसा प्रेम जिसमें व्रत-उपवास, न पूजा-पाठ है, न ऊँच-नीच है। उसमें बस सब के लिए प्रेम भाव है और भगवान की भक्ति है। पहली बार जब मैंने उनका प्रेम वचन सुना तो रात-भर मैं सो नहीं पाया। तभी मुझे लगा जैसे अँधेरे में प्रकाश की किरण फूटी है। मन में कहा, कबीरदास तुम अनपढ़ हो तो क्या, तुमने बात तो समझ ली। जवान का महामंत्र तो पा लिया। मनुष्य से प्रेम करना ही भगवान की सच्ची आराधना है तभी मेरे मुँह से निकला –
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।“8
अत: कबीर उसे अपना गुरु मानते हैं। इस प्रकार नाटककार ने ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ नाटक के माध्यम से भक्तिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के जीवन को चित्रित किया है। जो जीवन भर दूसरों के हित के लिए संघर्ष करता रहा। हमारे समाज से अन्याय, अत्याचार और बाह्याडंबर को दूर करने का प्रयास करता रहा। ऐसे संत कबीर की आवश्यकता हर युग में है। जो अपने समाज में व्याप्त विसंगतियों को दूर करने के साथ नये आदर्शों को भी स्थापित करता था। इसलिए भीष्म साहनी ने अपने नाटक की कथावस्तु में कबीर के जीवन में घटने वाली घटनाओं को केंद्र बनाया है। यह नाटक आधुनिक युग का दर्पण है।
संदर्भ सूची
- नलंदा शब्द सागर, श्री नवलजी, आदीश कुमार जैन, आदीश बुक डेपो, दिल्ली, सं- १९८५, पृ.१४०७
- हिंदी-शब्दसागर, खंड-७ श्यामसुंदरदास बी.ए., काशी नागरी प्रचारिणी सभा, १९२८, पृ. ३४५७
- स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाटक समस्या और समाधान, दिनेशचंद्र वर्मा, अनुभव प्रकाशन कानपुर, पृ.१६
- मेरे साक्षात्कार, भीष्म साहनी, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.२००७, पृ.८४
- कबीरा खड़ा बाज़ार में, भीष्म साहनी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, सं.१९९६, पृ.३१
- कबीरा खड़ा बाज़ार में, भीष्म साहनी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, सं.१९९६, पृ.३४
- कबीरा खड़ा बाज़ार में, भीष्म साहनी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, सं.१९९६, पृ.४२
- कबीरा खड़ा बाज़ार में, भीष्म साहनी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, सं.१९९६, पृ.४६
सरिता समरबहादुर यादव
रामनिरंजन झुनझुनवाला कॉलेज,
घाटकोपर