“अच्छा हुआ बेटा जो तू आ गया | तेरे बाबा तेरे घर से जब से लौटे है गुमसुम रहते हैं| क्या हुआ ऐसा वहाँ?”
“कुछ नहीं अम्मा!”
“कुछ तो हुआ है! रोज जितनी हिम्मत होती है, बगल के खेत में जाकर आम-नीम का पेड़ लगाते रहते हैं| गाँव वालों से भी उस सूख गए गड्ढे को खोद कर फिर से तालाब बनाने की गुजारिश करते फिर रहें हैं |”
“तेरा पोता, सुशिल बड़ा हो गया है अम्मा, और तू जानती है वो बचपन से ही स्पष्ट वक्ता रहा है| ”
” तो क्या, कोई चुभती हुई बात कह दी उसने उन्हें ! वरना जो आदमी एक तुलसी का पौधा न रोपा कभी, वह दिन में दो-चार पेड़ लगा दे रहा !! तूने उससे कुछ बोला नहीं?”
“उसने कुछ गलत न बोला अम्मा, तो उसे क्या कहता मैं | बल्कि मैं खुद बदलते वातावरण से परेशान हूँ, रिटायर होते ही इस ओर ध्यान दूंगा| ”
“बात तो बता बेटा, पहेलियाँ काहे बुझा रहा है?”उसने ऐसा क्या कहा तेरे बाबा को?
“उसने बाबा को, फालतू पानी बहाते देख कह दिया कि ‘पानी की बर्बादी नहीं करिए| जानते है एक दिन में बस पांच सौ लिटर पानी मिलता है| इस तरह पानी बहायेंगे तो कैसे काम चलेगा, दादाजी !और …!”
“और …कुछ और भी बोला! इतना बड़ा हो गया क्या ?” विस्मित हो अम्मा बोली
“और, कह दिया कि आपके दादा-परदादा ने पेड़-पौधे लगा कर वातावरण को हरा-भरा रखे | आप की पीढ़ी ने बैठे-बैठे उसके खूब मजे लूटे| अब आपकी पीढ़ी की निष्क्रियता के दंड हम भुगतेंगे ही|” उसकी इन्हीं बातों से बाबा क्रोधित होकर वहां से अकेले ही चले आए|”
“हाय राम! उसने इतना कुछ कह कैसे दिया !!”
“अम्मा दादा-परदादा के लगाये पेड़-पौधे आंधी में उजड़ते गए, हम बेचते गए ! तालाब भी पाटकर बस्ती बसा डाली ! अब तक मन माफ़िक पानी की बर्बादी भी होती रही | कुँए का भी जलस्तर गिरता जा रहा|अब इन सब का खामियाजा नई पीढ़ी को तो भुगतना ही पड़ेगा| और वो इसी तरह झल्लाते हुए अपने पूर्वजों को कोसते रहेंगे.!” चिंतित होता हुआ बोला
“कल बाबा के साथ मैं भी पेड़ लगवा आऊंगा| बस उनकी देखरेख तुम करती रहना अम्मा|”
“कई बार कहें कि पुराने पेड़ धीरे-धीरे गिरते जा रहें, लगा दें कुछ फलों के पेड़| मेरे कहने से तो सुने न कभी ! अच्छा हुआ जो पोते ने चोट दी! अब उसकी दी हुई चोट की ओट में जमीन की खोट दूर हो जाएगी | कितने बीघे जमीन बंजर होने को थी|
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सीमा –
“माँ! ऐसे गुमसुम बाहर क्यों बैठी हैं ? चलिए अंदर, टीवी पर आपका पसंदीदा नाटक आ रहा है |”
“क्या नाटक देखूँ बहू, घर में ही नाटक होता देख रही हूँ |”
“कहना क्या चाह रही हैं माँ?”
“बहू जरा नजर रख अंशुल पर | कहीं मेरी तरह, तेरी तक़दीर में भी अकेलापन न लिख दिया जाए |”
“माँ, आप अपने बेटे पर शक कर रही हैं और कल सब्जी लेते समय सुमन भी कुछ ऐसा ही संकेत कर रही थी |”
“ठीक कह रही हूँ बहू, छूट देने का खामियाज़ा खुद भुगत रही हूँ मैं | अब वही दुःख तुझे भी भुगतते नहीं देख सकूँगी |”
“जी माँ आप चिंता नहीं करें |” सामने से अंशुल को आता देख मुस्कराहट की चादर ओढ़ ली |
अंशुल के कमरे में आते ही कुसुम ने उस पर प्रश्नों की बौछार शुरू कर दी | अंशुल बड़ी चालाकी से हर प्रश्न का उत्तर साफगोई से दें बचता रहा | कुसुम के सिर की कसम खाकर अंशुल बोला- “तुम्हें धोखा देने का तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकता |”
कुसुम को विश्वास हो गया अंशुल ऐसा कुछ नहीं कर सकता | फिर भी माँ की बात उसके दिल में खटक रही थी इसलिए बच्चे का क्रंदन भी वह नहीं सुन पाई |
अंशुल ने कहा- “अब तो सब क्लियर हो गया, फिर भी तुम क्या सोच रही हो ?”
वह चुपचाप अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए दरवाजे की तरफ पीठ कर बैठ गयी | उसने पीठ की ही थी कि कामवाली के पायल की आवाज गूँजी | अंशुल दबे कदम कमरे से बाहर चला गया, बाहर जाकर कामवाली का हाथ अभी पकड़ा ही था कि दरवाजे पर छड़ी लिए खड़ी कुसुम को देख घबरा गया |
कुछ समय बाद माँ अंशुल के घावों पर हल्दी लगाते हुए बोली- “कहा था न, बाप की राह पर मत चलना | मैं कमजोर थी, पर बहू नहीं |”
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सविता मिश्रा ‘अक्षजा’