मध्ययुग के सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक परिदृश्य पर हम यदि नजर डाले तो पाते हैं कि इन तीनों ही क्षेत्रों में तत्कालीन परिस्थितियँा मूल्यों के लिए तरस रही थी। जन-सामान्य समाज, धर्म व राजनीति से निराश हो चुका था।”धार्मिक आडम्बरों और राजनैतिक अव्यवस्थाओं तथा धर्माधंता के कारण समाज का ढांचा विश्रंखल हो चुका था।” (1) इन विकट परिस्थितियों में तत्कालीन जनमानस के लिए आशा की एक किरण के रूप में कबीर का अवतरण हुआ। जिन्होने न केवल विकृत हो चुके मूल्यों को परिष्कृत किया बल्कि समाज, धर्म व राजनीति – इन तीनों के लिए नए मानक मूल्यों की स्थापना की।
कबीर काव्य द्वारा स्थापित मूल्यों का अध्ययन हम निम्नानुसार कर सकते है-
कबीर काव्य द्वारा स्थापित प्रमुख मूल्य
समन्वय– मध्ययुग के समाज के विश्रंखल ढाँचे की प्रमुख समस्या समन्वय की कमी ही थी। “इस काल में भारत के सामाजिक वातावरण में समाजवादी भावना का लोप हो चुका था। एक विशाल समाज खण्ड-खण्ड होकर पहले ही समूहों में विभाजित हो चुका था और यह समूह भी आज आर्यकाल की वर्णव्यवस्था के अधीन कार्य नहीं कर रहे थे। इनके मूल में कर्म की अपेक्षा जन्म को प्रधानता दी जाने लगी थी।” (2)
कबीर ने समाज में व्याप्त वैषम्य को दूर करने के लिए अपने काव्य को हथियार बनाया और समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया। कबीर के काव्य ने ऐसे मूल्य स्थापित किए जिन्होने तत्कालीन समाज की जाति-भेद, छूत-अछूत और धर्मों की टकराव की समस्या को चुनौती दी। उन्होंने कहा कि-
“एक बूंद एक मूल मूतर, एक चाम एक गूदा।
एक जोति थैं सब उपजा, कौन ब्राह्मन कौन सूदा।” (3)
कबीर ने राम-रहीम की एकता पर बल देते हुए परमात्मा में भी समन्वय स्थापित किया-
“हमारे राम-रहीम-करीमा, केसौ-अलह-राम सति सोई।
बिसमिल मेटि बिसंभर एकै, और न दूजा कोई।” (4)
कबीर ने सभी जातियों, सम्प्रदायों व धर्मों मे समन्वय स्थापित करने के लिए प्रत्येक जीव को समान बताते हुए कहा-
“साई के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय।” (5)
कबीर कहते है-
“साधो एक रूप सब माहीं।
अपने मनहिं बिचारि कै देखो और दूसरो नाहीं।।
एकै त्वचा रूधिर पुनि एकै विप्र सूद्र के मांही।”(6)
मानवता-कबीर ने सभी धर्मों की विकृतियों पर प्रहार किया और धर्म के नाम पर मानवता की स्थापना पर बल दिया। “कबीर वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति तथा सम्प्रदाय से परे सच्ची इंसानियत के मुरीद थे।” (7)
कबीर ने अपनी कविता से प्रतिपादित किया कि सभी धर्माें का मूल मंत्र मानवता ही है। वे मनुष्य को केवल मनुष्य के रूप में देखने पर बल देते हैं। उन्होने अपनी कविता में मनुष्यत्व पर बल दिया। उनकी इसी विशेषता को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि – “कबीरदास अगर केवल आलोचना और प्रश्न करने तक सीमित रहते तो वे अधिक से अधिक असहमति और विरोध के कवि होते, जैसा की कुछ लोग कहते है। लेकिन वे केवल असहमति और विरोध से आगे बढकर समाज में मनुष्यत्व की भावना को विकसित करने और मनुष्य सत्य को प्रतिष्ठित करने के लक्ष्य को सामने रखते हैं।” (8)
बाह्माडम्बर का विरोध-कबीर के समय हिन्दू व मुसलमान दोनो ही धर्मों के मुखिया जनसामान्य में अनेक पाखण्डों, बाह्माचारों, अन्धविश्वासों व कर्मकाण्डों को फैला कर धर्म को संकीणर्ता की परिधि में बांध रहे थे। कबीर ने दोनो ही धर्मों के ठेकेदारों की पोल खोलकर बाह्माडम्बरों का डटकर विरोध किया।
कबीर ने मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड, तीर्थाटन सहित विभिन्न धार्मिक कृत्यों का विरोध करके समाज में व्याप्त अंधविश्वास के विरूद्ध आवाज उठाई। वे हिन्दू धर्म के बाह्माडम्बरों के विरूद्ध कहते है-
“माला फेरी तिलक लगाया,
लंबी जटा बढाता है।
अंतर तेरे कुफर-कटारी,
यों नहिं साहब मिलता है।।”(9)
तथा
“माथे तलिक हाथ जपमाला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया।
मारग छाडि कुमारग उहकै, सांची प्रीत बिनु राम न पाया।।” (10)
कबीर इस्लाम के बाह्माचारों पर लिखते है-
“मुल्ला होकर बाँग जो दैवे,
क्या तेरा साहब बहरा है।” (11)
हिंसा के लिए वे फटकारते हुए कहते है-
“दिनभर रोजा रहत है राति हनत हैं गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुसी खुदाय।।” (12)
कबीर ने दोनो ही धर्मों के आडम्बरों को निशाना बनाते हुए कहा-
“ अरे इन दोउन राह न पाई,
हिन्दुवन की हिन्दुवाई देखी, तुरकन की तुरकाई।।” (13)
कबीर के समय मूल्यों के पतन का मुख्य कारण यह कर्मकाण्ड ही था, इसलिए कबीर ने उदाŸा मूल्य- स्थापना के लिए कर्मकाण्डों का विरोध आवश्यक समझा। डाॅ. रघुवंश लिखते है- “उस समय के समाज का विघटन और उसके मूल्यों की विश्रृंखलता का मूल कारण यह सारा आचार तथा कर्मकाण्ड रहा है। ऐसी स्थिति में कबीर का पण्डित तथा मूल्ला से बार-बार उनके बारे मे प्रश्न करना सहज रहा है। ”(14)
निर्मल मन व आचरण की शुद्धता-कबीर धार्मिक आडम्बरो की बजाय मन की निर्मलता तथा आचरण की शुद्धता को महत्व देते हैं। “ हृदय और मन की शुद्धता तथा निष्कपटता पर कबीर का सहज धर्म आधारित है जिसके लिए न तो बडे-बडे वेद-कुरान, इंजील और बाइबिल के पोथे पढने की आवश्यकता है और न मन्दिर, मस्जिद या गिर्जे में जाकर भजन, पूजन, नमाज इत्यादि मे समय नष्ट करने की। मन शुद्ध और हृदय निष्कपट होने पर व्यक्ति के आचरण कभी भी असात्विक और धर्म-विरूद्ध नहीं हो सकते। इसी लिए कबीर ने पहले मन की शुद्धता और हृदय की निष्कपटता पर बल दिया है।” (15)
कबीर बाहरी आडम्बर की बजाय मन को साधने पर बल देते हुए कहते है-
“केसौ कहा बिगाडिया, जे मूढैं सौ बार।
मन को काहे न मूढिए, जामै विषै विकार।।” (16)
वे सिर मुंडाने, तिलक लगाने, माला फेरने, खपरा और सींगी धारण करने को व्यर्थ मानते है। बल्कि सच्चा योगी वह है जो मन पर विजय प्राप्त कर उसे निर्मल बनाता है। मन-साधना के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होने कहा-
“ सो जोगी जाके मन में मुद्रा।
रात दिवस न कराई निद्रा।।
मन में आसन मन में रहना।
मन का जप तप मन सूँ कहना।।
मन में खपरा मन में सींगी।
अनहद नाद बजावै रंगी।।
पंच परजारि भसम करि मूका
कहै कबीर सो लहसै लंका।।(17)
कबीर मन की निर्मलता के साथ-साथ आचरण की शुद्धता पर भी बल देते हैं। उन्होने तत्कालीन धार्मिक जटिलताओं और चमत्कारों में भटकी हुई भोली जनता को कर्मकाण्डों के स्थान पर सदाचरण का मार्ग सुझाया। वे आचरण की शुद्धता को ही सच्चा धर्म मानते थे। वे कुल, जाति, वर्ग व धर्म आदि से व्यक्ति के आचरण को प्रमुख मानते थे-
“ ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जे करणी ऊँच न हेाइ ।”(18)
तथा
“ सो हिन्दू सो मुसलमान, जिसका दुरस रहै ईमांन।।”(19)
इस प्रकार हमने देखा कि आचरण की सभ्यता व्यक्ति में स्थापित करने के लिए कबीन ने व्यक्ति के नैतिक उत्कर्ष की ओर उसका ध्यान आकर्षित किया है।” (20)
प्रेम-कबीर ने अपनी कविता द्वारा भेदभाव मिटाकर प्रेम आधारित मानक धर्म व समाज की प्रतिष्ठा का प्रयास किया।
तत्कालीन सामाजिक व धार्मिक परिस्थितियों की विकटता का एकमात्र उपाय प्रेम ही था। इसलिए कबीर ने प्रेम को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा-
“ पढि पढि के पत्थर भया, लिखि लिखि भया जु ईंट।
कहै कबीरा प्रेम की, लगी न एकौ छींट।।
पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोइ।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढै सो पंडित होइ।।
यह प्रेम ही सबकुछ है, वेद नहीं, शास्त्र नहीं, कुरान नहीं, जप नहीं, माला नहीं, तस्वीह नहीं, मंदिर नहीं, मस्जिद नहीं, अवतार नहीं, नबी नहीं, पीर नहीं, पैगंबर नहीं। यह प्रेम समस्त बाह्याचारों की पहँुच के बहुत ऊपर है। समस्त संस्कारों के प्रतिपाद्य से कहीं श्रेष्ठ है। जो कुछ भी इसके रास्ते में खडा होता है, वह हेय हैं।” (21)
परोपकार-कबीर ने अपने आचरण और काव्य द्वारा परोपकार को रेखांकित किया। कबीर तत्कालीन स्वार्थ से भरे समाज को परोपकार का पाठ पढाकर उनमें प्रेम, करूणा और दया का प्रसार करना चाहते थे ताकि विश्रृंखल होता हुआ समाज पुनः एक सूत्र में बंध सके। वे कहते हैं-
“ वृक्ष कबहुँ नहीं फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारनै, साधुन धर्यों सरीर।। ” (22)
अर्थात् कबीर का मानना था कि सज्जन व्यक्ति परोपकार के लिए ही शरीर धारण करते हैं।
सहजता-कबीर सहजता पर बल देते हुए सामान्य सहज जीवन को श्रेष्ठ मानते है। कबीर ने कर्मकाण्ड आधारित वैराग्य की बजाय सहज प्रवृति को अपनाने का सन्देश दिया। “ वेशभूषा बदलने का नाम कबीर ने वैराग्य नहीं माना। कबीर कहते है कि यदि कोई व्यक्ति तन के स्थान पर मन से बैरागी हो जाता है तो उसे सहज ही सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है-
तन को जोगी सब करै, मन का विरला कोई।
सब सिधि सहजै पाइए, जे मन जेगी होई।” (23)
कबीर ने घर त्यागकर वन में जाने की बजाय घर पर ही सहज साधन के लिए कहा है-
“ बनहि बसै का कीजिए, जो मन नहिं तजै विकार।
घर बन समसरि जिनि किया, ते बिरला संसार।। ” (24)
कबीर के अनुसार सामान्य व्यक्ति को न आचारों के पालन करने की आवश्यकता थी, न हठ योग, सुरति योग आदि के चक्कर में पडने की। मन पर संयम रखना, गुरू के वचनों पर विश्वास रखना, राम मे प्रेम की लगन, सŸानाम का जाप करना तथा ईमानदारी से परिश्रम पूर्वक कमाये हुए धन से जीविका चलाना, बस यही सहज मार्ग था। न रोजा न नमाज, न व्रत न पूजा, न वेद न कुरान। बस उक्त सहजमार्ग ही कबीर ने खोज निकाला था।
संतो सहज समाधि भली।” (25)
सत्य-भारतीय संस्कृति का सबसे प्राचीन और प्रमुख जीवन मूल्य सत्य भी कबीर के काव्य में प्रमुखता से है। कबीर ने सत्य को ईश्वर प्राप्ति का प्रमुख साधन घोषित करते हुए कहा-
“ साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाकै हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।। ” (26)
कबीर ने सत्य को सनातन और अनश्वर माना है। वे मानते है कि सत्य मनुष्य को ईश्वर से जोडने का माध्यम है। कबीर कहते है कि सच्चा व्यक्ति सत्य के आचरण से निर्भय व अमर बन जाता है-
“साँचे शाप न लागई, साँचे काल न खाय।
सँाचे को साँचा मिलै, साँचे माहि समाय।।”(27)
क्षमा-कबीर-कालीन समाज घृणा और वैमनस्य से ग्रस्त था। व्यक्ति वर्ग, जाति, सम्प्रदाय व धर्मों में बँटकर आपस में लडता रहता था। तब कबीर ने समाज में सहनशीलता और उदारता का संचार करने के लिए क्षमा पर बल देते हुए कहा-
“क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात।
कहा विष्णु को घटि गयो, जो भृगु मारी लात।।”(28)
संतोष-कबीर ने लोभग्रस्त व्यक्ति को संतोष का पाठ पढाया। वे संतोष को व्यक्ति के लिए ईष्र्या, निदा, द्वेष जैसे दुर्गुणो को दूर रखने का साधन मानते थे। कबीन ने संतोष को संसार के सभी धन-ऐश्वर्य से श्रेष्ठ माना-
“गोधन, गज-धन, बाजि-धन, और रतन धन खानि।
जब आवे सतोष धन, सब धन धूरि समानि।।”(29)
कबीर ईश्वर से मांँगते हुए भी संतोष के साथ कहते हैं-
“साई इतना दीजिए, जितना कुटुंब समाय।
त मैं भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।”(30)
अहंकार का दमन-कबीर व्यक्ति के लिए ईश्वर-प्रेम प्राप्ति हेतु अहंकार नष्ट होने को महत्वपूर्ण मानते थे। अहंकार के दमन से ही व्यक्ति अपने-पराये, ऊँच-नीच का भेद भूल सकता है और तत्कालीन परिस्थितियों के लिए व्यक्ति में यह भाव जाग्रत होना आवश्यक था। अतः कबीर कहते हैं-
“जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नांहि।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या मांहि।।”(31)
उस समय के समाज में व्याप्त अहंकार जनित भेदभाव को नष्ट करने के लिए कबीन ने ‘मैं’ के भाव को ईश्वर प्राप्ति में बाधक घोषित किया और अहंकार का दमन करके प्रेम, अहिंसा, करूणा जगाने का सन्देश दिया।
वाणी का संयम-कबीर ने शब्द को ब्रह्म की संज्ञा देते हुए वाणी के संयम को महत्व दिया। कबीर व्यक्ति को मीठी वाणी में बोलने के लिए कहते हैं-
“ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय।।”(32)
अर्थात् व्यक्ति ऐसी वाणी बोले कि खुद व श्रोता, दोनो शीतलता का अनुभव करे।
इस प्रकार हम देखते है कि मध्यकालीन समाज, धर्म व सŸाा के मूल्यहीन परिदृश्य को कबीर के काव्य ने उदात्त मूल्यों के रंगों से सराबोर कर दिया। कबीन ने अपने काव्य के माध्यम से हर उस मूल्य की स्थापना की जो तत्कालीन परिस्थितियों के लिए आवश्यक था।
कबीर-काव्य द्वारा स्थापित मूल्यों की आधुनिक संन्दर्भों में प्रासंगिकता
कबीर द्वारा प्रतिष्ठित मूल्यों का जब हम अवलोकन करते हैं तो वे हमे आधुनिक सन्दर्भों में भी सर्वथा प्रासंगिक नजर आते है क्योंकि मध्यकाल की परिस्थितियाँ हमें आज भी कहीं-कहीं अपने चारो ओर नजर आती हैं। जिस प्रकार मध्यकाल में समाज व धर्म भ्रमित था, उसी प्रकार आज भी हमारा समाज व धर्म उन्हीं चैराहों पर खडा कबीर के काव्य के मार्गदर्शन का इन्तजार कर रहा है।
कबीर ने अपने काव्य से समाज की ऊँच-नीच और धर्म के अन्धविश्वास को जिस प्रकार निशाना बनाया, उसकी आवश्यकता आज भी है।
कबीर द्वारा स्थापित मूल्य आज की विकट परिस्थितियों में अधिक प्रासंगिक बन गए हंै।
वर्तमान में राजनीति ने पुनः धर्म व जाति की खाईयों को गहरा कर दिया है। वोटबैंक की राजनीति ने समाज को मंदिर-मस्जिद के झगडे में उलझा दिया है। साम्प्रदायिकता का बीज जो कबीर के समय पौधा था, आज वृक्ष बन चुका है। आज भी दोनो धर्मों के ठेकेदार राजनीति के हाथों मोहरा बनकर छोटी सी घटना को साम्प्रदायिक रंग देकर समाज की एकता को खंडित करते रहते हैं। लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में जब ऐसी घटनाएँ होती है, और संत-मौलवी आदि भी जब इनमें नकारात्मक भूमिका निभाते है तब कबीर की वाणी प्रासंगिक हो उठती है-
“राम रहीमा एक हैं, नाम धराया दोय।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भर्मि परो मत कोय।।”(33)
रामजन्म-भूमि और बाबरी मस्जिद के नाम पर आज भी हम जब भारतीय संस्कृति की मूल अस्मिता को भूल जाते हैं, तब कबीर हमें चेतावनी देते हैं-
“काशी काबा एक है, दूजा कबहु न होय।
अंतर टाटी कपट की, तातें दीखे दोय।।”(34)
समाज की तरह ही हमारा धर्म भी आज तक आडम्बरों से मुक्त नहीं हो पाया है। विज्ञान की प्रगति भी अंधविश्वास के कुचक्रों को नहीं तोड पायी है। आज हम कितने भी आधुनिक हो चुके हैं, परन्तु फिर भी धर्म के आचरण में छिपे नकली बाबाओं के आडम्बर से भ्रमित होने से बच नहीं पाते हैं। जिस प्रकार कबीर के समय धर्म के ठेकेदार अपनी साधना का ढोंग रचकर समाज में अंधश्रृद्धा फैला रहे थे और धन के अपहरण में रत थे। वहीं स्थिति आज भी हमें नजर आती हैं। कबीर ने तत्कालीन हिन्दू तथा मुसलमान पाखण्डी धर्म प्रचारकों को आडे हाथों लिया। कबीर का सारा काव्य धर्म के आचरण में छिपे असत्य का खण्डन व सत्य की स्थापना का प्रयास है। कबीर ने मुक्त कण्ठ से, धर्म के नाम पर होने वाले बाहृयाडम्बरों व धर्म के इस विकृत रूप के जिम्मेदार धार्मिकों का विरोध किया। वर्तमान संदर्भ में जब हम धर्म के उक्त विकृत रूप को यदा-कदा अपने आस-पास पाते है तो हमें कबीर की वाणी प्रासंगिक लगती हैं। आज की विज्ञान आधारित सदी में भी हमारे देश में अनेक बाबाओं के प्रभाव में जब जनता धर्म के मूल रूप को भूलकर उनका अंधानुकरण करती है, तो हमें कबीर के ये शब्द राह दिखा सकते हैं-
“साधो, पाँडे निपुन कसाई।
बकरि मारि भेडि को धाए, दिल में दरदन आई।
करि अस्नान तिलक दै बैठे, बिधि सो देवि पुजाई।
आतम मारि पलक में बिनसे, रूधिर की नदी बहाई।
अति पुनीत ऊँचे कुल कहिये, सभा मांहि अधिकाई।
इनसे दिच्छा सब कोई माँगे, हँसि आवै मोहि भाई।।
पाप-कटन की कथा सुनावै, करम करावे नीचा।
बूडत दोउ परस्पर दीखे, गहे बाँहि जय खींचा।
गाय बधै सो तुरक कहावै, यह क्या इनसे छोटे।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, कलि में ब्राह्मन खोटो।। (35)
कबीर का काव्य न केवल समाज व धर्म बल्कि व्यक्ति, परिवार व सत्ता के लिए भी वर्तमान में पूर्णतया प्रासंगिक है। कबीर द्वारा स्थापित मूल्य सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। इनका आचरण आज भी प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनुकरणाीय है। कबीर द्वारा स्थापित आचरण की शुद्धता, प्रेम, परोपकार, सहजता, सत्य, क्षमा, संतोष, अहंकार का दमन, वाणी का संयम जैसे मूल्यों की आज अत्यन्त आवश्यकता है क्योंकि व्यक्ति के आचरण को मर्यादित करने और समाज की उत्कृष्ठ व्यवस्था के लिए हमारे कानून-नियम भी बेबस नजर आ रहे है। अतः ऐसे माहौल में कबीर का काव्य एक आशा की किरण के रूप में नजर आता हैं। कबीर की वाणी प्रत्येक व्यक्ति की समझ तक सुलभ हो सकती हैं। हम कितने भी आधुनिक हो जाएँ हमे मूल्यों की प्यास बुझाने कि लिए कबीर का आश्रय हमेशा लेना पडेगा।
संदर्भ सूची-
1.कबीर-साहित्य और सिद्धान्त: यज्ञदत्त शर्मा, अक्षराम् प्रकाशन सोनीपत, पृ. 22
2.वही, पृ. 126
3.कबीर ग्रंथावली: कमलापति पांडेय, पृ. 430
4.कबीर: हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, पृ. 145
5.हिन्दी साहित्य का इतिहास: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, कमल प्रकाशन नई दिल्ली, पृ. 64
6. कबीर: हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 239
7. भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य: शिवकुमार मिश्र, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 47
8. भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य: मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, पृ. 33
9. कबीर: हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 209
10. कबीर ग्रंथावली: कमलापति पांडेय, पृ. 430
11. कबीर: हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 209
12. हिन्दी साहित्य का इतिहास: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 65
13. भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य: शिवकुमार मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 78
14. कबीर एक नई दृष्टि: डाॅ. रघुवंश, पृ. 110
15. कबीर साहित्य और सिद्धान्तः यज्ञदत्त शर्मा, पृ. 120
16. वही, पृ. 25
17. वही, पृ. 113
18. कबीर ग्रन्थावली: (सं.) श्यामसुन्दर दास, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, पृ. 100
19. कबीर ग्रन्थावली: (सं.) श्यामसुन्दर दास, इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयास, पृ. 207
20. कबीर साहित्य और सिद्धान्तः यज्ञदत्त शर्मा, पृ. 128
21. कबीर: हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 145
22. कबीर समग्र: (सं.) युगेश्वर, पृ. 406
23. कबीर साहित्य और सिद्धान्तः यज्ञदत्त शर्मा, पृ. 122
24. कबीर समग्र: (सं.) युगेश्वर, पृ. 724
25. हिन्दी साहित्य की दार्शनिक पृष्ठभूमि: विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, साहित्य रत्न भण्डार, आगरा, पृ. 346
26. कबीर समग्र: (सं.) युगेश्वर, पृ. 443
27. वही, पृ. 444
28. वही, पृ. 442
29. वही, पृ. 441
30. वही, पृ. 463
31. वही, पृ. 245
32. वही, पृ. 396
33. वही, पृ. 470
34. वही, पृ. 470
35. कबीर: हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 242