युद्ध का इतिहास मानव सभ्यता के उदय के साथ ही शुरू हो जाता है | विश्व इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हम देख सकते हैं कि युद्ध सदैव सत्ता, साम्राज्य विस्तार और स्त्री-भोग की लिप्सा के कारण ही हुए हैं | इन युद्धों का परिणाम भी इतिहास में दर्ज है | हिंदी साहित्य पर गौर करें तो हम देख सकते हैं कि आदिकालीन रासो साहित्य , युद्ध और पराक्रम का ही महिमागान है | लेकिन उससे होने वाली समस्याओं की चिंता इस सामंती समाज में नहीं दिखाई देती है या यूँ कह सकते हैं कि साहित्य में चित्रित नहीं मिलता है | किन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि आम जनता को युद्ध से उत्पन्न समस्याएँ नहीं झेलनी पड़ी होगी | आज इन युद्धों का एक स्त्री पाठ तैयार किया जा सकता है | यह वह समय था जब स्त्री महज एक वस्तु मात्र थी | कहना न होगा कि युद्ध के कारण होने वाली समस्याओं से समूचा विश्व पहली बार प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चिंतित होता है किन्तु सर्वविदित है कि दूसरा विश्वयुद्ध भी हुआ और आज भी युद्ध की वारदातें विश्व में घटित होती रहती हैं |

                                        बकौल प्रो. गरिमा श्रीवास्तव “प्रथम विश्वयुद्ध से सीधे-सीधे प्रभावित न होने के बावजूद हिंदी के आरंभिक दौर के कहानीकारों ने जबरन थोपे गए युद्ध और औपनिवेशिक दासता का प्रतिकार अपने-अपने ढंग से किया है | हिंदी साहित्य में प्रथम विश्वयुद्ध को आधार बनाकर लिखे जाने वाले कथा-साहित्य की पड़ताल आज आवश्यक है |”(ज़ख्म,फूल और नमक- गरिमा श्रीवास्तव,भूमिका,पृष्ठ-7,अनन्य प्रकाशन,दिल्ली)  गौरतलब है कि आज भी जब युद्ध पर आधारित हिंदी कहानी की बात होती है तो हम ‘उसने कहा था’ पर आकर अटक जाते हैं | चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की इस कहानी को भी प्रेम और त्याग की कहानी के रूप में ही पढ़ा और समझा गया है किन्तु आज इसके पाठ को विमर्श के आलोक में देखना आवश्यक है | भारतीय परम्परागत स्त्री जिसके लिए पति-पुत्र उसके अस्तित्व का आधार है,वैसे में उसके लिए विधवा जीवन की कल्पना भी भयावह है | सूबेदारनी का लहना सिंह से पति की जिंदगी के लिए वादा ले लेना उस अस्तित्व को जिन्दा रखने जैसा ही है |

प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने युद्ध की समस्याओं को आधार बनाकर लिखी गयी हिंदी कहानियां पर विहंगम दृष्टिपात किया है | ‘जख्म, फूल और नमक’ शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने एक लम्बी और वैचारिक भूमिका के साथ युद्ध पर आधारित उन कहानियों का संपादन किया है जिससे हम ‘उसने कहा था’ से आगे की दूरी को तय कर सकते हैं | उन्होंने युद्ध से जुड़ी बहुत सी कहानियों का जिक्र किताब की भूमिका में किया है, और इन कहानियों का सम्पादित पाठ संकलन भी तैयार किया है जैसे –‘हीरे का हीरा’–चंद्रधर शर्मा गुलेरी और सुशील कुमार फुल्ल, ‘सिक्ख सरदार’,‘देशद्रोह’- पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, ‘फातिहा’,‘परीक्षा’- प्रेमचंद , ‘स्मारक’- भैरव प्रसाद गुप्त ,’पेरिस की नर्तकी’–, ‘मनुष्यता का दंड’ – विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, ‘नागा पर्वत की एक घटना’, ‘मेजर चौधरी की वापसी’- सच्चिदानानंद हीरानानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, ‘तूफ़ान के बाद’ – रमा प्रसाद घिलड़याल पहाड़ी, ’प्लाट का मोर्चा’ – शमशेर बहादुर सिंह, ’कैप्टन रशीद’ – उपेन्द्रनाथ अश्क, ‘क्लॉड ईथरली’- गजानन माधव मुक्तिबोध, ‘डंगर’ – रांगेय राघव, ‘साग’ – यशपाल, ‘मिट्टी के रंग’- मोहन राकेश, ‘तारीखी सनद’ – नासिरा  शर्मा | निश्चित तौर पर यह इतिहास के उस अतिसंवेदनशील दौर को अभिव्यक्त करने का रचनात्मक प्रयास है जो हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में हुआ है | युद्ध कहीं प्रेम, कहीं संबंधों की जटिलता, कहीं अकेलेपन, कहीं भ्रष्टाचार, कहीं विस्थापन का पर्याय बनकर इन रचनाओं में आया है |

                                              हिंदी साहित्य में काव्य विधा पर गौर करें तो रामधारी सिंह ‘दिनकर’ कृत  खंडकाव्य ‘कुरुक्षेत्र’ में युधिष्ठिर का आत्मग्लानि से भरना निश्चित तौर पर एक आधुनिक मनुष्य का भावबोध है जो युद्ध की विभीषिका देख अपराधबोध से पीड़ित नजर आता है  | कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य है –

“जब युद्ध में फूट पड़ी यह आग तो

कौन पाप नहीं किया तूने?

गुरु के वध के हित झूठ कहा

सर काट समाधि ही लिया तूने”

दिनकर ने द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से उत्पन्न प्रबुद्ध मन के क्षोभ का अहसास किया था | युद्ध कैसा भी हो ,उसके भीतर मात्र भय,जख्म,ध्वंस और आग ही है | युद्ध की परिणति हमेशा भयानक तबाही और शमशानी छटा में ही  होती है | हिंदी साहित्य में युद्ध की विभीषिका का चित्रण धर्मवीर भारती के काव्य-नाटक ‘अँधा-युग’ में भी बहुत अच्छी तरह से हुआ है ,भले ही उसमें भी महाभारत को आधार बनाया गया है लेकिन पृष्ठभूमि विश्वयुद्ध की ही  है | वहीँ इस दृष्टि से जानेमाने बांगला नाटककार बादल सरकार कृत ‘हिरोशिमा’ नाटक भी महत्वपूर्ण हैं | युद्ध के बाद उत्पन्न शरणार्थियों की समस्याओं को लेकर रामेश्वर प्रेम का नाटक ‘कैंप’ भी दिखता है |

                                   “ज़ख्म फूल और नमक” में संकलित कहानियां युद्ध से उत्पन्न भुखमरी, गरीबी, स्त्री शोषण, विस्थापन ,शरणार्थी की समस्याओं के साथ – साथ मानवीयता, प्रेम और त्याग को भी पाठक के सामने रखती है | आज हिंदी कहानी बहुत लम्बी यात्रा तय कर चुकी है | ऐसे में कहानी के शिल्प और भाषा को लेकर भी बहुत सारे बदलाव परिलक्षित होते है | इन कहानियों के माध्यम से उस बदलते रूप को भी देखा जा सकता है | युद्ध पर आधारित इन कहानियों का  संपादन कर प्रो. गरिमा श्रीवास्तव  ने सराहनीय कार्य किया है | इससे निश्चित तौर पर हिंदी कहानी और युद्ध की समस्याओं को लेकर शोध कार्य को भी बढ़ावा मिलेगा |

गौरतलब है कि आज तकनीक के विकास ने जिस तरह मनुष्य के जीवन को आसान किया है वहीँ दूसरी तरफ जीवन को और अधिक जटिल बना दिया है | आज परमाणु शक्ति के विस्तार से युद्ध की संभावनाएं अवश्यसंभावी बनी हुयी है | आतंकवादी ताकतें सम्पूर्ण विश्व को अपनी छाया में ले चुकी है | जगह–जगह बम ब्लास्ट जैसी घटनाएँ आए दिन होती रहती है | आज समूचा विश्व, विश्व-मैत्री की संकल्पना को लेकर आगे बढ़ने की कोशिश में लगा हुआ है | कहना न होगा साहित्य सदैव मनुष्य के पक्ष में जिरह करता रहा है | ऐसे में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि भारतीय हिंदी कहानीकार युद्ध को किस तरह देखते हैं | स्वतंत्रता पूर्व और बाद के कहानीकारों ने युद्ध सम्बन्धी कहानियां लिखी है ,ऐसे में यह देखना भी आवश्यक होगा कि दोनों लेखकों की युद्ध विषयक चिंताएं क्या समान है या फिर भिन्न है,और ऐसा है तो किस तरह भिन्न है ? आज भारत में भी देखें तो शरणार्थी की समस्या बहुत अरसे से बनी हुयी है | जिसका हल नहीं हो पाया है | राजनीतिक पार्टियाँ के लिए ये महज वोट बैंक हैं और कुछ नहीं | उन्हें इनकी समस्याओं से कोई लेना देना नहीं है | मानव सभ्यता को त्रासदी से बचाने के लिए युद्ध पर रोक लगनी चाहिए | संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व स्तर पर इसके लिए कार्यरत है मगर सीरिया में जो कुछ हो रहा है उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता | युद्ध न केवल सत्ता की लकीरें खींचता है बल्कि मनुष्य–मनुष्य को भी आमने–सामने खड़ा कर देता है | ऐसे में संबंधों की जटिलताएँ उभर कर सामने आती है जो धीरे-धीरे प्रेम के समंदर को मरुस्थल बना डालता है | प्रो. गरिमा श्रीवास्तव के संपादन में आई किताब “जख्म, फूल और नमक” हिंदी कहानीकारों के माध्यम से युद्ध को देखने की एक सराहनीय कोशिश है | किताब की भूमिका में इन्होने जिस वैचारिकी और बहस को वजूद दिया है उस पर चर्चा-परिचर्चा भी आवश्यक है | निश्चित तौर पर एक अवलोकनीय किताब |

गौरव भारती
शोधार्थी
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली

 

                                     

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