जब भी भाषा पर कोई गंभीर अकादमिक चर्चा होती है, तब विद्वान अपने अपने ढंग से भाषा के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हैं. इस प्रक्रिया में भाषा को परिभाषित तो किया ही जाता है, कई बार उसकी फिर से व्याख्या की जाती है, जो एक बहुत ही मुश्किल काम है. अकादमिक दूनिया में ज्यादातर लोग बहुत बारीकी से अपने विचारों को रखते हैं, लेकिन कई बार रूढ़ीवादी लोग भी इसका हिस्सा बन जाते हैं. किसी भी भाषा को राजनितिक रंग न देकर अगर हम उसके सांस्कृतिक भाग को देखें, तो शायद हम उसे बहुत बेहतर समझ सकते हैं. उत्तर भारत की लिंगुआ फ्रेंका जिसे हम हिंदी कहते हैं, उसके बारे में भी कई बार बहुत गंभीर विमर्श हुए, कई बार अंग्रेजी भाषा के प्रभाव की बात की गई, लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है, क्योंकि मामला अकादमिक जगत से बाहर चला गया.

हालाकि ऐसा नहीं है कि यह समस्या केवल हिंदी भाषा के साथ है, यह समस्या विश्व कि हरेक भाषा के साथ है, लेकिन सदियों कि जटिल सांस्कृतिक प्रक्रिया ने इसे और भी पेचीदा बना दिया है. देश के विभाजन के पहले और बाद में कई सारे ऐसे राजनितिक खेल हुए, जिसने एक भाषा में से कई भाषाएं निकाल दीं. कई भाषओं के आपस में संपर्क में आने के बाद जिस लिंगुआ फ्रेंका का निर्माण हुआ था, बीसवीं सदी में शायद उसका भी विभाजन हो गया. पुरातनपंथी लोगों के अलग अलग भाषओं के शब्दों को इसमें जोड़ जोड़ कर लगभग दो भाषाएं बना डालीं और हैरत कि बात ये है, कि अकादमिक जगत भी उसी रास्ते पर चल पड़ा. साहित्यों का इतिहास लिखते समय कई सारे लेखक और कवी कैनन से बाहर कर दिए गए तो कई सारे बेवजह उसमे जोड़ दिए गए.

बात शुरू करते हैं भक्ति आंदोलन से, जब कवियों के आम जनता कि भाषा में लिखना शुरू किया और अपने लेखन को आम जनता में पहुंचाया. उसके पहले हर कोई इन रचनाओं को न तो पढ़ सकता था और नहीं समझ सकता था. इसका सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि कई सारी भाषाएं और बोलियां आपस में संपर्क में आईं. उपभाषाएँ और भाषाएं हीं नहीं बल्कि कई भाषा परिवार भी आपस में संपर्क में आए. द्रविड़ भाषओं का आर्यीकरण और आर्यन भाषाओँ का द्रविणीकरण इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं. अलग अलग भाषा परिवारों ने एक दूसरे को अलग अलग स्तर पर प्रभावित किया. शब्दों, वाक्यों, और कई तरह के आदान प्रदान ने एक दूसरे को बहुत कुछ दिया. जब तक यह प्रक्रिया स्वभाविक रूप से चली, तब तक सब ठीक था, लेकिन भाषओं कि राजनीती ने भाषा को एक राजनितिक हथियार बना दिया.

हमारे समाज में और सभी समाजों की ही तरह कई तरह के आपसी सांस्कृतिक मतभेद थे, लेकिन आपस में कई तरह की समानताएं भी थीं, जो लोगों को आपस में जोड़ती थी. मतभेद भी थे, समानताएं भी थी, लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद मतभेदों को जो भयंकर दिशा मिली, वह बहुत ही विनाशकारी साबित हुई. जब भी अंग्रेज चाहते अलग अलग तबकों को आपस में उलझा देते, उनके बिच के मतभेदों को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जाता. बहुत जगह की रिपोर्टों में तो यह भी बात सामने आयी है कि इस बात के लिए उन्होंने अलग अलग तरह के अधिकारी तैनात कर रखे थे. धार्मिक, भाषायी और सांस्कृतिक झगड़ों ने लोगों को एक दूसरे के खून का प्यासा भी बना दिया. लेकिन एक दूसरे के लिए जो नफरत पूरी दूनिया में आज आयी है, उस तरह कि स्थिति बिल्कुल भी नहीं थी.

बीसवीं सदी के आरंभ में अंग्रेजों के इसारे पर कई तरह के राजनितिक दल बने, जो कठपुतली का काम करते रहे और सवतंत्रता सेनानियों के काम को और कठिन बनाते रहे. अलग अलग जगह ये लोग उनकी मुखबिरी भी करते रहे, ताकि अंग्रेज इनको पकड़ सकें. अंग्रेजों ने अपने ब्यूरोक्रेसी में ऐसे लोगों को बड़े बड़े पद दिए. ऐसे तत्व जो अंग्रेजों के इशारे पर काम करते थे, दिन पर दिन तरक्की करते रहे और आज़ादी के लिए लड़ने वाले लोग जेल जाते रहे. हद तो तब हो गई, जब इन तत्वों ने हमारे बिच के सांस्कृतिक भेद को बढ़ाने के लिए स्कुल और कॉलेज खोलने शुरू कर दिए. हालाकि उसी समय महात्मा गाँधी का देश के राजनीती में पदार्पण भी हुआ और ऐसी ताकतों के खिलाफ लोगों ने लड़ाई भी लड़ी, जिससे बाद में कई प्रोग्रेसिव काम भी हुए.

गांधीजी का देश कि राजनीती में पदार्पण केवल समाज के लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि भाषा के लिए भी बहुत ही अहम साबित हुआ. उन्होंने अंग्रेजों के द्वारा उजागर किए गए कल्चरल फाल्टलाइन्स को धीरे धीरे कम करना शुरू किया. यह प्रयास भाषा पर भी लागु हुआ और समाज के हर तबके ने इसमें उनका साथ भी दिया. उनका पूरा प्रयास रहा कि आंदोलन से ज्यादा से ज्यादा आम लोग जुड़ें और समाज के हर तबके के लोग जुड़ें. गांधीजी एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनसे समाज के हर मुद्दे के बारे में अपनी राय खुल के रखी. भाषा के बारे में भी उनका सुझाव काफी रोचक था. जब अतिवादियों ने एक भाषा को दो भाषा बनाने कि कोशिश कि, तो गांधीजी ने एक भाषा और दो लिपियों का सुझाव दिया. यह अपने आप में एक ऐसा अनूठा प्रयोग था, जिसने पुरातनपंथियों को हाशिये पर धकेल दिया.

इस तरह के प्रयासों ने लोगों को एक दूसरे से जोड़ने में जो मदद की, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता. समाज के हर तबके के लोग अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में एक साथ आने लगे और चुनाओं में भी आज़ादी समर्थक ताकतें मजबूत होती रहीं. यहाँ तक की अपने गढ़ में भी पुरातनपंथी हमेशा हारते रहे. अंग्रेजों की निति जब विफल होने लगी, तब उन्होंने कई ऐसे नेता खड़े किए, जो ब्रिटिश साम्राज्य के हितों को ज्यादा तवज्जो दे. भारत छोड़ो आंदोलन के समय ऐसे नेताओं को अंग्रेजों ने खुली छूट दे दी, ताकि वो ज्यादा से ज्यादा नफरत फैला सकें और लोगों में दूरिया पैदा कर सकें. उस समय आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले ज्यादातर लोग जेल में डाल दिए गए थे. इसे एक काउंटर रेवोलुशन भी कहा जाए तो कोई गलत नहीं होगा. जिस मतभेद को कम करने में इतने दिन लगे थे उसका उल्टा होना शुरू हो गया.

विद्वानों ने इसके बारे में कई तरह के विश्लेषण किए हैं, कई ने भारत छोड़ो आंदोलन को सही तो बताया लेकिन इसकी टाइमिंग को लेकर सवाल खड़े किए. नैतिक रूप से तो ये एक सही मुद्दा था, लेकिन इसने पुरातनपंथी ताकतों को समाज में पैठ बनाने की एक बहुत बड़ी जगह दे दी, क्योंकि सारे नेता जेल में डाल दिए गए थे. बहुत सारे लोग ये मानते हैं, की अंग्रेजों ने जो सोचा था बहुत पहले वह उसी पर अमल कर रहे थे, भारतीय आंदोलन शायद उसमे बहुत बड़ी भूमिका नहीं निभा सकते थे. लेकिन सत्य शायद इन सब विचारो के बिच में कहीं है, जो हमेशा अलग अलग रूप में सामने आता है. हम चाहें कितनी बार भी अपनी अपनी बातों को सच मान लें, एक समय ऐसा जरूर आता है जब अलग अलग तरह के फैक्ट्स, काउंटर फैक्ट्स, सुप्रेस्सेड फैक्ट्स और एक्ससेरेटेड फैक्ट्स हमारी बातों में आंशिक कमी निकाल ही देते हैं.

इस बात को समझने के लिए हमें १८५७ की ग़दर में जाना होगा. उस ग़दर के बाद से ही भारत में अलग अलग तबकों में एक सवाल किया जा रहा था, की अंग्रेजों के बाद यहाँ का शासन कौन संभालेगा. कई तबके इसकी दावेदारी कर रहे थे. जाहिर है कि हर तबके का इलीट शासक वर्ग में शामिल होना चाहता था. बहुत से लोगों कि समझ यह थी कि यदि अंग्रेजों से नजदीकी बधाई जाए तो शायद वे जाते समय शासन हमको सौंप दें. इस सोच के फलस्वरूप लोगों ने ऐसा करना शुरू भी किया, लेकिन उनको यह नहीं पता था, कि अंग्रेज १९७० तक भारत में रहने कि योजना बना रहे थे और इन लोगों का केवल इस्तेमाल करना चाहते थे. लेकिन इसी बिच कई तरह कि घटनाएं घटित हुई और दोनों विचारों के बिच में भारत का आज़ाद होना तय हो गया.

द्वितीय विश्वयुद्ध में इंग्लैंड कि हालत जर्मनी ने इतनी ख़राब कर दी कि उसके पास इतने पैसे तक नहीं थे कि वह अपने कर्मचारियों को वेतन दे सके. अमेरिका अंग्रेजों के कर्मचारियों को उनके वेतन दे रहा था. आज़ादी से पहले जब १९३२ में मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट आयी थी, तो उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था, कि भारत समानता और लोकतंत्र के रास्ते पर चलेगा, इस बात ने अंग्रेजों को हैरान कर दिया था. उनको लगा कि यदि ऐसा होगा तो वह इस देश का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए नहीं कर पाएंगे. इस सवाल ने अंग्रेजों को एक ऐसे देश बनाने की तरकीब दी, जिसका वह जब चाहें इस्तेमाल कर सकें. बहुत चालाकी से उन्होंने एक ऐसा देश बनाया, जिसका पोर्ट से लेकर हर तरह की सुविधा का वो इस्तेमाल कर सकें. हालाकि आगे चलकर ऐसा हुआ नहीं, लेकिन वही काम अमरीकियों ने बखूबी किया.

महान लोगों के बारे में अकसर कहा जाता है, कि वह जिस मुद्दे को लेकर लड़ते हैं वही मुद्दा उनके अंत का कारण बनता है, या यूँ कहें कि उनके अंत के समय वही मुद्दा हाबी रहता है. बाद में लोग उनको जरूर याद करते हैं, लेकिन उनके जीवन कल में ऐसा देखने को बहुत मिलता है. कबीर जिस भाईचारे के लिए लड़े, वह उनकी मौत के समय समाज में नहीं आ पाया. उनकी मृत्यु पर लोग आपस में लड़ पड़े कि किस रीती रिवाज से उनका अंतिम संस्कार किया जाए. ठीक वही बात गांधीजी पर भी लागु होती है. गांधीजी जिस नफरत के खिलाफ जीवन भर लड़ते रहे, उसी ने उनकी जान ले ली. जिस बंटवारे को वह नहीं देखना चाहते थे, वह उनको देखना पड़ा. जिस भाषा को वह एक रखना चाहते थे, वह भाषा दो भाषाओं में बंट गई. यही नहीं दो भाषाओं से आगे चलकर दो लिंगुआ फ्रेंका भी बन गए.

    सन्दर्भ ग्रन्थ

  1. Chandra, Bipan: India’s struggle for Independence 1857-1947, Penguin Books, Delhi 2000.
  2. Fromkin, Victoria: An Introduction to Language, Wadsworth 1992.
  3. Tiwari, Bholanath: Bhashavigyan, Kitab Mahal. Allahabad 2000.
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  5. youtube/ishtiaqahmedonpartition.com, last seen on 10.10.2024.

 

प्रशांत कुमार पांडेय