अबकी बार
इस बार मुझे लगा कि
कैसे चीजें बार बार ज्यादा याद आती हैं
और टूट टूट कर बुरी तरह से
दिल को आहत पहुंचाती हैं।
बाहर निकलकर जिधर भी नजर फैलाओ
तो ऐसा लगता है कि जैसे
इस चेहरे में कोई चेहरा छिपा है
जो अपनेपन का अहसास कराता है।
जिसे पहचानना चाहती है आंखें
पर यहां कुछ भी तुम्हारे चेहरे से
नहीं मिलता, जो एकदम
अलग अपनी रोशनी बिखेरता है।
मैंने यहाँ जाने कितने चेहरे देखे,
कितने चेहरे दिखे जो देखते तो थे,
पर किसी पर तुम्हारी आंखें नहीं थी।
तुम्हारी तरह होकर भी यहां कोई नहीं था
जो कोई था तो वो सिर्फ औ सिर्फ तुम ही थे।
होकर भी किसी में न होना ,
सिर्फ तुममें वह अपनेपन का
एहसास होता है।
एक लंबे इंतजार के बाद
किस तरह मैने लौटना चाहा तुममें
सबके बीच जाकर ये तो दिल ही जनता है।
कैसे आते हो मुझ तक बार बार पता नही,
किसी से मिलकर कैसा होता है
कुछ आज यह मैंने जाना।
अकेला तुममें घिरना , मिलना
बादलों से घिर जाने सा लगता है।
तुम्हारे बरस जाने की एक बूंद में
किसी भी उम्मीद के बिना
तन मन का महकना अच्छा लगता है।
मेरा अकेला होना तुमसे भर गया है
जिसमें सिर्फ मैं हूँ और वो हो तुम
तुम्हारे बिना तुम में होना तुम्हारी
इजाज़त का ही हासिल है।
जिसमें मिलजाना चाहता हूँ
इस अकेलेपन के तुम ही हो
मेरे अश्को के स्नेह विपल।
तुमसे ही जाना क्या एहसास होता है
तुमसे मिलकर ये हमने पहचाना
इसे न कभी खोने देना है
करेंगे हिफाजत और रखेंगे
आपकी यादों मुलाकातों को
ताउम्र सम्हालकर बचाना,
छिपाना ताकि किसी की नजर
न लगा दे ये बेदर्द जमाना।
अब रखना तन के कोने में संजोकर
मेरा बीती यादों का तराना,
जिसमें सिमटता है स्नेह का घराना।
डॉ. दिग्विजय कुमार शर्मा “द्रोण”
आगरा