गोदान के संदर्भ में दो मुख्यत: बातें सामने आती हैं। एक 1936 में प्रकाशित मुंशी प्रेमचंद का जग जाहिर उपन्यास गोदान और दूसरा मत्यु के उपरान्त वैतरणी पार करने के लिए गोदान। इन दोनों गोदानों में गाय का जिक्र है साथ ही आज के दौर में परिवर्तन की शुरुआत हो गई है। अब गाय के बदले कुछ हजार रुपये देकर काम चलाया जाने लगा है जिसका श्रीगणेश प्रेमचंद की धनिया ने किया था।
हिंदू धर्म में सर्वोच्च चाहत के रूप में मोक्ष प्राप्ति को माना गया है। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक इसी मोक्ष की चाहत में पल- प्रतिपल धर्म सम्मत कार्य करता रहता है। सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख साधन धर्म उसे पाप न करने और यथाशक्ति पुण्य करने की ओर प्रवृत्त रखता है। धार्मिक क्रिया कलाप, पूजा, व्रत, अनुष्ठान आदि बहुत से ऐसे कार्य हैं जिनके पीछे एक मात्र उद्देश्य मोक्ष ही होता है। मोक्ष पाना अर्थात् पुनर्जन्म एवं आवागमन से मुक्त हो जाना। मोक्ष प्राप्ति के लिए कुछ मानकों को पूरा करना होता है जैसे पुत्र पैदा करना, कन्यादान करना, धर्म सम्मत सद्कर्म करना और गोदान देना।
विष्णु पुराण में और गरुड़ पुराण के उत्तरार्द्ध में गोदान का सविस्तार वर्णन है। मनुष्य की मृत्यु के समय यम के अति विशालकाय और शक्तिशाली दूत आकर उस प्राणी की आत्मा को ले जाते हैं। यमलोक के रास्ते में वैतरणी नदी पड़ती है जो न सिर्फ विशाल है बल्कि रक्त और मज्जा से भरकर उबलती रहती है। अगर व्यक्ति गोदान किया होता है तो उस नदी के किनारे उसकी गाय इंतजार कर रही होती है जिसकी पूँछ पकड़कर वह व्यक्ति बहुत आसानी से वैतरणी पार करके यमलोक पहुँच जाता है और इसके विपरीत गोदान न करने वाला व्यक्ति वैतरणी में डूबते – उतराते, दर्द और जलन से कराहते हुए, बार- बार गोता खाते हुए यमलोक जाता है।
गोदान में जिस गाय का दान दिया जाता है वह बहुत अच्छे नस्ल की होनी चाहिए। दान देते समय उसे ठीक से नहलाकर,फूल माला पहनाकर, अच्छे एवं स्वादिष्ट खोजन खिलाकर, सिंगों में कीमती धातु मढ़वाकर, यथाशक्ति धन- धान्य के साथ सप्रेम पूर्ण श्रद्धा के साथ दान करना चाहिए। दानकर्त्ता को भली भाँति यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि दान लेने वाले ब्राह्मण में पूर्ण ब्राह्मणत्व हो। उसके घर में गाय को कोई कष्ट न हो। अगर गाय को किसी प्रकार का कोई कष्ट पहुँचता है तो उसका सारा पाप दान देने वाले के सर पर आता है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि दान देने के उपरान्त गाय के प्रति दानकर्त्ता के मन में कोई आसक्ति नहीं होना चाहिए फिर भी वह आसक्ति रहित नहीं रह पाता तो उसका गोदान निष्फल माना जाएगा। गाय के दूध, दही, घी या गोबर से दूर रहना चाहिए वरना अनुचित होगा।
हिंदू धर्म में गाय का स्थान माता के समान है। गाय को पूर्णत: सरल एवं मातृत्व युक्त होने का गौरव प्राप्त है। एक सवाल अनायास ही पैदा हो जाता है कि जब गाय इहलोक से परलोक तक माँ के समान या माँ से भी बढ़कर साथ निभाती है, पालती है और वैतरणी पार कराती है तो उस गाय की इच्छा को महत्व क्यों नहीं दिया जाता? गाय को मात्र धन (गोधन) मानकर किसी और को क्यों दे दिया जाता है? क्या दानकर्त्ता दान का विचार करने से पूर्व गाय की सहमति लेता है? अब तक का अनुभव यह बताता है कि गोदान के सम्बंध में गम्भीरता पूर्वक उचित पात्र का चयन नहीं किया जाता बल्कि औपचारिकता निभाते हुए किसी के भी हाथ में पगहा पकड़ा दिया जाता है। ऐसा हो भी क्यों नहीं? जब एक माता – पिता अपनी जायी बेटी का हाथ उसकी इच्छा जाने बिना किसी गैर के हाथ में देकर उसको सदा के लिए भूल जाते हैं यह सीख देकर कि ‘ससुराल से अर्थी निकलनी चाहिए’। कुछ प्रतिशत महिलाओं को छोड़ दिया जाये तो ज्यादातर महिलाएँ ससुराल में रोज- रोज मरती हैं…..जिंदा लाश बनकर रहती हैं और कुछ की असमय अर्थी ही बाहर निकलती है।
गाय और बेटी में हमारे समाज ने ज्यादा फर्क नहीं रखा है। दोनों का अस्तित्व दान की वस्तु से ज्यादा नहीं रहा। दानकर्त्ता तथाकथित महादान के उपरान्त दायित्व मुक्त हो जाता है और दान लेने वाला जी भरकर दोहन/ शोषण हेतु अलिखित हकदार होता है। दान की गाय और कन्यादान की बेटी का भविष्य प्राप्तकर्ता पर निर्भर करता है। स्वयं की मोक्ष प्राप्ति की लालसा पर गाय और बेटी को बिना उनकी इच्छा का परवाह किए कुर्बान कर दिया जाता है।
प्रेमचंद के गोदान में होरी नाम का एक किसान होता है जिसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य एक गाय का स्वामी बनने का है। संयोगवश एक बार कुछ दिनों के लिए उसकी लालसा फलित भी होती है किन्तु उसी का भाई हीरा उस गाय को मारकर फरार हो जाता है। कालान्तर में होरी किसान से मजदूर हो जाता है। फिर इस उम्मीद में जी तोड़ परिश्रम करता है कि मजदूरी के पैसे से एक गाय अवश्य खरीद लेगा। रोड पर काम के दौरान ही अस्वस्थ होरी मरणासन्न हो जाता है जिसे उसकी पत्नी घर ले आती है। होरी का अन्तिम समय देखकर उसका गायहन्ता भाई हीरा सुझाव देता है कि गोदान कर देना चाहिए। वहाँ उपस्थित भीड़ गोदान का समर्थन करती है।
विचारणीय बात यह है कि एक निहायत गरीब मजदूर की पत्नी जिसका पति मरणासन्न हो, गोदान कैसे करे? गाय कहाँ से लाए? निर्धनता के दुश्चक्र में फँसे मरणासन्न होरी की पत्नी धनिया ही केवल इस समस्या की शिकार नहीं है बल्कि देश की अधिकाधिक आबादी इस धार्मिक कुप्रथा से पीड़ित आज भी है। एक तरफ घर का सदस्य दवा- दारू या भूखमरी में दम तोड़ रहा होता है तो दूसरी ओर हितैषियों का समूह गोदान की फरमाइश करता है जो दोहरे मार की भाँति कलेजा को छलनी कर जाता है।
काश ऐसा होता कि होरी का भाई हीरा प्रायश्चित स्वरूप गोदान की व्यवस्था स्वयं कर देता किन्तु ऐसा इसलिए सम्भव नहीं कि वह खुद ही फटेहाल वर्षों बाद वापस घर लौटा था। यह भी नहीं हुआ कि होरी की पुत्री रूपा ही एक गाय की व्यवस्था कर दी होती किन्तु नई नवेली व्याहता ऐसा विचार तो रख सकती है पर वास्तव में ऐसा कर नहीं सकती। आधुनिकता के रंग में रँगे एक मात्र पुत्र गोबर द्वारा पिता की अक्षय इच्छा पूर्ति हेतु एक गाय लेकर हाजिर हो जाना सम्भव हो सकता था किन्तु वह मामूली वेतन द्वारा कर्ज चुकाने की युक्ति निकालने में ही पूरी क्षमता खपा रहा था। काश गाँव वाले कफन की तर्ज पर चंदा लगाकर गोदान की रस्म को पूरा कर पाते लेकिन मुफ्त की सलाह देने और जेबें ढीली करने में अर्श – फर्श का फर्क होता है। कफन की तुलना में गाय बहुत महँगी होती है और वैतरणी को अपनी आँखों से किसने देखा है!
मरणासन्न होरी के पास उपस्थित समस्त स्वजन – परिजन में जब कोई ऐसा नहीं मिला जो गोदान की अप्रत्याशित समस्या से निजात दिला पाये तो जीवन संगिनी धनिया ने सर्वाधिक जिम्मेवारी अपने ऊपर लेते हुए व्यावहारिक तरीके से इस समस्या का क्रान्तिकारी हल समाज के समक्ष रखा। सुतली बेचकर आँचल के पल्लू में बीस आने बचाकर रखी थी धनिया, उसी को गोदान स्वरूप दान कर देती है।उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने गोदान में गोदान की समस्या को धनिया द्वारा जिस व्यावहारिक तरीके से हल कराया, शायद यही हल गोदान को विश्व प्रसिद्धि की दिशा में स्थापित करता है और लेखक को उपन्यास सम्राट के रूप में। धनिया ने परिस्थिति के वशीभूत होकर भी नवचेतना का परिचय देते हुए जिस तरह से हल निकाला, शायद एकमात्र धनिया के ही वश की बात थी।
समय तीव्रगति से आगे बढ़ रहा है। अब बेटियाँ मूक धन बनकर कन्यादान के लिए तत्पर नहीं हैं। माँ – बाप भी बेटी को पराया धन समझने की भावना छोड़ रहे हैं। एक सजीव व विवेकशील बेटी दान या दाव पर चढ़ने को राजी नहीं है। अब उसकी मर्जी का अस्तित्व सामने आ रहा है। अपना जीवन साथी वह स्वयं खोज रही है और कुछ हद तक खोजने में सक्षम न होने की दशा में कुपात्र को नकारने में पीछे नहीं है। चाहे इसे परम्परागत समाज बेटी का विद्रोह ही क्यों न समझे किन्तु जब उसके जीवन का सवाल है तो उसे सही – गलत का निर्णय लेने का अधिकार होना ही चाहिए। निकट भविष्य में जो समस्याएँ स्वभावत: आने वाली हैं उन्हें वर्तमान में ही देखने – परखने और हल करने की जरूरत है जिससे ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ वाली बात चरितार्थ न होने पाए। चूँकि अपने हाथ में वर्तमान होता है इसलिए अच्छे भविष्य की नींव वर्तमान में ही डालनी चाहिए जिससे भविष्य उज्ज्वल हो सके।
कन्यादान की कन्या ने बगावत का बिगुल फूँक दिया है। गोदान की गाय तो प्रत्यक्ष बगावत भी नहीं कर सकती किन्तु गाय की आँखों का पानी हमें सोचने पर मजबूर जरूर कर सकता है। अब सवाल यह उठता है कि गोदान कितना सार्थक है? क्या गोदान का निहितार्थ कुछ अनसुलझे सवाल हमारे सम्मुख नहीं छोड़ता? हम कब तक लकीर के फकीर बने रहेंगे? क्या सदियों पुरानी प्रथा का आज के समय में पुनर्मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिए? आइए, लीक से हटकर कुछ तर्क वितर्क करें।
दुनिया की अधिकांश भाषाओं की जननी संस्कृत है और भारत की समस्त भाषाओं की भी। संस्कृत में ‘गो’ का आशय इन्द्रिय भी है और जो इद्रियों को वश में कर लेता है, जितेन्द्रिय अर्थात् महामानव कहलाता है। मनुष्य योनि में इन्द्रियों की कुल संख्या पाँच है। जीभ, आँख, नाक, कान और त्वचा ये पाँच हैं। सारे अनुसंधान एवं फसाद की जड़ इन्हीं पंच इन्द्रियों में ही निहित है। भक्तकवि सूरदास भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन मिलने के बाद अपनी आँखें फोड़ लिए थे ताकि उनकी आँखें किसी और को देख न सकें अर्थात् कुछ और देखने की चाहत का दान कर दिए थे।बहुत से योगी, महात्मा या साधक ऐसे होते हैं जो अपने इष्ट के अतिरिक्त किसी अन्य के प्रति आसक्ति रहित हो जाते हैं अर्थात् उनकी इन्द्रियाँ अन्य किसी की चाहत नहीं रखतीं। उदाहरणार्थ जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी को इन्द्रियों पर विजय प्राप्त था इसलिए दिगम्बर रह सकने में सक्षम थे। मीरा को श्याम के अतिरिक्त किसी और की कोई अनुभूति से सरोकार नहीं था अर्थात् श्याम को इन्द्रिय (गो) दान कर चुकी थीं। एकाग्रचित्त होना भी इसी दिशा में प्राथमिक प्रयास है।
गोदान अर्थात् इन्द्रियदान की अवधारणा इस्लाम में जिहाद के नाम से अंकित है। जिहाद अर्थात् मन के भीतर युद्ध। मन को भटकाने वाली इन्द्रियों को वश में करने हेतु संघर्ष करना। अगर मरणासन्न होरी की पत्नी धनिया के समक्ष गोदान में गाय की जगह इन्द्रिय का आशय रखकर गोदान की बात की गई होती तो गोदान उपन्यास का अन्त कुछ और ही होता। न केवल होरी बल्कि धनिया की भी प्रबल इच्छा थी कि उसके घर में एक गाय रहे। धनिया को यह समझाया गया होता कि गाय की इच्छा का गोदान करके होरी को इच्छा विहीन स्थिति में निश्चिन्त होकर मरने दो तो गोदान का प्रयोजन और भी बढ़ जाता। गोदान के रचनाकाल से अब तक के इन आठ दशकों में शायद ही कोई कर्मकांडी ब्राह्मण हुआ हो जिसने गोदान को गाय से पृथक इन्द्रिय दान ( निग्रह) के रूप में सामने लाया हो। इसी परम्परागत गोदान के दुरुपयोग और दुष्परिणाम पर धर्मभारती की लेखनी विद्रोह करती थी। गीता में योगेश्वर कृष्ण बार – बार अर्जुन को मोह का त्याग करके पंच इन्द्रियों को वश में करने की सीख देते थे। सम्राट अशोक का शस्त्र त्याग भी इसी संदर्भ से जुड़ा था। उनकी इन्द्रियाँ बगावत कर गई थीं रणक्षेत्र देखने से अर्थात् उन्होंने महात्मा बुद्ध के श्रीचरणों में गोदान कर दिया था। एक माँ अपने बच्चे के ऊपर अपने अस्तित्व का दान कर देती है। माँ बनने के बाद वह सिर्फ और सिर्फ माँ बनकर रह जाती है।
आज के दौर में गोदान के प्रयोजन की पुन: समीक्षा होनी चाहिए। वैतरणी का भय दिखाकर गायदान को और मोक्ष प्राप्ति की अंध आशा में कन्यादान को सही ठहराने वालों को हतोत्साहित करना चाहिए। अगर हम उत्तम कर्म करते हैं तो कर्म फल के रूप में परम संतुष्टि की प्राप्ति होती है जो मोक्ष की परिचायक है। गोदान के इस नये रूप को समाज में प्रतिस्थापित करके आज की धनिया को सम्बल प्रदान कर सकते हैं। होरी की अतृप्त आत्मा को शान्ति दे सकते हैं। समाज में सद्कर्म को बढ़ावा दे सकते हैं। जिहाद के नाम पर हो रहे भौतिक संघर्ष को आध्यात्मिक रूप में प्रयोजन मूलक बना सकते हैं। गाय के बिना भी गोदान कर सकते हैं।