ठाकुर कवि-ठाकुर रीतिकालीन रीतिमुक्त स्वछंद प्रेम परिपाटी के कवि थे । ये जैतपुर (बुंदेलखंड)के राजा केसरी सिंह के दरबारी कवि थे । इनका जन्म सन1770 के आसपास माना जाता है और देहावसान सन 1827 केआसपास हुआ था । इनके पिता का नाम गुलाबराय था, जो ओरछा नरेश के ओहदेदार थे । पद्माकर के आश्रयदाता हिम्मत बहादुर ने भी इन्हें आमंत्रित और सम्म्मानित किया था ।ठाकुर का साहित्य मात्रा में अधिक नहीं है ।इनकेदो संग्रह उपलब्ध हैं – ‘ठाकुर ठसक’और‘ठाकुर शतक’। जिनमें से ‘शतक’ के कुछ पद्य‘ठसक’ में भी आ गए हैं ।1 इनकी रचनाओं का एक संग्रह लाला भगवानदीन ‘ठाकुर ठसक’ नाम से प्रकाशित करवाया था । इनकी रचनाओं में एकान्तिक प्रेम का प्रवाह है । फारसी काव्यधारा का इन पर अभीष्ट प्रभाव पड़ा है। आचार्य शुक्ल इनके सम्बन्ध में लिखते हैं – “ठाकुरबहुत ही सच्ची उमंग के कवि थे। इनमें कृत्रिमता का लेश नहीं न तो कहीं व्यर्थ का शब्दाडम्बर है न कल्पना की झूठी उडान और न अनुभूति के विरूद्ध भावों का उत्कर्ष । भावों को यह कवि स्वभाविक भाषा में उतार देता है । बोलचाल की चलती भाषा में भावों को ज्यों का त्यों सामने रख देना इस कवि का लक्ष्य रहा है। ब्रज भाषा की श्रृंगारी कविता प्राय: स्त्री पात्रों के ही मुख की वाणी होती है । अतः स्थान-स्थान पर लोकोक्तियों का जो सुंदर विधान इस कवि ने किया है इससे उक्तियों में और भी स्वभाविकता आ गई है ।”2
ठाकुर के काव्य में विद्रोह का स्वर :-विद्रोह रीतिमुक्त कवि ठाकुर के काव्य का मुख्य विषय है । ठाकुर के यहाँ हमें विद्रोह तीन रूपों में देखने को मिलता है –
- रीति परम्परा के विरुद्ध विद्रोह
- सामाजिक स्वतंत्रता के लिए विद्रोह
- प्रेम की स्वतंत्रता के लिए विद्रोह
ठाकुर के काव्य में उपर्युक्त तीनों विद्रोह का परिचय इस प्रकार है-
- रीति परम्परा के विरुद्ध विद्रोह – रीतिकालीन समाज में दरबारी वातावरण में जहाँ कवि रीति की बंधी बधाई परिपाटी पर काव्य रचना कर रहे थे और कवि प्रतिभा के आभाव में काव्य रचना कर धनोपार्जन कर रहें थे, वहीं ठाकुर रीतिकाल की रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि थे , इन्होने रीति की बधी बंधाई पद्धति का निर्वाह नहीं किया और अपने काव्य के माध्यम से ऐसे कवियों का उपहास उड़ाया, जिनमें काव्य प्रतिभा नहीं थी और जो केवल धनोपार्जन के लिए परम्परित उपमानों को लेकर ही काव्य रचना करते हैं। ठाकुर कवि का कहना है किसमकालीन कवियोंने लक्षण ग्रन्थों को पढ़कर नेत्रों के लिए मीन, मृग, खंजन, कमल आदि उपमानों का प्रयोग सीख लिया है । किन्तु नैसर्गिक प्रतिभा न होने से ये उपमान पाठक या श्रोता को रसमग्न नहीं कर पाते और न ही काव्य में कोई चमत्कार उत्पन्न कर पाते हैं। ऐसी कविता नीरस और प्रभावहीन है ।रीति परम्परा की इस बंधी बंधाई परिपाटी का विरोध करते हुए ठाकुर कहते हैंकि काव्य रचना करना कठिन कार्य है, इसके लिए अध्ययन अध्यवसाय के साथ साथ नैसर्गिक प्रतिभा का होना भी आवश्यक है । पर इन कवियों में ये गुण नहीं है । येकाव्य रचना को सरल कार्य समझतें हैं । वास्तव में इन लोगों ने काव्य रचना को साधारण खेल समझ रखा है, यही भाव व्यक्त करते हुए ठाकुर कहते हैं कि:-
“सीख लीन्हों, मीन मृग खंजन कमल नैन,
सीख लीन्हों यश औ प्रताप को कहानो है।
सीख लीन्हों कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामनि,
सीख लीन्हों मेर और कुबेर गिरि आनो है ।
ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात ,
याकी ने ही भूलि कहूँ बांधियत बानो है।
डेल सोबनाय आय मेलत सभा के बीच ,
लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है ।।”3
ठाकुर के उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि इन्होनेरीतिबद्धपरम्परा के विरुद्ध पूर्ण रूप से विद्रोह किया और अपना काव्यमार्ग स्वयं निर्धारित किया ।
इसके अलावा एक अन्य स्थान पर ठाकुर कविता कैसी होनी चाहिए इसका वर्णन करते हुए कहते है कि- कविता या काव्य करने की पहली शर्त है चीजों कोजोड़ने की कला – ‘प्रबंध कौशल’ । जैसेकोई कलाकार मोतियों से माला गूंथता है वैसे ही कविता में भावों को , विचारों को आपस में जोड़कर नये अर्थ कैसे बनते है, यह कवि पर निर्भर करता है, जिसे कवि की सृजनात्मक या सृजनशील प्रतिभा कहते है । इसके आने से ही कविता कही जाती है । कविता का रास्ता प्रेम का रास्ता है । सहानुभूति, लगाव के बिना कविता नहीं रच सकते । अतः सृजनशीलता, संवेदना, मौलिकता कविता के महत्वपूर्ण अंग है । ठाकुर कवि कहते है कि- मुझे वही कवि भाता है जिसे राज्यसभा मेंसम्मान, बडप्पन या आदर मिलता हो । आदर सिर्फ राजा से नहीं बल्कि विद्वान लोगों तथा साधारण लोगों से भी मिले, ऐसी कविता कवि को करनी चाहिए । कविता का काम है – विद्वान लोग और साधारण लोग दोनों को प्रभावित करना । कविता ऐसी हो जो दिल और दिमाग दोनों को छूने वाली हो , जिसमें विचार एवं भावना दोनों की गहराई हो। साधारण लोगों को प्रवृत कर सके कविता ऐसी होनी चाहिए नहीं तो बाकि कविता खेल मानी जाती है । यही भाव व्यक्त करते हुए ठाकुर कहते है :-
“मोतिन कैसी मनोहर माल गुहै, तुकअच्छर जोरी मिलावै।
प्रेम को पंथ कथा हरिनाम की, बात अनूठी बनाय सुनावै।
ठाकुर सो कवि भावत मोहि जो राजसभा में बडप्पन पावै।
पण्डित लोकप्रवीनन को, जोई चित हरै सो कवित्त कहावै।।”4
इस प्रकार ठाकुर कवि रीति परंपरा के विरुद्ध विद्रोह करते हुए काव्य की वास्तविक विशेषताओं से अवगत कराते हैं।
- सामाजिकस्वतंत्रता के लिए विद्रोह – रीतिकालीन समाज में स्त्रियों को कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं था, उन्हें व्यक्तिगत रूप से व सामाजिक रूप से अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं थी । उन पर कई तरह के सामाजिक व पारिवारिक बंधन थे । अतः ऐसे में ठाकुर के काव्य में स्त्रिओं की सामाजिक स्वतंत्रता के लिए विद्रोह भी देखने को मिलता है । उदहारण के लिए रक्षा बंधन के एक पर्व का वर्णन है, जहाँ सब लोग इस पर्व को उल्लास के साथ मना रहे हैं, वहीं एक ब्रज बाला जो राधा की अंतरंग सखी है, वह भी इस हर्षोल्लास में शामिल होना चाहती है, लेकिन गाँव का एक व्यक्ति उसकी निंदा कर उसे उस हर्षोल्लास में या उस सामाजिक उत्सव में शामिल नहीं होने दे रहा तो ऐसे में वह ब्रज बाला विद्रोह करती हुई उस व्यक्ति से कहती है कि- तुम न तो मेरे घर के हो न बाहर के अर्थात तुम मेरे लिए पूर्णत: अपरिचित हो , फिर तुमने मुझे क्यों घेर रखा है । यह कह कर वह उस व्यक्ति को स्पष्ट शब्दों में चेतावनी देती है कि वह उसके रोके रुकने वाली नहीं है और वह चाहे उसकी कितनी ही बदनामी या निंदा कर ले फिर भी वह अपनी इच्छा की पूर्ति अवश्य करेगी औरश्रावन मास के इस सामाजिक उत्सव में अवश्य सम्मिलित होकर हर्षोल्लास मनाएगी । यही भाव व्यक्त करते हुए ठाकुर कहते हैं :-
“घर के न बाहर केकाहेको करत घेर,
गरजीतमासे की हौं बरजी न रैहों मैं ।
आज सुभ सावन सलोनों की परब पाय,
अंग-अंग सुभगसिंगार न बनैहौं मैं।
ठाकुर कहत संग संग ब्रज बालन के,
रंग भरे राछरे उमंगन सो गैहों में ।
देखि रक्षाबंधन गोविन्द जू के हाथ साथ,
राधे की कजलिया चिरावन को जैहौं में ।”5
इस प्रकार उपर्युक्त उदाहरण में ब्रजबाला सामाजिक उत्सव में शामिल होने की अपनी सामाजिक स्वतंत्रता के लिए विद्रोह करती हुई दिखाई देती है ।
इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर स्त्री (नायिका) अपने हृदय की भावनाओं को व्यक्त करती हुई कृष्ण (नायक) से कहती है कि हे प्रिय ! यदि आप रोज़ नहीं आ सकते अपने दर्शन देने के लिए तो काम से कम दुसरे, तीसरे, पांचवें,सातवें दिन तो आ जाया कीजिये ।
रीतिकालीन समाज में जहाँ नारी मात्र भोग्या समझी जाती थी वहीँ ठाकुर के काव्य में अपने हृदय की भावनाओं को व्यक्त कर रही है । अतः नारी स्वतंत्रता को दर्शा कर ठाकुर ने यह बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया है :-
“रोज न आइयै जौ मन मोहन तौ यह नेक मतो सुन लीजिए।
प्रान हमारे तुम्हारे अधीन तुम्ह बिन देखें सु कैसे कै जीजिए।
ठाकुर लालन प्यारै सुनौं, बिनती इतनी पै अहौचित्त दीजिये ।
दुसरे, तीसरे, पांचवें, सातवें, आठवेंतौभला आइबौ कीजिए।”6
- प्रेम की स्वतंत्रता के लिए विद्रोह – रीतिकालीन समाज पुरुष प्रधान अधिक था, वहाँ प्रेम करने का अधिकार मात्र पुरुषों को ही था, स्त्रियों को प्रेम करने पर बदनामी, अपयश का सामना करना पड़ता था । अतः रीतिकालीन समाज में स्त्री को प्रेम के लिए विशेष साहस की आवश्यकता थी ताकि वह इन सामाजिक बन्धनों के विरुद्ध विद्रोह करके प्रेम के मार्ग पर चल सकें। ठाकुर के काव्य में प्रेम के लिए विद्रोह विशेष रूप से दिखाई देता है।ठाकुर की नायिका को प्रेम में बदनामी, अपयश की कोई परवाह नहीं है । वह अपने प्रेम प्रसंग को डंके की चोट पर स्वीकार करती है। उदहारण के लिए – किसी गोपी के कृष्ण सम्बन्धी प्रेम को देखकर उसका कोई शुभ चिन्तक उसे सलाह देता है कि वह कृष्ण से प्रेम न करेक्योंकि उसकी बदनामी बढती जा रही है । तो इस पर वह गोपी ( नायिका) उस शुभ चिन्तक को निर्भयतापूर्वक उत्तर देती हुई कहती है कि- मुझे लोक लाज की रत्ती भर परवाह नहीं और जब मेरी बदनामी चारों ओर हो ही चुकी है तो अब मै क्यों किसी से लज्जा करूं अर्थात अब मैं जी भर कर प्रेम क्यों न करूं । अब मेरे हृदय में मेरे प्राण प्रियतम श्री कृष्ण की मन मोहिनी मूर्ति बसी हुई है तब मुझे लोकलाज की चिंता नहीं । यही भाव व्यक्त करते हुए ठाकुर कहते हैं –
“ घरही घर घैरु करै घरिहाइनैनाँव धरे सब गांवरी री।
तब ढोल दै दै बदनाम कियौ, अब कौन की लजांवरी री ।
कवि ठाकुर नैन सो नैन लगै, अब प्रेम सो क्यों न अघाँवरी री।
अब होनदै बीस बिसैरी हंसी, हिरदै बसी मूरतिसांवरी री ।”7
इस प्रकार उपर्युक्त उदहारण में नायिका का प्रेम के लिए विद्रोह स्पष्ट दिखाई देता है ।
इसी प्रकार एक अन्य छंद में कवि ने प्रेम के मार्ग पर निर्भय, निस्संकोच व सब खतरें उठाने के लिए तैयार एक प्रेमिका के दृढ निश्चय का वर्णन किया है । उसको पर पुरुष कृष्ण से प्रेम करते देख कुछ स्त्रियों ने उसको अनीति के मार्ग पर चलने वाली व्यभिचारिणी, पतिव्रत धर्म भंग करने वाली आदि कहकर तरह तरह से निंदा की । जब नायिका की एक अंतरंग सखी ने लोक अपवाद और निंदा की बात उसे बताई तो वह नायिका विद्रोह करती हुई कहती है कि- हमें निंदकों से यही कहना है कि अगर हम कुमार्ग पर चल रही है तो वे हमारी इस स्थिति पर चिंतित न हो, अगर वें प्रेम को ठीक नहीं मानती तो न करें, वे कुमार्ग पर न चलें। हमने गोपाल से प्रेम किया है और हम उनकी प्रेमिका है, यह बात हम डंके की चोट पर स्वीकार करती है । अपनी-अपनी रूचि है । हमें कृष्ण से प्रेम करना उचित लगा तो हमने किया अगर तुम्हे उचित न लगे तो तुम मत करो । यही भाव व्यक्त करते हुए कवि ठाकुर कहते है :-
“हम एक कुराह चली तो चली हटको इन्हैं ये ना कुराह चलै ।
यहतौ बलिआपनो सूझतो है प्रन पालिए सोई जो पालैं पलैं ।
कहि ‘ठाकुर’ प्रीति करी है गोपाल सों टेरेकहौ सुनौऊंचै गलैं ।
हमैंनीकी लगी सो करी हमनै, तुम्हैं नीकी लगो न लगो तौ भलै ।।”8
इस प्रकार उपर्युक्त उदहारण में भी ठाकुर की नायिका का प्रेम के लिए विद्रोह स्पष्ट दिखाई देता है ।
इसके अलावा ठाकुर की नायिका को प्रेम में बंधन पसंद नहीं । वह कहती है कि जब से हमने कृष्ण (नायक) को देखा है तब से उनकी मोहिनी मूरत हमारी आँखों में बस गई है । और कृष्ण के प्रेम में पड़कर हमारी कुल की मर्यादा नष्ट हो गई है अर्थात प्रेम में पड़कर हम लोकलाज को भूल चुकी है । अब कृष्ण के प्रेम की तलवार हमारे हृदय में गड चुकी है । अतः अब गाँव में चाहे कोई हमारी कितनी ही बुराई करें हम तो कृष्ण के प्रेम में पड़ चुकी है और खुलकर प्रेम करेंगी । हम तो कृष्ण के रंग में रंग चुकी है, हमें लोकलाज की कोई परवाह नहीं ।अब चाहे समाज हमारा कितना ही उपहास उडाये हम तो कृष्ण के रंग में रंग चुकी है । अब हम तो खुलकर प्रेम करेगी ही ।यही भाव व्यक्त करते हुए ठाकुर कवि कहते हैं कि:-
“जब तै दरसै मनमोहनजू तब तै अँखियाँ लगी सो लगी ।
कुलकानिभई भगि वाहीघरी, ब्रजराज के प्रेम रंग सो रंगी ।
कवि ठाकुर नेह के नेजन की उर में अनी आन खगी सो खगी ।
अब गाँव रे नाँव रे कोई धरो, हम सांवरे रंग रंगी सो रंगी ।।”9
इस प्रकार उपर्युक्त सवैये के अनुसार ठाकुर की नायिका को प्रेम में बंधन तनिक भी स्वीकार नहीं। वह खुलकर प्रेम करना चाहती है और इसलिए लोकलाज की तनिक भी परवाहनहीं करती । फिर चाहे कोई उनका कितना ही उपहास उडाये उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं वह तो कृष्ण के रंग में रंग चुकी है । इस प्रकार ठाकुर की नायिकाप्रेम में स्वतंत्रता के लिए विद्रोह करती हुई दिखाई देती है ।
इस प्रकार ठाकुर के काव्य में हमें तीन प्रकार का विद्रोह देखने को मिलता है । एककवि के आधार पर जहाँ ठाकुर रीतिबद्ध परम्परा की बंधी बंधाई परिपाटी के विरुद्ध विद्रोह करते दिखाई देते है । वहीं दुसरे प्रकार में सामाजिक स्वतंत्रता के लिए विद्रोह है, जहाँ नायिका की सखी सामाजिक उत्सव में सम्मिलित होने के लिए विद्रोह करती है और तीसरे प्रकार में प्रेम के लिए विद्रोह है। जहाँ ठाकुर की नायिका को लोकलाज, बदनामी की परवाह नहीं और वह निर्भयता पूर्वक अपने प्रेम को स्वीकार करती है और बिना किसी भय के प्रेम सुधा का पान करना चाहती है ।
इस प्रकार ठाकुर के काव्य में हमें तीन आधारों पर विद्रोह देखने को मिलता है । इनतीनों प्रकारों में भी तीसरे प्रकार का विद्रोह अर्थात प्रेम के लिए विद्रोह यहाँ विशेष रूप से मिलता है । पहलेदो प्रकार का विद्रोह भी मिलताहै, लेकिन वह मात्रा में कम है, पर है अवश्य , लेकिन तीसरें प्रकार का विद्रोह ठाकुर के काव्य में अधिक देखने को मिलता है ।
सन्दर्भ सूची :-
- हिंदी साहित्य का इतिहास , (सं.) डॉ नगेन्द्र, तीसरा संस्करण, 2009, मयूर पेपर बैक्स प्रकाशन, नॉएडा, पृष्ठ संख्या -337(ठाकुर)
- हिंदी साहित्य :युग और प्रवृतियाँ, डॉ शिवकुमार शर्मा, बीसवां संस्करण, 2011, अशोक प्रकाशन, पृष्ठ संख्या -403(ठाकुर)
- रीतिकाव्यधारा, डॉ कृष्ण देव झारी, पृष्ठ संख्या -59,छंद संख्या -1
- ठाकुर संकलन ,छंद संख्या -2
- रीतिकाव्यधारा, डॉ कृष्ण देव झारी , ठाकुर, पृष्ठ संख्या -60, छंद संख्या -10
- ठाकुर संकलन , कवित्त संख्या -16
- रीतिकाव्यधारा, डॉ कृष्ण देव झारी, ठाकुर, पृष्ठ संख्या -60,छंदसंख्या-11
- वही, पृष्ठ संख्या -60,छंद संख्या -11
- ठाकुर संकलन, छंद संख्या -17