‘छायावाद का काल गाँधी जी के नेतृत्व एवं राष्ट्र‘-भावना के प्रसार का काल था’ | उनसे प्रेरित होकर पुरूषों के साथ-साथ स्त्रियों ने भी देश के लिए बढ़-चढ़कर कदम उठाया। ‘असहयोग आंदोलन के समय स्वर्गीय देशबंधु दास की स्त्री की तरह राजनीतिक मैदान में बहुत थोड़ी स्त्रियाँ थी, जिन्होंने काम किया। देश में एक नयी हो जागृति फैल गयी। ‘श्रीमती रूक्मिणी  लक्ष्मीपति बी0ए0, जो मद्रास युनिवर्सिटी-सिनेट की सदस्यता, मद्रास के युवक संघ की प्रेसिडेंट थी इस आंदोलन में गिरफ्तार होने वाली सबसे पहली महिला हुई। फिर संसार प्रसिद्ध श्रीमती सरोजनी नायडू, श्रीमती मिश्रा, श्रीमती सरस्वती आदि भारत की ज्योतिस्वरूपा देवियों ने आंदोलन की बुनियादी मजबूत करने के इरादे से हँसते-हँसते कारागार के कठोर कष्टों को स्वीकार कर लिया। डाॅ0 मुथूलक्ष्मी रेड्डी ब्रिटिश इंडिया में लेजिस्लेटिव कौंसिल की पहली स्त्री-सदस्य थी उन्होंने महात्मा गाँधी के कारागार तथा सरकार की दमन-नीति के विरोध-स्वरूप अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

लखनऊ की श्रीमती अवस्थी झण्ड़ा जुलूस में 144 तोड़कर हँसते-हँसते जेल चली गई और अपने प्रिय पति के मार्ग का अनुसरण कर सच्ची सहधर्मिणी का नक्शा खींच दिया। वीरवर पं0 जवाहरलाल नेहरू की वीर भगिनी कुमारी, कृष्णा, वीर पत्नी श्रीमती कमला और वीर माता श्रीमती स्वरूपारानी भी इस कड़ी धूप में कष्ट की कुछ भी परवाह न करती हुई प्रयाग में विलायती कपड़ो की दुकानों पर पिकेटिंग करती हुई देखी गयी है।’ इस तरह राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जो इतिहास में अमर बनकर रहेंगी।

छायावाद-काल का साहित्य रीतिकालीन साहित्य से भिन्न एक नवीन रूप में उभरा। ‘इस युग का साहित्य राजमहल की चारदीवारी से निकलकर गाँवो तथा झोपड़ियों का चक्कर लगाने लगा जनता की सुख-दुखभरी कहानी सुनकर उसे व्यक्त भी करने लगा। इस युग के साहित्य में विशेष प्रकार की उदारता, व्यापकता एवं विविधता दृष्टिगोचर हुई। इस काल में श्रृंगारकालीन साहित्य के प्रति भयंकर प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई। छायावाद युगीन रचनाकारों ने नारी के अश्लील रूप का परित्याग किया एवं उन्हें आंतरिक सौंदर्य से सुशोभित कियया। इन्होंने नारी के भीतर की गूँज को बाहर निकालकर उनको अलग पहचान दी, जो रीतिकालीन परम्परा से सर्वथा भिन्न थी। कवि पंत के शबदो में-‘छायावादी प्रेम काव्य को अतृप्त वासना या दमित काम-भावना की अभिव्यक्ति मानना तथा उसे प्रच्छत्र श्रृंगारमूलक प्रेम काव्य को अतृप्त वासना या दमित काम-भावना की अभियक्ति मानना तथा उसे प्रच्छत्र श्रृंगारमूलक रीतिकालीन काव्यय का ही आधुनिक रूप समझना भी आलोचकों की व्यापक दृष्टि के अभाव का ही द्योतक है।

तप्त भोग-लालसा से मर्दित, पुष्पों की शय्या पर लेटी, विलुलित केश, स्वेद-सिक्त, नखक्षत अंकित, राीतिकाव्य की मध्युगीन हृासोन्मुखी राग-प्रवृत्ति की देहमूर्ति निशाभिसारिका नारी को छायावाद के गुह्य संकेत-स्थलों से प्रकृति के मुक्त लीला प्रांगण में बाहर निकालकर दूतियों की चाटुकारी तथा परकीयत्व के कलंक से मुक्त कर तथा मध्यवर्गीय कुंजो की सँड़ांध भरे केलि-कर्दम भावनाओं के अकलुष सौंदर्य से मंडित कर उसे पुरूष के समकक्ष बिठाकर, स्वतंत्र सामाजिक व्यक्तित्व की शील गरिमा प्रदान की है। छायावादी का प्रणय-निवेदन स्वस्थ्य स्वाभाविक राग-भावनाा का द्योतक प्रेम प्रगीता है, वह राधा-माधव के वेष्टवों में निम्न प्रवृत्तियों का उच्छृंखल श्रृंगार रस-सम्मत, संचारी व्यभिचारी भावों द्वारा व्यक्त रति-निमंत्रण नही है। उसमेें स्त्री-पुरूषों की सामाजिक उपयोगिता पर आधारित एक नवीन सांस्कृतिक चेतना का आह्वान मिलता है’ | अतः कहा जा सकता है कि तदयुगीन साहित्य ने नारी को उच्च स्थान दिया।

अंग्रेजी के संपर्क में आने से जहाँ एक ओर भारतीयों की राजनीतिक सत्ता का अपहरण एवं आर्थिक दृष्टि से शोषण हुआ वहीं दूसरी ओर अंग्रेजों के शोषण प्रवृत्ति ने भारतवासियों के कई शताब्दियों की चिर निद्रा को भंग किया एवं इसी कारण उनमें नई चेतना का संचार हुआ जिसका प्रभाव भारतीय मनीषियों पर पड़ा। भारत में निहित विषमताओं एवं रूढ़ियों को तोड़ने के लिए इन्होंने सुधारवादी आंदोलन को रूपायित किया।

ब्रह्म-समाज ने विधवा-विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया। उन्होंने पर्दा-प्रथा, बहु-विवाह, और बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं को मिटाने तथा स्त्रियों की उच्चशिक्षा व्यवस्था कराने में पर्याप्त सफलता प्राप्त की। प्रार्थना समाज द्वारा भी अंतर्जातीय विवाह, विधवा-विवाह एवं स्त्री-शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया। इस प्रकार नारी सुधार का कार्य रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद,गाँधी, टैगोर इत्यादि ने भी किया।

‘तितली’ उपन्यास में प्रसाद की स्त्रीवादी दृष्टिकोण उभरकर सामने आता है। इस उपन्यास में मूर्तिमान नारीत्व, आदर्श भारतीय पत्नीत्व जागृत हुआ है। तितली प्रसाद की  वह नारी पात्र है जिसमें स्वाभिमान का भाव है। उसके पति मधुबन को सजा हो जाने पर एवं उसके पूर्वजों का शेरकोट बदखल हो जाने पर तथा बनजरिया पर लगान लग जाने पर, इतनी दुरवस्था मेें भी वह किसी से सहायता की भीख नही माँगती बल्कि वह खुद मेहनत करके लड़कियों का पाठशाला चलाती है और अपने पुत्र को पालती है। अपनी दुदवस्था में अपने ही अवलम्ब पर वह स्वाभिमानपूर्वक जीना चाहती है। अपने अस्तित्व को वह बनाएँ रखने में समर्थ होते है। वह शैलो से कहती है……..‘‘मुझे दूसरों के महत्व-प्रदर्शन के सामने अपनी लघुता न दिखानी चाहिए। मैं भाग्य के विधान से पीसी जा रही हूँ। फिर उसमें तुमको, तुम्हारे सुख से घसीट कर, क्यों अपने दुख का दृश्य देखने के लिए बाध्य करू?मुझे अपनी शक्तियों पर अवलम्ब करकेे भयानक संसार से लड़ना अच्छा लगा। जितनी सुविधा उसने दी है, उसी की सीमा में मै लडूँगी, अपने अस्तित्व के लिए।’’ अपनी विषम परिस्थितियों में उसका स्वाभिमान और क्षोभ और भी शक्तिशाली हो जाता है मुझे पहले ही जब लोगो ने यह समाचार नहीं मिलने दिया कि उनका मुकद्दमा चल रहा है, तो अब मैं दूसरो के उपकार का बोझ क्यों लूँ?’’  अंततः वह अपने पुरूषोचित्त साहस से चैदह बरसों तक बिना किसी के सामने झुके अपने बल पर अपनी सारी गृहस्थी बनाने में सफल होती है। उसके गरिमामयी व्यक्तित्व को देखकर दन्द्रदेव भी सोचता है……‘‘मैं तो समझता हूँ कि उसके जन्म लेने का उद्देश्य सफल हो गया है। तितली वास्तव में महीयसी है, गरिमामयी है। इस प्रकार तितली प्रसाद की वह नारी पात्र है जिसमें आत्मबल प्रबल है, जो अपनी पति से विरहित होकर भी विचलित नहीं होती बल्कि विषम परिस्थितियों को झेलती हुई समाज में सगर्व मस्तक उठाये अपने लिए सम्मानित स्थान बनाती है जो तत्कालीन समाज में अत्यंत कठिन था परन्तु प्रसाद ने इसे कर दिखाया।

उपन्यास ‘इरावती’ की नारी पात्र इरावती एक अज्ञातकुल शीला बालिका है जिससे महादंड-नायक पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र प्रेम करता है। परंतु गुरूजनों के विरोध के कारण अग्निमित्र उसे छोड़कर चला जाता है तब से इरावती, महाकाल मंदिर की देवदासी का जीवन व्यतीत करती है। कई बार वह कामुक वृहस्पति मित्र की कुदृष्टि का शिकार बनती है। वह अपनी जीवनव्यापी कष्टों को अपने हृदय पर दबाकर रखना चाहती है, उसे किसी के सम्मुख प्रकट नहीं करना चाहती है और न ही किसी की सहानुभूति का पात्र बनना चाहती है तथा उसे किसी के सम्मुख प्रकट नहीं करना चाहती और न ही किसी की सहानुभूति का पात्र बनना चाहती है। अग्निमित्र से कहे इन शब्दों में उसका स्वाभिमान व्यक्ति होता है…….‘‘स्त्री के लिए, जब देखा कि स्वावलम्बन का उपाय कला के अतिरिक्त दूसरा नहीं, तब उसी का आश्रय लेकर जी रही हूँ। मुझे अपने में जीने दो’’

    इरावती का जीवन एक विडम्बनापूर्ण है। पूरे उपन्यास में वह विभिन्न षडयंत्र एवं कुचक्र का सामना करते हुए दिखाई देती है। प्रसाद की कहानियों की स्त्री पात्र विभिन्न सामाजिक दायरों से ग्रस्त है परंतु फिर भी वह स्वाभिमानी, त्यागशीला, संघर्षशीला,स्वावलम्बी एवं प्रेम और कर्तव्य का निर्वाह करने वाली है। ‘पुरस्कार’ कहानी की मधुलिका में स्वाभिमान का भाव प्रबल है। मधूलिका अपने पितृपितामहों की भूमि को बेचना नहीं चाहती, इसलिए वह राजा का दिया हुआ मूल्य स्वीकार नहीं करता महाराज मधूलिका को कुछ स्वर्णमुद्राएँ खेत के लिए पुरस्कार स्वरूप देता है परंतु मधूलिका उस पुरस्कार को वापस महाराज पर न्यौछावर कर देती है। वह मधूलिका में स्वीभिमान का भाव इतना प्रबल है कि उस खेत के अतिरिक्त कोई जीविका का साधन न होने पर भी उसका मूल्य नही लेती और यह जानते हुए भी कि राजकोप हो सकता है, वह मंत्री की तीखी बात पर निर्भरता से उत्तर देेती है।

    ‘ममता’ कहानी में ममता एक ब्राह्मण-विधवा है उसका वृद्ध पिता पुत्री की स्नेह में विह्वल है। पिता स्वर्ण में उसके मन को उलझाकर उसकी वेदना को धीरे-धीरे विस्मृत करना चाहता है, इसलिए वह शेरशाह से उत्कोच स्वीकार कर लेता है, किन्तु स्वाभिमानिनी ममता को वह ‘अर्थ’ नही ‘अनर्थ’ प्रतीत होता है। वह उस धन को भविष्य के लिए एवं विपत्ति के लिए भी नहीं संचय करना चाहती। वह कहती है ……‘‘क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिन्दू भूपृष्ठ पर न बचा रह जाएगा, जो ब्राह्यण को दो मुट्ठी अन्न दे सकें’’ यह उसके त्याग एवं सात्विकता का परिचय है। ‘सालवती’ कहानी की सालवती अत्यंत दरिद्र है परंतु दरिद्रता उसके स्वामिमान को मिटा नहीं सकती। जब वैशाली का उपराजा अभयकुमार उसे उपहार स्वरूप अपने कंठ की मुक्ता की एकावली देता है, तो वह उसके दान को ग्रहण करने में अस्वीकार करती है।

    प्रसाद की नारी उनकी कहानियों में अपनी स्वावलम्बी रूप का भी परिचय देती है। ‘पुरस्कार’ कहानी की मधूलिका पिता के मृत्यु पश्चात स्वयं कृषि कार्य करके इसी भाव का परिचय देती है। यही नही, जब उसका खेत राजा द्वारा ले लिया जाता तब भी भी वह उनसे राजकीय दान न लेकर स्वयं दूसरे खेतों में काम करके अपना जीवन निर्वाह करती है। ‘आँधी’ कहानी की कंजर युवती साथिया मजूरी करके जीने में ही सुख का अनुभव करती है। वह मुचकुंद के फूल इकट्ठे करके बेचती है, सेमर की रूई बीतनी है एवं लकड़ी के गट्ठे बटोर कर बेचती है, वह भी बिना किसी सहायक के। प्रेम और कर्तव्य का द्वन्द्व प्रसाद ने ‘पुरस्कार’ कहानी की मधूलिका में तथा ‘आकाशदीप कहानी’ की चम्पा में दिखाया है। मधूलिका की मानसिक द्वंद्व को प्रेम और पितृपितामहों की भूमि से प्रेम। अंततः प्रबल व्यक्तिगत प्रेम पर की विजय होती है और अंत में मधूलिका अपने प्रेमी के प्रति नारी सुलभ उत्तरदायित्व का भी निर्वाह करती है।

    ‘आकशदीप’ की चम्पा भी मानसिक द्वन्द्व को झेलती है। वह कभी जलदस्यु बुद्धगुप्त से प्रेम करती है तो कभी उसे अपने पिता का हत्यारा समझकर घृणा भी करती है। अंततः वह बुद्धगुप्त को स्वदेश लौटने की प्रेरणा देती है और स्वयं द्वीप के भोले-भाले प्राणियों की सेवा करने का संकल्प लेती है। एवं मातृ-पितृ भक्ति के याद में उस दीप-स्तंभ में आलोक जलाती है।

    प्रसाद के नाटकों में नारी-पात्र जहाँ एक ओर भावुक, त्यागशीलता, कर्तव्यपरायण, सेवा-परायणा, कोमल, उदार इत्यादि है वहीं दूसरी ओर उनमें आत्मसम्मान का भाव प्रबल है। ‘जनमेजय का नागयज्ञ’ की सरमा एक स्वाभिमानी स्त्री है। मनसा द्वारा किए गए जातिगत अपमान को वह सह नहीं पाती इसलिए नागकुल के अपमानपूर्ण राजसिहासन को वह ठुकरा देती है। परंतु इतने पर भी वह नागों का अनिष्ट नहीं चाहती, यह उसके उदारता का ही परिचय है। ‘राज्यश्री’ नाटक की राज्यश्री भी स्वभाव से क्षमाशीला, उदार एवं कोमल है परंतु उसे अपने कुल की मर्यादा का पूर-पूरा ध्यान है इसलिए वह तलवार लेकर देवगुप्त पर निर्भयता से चलाती है। उसे अपने राज्य का छीन जाना अपमानजनक लगता है। ‘विशाख’ की इरावती निर्धन सुश्रवा नाग की कन्या है। उसके सामने अनेक बाधाएँ आती है, परंतु वह उसे निर्भीकता एवं दृढ़ता से पार करती है। उसकी दरिद्रता उसके आत्म-सम्मान को नष्ट नहीं करती है। राजा नरदेव द्वारा दिये गये महारानी बनने का प्रलोभन भी उसे मार्ग से विचलित नही करता बल्कि वह राजा का मुँह तोड़ जवाब देती है कि झोपड़ी में ही राजमंदिर से अधिक सुख है। नरदेव की रानी भी चंद्रलेखा पर हो रहे अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाती है और राजा को भयंकर परिणाम की चेतावनी भी देती है। ‘अजातशत्रु’ में एक ओर जहाँ कोमल नारी स्वभाव का चित्रण हुआ है। रानी शक्तिमति ऐसी ही नारी पात्र है। उसमें स्वाभिमान की गहरी छाप है। राजा प्रसेनजित द्वारा उसको पद्च्युत करना तथा उसके पुत्र को पद से अपदस्थ करना उसके सम्मान को ठेस पहुँचाता है। अपनी इन उपेक्षाओं से व्यथित होकर वह पुरूषों के समान स्त्रियों के अधिकार की माँग करती है। दूसरी ओर अजातशत्रु की मल्लिा में प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व लक्षित होती है जो पति के कर्तव्य कर्म के प्रति जागरूक है। उसके संस्पर्श में आने वाल समस्त आसुरी वृत्ति वाले चरित्र मानवीवृत्ति में परिवर्तित हो जाता है। विरूद्धक एवं प्रसेनजीत जैसे पुरूष-पात्र भी मल्लिका के शरण में आकर उसकी करूणा में विश्रांति पाते हैं।‘चंद्रगुप्त’ नाटक के प्रायत् सभी स्त्री पात्रों में देश-भक्ति प्रबल है। अलका देश सेवा से प्रेरित होकर अपने विरोध भाई एवं पिता का परित्याग करती है। मालविका द्वारा उद्भाण्ड सेतु का मानचित्र बनाना ता चंद्रगुप्त की शय्या पर सोकर आत्मोत्सर्ग करना भी प्रबल राष्ट्रीयता का परिचायक है। प्रसाद की नायिकाएँ कल्याणी, मालविका, कार्नेलिया, सुवासिनी केवल मात्र प्रेमिकाएँ ही नहीं है बल्कि उनमें आत्मसम्मान की ज्योति भी है। पर्वतेश्वर द्वारा विवाह संबंध ठुकराएँ जाने पर कल्याणी का स्वाभिमान गरज उठता है। जिसका प्रतिशोध वह युद्ध क्षेत्र में पर्वतेश्रवर की मदद करके, उसे नीचा दिखाकर लेती है। इतना ही नही, वह अपनी मान रक्षा के लिए मद्यप पर्वतश्रेवर की हत्या भी करती है। कार्नेलिया के साथ जब फिलिप्स अश्लीलता से पेश आता है तब कार्नेलिया अपनी आत्मसम्मान रक्षा के लिए चिल्लाती है और अंत में चंद्रगुप्त उसकी रक्षा करता है। एक ब्राह्मण द्वारा शकटार की पुत्री सुवासिनी को वेश्या इत्यादि कहे जाने पर उसके आत्मसम्मान पर ठेस पहुँचता है इसलिए वह अपने प्रेमी राक्षस को उससे बदला लेने के लिए उद्यत करती है। एक ओर जहाँ ‘चंद्रगुप्त’ की नारी पात्रों में स्त्री सुलभ आचरण है वहीं उनमंे प्रतिकार की भावना प्रबल है। नाटक ‘स्कन्दगुप्त’ में एक ओर जहाँ अनंतदेवी एवं विजया जैसे कुटिल स्त्री-पात्र है, वहीं दूसरी ओर सर्वगुण सम्पन्न स्त्री-पात्र भी है। देवसेना, कमला, जयमाला, रामा एवं देवकी आदि का चरित्र, करूणा, माया, क्षमा, त्याग, सेवा, साहस आदि गुणों से ओत-प्रोत है। देवसेना राष्ट्र कल्याण के लिए विभिन्न विषम परिस्थितियों में स्वयं उपस्थित होती है, जयमाला भी दुर्ग की रक्षा का भार उसके साथ लेती है। इतना ही नहीं वह अपने पति बंधुवर्मा को शत्रुओं से लड़ने के लिए प्रेरित करती है। देवसेना तो अपने व्यक्तिगत प्रेम को देश की वेदो पर उत्सर्ग कर देती है। देवकी अपने हत्यारों को क्षमा कर देती है, उसकी क्षमामयी मूर्ति के सामने अनंतदेवी का हृदय भी परिवर्तन हो जाता है। कमला अपने पुत्र को तथा रामा अपने पति शर्वनाग का सन्मार्ग की ओर प्रेरित करती है। इस तरह स्कंदगुप्त के स्त्री-पात्र विश्व-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत है। ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की मुख्य समस्या ही पुनर्विवहा के लिए स्त्री अधिकार है। इसमें दो प्रकार की नारी पात्रों का चित्रण प्रसाद ने किया है…… एक कोमा……..जो पति के व्यवहार से क्षुब्ध तो है परंतु उसे हृदय से त्यागने पर असमर्थ है। दूसरी विद्रोहिणी नारी ध्रुवस्वामी, जो क्लीव पति के अत्याचार से क्षुब्ध होकर विद्रोह करती है और अंत में चंद्रगुप्त से परिणय कर पुरूषों के अत्याचार को चुनौती देकर नारी-स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करती है। प्रसाद ने स्त्रियों का आदर्श रूप ‘अजातशत्रु’ में प्रतिपादित करते हुए कहा है……‘‘कठोरता का उदाहरण है पुरूष और कोमलता का विश्लेषण है स्त्री जाति। पुरूष क्रूर है तो स्त्री करूणा है, जो अंतर्गत का उच्चतम विकास है जिसके बल पर समस्त सदाचार ठहरे हुए हैं।’’

    प्रसाद स्त्रियों से कोमल स्वभाव की ही अपेक्षा रखते हैं साथ ही साथ आत्मसम्मान रक्षा के लिए उनसे हर संभ विद्रोह की भी कामना करते हैं। यद्यपि प्रसाद का मानना है कि स्त्रियों के विद्रोहिणी रूप के लिए पुरूष समाज की उत्तदायी है अन्यथा स्त्रियों में वह प्राकृतिक शक्ति है जिसके द्वारा वह उन समस्त पुरूषों पर अधिकार जमा सकती है जिन्होंने पूरे विश्व पर शौर्य एवं पराक्रम से विजय प्राप्त किया है। प्रसाद के साहित्य में ऐसे स्त्री-पात्र भी है जिन्होंने करूणा, माया, ममता, सेवात्याग, कर्तव्य एवं बलिदान से अपने चरित्र को स्पृहणीय बना दिया है जैसे श्रद्धा, मल्लिका, तितली, देवसेना, देवकी, वासवी इत्यादि जिनकी क्षमामयी मूर्ति के सामने पुरूष भी नतमस्तक होते हैं और उसकी छाया में विश्रान्ति पाते हैं। यद्यपि प्रसाद स्त्रियों से इन्ही कोमल स्वभाव की अपेक्षा रखते हैं जैसे कि ‘अजातशत्रु’ में प्रसाद उनकी कोमलता का समर्थन करते हुए कहते हैं…….‘‘स्त्रियों के संगठन में, उनके शारीरिक और प्राकृतिक विकास में ही, एक परिवर्तन है- जो स्पष्ट बतलाता है कि वे शासन कर सकती हैं, किन्तु अपने हृदय पर। वे अधिकार जमा सकती हैं उन मनुष्यों पर …. जिन्होंने समस्त विश्व पर अधिकार किया है।’’ परंतु यदि पुरूष उनके कोमल वृत्तियों यथा-त्याग, बलिदान, करूणा इत्यादि से अनुचित लाभ उठाता है तो उनसे हर संभव विद्रोह करने की भी कामना प्रसाद करते हैं। वस्तुतः स्त्रियाँ करूणा, कोमलता, सहिष्णुता आदि कोमल वृत्तियों द्वारा ही समस्त अधिकार की अधिकारिणी हैं। अतः कहा जा सकता है कि स्त्री-पात्र ओजस्वी, शक्तिशाली, प्रतिभा संपन्न, साहसी, संघर्षशील, नेतृत्वकारिणी,वैयक्तिक जीवन को सामाजिक जीवन के लिए उत्सर्ग करने वाली, राजनीति में सक्रिय होन वाली, रणक्षेत्र में युद्धतत्पर तथा अन्याय एवं अत्याचारों का विद्रोह करने वाली है। वस्तुतः प्रसाद की नारी अपने दृढ़ विद्रोह से पुरूष की चुनौतियाँ देकर पूरे समाज व्यवस्था के बदलने पर मजबूत करती है जो महादेवी, पंत एवं निराला के नारी पात्रों में दुलर्भ है। इन्हीं कारणो के लिए प्रसाद की नारी इनसे अलग खड़ी उतरती है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –

  1. छायावादी कविता की आलोचना: स्वरूप और मूल्यांकन ओमप्रकाश सिंह, अराधना ब्रदर्स कानपुर, 1990, पृ0 41
  2. निराला रचनवली-6, संपादक नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1983, पृ0 301
  3. वही, पृ0 302
  4. हिन्दी साहित्य का इतिहास, मिश्र और पांडेय, भारती-भवन (पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीव्यटर्स), पटना, 2001, पृ0 130
  5. पंत ग्रंथावली (6), सुमित्रानंदन पंत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1979
  6. निराला रचनावली-6, संपादक नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1983, पृ0 275
  7. तितली, जयशंकर प्रसाद, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1993, पृ0 188
  8. वही, पृ0 189
  9. इरावती, जयशंकर प्रसाद, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1993, पृ0 16
  10. आकाशदीप,जयशंकर प्रसाद, भारती-भंडार, इलाहाबाद, 2007
  11. जयशंकर प्रसाद,के संपूर्ण नाटक एवं एकांकी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2004, पृ0 273
  12. वही,पृ0 272

 

डाॅ0 शक्ति प्रसाद द्विवेदी
शोधार्थी, हिन्दी विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय

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