केदारनाथ सिंह समकालीन हिंदी कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। ‘तीसरे-सप्तक’ से अपनी काव्य-यात्रा की शुरुआत करने वाले कवि केदारनाथ सिंह ने लगभग साठ वर्षों तक अपनी कविता यात्रा की। इनका प्रथम काव्य संग्रह ‘अभी-बिल्कुल अभी’ सन 1960 में प्रकाशित हुआ और उसके बीस बरस बाद दूसरा काव्य संग्रह ‘जमीन पक रही है’ प्रकाशित हुआ। फिर क्रमशः ‘यहाँ से देखो’ (1983), ‘अकाल में सारस’ (1980), उत्तर कबीर और अन्य रचनाएँ'(1995), ‘बाघ’, ‘तालस्ताय और साइकिल’ (2005), ‘सृष्टि पर पहरा’ (2014) तथा ‘मतदान केंद्र पर झपकी’ (2018) में प्रकाशित हुए।
समकालीन साहित्य अपने समय की सभ्यता को समझने का एक सशक्त माध्यम होता है। आज जब सभ्यता पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं से जूझ रही है, ऐसे में समकालीन हिंदी कविता और विशेष रूप में केदारनाथ सिंह की कविताएँ उन पहलुओं को अपनी भाषा में दर्ज करती हैं। पर्यावरण हिंदी कविता के लिए कोई नई या अनोखी बात नहीं है। बीसवीं सदी से ही एक बदले हुए रूप में पर्यावरण कविताओं का विषय रहा है।
पर्यावरणीय चेतना कविता के लिए नई शब्दावली है। इस लेख में मैंने प्रकृति की विभिन्न अवस्थाओं और मुद्राओं का चित्रण केदारनाथ सिंह ने कविता में किस ढंग से किया है एवं पर्यावरणीय चेतना क्या होती है; इसका वर्णन करने का प्रयास है।
ऋतुओं से सम्बन्धित-लोकगान हो या फिर नदियों के स्वच्छ तीर पर नायक-नायिका का मिलन हो। इन कवियों के लिए पर्यावरण साधन रहा है, साध्य नहीं। चाँदनी की चमक इनके लिए एक उपमान मात्र रही है। गंभीर रूप से पहली बार समकालीन हिंदी कविता पर्यावरण को साधन के साथ-साथ साध्य भी मानती है। द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता हो या फिर छायावाद का रोमानी काव्य, प्रगतिवादी सामाजिकता हो या प्रयोगवादी व्यक्तिनिष्ठा, किसी ने भी पर्यावरणीय समस्याओं को एक गंभीर व जरुरी विषय के रूप में चित्रित नहीं किया, क्योंकि शायद उस समय यह इतनी विकराल समस्या नहीं थी। प्रकृति छायावादी कविता के लिए वह मुद्रा रही है जिसमें वह अपनी सारी बातें बड़ी रहस्यमय ढंग से व्यक्त तो करता है, लेकिन अपनी मुद्रा (प्रकृति) के लिए कोई चिंता व्यक्त नहीं करता। प्रगतिवादियों ने भी प्रकृति के सौन्दर्य की पर्याप्त व्याख्या की है, लेकिन उस पर मार्क्सवादी विचारधारा का पूरा आवरण रहा है। यहाँ तक कि प्रयोगवादियों ने भी प्रकृति की चिंता से इतर उसके पुराने उपमानों के विरोध में प्रयोग भी किये हैं। ऐसा नहीं है कि पर्यावरणीय समस्या उपर्युक्त समस्याओं में नहीं रही है या फिर साहित्य ने बिल्कुल ही एक सिरे से इन समस्याओं को ख़ारिज किया है, लेकिन जो चिंता मुख्य रूप से तत्कालीन कविता का एक विषय होना चाहिए था, उसकी पर्याप्त कमी दिखाई देती है।
साठोत्तरी कविता का स्वर पर्यावरण व उसकी समस्याओं को लेकर स्पष्ट है। कवि केदारनाथ सिंह की शुरुआती कुछ कविताएँ निश्चित रूप से पर्यावरण के सौन्दर्य की चर्चा करती हैं, लेकिन उनकी काव्य यात्रा के विकास के साथ-साथ उनकी कविताओं में पर्यावरण के अर्थ भी बदलते हैं।
प्रकृति एवं पर्यावरण केवल रोमानी कविता का विषय नहीं है, इससे पृथक उसका अपना अलग अस्तित्त्व है और समकालीन समय में उससे सम्बन्धित गंभीर चिंताएँ भी हैं। केदारनाथ सिंह की कविताएँ न सिर्फ पर्यावरण के सौन्दर्य, उसकी विविधता तथा पर्यावरणीय प्राकृतिक ताना-बाना को दिखाती है, अपितु पर्यावरणीय समस्याओं का अधिक समग्रता के साथ चित्रित करती हैं।
पर्यावरण से सम्बन्धित उनकी जितनी भी रचनाएँ हैं उसकी एक खास केदारनाथ सिंह पर्यावरण के ‘सूक्ष्म अन्वेषण’ के कवि हैं। ‘सूक्ष्म अन्वेषण’। उनकी बहुत सारी कविताओं में यह प्रवृत्ति स्पष्ट लक्षित होती है। एक उदाहरण देखिए-
“मरा पड़ा है कीड़ा
उसको देख पड़ा यो गुमसुम
क्यों होती है पीड़ा
********
********
कितनी देर
एक कीड़े के मृत्यु-शोक में
मौन खड़ा रहना होता है
मानव को। “(कीड़े की मृत्यु)
कीड़े की मृत्यु पर मानव के शोकातुर होने का प्रश्न प्रथम दृष्टया एक अजीब प्रश्न हो सकता है, लेकिन यह प्राकृतिक ताना-बाना तथा पारिस्थितिक तंत्र में हर एक जीव की बराबर की हिस्सेदारी दिखाने वाली कविता है। एक दूसरा उदाहरण देखिए-
“आज उस पक्षी को फिर देखा
***********
आखिर क्या नाम है उसका
मैं खड़ा-खड़ा सोचता रहा
और सिर खुजलाता रहा
और यह मेरे शहर में
एक छोटे-से पक्षी के लौट आने का विस्फोट था
जो भरी सड़क पर
मुझे देर तक हिलाता रहा।” (वापसी).
या फिर-
“लेकिन तब
शायद भर जायेगा बहुत कुछ
तसले नहीं भरेंगे
कटोरे नहीं भरेंगे
लेकिन फिर भी
भर जायेगा
भर जायेगा बहुत कुछ
बौर अगर आ ही गए….” (भर जायेगा बहुत कुछ)
एक अनजान से छोटे पक्षी का शहर में एक विस्फोट की तरह आना । जिससे की शहर अनजान है या आम पर उसके बौर का आना। सामान्य जीवन में यह घटनाएँ हमें प्रभावित नहीं करती या हमारे जीवन में इनका कोई महत्त्वपूर्ण स्थान भी नहीं है। यह कवि की ‘सूक्ष्म अन्वेषण’ शक्ति ही है, जो पर्यावरण में हो रही इन बारीक और बेहद प्रासंगिक परिवर्तनों के महत्त्व को आंक लेता है, वह जानता है कि एक पक्षी के आगमन से शहर की दिनचर्या नहीं बदल जाएगी या आम पर बौर आने से हमारी जीवन की रिक्तता भर नहीं सकती, लेकिन इसके बावजूद भी वह इन परिवर्तनों के उस पक्ष पर ध्यान देता है, जहाँ सिर्फ सामाजिक रिक्तता ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक रिक्तता भी महत्त्वपूर्ण अवयव है। इसलिए कवि का ध्यान कभी तितली के पंखों पर, कभी एक फूल के ऊपर भौरों के मचलने पर, तो कभी विशालकाय पर्वत के बीच एक नन्हें फूल के खिलने पर जाता है और कवि को उस पहाड़ का दरकना साफ़ सुनाई देता है। यह कविता में आई हुई, कोई अनायास चीज नहीं है, बल्कि यह लगातार किये गए काव्य प्रयोगों से उत्त्पन्न एक महत्तवेपूर्ण काव्य दृष्टि है। जो कवि को उसके समकालीनों से अलग करती है।
काव्य सौंदर्य के रूप में केदारनाथ सिंह की कविता बेजोड़ है। वह लिखते हैं –
“जड़े चमक रही हैं
ढेले खुश
घास को पता है
चीटियों के प्रजनन का समय
करीब आ रहा है।” (जड़ें)
या,
“कभी जाता हूँ गाँव
तो उनकी असुविधा का ध्यान कर
रह लेता हूँ किसी पड़ोसी के घर
सोचता हूँ
कहीं ऐसा न हो कोई युगनद्ध जोड़ा
मेरी आहट से छिटक जाय
या क्या पता किसी मादा ने
अभी-अभी दिया हो पहला अंडा
या फिर कोई बूढ़ा कबूतर
जीवन-संग्राम में
छूट गया हो अकेला,’’ (घर में प्रवास)
हममें से कौन जड़ों, चीटियों या कबूतरों के जीवन से परिचित नहीं है। हम अपने छत या छज्जों पर प्रायः ही चाहे-अनचाहे कबूतरों और अन्य पक्षियों के क्रिया-कलाप और जीवन लीला को देखते रहते हैं, लेकिन क्या यह क्रिया कलाप हमें उस अर्थ में प्रभावित करती हैं, जिसमें कवि ने इसका चित्रण किया है। पाश्चात्य काव्यशास्त्र का महत्तवपूर्ण आलोचक कॉलरिज की कल्पना सम्बन्धी सिद्धान्त में रम्य-कल्पना के वर्णन और कवि की कविता ‘घर में प्रवास’ में कितनी समानता है। कबूतरों के जीवन-यापन के लिए अपने पैत्रिक घर को उन्हें सौंप देना, यह प्रदर्शित करता है कि सिर्फ विचार के स्तर पर ही नहीं बल्कि व्यवहार के स्तर पर भी कवि पर्यावरण की चिंताओं से चिंतित है और उसके उपादानों को लेकर भी जागरूक है। समझना होगा कि, कवि के लिये पर्यावरण सरकारी आकड़ों की तरह, जिसे कवि ने खुद ‘आंकड़ा झूठ’ कहा है सिर्फ देश के जंगलों में शेरो और बाघों की गिनती मात्र है या हाथियों के बचाव के लिए पारित किया गया कोई कानून या कानूनी कार्यवाही नहीं है, बल्कि कवि के लिए पर्यावरण का मतलब चीटीं से लेकर हाथी तक की यात्रा है जिसके भीतर असंख्य जीव-जंतु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे शामिल हैं।