कृषि भारतीय जीवन का आधार, रोजगार का प्रमुख स्रोत तथा विदेशी मुद्रा अर्जन का प्रमुख माध्यम है। लेकिन आज भारतीय कृषि के समक्ष बहुत सी चुनौतियाँ हैं। पहले की तुलना में अब इस क्षेत्र को अधिक रफ्तार से विकास करना होगा ताकि प्रति व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक खपत को समायोजित किया जा सके। हाल की अवधि में उत्पादन तथा उत्पादकता की विकास दर में कमी महसूस की गयी है। वहीं दूसरी ओर सबसे पहले हमें अधिकतम प्राप्त कर सकने योग्य उत्पादन तथा खेतों में वास्तविक उत्पादकता स्तरों के बीच फासले को कम करने के प्रयास करने होंगे।

खेती किसानी इस देश की प्राण, संस्कृति और सरोकार रही है, दुनिया को विकास का नया माॅडल देने वालों ने तीसरी दुनिया के खेती किसानी के औचित्य पर सवाल खड़ा करना शुरू कर दिया है। अब विकल्प के तौर पर K.F.C. और मैक्डोनाल्ड दुकानों का विस्तार करते जा रहें हैं। बिना यह बताये कि मुर्गियों या ब्रेड के लिये भी अन्य की जरूरत होती है। खाद-बीज, कीटनाशकों पर निर्भरता और तकनीकी एकाधिकार के फाँस में किसान को गुलाम बनाने का कुचक्र जारी है। बीज पर महाप्रभुओं का एकाधिकार हो चुका है। परम्परागत बीज उजाड़ दिये गये हैं, हाइब्रिड बीजों को बेचने वाले ही उसे बनाने वाले हैं। अब किसान फसलों से बीज तैयार नहीं कर सकते। महाप्रभुओं द्वारा तैयार बीजों के लिये अत्यधिक कीटनाशक, पानी और रासायनिक खाद चाहिये। ऐसे में अन्नदाता दूसरों की मर्जी पर खेती-किसानी को विवश है।

उदारीकरण की नीतियाँ किसानों को घेरने और उन्हें कॉरपोरेट दास बनाने का कुचक्र रच रही हैं। बाहरी दबावों और कॉरपोरेट हितों के लिये खेती किसानी को तबाह करने का हर प्रयास किया जा रहा है, बहाना नकदी फसल उगाने का दबाव। अतीत के नील की खेती की तरह बाध्य किया जा रहा है। खाद, बीज और कीटनाशकों के दाम लगातार बढ़ाये जा रहे हैं। ऊपर से विश्व व्यापार के जरिए अमेरिका और यूरोपीय देशों की कोशिश है कि उन्हें आयातित खाद्यान्न पर निर्भर कर महाप्रभुओं के खाद्यान्न को खपाया जाए। अपने देश में जब पंजाब, फर्रुखाबाद और कन्नौज में आलू की ज्यादा पैदावार होती है तो शीतगृहों एवं बिजली की कमी के चलते सड़कों पर फेंकना पड़ता है। सुल्तानपुर और प्रतापगढ़ में आँवले और विदर्भ में कपास का निर्यात रोककर कौड़ियों के भाव बिचैलियों को दे दिया जाता है। मिर्जापुर में टमाटर की अत्यधिक पैदावार को पशुओं को खिलाया जाता है। ऐसे में किसानों को श्रम के बदले कुछ भी हासिल नहीं हो पाता है। उवर्रक कारखानों का बन्द किया जाना और गैर खाद्यान्न फसलों के उत्पादन को बढ़ाना इसी सोच की कड़ी है। हमारे रहनुमाओं ने यह देखते हुये कि 1995-2013 के बीच तीन लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की। इसी दौरान मध्य प्रदेश में लगभग 28 हजार किसानों ने आत्महत्याएँ की और आत्महत्या करने वाले प्रति पाँच किसानों में एक महिला किसान होने का देश व्यापी रिकार्ड मध्य प्रदेश के खाते में दर्ज है।

किसानों की देशी तकनीक, जो पर्यावरण हितैषी रही है उससे किसानों को काटा जा रहा है और आयातित तकनीक पर निर्भर बनाया जा रहा है। देश के कुल रोजगार का 57% हिस्सा कृषि और उस पर आधरित क्षेत्रों पर निर्भर रहा है। तमाम औद्योगिक विकास के दावे के बावजूद अभी भी कुल राष्ट्रीय आय का चैथाई हिस्सा इन्हीं क्षेत्रों से प्राप्त होता है। ऐसे में कृषि उपेक्षा किसानों को आत्महत्या हेतु मजबूर कर रही है। अजीब विडम्बना है कि विश्व व्यापार संगठन के दबाव में जब हम कृषि क्षेत्र की कृषि आर्थिक सहायता (सब्सिडी) घटाते जा रहे हैं तथा अमेरिका, चीन और यूरोप के देश सब्सिडी बढ़ा रहे हैं। वे अपने यहाँ कृषि को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं और विकासशील मुल्कों पर दबाव डाल रहे हैं कि उनके कृषि उत्पादों को अपने बाजारों में खपाएँ।

ग्रामीण क्षेत्र के लिये वित्त सेवाओं की अपनी खासियत होती हैं। कृषि प्रकृति पर आश्रित व्यवसाय है। प्रति व्यक्ति जमीनी हक बहुत कम है और उधार लेने वालों के पास गारन्टी के रूप में कुछ ज्यादा नहीं होता। ये कर्जदार लाखों की तादाद में है और देश के व्यापक क्षेत्र में व्याप्त हैं। इन विशिष्टताओं वाले लोगों की जरूरत को पूरा करने में सक्षम उचित कर्ज व्यवस्था उपलब्ध कराना वास्तव में एक जटिल चुनौती है। ग्रामीण वित्तीय संस्थाओं की हस्तान्तरण लागत कम करनी होगी ताकि ब्याज दर कम की जा सके। ब्याज दर से भी जरूरी बात यह है कि समय पर पर्याप्त कर मुहैया कराया जा सके। ग्रामीण कर्ज का सरोकार फसल से जुड़ा होता है। और वक्त पर धन मुहैया नहीं कराया गया तो उसके असर वांछित नहीं हो सकते। जिस तरह न्याय का देर से मिलना सही न्याय नहीं होता, उसी तरह गाँव में समय से कर्ज का न मिलना कर्ज नहीं कहलाता।

खेती योग्य जमीन की गुणवत्ता का गिरना तथा विकास एवं शहरी करण के नाम पर सिकुड़ना जारी है खेती योग्य जमीनें, बाग-बगीचे, तालाब कंक्रीट में तब्दील होते जा रहे हैं। भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 के तहत सार्वजनिक हित में कृषि योग्य भूमि का औने-पौने दाम पर जमीनों का अधिग्रहण जारी है। इसमें सरकार ने कुछ सुधार किये हैं जो पर्याप्त नहीं है इसमें और सुधार की जरुरत है। ऐसे में अन्न संकट गहराने के आसार दिखाई देने लगे हैं। खेती के लिये जरूरी अवयवों जमीन, खाद, पानी और बीज पर खतरे गहराये हैं।

हरित क्रान्ति के नाम पर पंजाब में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का बहुतायत से प्रयोग शमीनी जल का दोहन अनियन्त्रित बना दिया गया लिहाजा ज़मीन बन्जर होने के कगार पर जा पहुँची है। लुधियाना कृषि विश्वविद्यालय द्वारा जनवरी 2010 में जारी शोध के अनुसार पंजाब के 40% छोटे किसान या तो समाप्त हो गये हैं या अपने बिक चुके खेतों के मजदूर बन चुके हैं। पंजाब के 12,644 गाँवों में प्रतिवर्ष 10-15 परिवार उजड़ रहे हैं। कीटनाशकों पर खेती की निर्भरता के चलते सबसे ज्यादा कैन्सर रोगी पंजाब में पाये जा रहे हैं। विदेशी बीजों संग आयी गाजर घास ध्रती के लिये कोढ़ बन चुकी है और दमा जैसी बीमारियों को बढ़ा रही है। सिंचाई के परम्परागत तरीकों यथा झील, तालाबों और रहटों से मुँह मोड़कर पंजाब में पन्द्रह लाख नलकूप लगे जिससे जमीनी पानी का स्तर 20 फुट से 200 फुट नीचे चला गया।

ग्रामीण संरचना में हुये बदलाव ने खेती किसानी से बैलों को बेदखल किया, तो दुधारू पशुओं की संख्या में सकारात्मक बढ़ोत्तरी नहीं हुई लिहाजा परम्परागत गोबर खाद की किल्लत तो हुयी ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव में देशी उर्वरक के कारखाने बन्द किये जाते रहे।

आज देश में कुल DAP (डाय अमोनियम फास्फेट) माँग का 90% और कुल एम.ओ.पी. (म्यूरिएट ऑफ पोटाश) का शत प्रतिशत आयात द्वारा पूरा किया जा रहा है। पशुओं के कम होते जाने से और मशीनों से कटाई होने के कारण फसलों के डण्ठल खेतों में ही जला दिये जाते हैं।

जल जमीन और जंगल से बेदखली के कारण किसानों और आदिवासियों का तेजी से पलायन शुरू हुआ है और इसके प्रतिकार के रूप में उन्होंने आन्दोलन का रूख भी अपनाया है। यह अजीब लगता है कि जहाँ मीडिया प्रायोजित आन्दोलनों को जन आन्दोलन बता महिमा मण्डित करने की कोशिश करता है। वहीं किसान और आदिवासियों के संघर्ष को स्थान देने से तब तक बचता है जब तक कि कुछ लाशें न बिछ जाए। 2.5 लाख किसानों के आत्महत्या के दृश्य चित्रों, रेखांकनों या फिल्मों में देखने को नहीं मिलते। ऐसे में किसानों की वेदना को स्तर देने का संकट गहराया है।

हकीकत यह है कि छोटे किसान संरक्षित बाजार के भीतर ही अस्तित्व में रह सकते हैं जहाँ विशाल उत्पादकों की प्रतिस्पर्धा से उन्हें लागत से कम भाव पर अपना माल बेचने की मजबूरी न हो। लेकिन यह उन्मुक्त वैश्विक व्यवस्था के भीतर सम्भव भी नहीं। इसलिये छोटे किसानों के अस्तित्व यानी इस देश की दो तिहाई आबादी के अस्तित्व की रक्षा देश को वैश्विक बाजार की स्पर्धा से बचाने से ही सम्भव है। लेकिन यह तो हो नहीं सकता कि हम खेती को तो स्पर्धा से मुक्त रखें और उद्योगों को वैश्विक व्यवस्था से जोड़ें। इसके लिये हमें कृषि और उद्योग में निवेश को समस्तर बनाना होगा यानी छोटी तकनीक अपनानी होगी। यह हमारी अर्थव्यवस्था और जीवन के प्रतिमानों को एक नयी दिशा देने की माँग करती है। देश की बहुसंख्यक लोगों की रक्षा के लिये हमें इस चुनौती को स्वीकार करना होगा।

सहायक ग्रंथ:-

  1. पटनायक किशन – किसान आन्दोलन दशा और दिशा, सुनील (सम्पा.), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2006
  2. दुबे कुमार अभय (सम्पा.) – भारत का भूमण्डलीकरण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण, 2003
  3. रंगराजन चक्रवर्ती (पूर्व गवर्नर) – भारत की आर्थिक नीति नये आयाम, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया, हिन्दी अनुवाद, राजपाल एण्ड सन्श, कश्मीरी गेट, दिल्ली, संस्करण 2010
  4. सिन्हा सच्चिदानन्द – भूमण्डलीकरण की चुनौतियाँ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2003
  5. साईनाथ पी. – तीसरी पफसल, भारत के निर्धनतम जिलों की दास्तान (एवरीबॉडी लब्ज ए गुड ड्राउट का अनुवाद), अनुवाद- आनंद स्वरूप वर्मा, पेंग्विन बुक्स इंडिया ;प्रा.द्ध लिमिटेड द्वारा, संस्करण 1996 में प्रकाशित, प्रथम हिन्दी संस्करण 2003
  6. शर्मा राघव शरण (सम्पा.) – स्वामी सहजानंद सरस्वती रचनावली भाग-2, प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, संस्करण 2003
  7. शशिधर रामाज्ञा – किसान आन्दोलन की साहित्यिक जमीन, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद (उ.प्र.), संस्करण 2012

पत्रिकाएँ:-

  1. आजकल – संपादक- फरहत परवीन, प्रकाशन विभाग, सी.ओ.जी. काॅम्प्लेक्स, लोदी रोड, नई दिल्ली, अंक जुलाई 2015
  2. कथादेश (किसान विशेषांक) – किसान जीवन का यथार्थ: एक फोकस, संपादक- हरिनारायण (अतिथि संपादक सुभाष चन्द्र कुशवाहा), सहयात्रा प्रकाशन, प्रा.लि. दिलशाद गार्डन, दिल्ली, मई 2012
  3. समकालीन तीसरी दुनिया – संपादक- आनन्द स्वरूप वर्मा, नोएडा (गौतम बुद्ध नगर), उ.प्र., अंक जुन-जुलाई 2015
  4. हंस – संपादक संजय सहाय, अक्षर प्रकाशन, प्रा.लि., नई दिल्ली, अंक नवंबर 2015

इन्टरनेट:-

  1. विकिपीडिया – एक मुक्त ज्ञानकोश, लेख वैश्वीकरण, शैला एल. करोचर, वैश्वीकरण और संबंध, एक बदलती हुई दुनिया की पहचान की राजनीति, रोमैन और लिटिलफील्ड
  2. विकिपीडिया – भारत का आर्थिक इतिहास, स्वतंत्र भारत की अर्थव्यवस्था, 1990 के बाद
  3. M.Prabhat Khar.com- संकटों में घिरे भारत के किसान, ईश्वरी प्रसाद (इतिहासकार)
  4. hindi.sputniknews.com- भारत और विश्व व्यापार संगठन
  5. www.ncrb.gov.inhindihome- राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों

समाचार पत्र:-

जनसत्ता (दैनिक समाचार पत्र) – संपादक मुकेश भारद्वाज ,

प्रभात यादव
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *