क्या फ़र्क पड़ता है,
दिल पर ज़ख्म एक हो या हज़ार।
उठती हैं टीसें
सहती हूँ अत्याचार,
बेढब स्वेच्छाचार की राजनीति पर
तुम पलते हो जैसे सदाबहार
क्या फ़र्क पड़ता है,
अब मरूँ एक बार या फिर बार बार।।
कर देते हो मंडित ‘श्रद्धा’ से ‘श्रेष्ठ’ से
वेदों में, कविता में, किताबों में, अखबारों में।
करते हो मेरे हक़ की बात
फिर भी कर जाते हो नैन-नक्श,
अदा, छोटे कपड़ों का व्यापार
इस अनंत, अतृप्त, गिद्धों से भरे
बाज़ारवाद के दरबारों में।।
अब हूँ बनी स्वावलंबी, आत्मनिर्भर
बन रही हूँ सशक्त,
भरती हूँ दम्भ,निकली हूँ तोड़कर तुम्हारे अहं को
फिर क्यों कहते हो कि तुम ‘कुलटा’ हो।
क्या रे बौद्धिक, साधु-जन
क्या अब हो चले नव ‘सामंत’
या फिर सच में जन्मे उलटा हो।।
क्या फ़र्क पड़ता है,
गर प्रकृति ने तुम्हें जन्मा उल्टा है
कहीं हो रही हूँ अस्मतहीन,कहीं बेघर,
तुम पर कर यकीं हो बेखबर
तो भी बन हिस्सा भीड़ का
खड़े हो, देख तमाशा कहते हो
क्या फ़र्क पड़ता है।।
हाँ, हूँ मैं अब उन्मुक्त
हूँ मैं अब आज़ाद
पर नहीं हूं व्यभिचारिणी
दे जन्म तुम्हें बनती हूँ कर्णधारिणी,
देती हूँ तुम्हें एक धरातल
करते हो भोग, पर कहते हो
“क्या फर्क पड़ता है।।”
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