1. तुम्हारे संतान सदैव सुखी रहें 
सभ्यता और संस्कृति के समन्वित सड़क पर
निकल पड़ा हूँ शोध के लिए
झाड़ियों से छिल गयी है देह
थक गये हैं पाँव कुछ पहाड़ों को पार कर
सफर में ठहरी है आत्मा
बोध के लिए
बरगद के नीचे बैठा कोई बूढ़ा पूछता है
अजनबी कौन हो ?
जी , मैं एक शोधार्थी हूँ
(पुरातात्विक विभाग ,….विश्वविद्यालय)
मुझे प्यास लगी है
जहाँ प्रोफेसर और शोधार्थी
पुरातात्विक पत्थर पर पढ़ रहे हैं
उम्मीद की उजाला से उत्पन्न उल्लास
उत्खनन के प्रक्रिया में
खोज रही है
प्रथम प्रेमियों के ऐतिहासिक साक्ष्य
मैं वहीं जा रहा हूँ
बेटा उस तरफ देखो
वहाँ छोटी सी झील है
जिसमें यहाँ के जंगली जानवर पीते हैं पानी
यदि तुम कुशल पथिक हो
तो जा कर पी लो
नहीं तो एक कोस दूर एक कबीला है
जहाँ से तुम्हारी मंजिल
डेढ़ कोस दूर नदी के पास
फिलहाल दो घूँट मेरे लोटे में है
पी लो बेटा
धन्यवाद दादा जी!
उत्खनन स्थल पर पहूँचते ही पुरातत्वज्ञ ने
लिख डाली डायरी के प्रथम पन्ने पर मिट्टी के पात्रों का इतिहास
लोटा देख कर आश्चर्य है
यह बिल्कुल वैसा ही है
जैसा उक्त बूढ़े का था
(वही नकाशी वही आकार)
कलम स्तब्ध है
स्वप्नसागर में डूबता हुआ
मन
सोच के आकाश में
देख रहा है
अस्थियों का औजार
पत्थरों के बने हुए औजारों से मजबूत हैं
देखो
टूरिस्ट आ गये हैं
पुरातात्विक पत्थरों के जादा पास न पहुँचे सब
नहीं तो लिख डालेंगे
इतिहास पढ़ने से पहले ही प्रेम की ताजी पंक्ति
किसी ने आवाज दी
सो गये हो क्या ?
शोधकर्ता सोते नहीं है शोध के समय
सॉरी सर!
कल के थकावट की वजह से
आँखें लग गयीं
अब दोबारा ऐसा नहीं होगा
ठीक है
जाओ देखो उन टूरिस्टों को
कहीं कुछ लिख न दें
( प्रिय पर्यटकगण! आप लोगों से अतिविनम्र निवेदन है कि किसी भी पुरातात्विक पत्थरों पर कुछ भी न लिखें)
श्रीमान! आप मूर्तियों के पास क्या कर रहे हैं ?
कुछ नहीं सर!
बस छू कर देख रहा हूँ
कितनी प्राचीन हैं
महोदय! किसी मूर्ति की प्राचीनता पढ़ने पर पता चलती है
छूने पर नहीं
जो लिखा है मूर्तियों पर उसे पढ़ें
और क्रमशः आप लोग आगे बढ़ें
सामने एक पत्थर पर लिखा है
जंगल के विकास में
इतिहास हँस रहा है
पेड़-पौधे कट रहे हैं
पहाड़-पठार टूट रहे हैं
नदी-झील सूख रही हैं
कुछ वाक्य स्पष्ट नहीं हैं
अंत में लिखा है
जैसे जैसे बिमारी बढ़ रही है
दीवारों पर थूकने की
और मूतने की
वैसे वैसे चढ़ रही है
संस्कार के ऊपर जेसीबी
और मर रही हैं संवेदना
आगे एक क्षेत्र विशेष में
अधिकतम मानव अस्थियां प्राप्त हुई हैं
जिससे सम्भावना व्यक्त किया जा सकता है
कि यहाँ प्राकृती के प्रकोप का प्रभाव रहा हो
जिसने समय से पहले ही
पूरी बस्ती को श्मशान बना दी
संदिग्ध इतिहास छोड़िये
मौर्य-गुप्त-मुगलों के इतिहास में भी नहीं रुकना है
सीधे वर्तमान में आईये
जनतंत्र से जनजाति की ओर चलते हैं
आजादी के बाद शहर में आदिवासियों के आगमन पर
हम खुश हुए
कि कम से कम हम रोज हँसेंगे
उनकी भाषा और भोजन पर
वस्त्र और वक्त पर
व्यवसाय और व्यवहार पर
बस कवि को छोड़ कर
शेष सभी पर्यटक जा चुके हैं
जो जानना चाहता है
प्राचीन प्रेम का वह साक्ष्य
जिस पर सर्वप्रथम उत्कीर्ण हुआ है
वही दो अक्षर
(जिसे ‘प्रेम’ कहते हैं / दो प्रेमियों के बीच / संबंधों का सत्य / सृष्टि की शक्ति / जीवन का सार )
पास की कबीली दो कन्याएँ
पुरातत्व के शोधार्थी से प्रेम करती हैं
प्रेम की पटरी पर रेलगाड़ी दौड़ने से पहले ही
शोधार्थी लौट आता है शहर
शहर में भी किसी सुशील सुंदर कन्या को हो जाती है
उससे सच्ची मुहब्बत
दिन में रोजमर्रा की राजनीति
रात में मुहब्बते-मजाज़ी की बातें
गंभीर होती हैं
प्रिये!
जब तुम मेरे बाहों में सोती हो
गहरी नींद
निश्चिंत
तब तुम्हारे शरीर की सुगंध
स्वप्न-सागर से आती
सरसराहटीय स्वर में सौंदर्य की संगीत सुनाती है
भीतर
जगती है वासना
तुम होती हो
शिकार
समय के सेज पर
संरक्षकीय शब्द सफर में
थक कर
करता है विश्राम
चीख चलती है हवा में अविराम
साँसों के रफ्तार
दिल की धड़कन से कई गुना बढ़ जाती है
होंठों पर होंठें सटते हैं
कपोलों पर नृत्य करती हैं
सारी रतिक्रियाएँ
एक कर सहलाता है केश
तो दूसरा स्तन को
एक दूसरे की नाक टकराती है
नशा चढ़ता है
ऊपर
(नाक के ऊपर)
आग सोखती हैं आँखें आँखों में देख कर
स्पर्श की आनंद
तभी अचानक
बाहर से कोई देता है आवाज
यह तो स्वप्नोदय की सनसनाहट है
देखो वीर अपना बल
अपना वीर्य
अपनी ऊर्जा
प्रियतम!
क्यों हाँफ रहे हो
क्यों काँप रहे हो
मैं सोई थी
निश्चिंत फोहमार कर गहरी नींद में
मुझे बताओ
क्या हुआ?
तुम्हें क्या हुआ है?
तुम्हारे चेहरे पर
यह चिह्न कैसा है?
यौन कह रहा है
मौन रहने दो
प्रिये!
ठीक है
जैसा तुम चाहो
अल्हड़ नदी
मुर्झाई कली के पास है
साँझ श्रृंगार करने आ रही है
तट पर
हँसी ठिठोली बैठ गई
नाव में
लहरें उठ रही हैं
अलसाई ओसें गिर रही हैं
दूबों के देह पर
इस चाँदनी में देखने दो
प्रेम की प्रतिबिम्ब
आईना है
नेह का नीर
नाराजगी खे रही है पतवार
दलील दे रही है
देदीप्यमान द्वीप पर रुकने का संकेत
कितनी रम्य है रात
कितने अद्भुत हैं
ये पेड़-पौधे नदी-झील पशु-पक्षी जंगल-पहाड़
यहाँ के फलों का स्वाद
प्रिये! यही धरती का जन्नत है
हाँ
मुझे भी यही लगता है
उधर देखो
हड्डियाँ बिखरी हैं
यह तो मनुष्य की खोपड़ी है
अरे! यह तो पुरुष है
इधर देखो
स्त्री का कंकाल है
ये कौन हैं?
जाति से बहिष्कृत धर्म से तिरस्कृत
पहली आजाद औरत का पहला प्यार
या दाम्पत्य जीवन के सूत्र
या आदिवासियों के वे पुत्र
जिन्हें वनाधिकारियों के हवस-कुंड में होना पड़ा है
हविष्य के रूप में स्वाहा
हमें हमारा भविष्य दिख रहा है
अंधेरे में
प्रियतम पीड़ा हो रही है
पेट में
प्रिये!
तुम भूखी हो
कुछ खा लो
नहीं , भूख नहीं है
तब क्या है?
तुम्हारा तीन महीने का श्रम
ढो रही हूँ
निरंतर
इस निर्जनी उबड़खाबड़ जंगली पथ पर
अब और चला नहीं जाता
रुको…रु…को
ठहरो…ठ…ह…रो
सुस्ताने दो
प्रिये!
मुझे माफ करो
मैं वासना के बस में था
उस दिन
आओ मेरे गोद में
तुम्हें कुछ दूर और ले चलूँ
उस पहाड़ के नीचे
जहाँ एक बस्ती है
पुरातात्विक साक्ष्य के संबंध में गया था
वहाँ कभी
तो दो लड़कियों ने कर ली थी
मुझसे प्रेम
जिनका भाषा नहीं जानता मैं
वे वहीं हैं
हम दोनों
उनके घर विश्राम करेंगे
निर्भय
गोदी में ही पूछती है
प्रियतमे!
तुम मुझे
कब तक ढोओगे?
प्रिये!
जन जमीन जंगल की कसम
जीवन के अंत तक
ढोऊँगा
तुम्हें
अविचलाविराम
मेरे जीने की उम्मीद
तुम्हारे गर्भ में पल रही है
तुम मेरी प्राण हो
तुम्हारा प्रेम मेरी प्रेरणा
देखो सामने झोपड़ी है
जो , उसी का है
वह रहा उसका घर
आश्चर्य है प्रियतम
यह तो पेड़ पर बना है
केवल बाँस से
हाँ
ये लोग खुँखार जानवरों से
बचने के लिए ही ऐसा घर बनाते हैं
बस अंतर इतना है कि हम शहरी हैं
ये वनजाति
(अर्थात् आदिवासियों के पूर्वज)
हम देखने में देवता हैं
ये राक्षस
खैर ये सच्चे इंसान हैं
कबीलों वालों
मालिक आ रहे हैं
स्वागत करो
मालिक… मा…लि..क
यह लीजिए एक घार केला
यह लीजिए कटहर
यह लीजिए बेर
यह कंदमूल फल फूल स्वीकार करें
मालिक
हम कबीले की राजकुमारी हैं
सरदार कहता है
मालिक ये दोनों मेरी पुत्री
आपकी राह देख रही थीं
आपके आने से
कबीलीयाई धरती धन्य हुई
अब आप इन्हें वरण करें
आपको अपना परिचय
उस बार हम दोनों बहनें नहीं दे सकी
इसके लिए हमें क्षमा करना
ये कौन हैं?
मेरी पत्नी
जो आपकी भाषाओं से एकदम अपरचित है
ये पेट से तीन महीने की है
थक गई हैं
सफर में चलते चलते
हम दोनों आपके उपकारों का सदैव ऋणी रहेंगे
यह मेरा सौभाग्य है
कि मैं आप लोगों से पुनः मिल पा रहा हूँ
कुछ दिन बाद
दोनों शहर आ जाते हैं
जहाँ सभ्य समाज के शिक्षित लोग रहते हैं
क्या धर्म के पण्डित?
इस कुँवारी कन्या की भारी पैर पर व्यंग्य के पत्थर मारेंगे
या फिर इन्हें संसद के बीच चौराहे पर
जाति के संरक्षक-सिपाही बहिष्कृत-तिरस्कृत का तीर मारेंगे
कुछ भी हो
कंदमूल की तरह
दोनों ने दुनिया का सारा दुख एक साथ स्वीकार कर लिया
तुम्हारे हिस्से का अँधेरा भी कैद कर लिए
अपने दोनों मुट्ठियों में
ताकि
तुम्हें दिखाई देता रहे प्रकाशमान प्रेम
और तुम्हारे संतान सदैव सुखी रहें
प्रियतम !
पीड़ा पेट में पीड़ा… पी…ड़ा
आह रे माई ! माई रे !
गर्भावस्था के अंतिम स्थिति में
अक्सर अंकुरित होती है आँच
अलवाँती की आँत से आती है आवाज
प्रसूता की पीड़ा प्रसूता ही जाने
औरत की अव्यक्त व्यथा-कथा कैसे कहूँ?
मैं पुरुष हूँ
नौ मास में उदीप्त हुई
नयी किरण
किलकारियों के क्यारी में
रात के विरुद्ध
रोपती है
रोशनी का बीज
जिसे माँ छाती से सींचती है
नदी की तरह निःस्वार्थ
अवनि आह्लादित है
आसमान की नीलिमा में झूम रहे हैं तारे
चाँद उतर आया है
हरी भरी वात्सल्यी खेत में
चरने के लिए
फसल
प्रेम की पइना पकड़े
खड़े हैं
पहरे पर पिता
उम्र बढ़ रही है
ऊख की तरह
मिट्टी से मिठास सोखते हुए
मौसम मुस्कुराया है
बहुत दिन बाद बेटी के मुस्कुराने पर
सयान सुता पूछती है
माँ से
क्या आप मुझे जीने देंगी
अपनी तरह
क्या मैं स्वतंत्र हूँ
अपना जीवनसाथी चुनने के लिए
आपकी तरह
आप चुप क्यों हो?
बापू आप बाताई
जिस तरह माँ ने की है
आपसे प्रेमविवाह
क्या मैं कर सकती हूँ?
धैर्य से उठाकर
पिता ने दे दी
धीमी स्वर में उत्तर
मेरी बच्ची तुम स्वतंत्र हो
शिक्षित हो
जैसा उचित समझो
करो…!
©गोलेन्द्र पटेल
मो.नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com

*नोट : लम्बी कविता “तुम्हारे संतान सदैव सुखी रहें” से*

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2. एक नदी भीतर बहती
एक नदी भीतर बहती
एक नदी बाहर
प्रेम गली में कहती
गीत गज़ल चलती
कविता में दुःखी रहती
संघर्ष सुख सहती
द्वीप बीच अकेला हँसती
धूप में धूल महती
डाहती दुनिया से दहती
कर्षित माँ बन वसुमती!!
और नदी त्रासदी में पति
समुद्र के संभोग से रति
शब्द रहस्य पुत्र प्राप्ति
सती समय की गति
समझती सृष्टि में स्त्री यति
सत्यमुर्ति करती ऋति
सरस्वती-सी उसकी मति
बह्मांड ॐ नारी नति
दया करुणा स्नेह ज्योति
भक्ति शक्ति सर्वोन्नति!!
सुबह शाम पूण्य प्रगति
परमार्थ पथ पद्धति
वाष्पित विज्ञप्ति विरचित
प्रकाशित शीर्षक  स्पंदित
स्मृति में आई बन व्यक्ति
उम्मीद ऊपर स्थित
उर्वशी श्रद्धा इड़ा रति
उत्तम उच्च उचित
उदाहरण प्रस्तुत चरित
महाकाव्य में वर्णित!!
प्रसाद व दिनकर कथित
साहित्य निधि कंपित
उपनिषद् की उपस्थित
स्त्री सत्य उपेक्षित
उपदेश वचन-प्रति
आज का नवोदित
प्रगीत नई चेतना चित्त
मीरा सुभद्रा वर्मा हित
चाहती उज्जवल उत्साहित
प्रकृति के साथ रेखांकित!!
सुबह ओस सुधा से
खिली कली  कर्षित
शाम तक रूपरस से
सूरज को  आकर्षित
कर धीरे धीरे अपने
देह को बुढ़ी  करती
सूख  जाते हैं  सपने
भौरों के ,तरंग तैरती
उमंग संग सहानुभूति
रंग   अनंत   अनुभूति!!
लाती लाद पीठ पर
गाती गाद दीठ दर
दुःख व दर्द असहनीय
यथार्थ दृश्य अकथनीय
वैसे घाव है हरती
जैसे नाव है धरती
स्त्री सूचक शब्द अनेक
एक यहाँ से एक वहाँ से फेंक
कभी नीचे से कभी ऊपर से केक
ग्लोबल के गुरिया से काव्य-माला नेक!!
भविता के स्त्रीत्व को पहनाती
नदी नारी पृथ्वी के पास जाती
संवेदना के सुमन का सुगंध सूँघने
या धूप से सूखते शहद को सोखने
साहित्य वाटिका में वटवृक्ष पर
एक विशाल बनाना चाहती घर
जिसे दुनिया कहती मधुमक्खियों की छत्ता
वास्तव में वृक्ष के एकैक कली फूल व पत्ता
समय के संदेश कटोरी में
चापलूसी शब्दों के चोरी में!!
भौरों को भोजन परोस
सुबह शाम परम संतोष
पा ,पाप-पुण्य का युद्ध
भयंकर भूख के विरुद्ध
कर ,काव्य की कहानी
मकरंद-सी मिठी पानी
बन सहृदय उपवन की
प्यास बुझाती मन की
सड़क के रोरी में
माँ की लोरी में!!
स्नेह व ममत्व भरी
आँचल के ओरी में
नवजात के लिए धरी
नव चाशनी डोरी में
ऊषा से आगे अरुणोदय ने
प्रातःकाल उठ महोदय ने
अपने औरत के आँसू ओस
प्रेमरश्मि के किरणों से पोंछ
एक स्त्री का पुरुष से नाता
तीन रूप में गाता विधाता!!
ओ कभी किसी की बेटी
तो कभी किसी की पत्नी
तो कभी किसी की माता
जो नारी से ही नर है आता
वही इन्हें जहाँ-तहाँ परिवार में
पितृसत्तात्मक सत्ता से सताता
जैसे नदी को यहाँ-वहाँ संसार में
औद्योगीकरणवाद के आधुनिक नाले
और भगवती पृथ्वी को प्लास्टिक
भूख के जमीन पर भूखों को काले…!!
न करुणा किसी में न दया
न परोपकार भाव न हया
बस वासना का नामकरण
पहले प्रेम फिर पाणिग्रहण
स्वागत में पति का समर्पण
नयी नवेली दुल्हन का चरण
गृह में लाते ही हर क्षण
प्रताड़ना का पुष्प अर्पण
कुछ दिन में शुरू किया
ससुर ने जो जख्म दिया!!
उसे देखकर स्वर्गीय
सास का साँस अटक गया
स्वर्ग में पुनः एकबार
जैसे मैं आज बनी उनकी असली बेटी
पूर्वजों के पावन धरती पर
निर्दयी निर्लज्ज नाहक ही पटक गया
लक्ष्मी रूपी कच्चा घड़ा को
ऐसे हैं लाज समाज का सड़क पर लेटी
अकेल असहाय गीरे पत्तियों के भाँति
एक चतुर चिड़िया के घोसला में भाति!!
सूखी पत्तियाँ विपरीत परिस्थितियों में
तूफानी बारिश से शिशुओं को बचाती
वही सूखी पत्तियाँ जो सड़क पर गिरी थी
पतझड़ से पहले ही लकड़हारे के जुल्म से
तंग होकर निःसहाय धरने के लिए
स्त्रियों के साथ घोर अन्याय हो
और पेड़ पर पड़ी रहें चुपचाप पत्तियाँ
यह अब हो नहीं सकता क्योंकि
शिक्षित हैं हरी पत्तियाँ सूखी पत्तियों के स्थान पर
एकजुट हो धरना प्रदर्शन की आन-बान-शान पर!!
नई राजनीति के रास्ते
मान-सम्मान के वास्ते
चुल्हा चौका का ज्ञान
छुपा नहीं सका पहचान
चूरते चावल का अनुभव
शंखनाद की कर्कश रव
सीधे मुख के बाणों पर बैठ
रे मंंतव्य गंतव्य पथ पर ऐंठ
चला परिधि से केंद्र की ओर
रे सन्नाटे में ख़ूब मचा है शोर!!
बात बात में बात को चखी
उल्लू कहती चुप रह सखी
शिघ्र रात ढ़लेगी होगी भोर
देख आया राष्ट्रीय पक्षी मोर
बुलबुल एकटक निहारी उसको
पकड़ रही है बारी बारी नस को
बोली जो पी रही बेचारी रस को
बहेलिया आने वाला है घसको
इस पेड़ से दूर निर्जन जंगलों में
कौन देखेगा दुनिया के दंगलों में!!
सताई हुई स्त्रियों के दर्द को
कौन अच्छा कहेगा मर्द को
जो चिड़ीमार है परिवार में
जो डूब गया है अहंकार में
सो रहे हैं पिता पुत्र पति पोढ़
पुरुष पुरुषार्थ का चादर ओढ़
प्यासे पक्षियों का गागर फोड़
मोक्ष रूपी परम आनंद छोड़
और कुछ नहीं चाहते तिनों
महात्मामहर्षिमर्द इन दिनों!!
लोकतंत्र का खेत कोड़
महामंत्र का जाप जीतोड़
कर रहे हैं महायज्ञ में हवि छोड़
स्त्री चेतना का साहित्य में होड़
इक्कीसवीं सदी का उत्थान है
इतिहासिक पन्नों पर ध्यान है
भावभूमि भविष्य का भान है
स्त्रीत्व इस कविता का जान है
सभ्यता का आचरण औरत
संस्कृति के शरण में बहुमत!!
सत्य वरण भरण-पोषण कर्ता
जगत जननी है दया-धर्म धर्ता
हड़प्पाकालीन मूर्ति मातृसत्ता
मानव विकास का प्रथम पता
पुरातात्विक उत्खनन आदि खोज
कागज़ पर कलम की ताकत रोज़
सत्यविचार-विमर्श व्यक्त कर रहा है
विनय-विवेक विशेष वक्त धर रहा है
समाज के श्यामपट्ट पर धीरे धीरे
माँ-बेटी बच गई खाईं में गीरे गीरे!!
घूँघट के लाज घिग्घी बँधना
कुटुंब नाव का लग्घी रखना
सहधर्मिणी के हाथ खेवाना
नदी बीच पत्नीव्रता ने ठाना
अवनि-अंबर का चुंबन क्षितिज
स्वयं अकेला गवाह बना भिज
प्रेमवर्षा के बूंदाबूंदी में ताक रहा
देखो कैसा परिवर्तन है काप रहा
थरथर-२ ,पुरूरवा गोधूलि वेला में
और पुरुषार्थ प्रेमक्रिड़ा के मेला में!!…
गोलेन्द्र पटेल
काशी हिंदू विश्वविद्यालय

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