कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ जब समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था। छुआछूत, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता, मिथ्याचार, पाखण्ड का बोलबाला था और हिन्दू-मुसलमान आपस में झगड़ते रहते थे । धार्मिक पाखण्ड अपनी चरम सीमा पर था। धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता के कारण समाज का सन्तुलन बिगड़ रहा था, कुरीतियों एवं कुप्रथाओं का बोलबाला था तथा सामाजिक विषमता बढ़ती जा रही थी। उस समय किसी ऐसे महात्मा या समाज सुधारक की आवश्यकता थी जो समाज में व्याप्त इन बुराइयों पर निर्भीकता से प्रहार कर सके, धर्मों के अनुयायियों को बिना किसी भेदभाव के फटकार सके और सदाचार का उपदेश देकर सामाजिक समरसता की स्थापना करे। कबीर इन आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । उल्लेखनीय है कि उनमें हिन्दु और इस्लाम की रुढ़ियों, संकीर्णताओं और कट्टरताओं के विरुद्ध खड़े होने की जैसी दृढ़ता थी, वैसी ही सच को कहने की निर्भीकता भी थी। उन्होंने कहा था-

              ‘‘साँच ही कहत और साँच ही गहत है,

              काँच कू त्याग कर साँच लागा।

              कहै कबीर यूँ भक्त निर्भय हुआ।

              जन्म और मरन का मर्म भागा। ’’ 1

        कबीर की सामाजिक चेतना या समाज सुधारक व्यक्तित्व पर विचार करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि क्या मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी हुई समस्याओं को धार्मिक तथा राजनीतिक समस्या से बिल्कुल अलग करके देखा जा सकता है। एक क्षण के लिए मध्यकालीन या कबीर कालीन समाज को दरकिनार करके अपने आधुनिक समाज को देख लिया जाए तो बात कुछ अधिक साफ ढंग से समझ में आ जायेगी। आज के समाज की अनेक समस्याओं में से सबसे बड़ी और प्रमुख समस्या है धार्मिक कट्टरपन। इसी धार्मिक कट्टरता या साम्प्रदायिकता के कारण एक आदमी दूसरे आदमी के खून का प्यासा बन जाता है जिसके कारण समाज में व्यक्तियों का सह अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है जो सामाजिक संगठन की मूलभूत आवश्यकता है।

        जहाँ तक कबीर के समाज सुधारक होने का प्रश्न है, यह निर्विवाद सत्य है कि वे बुद्ध, गाँधी, अम्बेडकर इत्यादि क्रांतिकारी समाज सुधारकों की परम्परा में शामिल होते हैं। एक महान समाज सुधारक की मूल पहचान यह है कि वह अपने युग की विसंगतियों की पहचान करें, एक मौलिक व समयानुकूल जीवन दृष्टि प्रस्तावित करें और इस जीवन दृष्टि को स्थापित करने के लिए हर प्रकार के भय और लालच से मुक्त होकर दृढ़तापूर्वक संघर्ष करें। कबीर के व्यक्तित्व का विश्लेषण करें तो हम समझ सकते हैं कि वे जिस सामंतवादी युग में थे वह सामाजिक दृष्टि से अपकर्ष का काल था। विलासिता जैसे मूल्य समाज में फैले हुए थे। नारी को भोग की वस्तु माना जाता था। वर्णव्यवस्था और साम्प्रदायिकता ने मानव समाज को खंडित किया था। धर्म का आडम्बरकारी रूप वास्तविक धार्मिकता को निगल चुका था और भाषा से लेकर जीवन शैली तक एक प्रकार का आभिजात्य उच्च वर्गों की मानसिकता में बैठा हुआ था। ऐसे समय में कबीर ने मानव मात्र की एकता का सवाल उठाया और स्पष्ट घोषणा की कि ‘‘साई के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोय।’’  वे समाज के प्रति अति संवेदनशीलता से भरे रहे क्योंकि ‘सुखिया’ संसार खाता और सोता रहा जबकि संसार की वास्तविकता समझकर ‘दुखिया’ कबीर जागते और रोते रहे। यह निम्नलिखित पंक्ति से स्पष्ट हो जाता है-

              ‘‘सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै ।

              दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।’’ 2

        यह संवेदनशीलता निष्क्रिय नहीं थी बल्कि इतनी ज्यादा दृढ़ता और आत्मविश्वास से भरी थी कि बेहतर समाज के निर्माण के लिए कबीर अपना घर फूँकने को पूर्णतः तैयार थे-

              ‘‘हम घर जारा आपना, लिया मुराड़ा हाथ ।

              अब घर जारौं तासु का, जो चलै हमारे साथ ।।’’ 3

        कबीर के समाज के प्रति यही दृष्टिकोण वर्णव्यवस्था, साम्प्रदायिकता, भाषाई आभिजात्य और धार्मिक आडम्बरों के कठोर खंडन में साफ दिखाई पड़ता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था को धार्मिक व्यवस्था से बहुत अलग करके नहीं देखा जा सकता है। जहाँ जाति-भेद, वर्ण-भेद धार्मिक व्यवस्था का ही परिणाम है, जहाँ पति-पत्नी का सम्बन्ध आध्यात्मिक बन्धन है, जहाँ व्यक्ति, परिवार और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों का मूलाधार धर्म हैं, वहाँ सामाजिकता धार्मिकता से अलग कैसे हो सकती है। ब्राह्मण छुआछूत को इसलिए बढ़ावा देता है कि वह इसे अपना धर्म मानता है। यही नहीं एक बघिक जानवरों का वध इसलिए करता है कि यह उसका धर्म (ईश्वर द्वारा निर्धारित कार्य) है। शूद्रों को सभी वर्गों की सेवा इसलिए करनी चाहिए कि ईश्वर ने उसे इसी के लिए पृथ्वी पर भेजा है। जिस देश में गरीबी-अमीरी, सुख-दुख, जाति-पाति, ऊँच-नीच सभी कुछ ईश्वर की इच्छा से निर्धारित है उस देश में यदि किसी भी तरह का सामाजिक परिवर्तन लाना है तो उसके लिए धार्मिक परिवर्तन की दिशा में ही प्रयत्न करना होगा। आज के बौद्धिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उपर्युक्त बातें आधारहीन भले ही हों किंतु मध्ययुगीन परिप्रेक्ष्य में ये शत-प्रतिशत सत्य हैं। कबीर जैसा ओजस्वी तथा विद्रोही रचनाकार जब इस तरह का भाव व्यक्त कर सकता है तो भ्रम की गुंजाइश कहाँ रह जाती है-

              ‘‘पूरब जनम हम बाभन होते ओछे करम तप हीना ।

              रामदेव की सेवा चूका पकरि जुलाहा कीना ।।’’ 4

        इसलिए यह कहना कि कबीर का व्यक्तित्व मुख्यतः भक्त है। समाज सुधार उनके लिए गौण है। समीचीन नहीं है कि कबीर जिस तरह के भक्त हैं वह स्वयं में ही एक नवीन सामाजिक पद्धति एवं मानवीय समता की स्वीकृति तथा पक्षधरता का प्रमाण है। यह भक्ति मार्ग ऐसा है जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का अलगाव नहीं है, सभी एक हैं और केवल मनुष्य हैं। यदि इनकी कोई उपाधि है, तो वह भी एक ही है जो है संत या भक्त। इस साधना में ब्राह्मणों का वर्चस्व नहीं है। ब्राह्मण के महत्व को अस्वीकार करना, सभी वर्गों के लिए एक नये आध्यात्मिक मार्ग की खोज करना, वेद, शास्त्रों में प्रतिपादित उन मान्यताओं को अस्वीकार करना, जो ब्राह्मणों के महत्व को स्वीकार करती है आदि युग-युग से निर्मित सामाजिक व्यवस्था पर गहरी चोट है- ‘‘शास्त्र और सम्प्रदायों का निषेध करके कबीर केवल एक नयी भक्ति पद्धति को ही नहीं जन्म दे रहे थे बल्कि ढोल पीट-पीटकर जता रहे थे कि मुक्ति का मार्ग ब्राह्मण के घर से होकर नहीं जाता- जैसा कि युगों-युगों से प्रचारित किया जा रहा है। ब्राह्मण, वेद तथा वेद मार्ग के महत्व को अस्वीकार करके कबीर ने वस्तुतः सामंती व्यवस्था के मर्म पर आघात किया था। उनके भक्त रूप को महत्व देना, प्रकारांतर से उनके सामाजिक विद्रोह को हाशिये में डालना है।’’ 5

        चूँकि सामाजिक व्यवस्था से जुड़े हुए अनेक मुद्दों के संदर्भ में धर्म की दुहाई दी जाती थी, इसीलिए कबीर  ने उनका विरोध करने के लिए धर्म की ही व्यवस्था में से तर्क ढूंढने का प्रयत्न किया। जाति-पांति, छुआ-छूत और ऊँच-नीच के भेद-भाव को समाप्त करने के लिए उन्होंने आध्यात्मिक तथा दार्शनिक मान्यताओं का आधार ग्रहण किया। भारतीय दर्शन का बहुविख्यात सिद्धान्त अद्वैतवाद तत्वतः ब्रह्म की सत्ता को सत्य और शेष को असत्य मानता है। कबीर ने दर्शन के इस सूत्र का सामाजिक समता के लिए उपयोग किया। जब एक ही तत्व सर्वत्र सब घट में व्याप्त है तो भेद-भाव कहाँ से पैदा हो जाता है-

              ‘‘एकहि जोत सकल घट व्यापक, दूजा तत्व न होई।

              कहै कबीर सुनौ रे संतो, भटकि मरै जनि कोई ।।’’ 6

        कबीर ने परिस्थितियों के अभिशाप से धर्म को बचाने के लिए विश्व-धर्म की रूपरेखा प्रस्तुत की। उन्होंने घोषणा की कि सबका ईश्वर एक ही है। मुसलमान और हिन्दू भले ही विविध नामों से अपने ईश्वर को पुकारे तथापि उनके ईश्वर में किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है। सत्य एक है, भले ही संप्रदाय अनेक हो। उन्होंने कहा –

       ‘‘हम तो एक-एक कर जाना।

       दोय कहैं तिनको है दो जग, जिन नाहीं पहिचाना ।।

       एकै पवन एक ही पानी एक ज्योति संसारा ।

       एक ही खाक घड़े सब भांडे, एक ही सिरजन हारा ।।’’ 7

        कबीरदास ने यह भी अनुभव किया था कि जाति व्यवस्था को अगर शिथिल न किया जाएगा, तो धर्म की रक्षा संभव न हो सकेगी। इसलिए जाति बंधन की परंपरा तोड़ने के लिए उन्होंने अभूतपूर्व प्रयत्न किया।

       ‘‘जाति-पाति पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का कोई’’ 8

        के सिद्धान्त की प्रतिष्ठा कर उन्होंने धर्म को सशक्त और सुसंगठित किया। जाति भेद की संकीर्णता जिस हद तक पहुँच गयी थी, उसका स्पष्ट संकेत कबीर की रचनाओं में मिलता है।

              ‘‘तुम कत् बाम्हन हमकत सूद ।

              हम कत् लोहू तुम कत् दूध ।।

              कह कबीर जे ब्रह्म विचारे ।

              सो ब्राह्मा कहियतु है हमारे ।।’’  9

        इसी प्रकार कबीर ने हिन्दू-मुसलमानों दोनों के पाखण्डों का खण्डन किया तथा उन्हें सच्चे मानव-धर्म को अपनाने के लिए प्रेरित किया। कबीर ने दोनों को कसकर फटकारा जो इस प्रकार है-

              ‘‘अरे इन दोऊन राह न पाई।

              हिन्दू अपनी करे बड़ाई, गागर छुअन न देई।

              वेश्या के पायन तर सोयै, यह देखो हिन्दुआई ।

              मुसलमान के पीर-औलिया, मुर्गी-मुर्गा खाई ।

              खाला के घर बेटी ब्याहै, घर ही में करैं सगाई।’’  10

        कबीर मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे। वे मानते थे जिस परमात्मा का कोई आकार नहीं, देशकाल का जिसके लिए कोई आधार नहीं, उसकी मूर्ति कैसी? अतः मूर्तिपूजक हिन्दुओं को फटकारते हुए वे कहते हैं-

       ‘‘पाहन पूजे हरि मिलै तो मैं पूजूँ पहार ।

       ताते यह चक्की भली पीस खाय संसार ।।’’ 11

        कबीर की तर्कवादी सोच का एक पहलू उनके आडंबर विरोधी नजरिये में दिखता है। वे मध्यकाल के संत थे, इसलिए ईश्वर में उनकी गहरी आस्था थी। किंतु अपनी सहज तार्किकता से वे समझते थे कि ईश्वर, जो अपने आप में पूर्ण है, किसी भी प्राणी से यह अपेक्षा नहीं रहता होगा कि वह उसके नाम पर बलि चढ़ाए, तीर्थाटन या कर्मकांड करें। अपनी इसी तार्किकता के चलते उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों में प्रचलित आडम्बरों पर करारा प्रहार किया। उन्होंने देखा कि हिन्दुओं में मुंडन कराने की प्रथा  प्रचंड रूप में विद्यमान है। विशेष रूप से मंदिरों और मठों में ईश्वर के साधक इस लालच में गंजे हो जाते थे कि इस परंपरा पर चलकर स्वर्ग तथा ईश्वर की उपलब्धि कुछ आसान हो जाएगी। कबीरदास ने इस अतार्किक परंपरा पर जबरदस्त व्यंग्य करते हुए कहा –

              ‘‘मूंड मुड़ाए हरि मिले, सब कोइ लेय मुड़ाय।

              बार बार के मूंडते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय।।’’ 12

        कबीर ने मुसलमानों को भी आडंबरों के लिए क्रोध के साथ फटकारा है। जब उन्होंने मस्जिद के उपर चढ़कर मौलवी को अजान करते देखा तो व्यंग्य करते हुए पूछा कि क्या तुम्हारा खुदा बहरा है जो नीचे से तुम्हारी आवाज नहीं सुन पाता। मौलवी पर व्यंग्य करते हुए कबीर ने निम्नलिखित प्रसिद्ध कथन कहा –

              ‘‘काँकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लेई बनाय।

              ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय ।।’’ 13

        आज भी हमारे समाज में धार्मिक आडंबर और अंधविश्वास हर जगह मौजूद है। इन आडंबरों के रहते हम वैज्ञानिक स्वभाव से युक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। कबीर का महत्व यह है कि वे हमें आडंबरों और अंधविश्वासों पर तार्किक सवाल खड़े करना सिखाते हैं। ऐसा वैज्ञानिक स्वभाव अगर सभी का हो जाए तो निश्चित तौर पर तमाम रूढ़ियां और अतार्किक प्रथाएं समापत हो सकती है।

        कबीर हमें कुछ अन्य मामलों में भी नैतिक सलाह देते हैं और उनकी अधिकांश नैतिक सलाहें आज भी हमारे काम की हैं। उदाहरण के लिए, एक दोहे में उन्होंने संदेश दिया है जो आज के उपभोक्तावादी समाज के लिए बेहद उपयोगी है-

       ‘‘साई उतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।

       मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए।’’  14

        कबीर ने अहिंसा की बात भी अत्यंत गहराई के साथ रखी है। उन्होंने महावीर और बुद्ध की परंपरा के अलावा वैष्णव परंपरा से भी अहिंसा का सिद्धान्त सीखा और निजी जीवन में इसका उपयोग भी किया। उनका कथन है कि ‘‘साईं के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोय।’’ एक दूसरे कथन में तो उन्होंने मांसाहार करने वालों को जमकर फटकार लगाई है और चेतावनी दी है कि उनके द्वारा की गई पशु-हत्याओं का हिसाब ईश्वर अवश्य करेगा। वे मजेदार सा तर्क देते हुए कहते हैं कि बकरी तो सिर्फ पत्ते खाती है और इतने से ही उसकी खाल उतार ली जाती है। सोचकर देखिए जो इंसान बकरी खाते हैं, उनका क्या हाल होने वाला है-

       ‘‘बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल ।

       जे नर बकरी खात हैं, तिनका कौन हवाल ।।’’ 15

        कबीर की सलाह है कि व्यक्ति को दूसरों से बातचीत के लिए विनम्र भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए। वे इस बात को समझते थे कि अधिकांश झगड़े भाषा की असावधानियों के कारण ही जन्म लेते हैं, न कि वैचारिक या मानसिक वैपरीत्य के कारण। इसलिए उन्होंने स्पष्ट सलाह दी कि –

              ‘‘ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय ।

              और को सीतल करे, आपहु सीतल होय।’’ 16

        कबीर हमें आत्म-आलोचना करना भी सिखाते हैं आमतौर पर हमारी आदत होती है कि हम दूसरों की कमियाँ और अपनी अच्छाइयाँ तुरंत देख लेते हैं। कहा भी जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने मामले में सबसे अच्छा वकील होता है और दूसरों के मामले में सबसे बुरा जज। कबीर हमें इस निम्न मानसिकता से मुक्त कराना चाहते हैं। वे सिखाते हैं कि दूसरों पर कठोर कसौटियों का प्रयोग करने की बजाय खुद पर उनका इस्तेमाल करना चाहिए और अपनी कमियों को ईमानदारी से स्वीकार करने का हौंसला रखना चाहिए। एक कथन में वे बड़ी ईमानदारी से स्वीकार करते हैं कि –

       ‘‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।

       जो दिल खोजो आपना, मुझसे बुरा न कोय।’’ 17

        किसी भी व्यक्ति के विचार इतने पूर्ण नहीं होते कि उन पर सवाल न उठाए जा सकें। कबीर भी पूर्ण नहीं है। उनके विचारों में कुछ ऐसे पक्ष मौजूद हैं जिन्हें पढ़कर चिंता होती है। उनके समय में तो उन कमियों पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई पर आधुनिक काल में, जब हर विचारक कई विचारधाराओं की कसौटियों से परखा जाने लगा है, कबीर की कमजोरी भी खुलकर सामने आने लगी है।

        कबीर की चेतना पर सबसे गंभीर प्रश्नचिन्ह नारीवादी विचारकों द्वारा लगाया गया है। कबीर के कई ऐसे पद हैं जिनमें वे नारी की अनावश्यक निंदा करते हुए नजर आते हैं। दरअसल, वे मध्यकाल की जिस परंपरा में दीक्षित थे, उसमें महिलाओं को ‘माया’ समझा जाता था और उन पर आरोप था कि वे पुरुषों का ध्यान भटकाने में लगी रहती हैं। समझ नहीं आता कि कबीर जैसा महातार्किक आदमी ऐसे बेवकूफाना विचारों से कैसे प्रभावित हो गया? आज यह सोचकर आश्चर्य होता है कि कबीरदास ने महिलाओं को कितना-बुरा भला कहा है उदाहरण के लिए, वे एक दोहे में कहते हैं कि-

       ‘‘नारी की झाईं पड़त, अंधा होत भुजंग।

       कबिरा तिनकी कौन गति, जे नित नारी के संग।।’’ 18

        कबीर की दूसरी सीमा यह है कि वे सबको विनम्र भाषा का प्रयोग करने की सलाह देते हैं, किंतु खुद इतनी आक्रामक भाषा का प्रयोग करते हैं कि सुनने वाला तिलमिला जाए। यह अंतर्विरोध हर जगह तो नहीं दिखता, किन्तु कबीर के कुछ कथनों में जरूर झलकता है- विशेषतः वहाँ, जहाँ वे किसी मुल्ले या पंडे पर आडम्बरों या जातिवादी व्यवहार के कारण प्रहार कर रहे होते हैं। कुछ लोग का मानना है कि इस गुस्से और आक्रामकता के कारण ही कबीर ‘कबीर’ बन सके।

        कबीर की तीसरी सीमा यह है कि वे इस जगत को झूठा घोषित करते हैं। दरअसल, वे शंकराचार्य से प्रभावित थे जिन्होंने सम्पूर्ण जगत को मिथ्या कहा था। कबीरदास भी कई स्थानों पर इहलोक को झूठा साबित करते हैं। उदाहरण के लिए, उनका एक कथन है-

       ‘‘यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े धुलि जाना है।’’ 19

        कबीर के समय तो यह दृष्टिकोण चल जाता था पर आज नहीं चल पाता। वर्तमान विश्व के अधिकांश लोग सैद्धांतिक तौर पर चाहे मानें या नहीं, पर व्यवहारिक तौर पर समझ चुके हैं कि यह दुनिया ही वास्तविक और अंतिम दुनिया है, इसलिए इसे झूठा मानना और किसी काल्पनिक दुनिया के सपने देखना निरर्थक है।

        उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कबीर महान समाज सुधारक थे। जहाँ तक उनके नारी संबंधी या परलोक संबंधी विचार हैं, हमें उनसे प्रभावित नहीं होना चाहिए। क्योंकि वे सत्य धर्म के प्रतिपादक, समन्वयवादी एवं क्रांतिकारी व्यक्ति थे। वे समाज में प्रचलित सभी प्रकार की असमानता बाह्याडम्बर एवं सामाजिक कुरीतियों को दूर करके जनसाधारण को सरल-जीवन, सत्याचरण, पारस्परिक एकता, समता आदि की ओर उन्मुख करने का जो सराहनीय कार्य किया है, उसी के परिणामस्वरूप वे एक उच्चकोटि के ‘समाज-सुधारक’ कहलाते हैं।

 

संदर्भ – 

  1. ‘कबीर ग्रन्थावली’- डॉ. रामकिशोर शर्मा, पृष्ठ-251, प्रकाशक-लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2006
  2. ‘कबीर’- हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ-148, प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन, 2013
  3. ‘कबीर ग्रन्थावली’, डॉ. श्यामसुंदर दास, पृष्ठ -29, लोकभारती प्रकाशक, 2009
  4. ‘कबीर’-हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ-126
  5. ‘कबीर ग्रन्थावली’ – डॉ. श्यामसुन्दर दास, पृष्ठ -20
  6. ‘कबीर ग्रन्थावली’ – डॉ. रामकिशोर शर्मा, पृष्ठ- 66
  7. ‘कबीर ग्रन्थावली’ – डॉ. रामकिशोर शर्मा, पृष्ठ- 67
  8. ‘कबीर ग्रन्थावली’ – डॉ. श्यामसुन्दर दास, पृष्ठ- 130
  9. वही, पृष्ठ- 121
  10. वही, पृष्ठ -125
  11. वही, पृष्ठ -130
  12. वही, पृष्ठ- 137
  13. ‘कबीर’, हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ -256
  14. ‘कबीर ग्रन्थावली’, डॉ. श्यामसुन्दर दास, पृष्ठ-124
  15. ‘कबीर’, हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ-228
  16. ‘कबीर ग्रन्थावली’, डॉ. श्यामसुन्दर दास, पृष्ठ- 124
  17. वही, पृष्ठ -132
  18. ‘कबीर’ हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ-226
  19. वही, पृष्ठ -228

 

ज्ञानेन्द्र प्रताप सिंह
दिल्ली विश्वविद्यालय

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