यह एक विचित्र संयोग है कि जब विभिन्न देशों में जगह-जगह राष्ट्रवादी आंदोलनों ने सिरे उठाना शुरू कर दिया है और राष्ट्रीय अस्मिता तथा संप्रभुता के प्राथमिक सवालों से लोग जूझ रहे हैं। भूमंडलीकरण की आर्थिक अवधारणाएँ राष्ट्रवादी आंदोलनों को अंतर्राष्ट्रीयता की आँधी में बहाकर ‘ग्लोबल विलेज’ (विश्वग्राम) का सुनहरा स्वप्न दिखा रही है।
भूमंडलीकरण को किसी सर्वमान्य परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता। इसकी एक सरल परिभाषा इस रूप में दी गई है कि तकनीकी और संचार क्रांति ने विश्व को समेटकर एक ‘विश्वग्राम’ यानी ‘ग्लोबल विलेज’में बदल दिया है। विश्वग्राम की यह परिकल्पना मार्शल मैक्लूहान की थी, यद्यपि इसका मूल स्वर हमारे देश में पहले से ही विद्यमान था। हमारे चिंतक ‘ऋग्वेद’ में इस अवधारणा के सूत्र खोजते हुए ‘विश्व पुष्टं ग्रामे अस्मिन् अनातुरम्’ का उद्घोष करते हैं। एक ऐसा ही स्वप्न गाँधी जी ने भी देखा था। ‘ग्राम स्वराज्य’ की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था- ‘‘मैं नहीं चाहता कि मेरा घर चारों ओर से दीवारों से घिरा रहे, न मैं अपनी खिड़कियों को ही कसकर बंद रखना चाहता हूँ। मैं तो सभी देशों की संस्कृति का संचार अपनेघर में बेरोक-टोक चाहता हूँ पर ऐसी संस्कृति के किसी झरोखे से मेरे पाँव उखड़ जाएँ यह मुझे मंजूर नहीं।“
इसी प्रकार ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना रखते हुए भरतवर्ष ने विश्व को सदैव ‘एक परिवार’ माना है जिसके अंतर्गत समन्वय और सहयोग मूल तत्व हैं। इस दृष्टिकोण में संपूर्ण विश्व को एक-ही परम तत्व की अभिव्यक्ति मानते हुए बिखरे मानव-समाज को एक ही परिवार का अंश माना गया है।
वास्तविकता तो यह है कि ‘विश्वग्राम’ को परिकल्पना को साकार करने का दावा करते हुए भूमंडलीकरण का नारा शक्तिशाली और विकसित देशों ने लगाया है जो मूलतः अल्पविकसित और विकासशील देशों के शोषण और दोहन के उद्देश्य से परिचालित है। इस व्यापकता की दौड़ में कमज़ोर और छोटे देश फँसते जा रहे हैं। उनकी भाषा और संस्कृति अस्तित्व के जोखिम (संकट) के दौर में प्रवेश कर चुकी है।
उच्च प्रौद्योगिकी से फलीभूत भूमंडलीकरण की इस अवधारणा में विश्व वस्तुतः एक बाज़ार है, जो ‘मनुष्य’ को मनुष्य नहीं रहने देता-उसे खरीददार या विक्रेता समझकर ‘बाज़ार की वस्तु’ बना देता है। यह भूमंडलीकरण की वासतविक आर्थिक अवधारणा है। इसने एक नई विश्व स्थिति को निर्मित किया है जबकि इससे संबंधित भारतीय अवधारणा मानवीय थी। उसमें समग्र विश्व को प्रेम, करुणा आदि मानवीय सूत्रों में बाँधने का भाव था।
भूमंडलीकरण की आर्थिक व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि यह विभिन्न देशों के बीच निर्बाध आर्थिक संबंधों की ऐसी प्रक्रिया है जो एक निश्चित और सर्वमान्य अंतरराष्ट्रीय शर्तों तथा नियमों से निर्देशित होती है। वस्तुतः भूमंडलीकरण ने अधिक मुक्त, बहुप्रश्नीय ऐसी व्यापार व्यवस्था को फलीभूत किया जिसमें शामिल सभी देशों के ‘लाभ’ और ‘हित-साधन’ की बात की जाती है।
जवाहरलाल कौल अपनी पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता- बाजार भाव’ में भूमंडलीकरण की व्याख्या कुछ ऐसे करते हैं- ‘‘ग्लोबलाइजेशन या वैश्वीकरण वैसा ही शब्द बनता जा रहा है कभी कम्यूनिज़्म (साम्यवाद) और कल तक पूँजीवाद थे। एक नार, एक विचारधारा, एक समरनीति और सपना भी।“
कुछ लोग इसे पापवृत्ति तो कुछ लोग मानव जाति के सुखद भविष्य का विराट् फलक मानते हैं। सामान्यतः वैश्वीकरण विश्व के विभिन्न देशों के बीच आर्थिक संबंधों, सहयोग और विनिमय को व्यापकता तथा गहराई देने वाली प्रक्रिया है जिसमें दो देशों के आपसी रिश्तों के मध्य उनकी सांस्कृतिक मान्यताएँ अवरोधकों के रूप में आती हैं। उन देशों की प्रभुसत्ता देशी-कानून परंपराएँ, भू-सामरिक प्राथमिकताएँ भी बाधक होती हैं।
कुछ विद्वानों का मानना है कि मौजूदा भूमंडलीकरण साम्राज्यवाद का एक नया और अधिक प्रभावी संस्करण है क्योंकि मशीनों के आविष्कार के पश्चात् विकसित पूँजीवादी देश कच्चे माल के आयात के लिए और उससे बने अपने उत्पाद की बिक्री के लिए हमेशा बाज़ार की खोज करते रहे हैं। सन् 1870-1913 तक के समय में और आज के समय में काफी समानताएँ हैं और वर्तमान भूमंडलीकरण के बीच इसी दौर में विद्यमान हैं। उस अवधि में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में एक ताल-मेल था। आज भी माल, प्रौद्योगिकी और पूँजी राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर चुकी है। व्यापार-विस्तार के लिए व्यापक स्तर पर उत्पादन महत्वपूर्ण हो गया। तीव्र यातायात साधनों ने तथा दूर-संचार ने व्यापक स्तर पर उत्पादन केन्द्रों की असंख्य संभावनाएँ खोल दी हैं।
दूसरी ओर उच्च प्रौद्योगिकी के विकास ने व्यापारिक शोषण में अभूतपूर्व वृद्धि की है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ऋण-जाल ने साम्राज्यवाद का नया संस्करण उपस्थित कर दिया है। इस दौर में विकासशील तथा पिछड़े देशों को आर्थिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से गंभीर चुनौतियों को झेलना पड़ रहा है।
जबकि भूमंडलीकरण के पक्षधर मानते हैं कि इससे संसार की अर्थव्यवस्था को दृढ़ता मिलेगी और समूचे विश्व में व्यापार, पूँजी-निवेश, रोज़गार तथा आय के नए अवसर पैदा होंगे और इस प्रकार परस्पर आर्थिक सहयोग से एक नया ग्लोबल युग अस्तित्व में आएगा।
इसका विरोध करने वाला एक वर्ग मानता है कि भूमंडलीकरण एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक दुश्चक्र है जिसमें शामिल होने का परिणाम यह होगा कि अपने देश और घरेलू उद्योगों की कीमत पर दुनिया के शक्तिशाली देशों और उनके बहुर्राष्ट्रीय निगमों के आर्थिक हितों को साधना विवशता हो जाएगी।
टॉमस फ्रीडमैन के अनुसार- इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में भूमंडलीकरण का ऑक्टोपस पुराने उद्योगों की बलि ले रहा है। इसको फैलाने वाले तत्व प्रौद्योगिकी में इतने आगे हैं कि स्थानीय उद्योग दम तोड़ने लगे हैं।
पश्चिमी विचारक ग्रोव ने इसी विडम्बना पर टिप्पणी करते हुए कहा कि भूमंडलीकरण की इस दुनिया में झूठे और भ्रामक ‘अहम् भाव’ से ग्र्रस्त लोग ही जीवित रह सकते हैं जो दूसरों से श्रेष्ठ होने का दंभ मन ही मन पाले रहते हैं। ऐसे लोगों को वह ‘पैरानॉइड’ की संज्ञा दी है।
भूमंडलीकरण वस्तुतः भू का मंडीकरण है और यह इस अर्थ में भयावह है कि यह मानवीय सरोकारों और संवेदनाओं को नहीं बाज़ार के रूप में विश्व को देखता है और उस भू रूपी बाज़ार/मण्डी में पूँजी की सत्ता स्थापित करना इसका मूलभूत ध्येय है। यह पूँजी मानवता का दमन करने को सदैव तत्पर रहती है। इस प्रक्रिया में सरकारें जनहित में कोई कदम नहीं उठातीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के नियमों और शर्तों में बँधकर विश्व-व्यापार में भागीदारी बढ़ाने की कोशिश में लगी है। विश्व के संपन्न देशों पर उनकी आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक निर्भरता इस हद तक बढ़ जाती है कि उनका देश पूर्णतः परतंत्र हो जाता है।
विचारणीय तथ्य है कि मुक्त बाज़ार में व्यापारिक प्रतिबंध नहीं होते और पूँजी का मुक्त विनिमय, बहुर्राष्ट्रीय कंपनियाँ, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व-व्यापार संगठन तथा विश्व बैंक आदि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहे हैं। इन सभी के द्वारा पूँजी का प्रत्यक्ष शास्त्र तंत्र सारे विश्व को संचालित कर रहा है। विश्वव्यापी प्रभुत्ववादी शक्तियाँ भूमंडलीकरण को नए-नए अर्थ एवं नए-नए स्वरूप और निर्बाध मुक्त बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था प्रदान कर निर्धन और अविकसित राष्ट्रों में शासन कर रहा है।
एक विशिष्ट रणनीति के तहत अमेरिका के नेतृत्व में ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का भूमंडलीकरण के उद्देश्य से संगठन किया गया जो सम्पन्न राष्ट्रों को आर्थिक तबाही (विश्वयुद्ध पश्चात् हुई) से उबार लायी प्रत्युत उसने अमरीका का आर्थिक प्रभुत्व भी स्थापित कर दिया। इस प्रकार तीसरी दुनिया के देशों के बाज़ार पर संपन्न देशों का कब्जा होने लगा। इन देशों के आर्थिक तंत्र के वैश्विक और सर्वग्रासी विस्तार को भूमंडलीकरण नाम दिया जा रहा है जिसे सम्पन्न और शक्तिशाली राष्ट्रों ने दोधारी तलवार के रूप में इस्तेमाल किया है जो एक ओर कमजोर राष्ट्रों की ओर बढ़ती है और कमज़ोर राष्ट्र शक्तिशाली राष्ट्रों की शर्तों को मानने पर विवश सांस्कृतिक अस्मिता का नाश होता जा रहा है। अमरीका हथियारों और कूटनीति दोनों के मनमाने इस्तेमाल से गरीब देशों को प्रवेश करने के लिए अपने बाज़ार खोलता जा रहा है।
कभी मीडिया को ‘नवीन विचारों और कल्पनाओं के वाहक’, ‘नई रचना के संदेश के अग्रदू’ तथा जीवन सागर में उठने वाली हिलोरों औरतरंगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए सराहा जाता था लेकिन आज व्यावसायिकता के पथ पर अग्रसर होते हुए मीडिया नई भूमिका में सामने आ रहा है। नए स्वरूप, नए-नए आदर्श अपनाए जा रहे हैं। लेकिन उनका संबंध भारतीय जनजीवन से नहीं है। संबंध केवल वैश्वीकरण की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से। पारंपरिक मूल्य, आदर्श, सिद्धांत और स्वस्थ चरित्र को बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विज्ञापनों ने हर लिया है।
डॉ. माला मिश्र
एसोशिएट प्रोफेसर
हिंदी एवं पत्रकारिता विभाग
अदिति महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय)