हिन्दी साहित्य में मध्यकाल का बहुत महत्त्व है। मध्यकाल को स्वर्ण युग भी कहा गया है। मध्यकाल में बहुत से कवि हुए लेकिन कुछ कवि सूर्य के समान हैं जिनमें कबीर प्रमुख है। कबीर का स्थान भक्तिकाल में ध्रुव तारे के समान है। भक्ति साहित्य में जो लोकप्रियता कबीर को मिली, वैसी न उनसे पहले किसी को मिली न उनके बाद।
कबीर ऐसे समय में हुए जब समाज में रूढ़िवादिता, बाह्याडम्बर, अंधविश्वास का बोलबाला था। धार्मिक आडम्बरों के कारण सत्य छिप सा गया था। कबीर सच्चे संत थे। साथ ही सच्चे कर्मयोगी भी थे। कबीर समाज-सुधारक और निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। इन्होंने कोई दार्शनिक मत प्रस्तुत नहीं किया है यद्यपि इन्होंने ब्रह्म, जगत्, माया, जीव पर जो मत प्रस्तुत किए है उसी से इनके दार्शनिक विचारों का मूल्यांकन किया जा सकता है।
ब्रह्म हिन्दू दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है। वो दुनिया की आत्मा है। वो विश्व का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है, जिसमें विश्व आधारित होता है और अन्त में विलीन हो जाता है। वो एक और अद्वितीय है। वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश स्त्रोत की तरह रोशन है, वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।
वेदांतशास्त्र के अनुसार – ”मनुष्य का सबसे बड़ा लक्ष्य पुरूषार्थ या मोक्ष है – मोक्ष अर्थात् छुटकारा। यह संसार दुःखरूप है और मोक्ष ब्रह्म स्वरूप है।“1
श्रुति में ब्रह्म को इस प्रकार बताया गया है – ”वह सबकुछ करने वाला है, सब कामनाओं से भरा-पूरा है, सब रसों का आश्रय है, सर्व गंधमय है।“2
उपनिषदों में कहा गया है – ”उपनिषदों में ब्रह्म को सत्य-स्वरूप और आनंद-स्वरूप कहा गया है।“3
कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना की। इन्होंने निर्गुण ब्रह्म के लिए ‘राम’ नाम का प्रयोग किया है। ऐसा प्रसिद्ध है कि ब्रह्ममुहर्त में घाट पर सोए कबीर पर रामानंद जी के पैर पड़े तो उन्होंने कहा – ‘राम-राम कह’। रामानंद जी के इसी कथन को कबीर ने गुरु मंत्र मान लिया और राम की भक्ति करने लगे। परन्तु उनके राम दशरथी राम नहीं है, वे तो अगम-अगोचर और अविनाशी हैं। स्वयं कबीर अपने राम के विषय में कहते हैं –

”दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना,
राम नाम का मरम है आना।“4

ब्रह्म के विषय में उन्होंने जो विचार व्यक्त किए हैं। वे उनकी स्वानुभूति का परिणाम है। उन्होंने जो कुछ भी कहा, वह बुद्धि तथा हृदय के योग से कहा। ब्रह्म के साक्षात्कार का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं –

”लाली मेरे लाल की जित देखु तित लाल।
लाली देखन में गई, मैं भी हो गई लाल।।“5

कबीर का ब्रह्म संबंधी ज्ञान उपनिषदों के अद्वैतवाद से प्रभावित है। आदि से अंत उनकी ब्रह्म भावना अद्वैत से संबंधित है। अद्वैतानुभूति को अभिव्यक्त करते हुए वे कहते हैं –

”कस्तुरि कुंडली बसे, मृग ढूंढै बन माहिं।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखत नाहिं।।“6

वे कहते हैं कि राम कस्तूरी की सुगंध के समान सुक्ष्म है और हर किसी के अंतर में उसका निवास है पर अज्ञानी मनुष्य वनों और गुफाओं रूपी इस संसार में उनकी तलाश कर रहा है। राम जब प्रत्येक के अंतर में निवास करते है तो उन्हें मंदिर-मस्जिद आदि बाहरी स्थानों में ढूंढने की क्या आवश्यकता है ? राम के दर्शन तो कुण्डलिनी जागृत कर षड्चक्र भेदन भर से स्वयं के अंतर में ही प्राप्त करना संभव है।
अद्वैतवादियों के समान कबीर का विश्वास है कि ब्रह्म से ही संसार की उत्पत्ति हुई है और वही ब्रह्म उसे नष्ट भी कर देता है। वह ब्रह्म पूरी तरह निराकार, रूपहीन और संसार के कण-कण में व्याप्त है। एक स्थल पर वे कहते हैं –

”पानी ही ते हिम भया, हिम है गया बिलाय।
कबीर जो था सो भया, अब कुछ कहा न जाय।।“7

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि ”जो ब्रह्म हिन्दुओं की विचार पद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया।“8
कबीर का विचार था कि ब्रह्म के मूल तत्त्व को समझाना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। जो लोग ऐसा नहीं करते वे ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं कर पाते। कबीर कहते हैं –

”न जानै साहब कैसा है,
मुल्ला होकर बाँग जो दैवे,
क्या तेरा साहब बहरा है।“9

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कहते हैं कि ”कबीर के वचनों में कहीं तो निरुपाधि निर्गुण ब्रह्म सत्ता का संकेत मिलता है तो कहीं सर्ववाद की झलक मिलती है तो कहीं सोपाधि ईश्वर की झलक मिलती है।“10
कबीर के राम अगम, अगोचर, अविनाशी, अरूप, अनाम, निराकार और निरंजन है। वह तेजोमय हैं, उनके अलौकिक तेज की समता करोड़ों सूर्यों का संयुक्त प्रकाश भी नहीं कर सकता है। राम लोकातीत हैं, फिर भी लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं। ‘घट-घट’ में उनका निवास है तथा बाहर प्रकृति में भी हर ओर उनका ही प्रतिबिम्ब है। राम सबके अंदर हैं तथा सब राम के अंदर हैं, बिल्कुल सागर में डूबे घड़े के समान –

”जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तत सुनहु गियानी।।“11

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते है कि ”कबीरदास के ‘निर्गुण ब्रह्म’ में ‘गुण’ का अर्थ सत्त्व, रज आदि गुण है, इसलिए ‘निर्गुण ब्रह्म’ का अर्थ वे निराकार निस्सीम आदि समझते हैं, निर्विषय नहीं।“12
कबीर स्पष्ट रूप में कहते हैं कि वह सारे संसार में व्याप्त है। वह सत्त, रज, तम आदि गुणों से परे है। उसका कोई आदि-अंत नहीं। वह न पृथ्वी है, न वायु है, न आकाश है। अग्नि या पानी में भी वह नहीं रहता। वह पाप-पुण्य से अलग-थलग, वेद-पुराण तथा शास्त्रों से भी परे है। कबीर जी तो घोषणा करते हैं कि उस परमतत्त्व को न कोई देख सकता है, न प्राप्त कर सकता है। वह न खाता है, न पीता है, न जीता है, न मरता है। उसका कोई रूप-रंग अथवा वेशभूषा नहीं है। वह असीम, अनन्त, अनिर्वचनीय, अरूप तथा सर्वव्यापी है। कबीर कहते हैं –

”प्रथम एक तो आयै आप।
निराकार निर्गुण निर्जाप।।“13

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि ”कबीरदास उत्तम अधिकारी के लिए इस ‘अवाड्मानसगोचर’ परंब्रह्म की उपसाना को बहुत महत्त्व नहीं देते। परंतु वे इस बात में खूब सावधान हैं, वे बार-बार याद दिला देते हैं कि यह जो उपासना बताई जा रही है वह सगुण अवतार की नहीं है वरन् ‘निर्गुण राम’ की है।“14
कबीर के ब्रह्म का रुप अपार महिमाशाली है। उसकी शक्ति, प्रकाश तथा रुप स्वरूप तक कोई नहीं पहुँच सकता। कबीर ने अपने परब्रह्म के मधुर संबंधों की स्थापना की है। तथापि वे दांपत्य प्रेम पद्धति का सहारा हैं। वे स्वयं को ब्रह्म की प्रेमिका मानते हुए कहते है कि –

”बालम आउ हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।।“15

कबीर कहते हैं कि ब्रह्म ही इस जगत का एकमात्र कारण है और आत्मा से अभिन्न है। बीज का ही परिणत रूप वह जगत है। जिस प्रकार वह समस्त आकाश-महाकाश में ही वर्तमान है, उसी प्रकार जो कुछ भी अनंत प्रकार की वस्तुएँ दिख रही है वह ब्रह्म का ही अंग है –

”साधो, ब्रह्म अलख लखाया, जब आप आप दरसाया।
बीज-मद्ध ज्यों बृच्छा दरसै, बृच्छा मद्धे छाया।।“16

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं कि ”परंब्रह्म समस्त वस्तुओं, गुणों और विशेषणों से विलक्षण है। कबीरदास ने इस शैली का आश्रय करके भगवान के विषय में अनेक पद गाए हैं।“17
कबीर कहते हैं कि ब्रह्म तो घट-घटवासी है फिर भी मूर्ख लोग उन्हें बाहर खाजते हैं। आत्मज्ञान से ही वह मिलते हैं, तीथव्रत से नहीं –

”पानी बिच मीन पियासी।
मोहि सुन सुन आवै हाँसी।।“18

कबीर कहते हैं कि ब्रह्म ही सत्य है। वह सबसे परे है, वह शून्य में स्थित है जो निरीह भक्त है वही उसे प्राप्त कर सकता है जो उसे पाने का प्रयास नहीं करता वह विद्वान, ज्ञानी, पढ़ा-लिखा होने पर भी व्यर्थ है –

”संतो, धागा टूटा गगन विनीस गया,
सबद जु कहाँ समाई।
ए संसा मोहि निस-दिन व्यापै,
कोई न कहै समझाई।।“19

कबीर का मानना है कि सद्गुरु मिलने पर तथा उनके बताये मार्ग पर चलकर ही ब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है –

”नाना भेष बनाय सबै मिलि, ढूँढि फिरे चहुँ देस।
कहैं कबीर अंत ना पैहौ, बिन सतगुरु उपदेस।।“20

कबीर शास्त्र ज्ञान, धार्मिक प्रवचनों को व्यर्थ बताते हैं। वे कहते हैं कि यदि सच्ची शान्ति पानी है तो हमें एकाग्रचित होकर ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए –

”अल्लह पाक पाक है सक करो जो दूसर होई।
कबीर कर्म करीम का उहु करे जानैं सोई।।“21

कबीर ने ब्रह्म की शक्ति और स्वरूप को अर्निवचनीय कहा है। वेदों में भी उसे ‘नेति-नेति’ कहा गया है। ब्रह्म रहस्यमय है, अ˜ुत से भी अ˜ुत है, उसकी शक्ति अपार है। ब्रह्म को पाना बड़ा कठिन है, उसे पाने के लिए साधक को अपने विवेक से साधना पद्धति चुनकर उस पर चलना होगा –

”करता की गति अगम है, तू चल अपणैं उनमान।
धीरैं धीरैं पाँव दे, पहुँचैंगे परवान।।“22

कबीर कहते हैं कि मैं ब्रह्म को खोजते-खोजते ब्रह्ममय हो गया हूँ। स्वयं ब्रह्म ने आकर स्वयं को मुझसे एकाकार कर लिया है। अब दोनों की पृथक सत्ता नहीं रह गयी है –

”हेरत हेरत है सखी, रह्या कबीर हिराइ।
समँद समाना बूँद में, सो कत हेर्या जाइ।।“23

कबीर स्वयं को निर्गुण, निराकार, अव्यक्त ब्रह्म का उपासक होने की घोषणा करते हैं और बताते हैं कि प्राणान्त होने तक उसी की साधना करते रहेंगे, अन्य साधना पद्धति का सहारा नहीं लेंगे –

”नीव बिहूँणा देहरा, देह बिहूँणा देव।
कबीर तहाँ बिलंबिआ, करै अलख की सेव।।“24

कबीर कहते हैं कि ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है। हृदय रूपी मंदिर ही ब्रह्म का प्रवेश द्वार है। वह हृदय में उसी प्रकार छिपा है जैसे तिल में तेल छिपा रहता है। कबीर कहते हैं कि ब्रह्म को मंदिर, मस्जिद में ढूँढने की जरूरत नहीं है –

”मोकों कहाँ ढूँढे़ बंदे, मैं तो तेरे पास में ।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।“25

कबीर के राम , उनके निर्गुण ब्रह्म जिसके हृदय में आ जाते हैं, वह अनायास ही मती-बुद्धि पा जाता है –

”रसनां राम गुन रमि रस पीजै।
गुन अतीत निरमोलिक लीजै।।
निरगुन ब्रह्म कथौ रे भाई।
जा सुमिरत सुधि-बुधि-मति पाई।।“26

अंततः कहा जा सकता है कि कबीर के काव्य में ब्रह्म का स्वरूप व्यापक है। कबीर के ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त हैं। ‘घट-घट’ में उनका निवास है। आवश्यकता है तो बस हमें उस मूल तत्त्व को समझने की। जब हम समझ जाऐंगे तब हम ब्रह्म से साक्षात्कार कर पाऐंगे।

संर्दभ-सूची
1 हजारी प्रसाद द्विवेदी -कबीर, पृष्ठ -86
2 वही, पृष्ठ – 87
3 वही, पृष्ठ – 90
4 वही, पृष्ठ – 268
5 कबीर ग्रंथावली
6 कबीर ग्रंथावली
7 कबीर ग्रंथावली
8 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-64
9 कबीर ग्रंथावली
10 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-64
11 कबीर ग्रंथावली
12 हजारी प्रसाद द्विवेदी -कबीर, पृष्ठ -93
13 वही, पृष्ठ – 215
14 वही, पृष्ठ – 98
15 कबीर ग्रंथावली
16 हजारी प्रसाद द्विवेदी -कबीर, पृष्ठ -183
17 वही, पृष्ठ – 87
18 वही, पृष्ठ – 203
19 वही, पृष्ठ – 232
20 वही, पृष्ठ – 238
21 कबीर ग्रंथावली
22 वही
23 हजारी प्रसाद द्विवेदी -कबीर, पृष्ठ -269
24 वही, पृष्ठ – 269
25 वही, पृष्ठ – 179
26 कबीर ग्रंथावली

 

आरती
दिल्ली

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