हिंदी के मध्यकालीन युग से लेकर नवीनतम युग में महाकवि तुलसी एक ऐसे सूर्य है,जिनका तेज वर्तमान में छटाक मात्र भी मलीन नहीं हुआ है। भारतीय साहित्य की विभूतियों में तुलसीदास ऐसे हैं जिनका जनसंस्कृति से लगाव अधिक रहा है। कवि की प्रतिभा संस्कारजन्य होते हुए भी अपने बाहरी परिवेश से बहुत कुछ ग्रहण करती है। तुलसी ने भी भारतीय जनसंस्कृति को अपने हृदय में विराजित कर उसे अपने ग्रंथों प्रस्तुत किया है। कोई भी कवि बड़ा कवि तभी होता है जब वह जनसंस्कृति को हृदयंगम कर अपने ग्रंथ में प्रस्तुत करता है। महाकवि तुलसी ऐसे ही कवि थे जिनके ग्रंथों जैसे रामचरितमानस,विनयपत्रिक,गीतावली आदि में भारतीय जनसंस्कृति का दर्शन दर्पण में स्वयं के मुख की भाँति साकार होती है।
‘भारतीय जनसंस्कृति‘ में संस्कृति शब्द सबसे महत्वपूर्ण है। “संस्कृति शब्द ‘कृ‘ (करना) धातु में ‘सम‘ उपसर्ग और ‘क्तिन‘ प्रत्यय जोड़कर ‘सुट्‘ के आगम से स्वीकार्य है। जिसका अर्थ है परिष्करण,परिमार्जन अथवा अंलकृत करना।“1
भारतीय जनसंस्कृति का अस्तित्व अत्यंत प्राचीन और विराट है। भारतीय जनसंस्कृति अनेक बदलाव रूपी आँधी के थपेड़े सहकर भी अपने विशाल रूप में स्थापित है। वर्तमान में मिस्त्र, सुमेर, बेबीलोन, यूनान, रोम आदि सब समाप्त हो गए परंतु भारतीय संस्कृति आज भी प्रबल है। सर इकबाल के शब्दों में :
“ यूनानी मिस्त्र रोमां सब मिट गए यहां से।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा।।“
इसी विशाल भारतीय जनसंस्कृति का उदात्त स्वरूप तुलसीदास के ग्रंथों में नजर आता है। तुलसीदास सच्चे अर्थों में भारतीय जनसंस्कृति के संवाहक कवि है,जिन्होने अपने ग्रंथों में राम का आश्रय लेकर भारतीय संस्कृति के सभी आयामों को स्थापित किया है।
भारत विविधताओं में एकता का देश है। जनसंस्कृति को उसकी अनेकरूपता में देखने और दिखाने के लिए उत्सुक तुलसीदास ने इस देश की जनसंस्कृति के तीन प्रमुख क्रीड़ास्थल वन, ग्राम एवं नगर जिसका विशेषतः संबंध क्रमशः मुनियों,साधारण जनता तथा नगर निवासियों की जीवन पद्धतियों से है- के व्यापारों का चित्र न्यूनाधिक मात्रा में प्रस्तुत किया है। वास्तव में तुलसी के व्यक्तित्व का जनसांस्कृतिक पक्ष साहित्य की एक पुरातन किंतु चिरनवीन परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है।
भारतीय जनसंस्कृति का स्वरूप अपने आप में विराट एवं बहुआयामी है। तुलसी ने अपने ग्रंथों में इसी संस्कृति के विशाल स्वरूप को बड़ी ही सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया है। तुलसी के ग्रंथों में विवेचित जनसंस्कृति के स्वरूप को अध्ययन की सुविधा के दृष्टिकोण से सात भागों में विभक्त किया जा सकता है,जो इस प्रकार है :-
1.संस्कार
2.विश्वास
3.त्यौहार
4.मनोविनोद के साधन
5.कला-कौशल
6.व्यवसाय
7.वेशभूषा एवं खान-पान
- संस्कार :- भारतीय हिंदू संस्कृति में सोलह संस्कारों का महत्वपूर्ण स्थान है। लगभग तुलसीदास ने सभी संस्कारों को अपने ग्रंथ में स्थापित किया है जैसे जातकर्म,अन्नप्राशन,चूडाकर्म,यज्ञोपवीत आदि। इनकी चर्चा ‘मानस‘ और ‘गीतावली‘ में पूर्ण रूप से की गई है लेकिन उन्होने नहछू और विवाह को अधिक महत्व दिया है। इनके ‘रामललानहछू‘, ‘जानकीमंगल‘ तथा ‘पार्वतीमंगल‘ तो समग्रतः इन्हीं संस्कारों को उजागर करने के लिए रचे गए है। अवध में राम का नहछू संस्कार के संपूर्ण चित्र तुलसीदास ने खीचे हैं जैसे बाँस का मंडप,चौकपूरना,दीप जलाकर रखना,नाउन का नहनी लेकर उपस्तिथ होना,जेठानी का आज्ञा देना इत्यादि। रामललानहछू में तुलसी कहते हैः-
“आज अवधपुर आनंद नहछू रामक हो।
चलहू नयन भरि देखिय सोभा धामक हो।।“2
इसी प्रकार विवाह संस्कार के अंतर्गत होने वाले सभी प्रमुख परंपरागत क्रियाओं का चित्रण तुलसी ने किया है। जैसे- लगन बाँचना, तेल चढाना, बाजा बजाना, न्योता लगन, वर परिछन, मुँह दिखाई आदि। लगन का चित्रण तुलसीदास ‘पार्वतीमंगल‘ में करते हुए कहते है :-
“बेगि बुलाई बिरंचि बचाँइ लगन तब।
कहेन्हि बियाहन चलहु बुलाइ अमर सब।।“3
गँठबंधन एवं भाँवर की जनसंस्कृति का चित्रण करते हुए कहते है :-
“करि होम विधिवत गाँठि जोरि होन लागां भाँवरी।“4
- विश्वास :-संस्कृति का निर्माण एक दिन या चंद लम्हों में नहीं होता है। यह बहुत प्राचीन समय से समाज में स्वीकार्य होते है। भारतीय जनसंस्कृति में ऐसी बहुत-सी बातें है जिन्हें बिना किसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण के सत्य-सा मान लिया गया है। कोई भी कवि अपने समाज व संस्कृति में पलता है इसलिए इन विश्वासों की पैठ उसके मानस में भी हो जाती है और इसी विश्वास का चित्रण तुलसीदास ने अपने सभी ग्रंथों में प्रस्तुत किया है। तुलसीदास जनसंस्कृति के कुशल पारखी हैं इसलिए इन्होने सांस्कृतिक विश्वास के तहत शकुन एवं अपशकुन दोनों की चर्चा यथास्थान की है। शकुन में जहाँ पुरूषों का दाहिना अंग फड़कना, स्त्रियों का बायाँ अंग फड़कना, यात्रारम्भ के समय नेवला, घड़े और बच्चे के साथ माँ का आगमन, बायें छींक होना इत्यादि बातें है, जिनकी मान्यता आज भी भारतीय समाज में बराबर दृष्टिगोचर होती है। अंग फड़कने पर तुलसीदास कहते है :-
“भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहीं बार।“5
अपशकुन का चित्रण भी तुलसीदास ने उसी मनोयोग से किया है, जिस मनोयोग से शकुन का। अपशकुन में स्त्रियों की दाहिनी आखँ फड़कना, बुरे स्वप्न देखना, कुत्ते व सियारों का बोलना, उल्कापात, दिग्दाह आदि शामिल है। यथा :-
“ऊकपात दिक दाह दिन फेकरहिं स्वान सियार।
उदित केतु गत हेतु महि कम्पति बारहिं बार।।“6
- त्यौहार :-भारतीय जनसंस्कृति में त्यौहार अपना विशेष महत्व रखते है। तुलसीदास का भी संबंध भारतीय संस्कृति से है इसलिए इनके ग्रंथों में त्यौहारों का चित्रण बड़ी सहजता के साथ दृष्टिगत होता है। वास्तव में तुलसीदास भारतीय संस्कृति के सेतु है। भारत का प्राचीन एवं प्रसिद्ध त्यौहार होली है। गीतावली के अंतर्गत होली का आकर्षक चित्रण तुलसीदास ने प्रस्तुत किया है जहाँ नर-नारी परस्पर रंग-गुलाल, अबीर आदि डालते है तथा ढोल, मदृंग, झांझ, डफली आदि बजाए जाते हैः-
“खेलत फाग, अवधपति, अनुज सखा सब संग।
सुधर, सरस सहनाइन्ह गावहिं समय समान।।“7
इतना ही नही तुलसीदास ने दीपावली, वंसत आदि त्यौहारो का चित्रण भी अपने ग्रंथों में किया है।
- मनोविनोद के साधन :-जनसंस्कृति का यह पक्ष सबसे अधिक व्यापक एवं प्रसिद्ध है। तुलसी के स्वभावतः विनोदी प्रकृति के होने के कारण यथावकाश कहीं वर्ण्य -विषय के रूप में तो कही प्रासंगिकता के रूप में ही इन मनोविनोद विषयक विविध साधनों के सूक्ष्म संकेत चित्र उपस्थित किए है। इनमें गोली, भौरा, चकडोरी, चौगान, पंतग, पक्षीपालन, मृग्या, कुश्ती, शतरंज आदि प्रसिद्ध है। गोली भौरी व चकडोरी के संबंध में तुलसीदास कहते है :-
“खेलत अवध खोरि गोली भोरा चकडोरी,
मूरति मधुर बसै तुलसी के हिय रे।।“8
इसी प्रकार अन्य ग्रंथों में भी तुलसीदास ने मनोरंजन के साधनों का चित्रण किया है।
- कला-कौशल :-कला-कौशल प्रत्येक देश की संस्कृति के प्राण तत्व होते है। कला व कौशल के माध्यम से किसी देश की संस्कृति की पहचान होती है। तुलसीदास भारतीय संस्कृति के कला-कौशल से पूर्णतः परिचित थे इसलिए इन्होने सुंदरता के साथ भारतीय कला-कौशल जैसे वाद्य, नृत्य, युद्ध और पच्चीकारी आदि का वर्णन अपने ग्रंथों में अत्यंत प्रचुर मात्रा में समावेशित किया है। यथा नृत्य, संगीत के लिए तुलसी कहते है :-
-‘नाक नटी नाचहिं करि गाना।‘9
– ‘मुरली तान, तरंग मोहे कुरंग बिहंग।’10
6.व्यवसाय :- जनसंस्कृति में व्यवसायों का अपना विशेष स्थान है। विभिन्न व्यवसायों के माध्यम से ही जनता की आजीविका चलती है। इस ढाँचे को पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न तुलसीदास मे लक्षित होता है। संस्कार चित्रण में नहछू के अंतर्गत लोहारिन, नाउनि, तम्बोलिन, मोचिन एवं दर्जिन आदि व्यवसाय का चित्रण किया है। तुलसीदास ने अपनी कवितावली, गीतावली, दोहावली और रामचरितमानस में व्यवसाय रूपी जनसंस्कृति का चित्रण विशेष रूप से किया गया है। भारतीय जनसंस्कृति के ग्राम्य एवं नागरिक दोनों क्षेत्रों के व्यवसाय का चित्रण तुलसीदास ने अपने ग्रंथों में किया है। इन्होने कृषि, वाणिज्य, सेवावृत्ति ही नहीं वरन भिक्षा और चोरी जैसी क्रियाओं को भी व्यवसायिक रूप में चित्रित किया है। उदाहरण के लिए किसान के व्यवसाय को चित्रित करते हुए कहते हैः-
“पाही खेती लगनवट रिन कुब्याज मग खेत।
बैर बडे सो आपने किए पाँच दुख हेत।।“11
एक अन्य उदाहरण :-
“धूत कहौ अवधूत कहौ रजपूत कहौ जोलहा कहौ कोऊ ।“12
- वेशभूषा एवं खान -पान :-वेशभूषा एवं खान-पान किसी भी देश की जनता की संस्कृति का एक प्रमुख अंग माना जाता है। समान्यतः हम किसी व्यक्ति की वेशभूषा एवं खान- पान को देखकर उसकी संस्कृति का मूल्यांकन कर लेते है। तुलसीदास मुख्यतः भारतीय जनसंस्कृति के व्याख्याकार हैं। इन्होने अपने ग्रंथों में भारतीय संस्कृति की वेशभूषा एवं खान-पान का चित्रण किया है। तुलसीदास ने अपने ग्रंथों में बाल श्रृंगार, पुरूष वेशभूषा, स्त्री वेशभूषा का चित्रण भलीभाँति किया है। वेशभूषा में तिलक,कुंडल,माला, किंकिणि, पेंजनी आदि विभिन्न अलंकरणों का चित्रण इस प्रकार किया है।
बाल वेशभूषा :-
“कुंकुम तिलक भाल श्रुति कुण्डल लोल।
काक पच्छ मिलि सखि कस लसत कपोल।।“13
स्त्री वेशभूषा :-
“ दीन्ही है असीस चारू चूडामनि छोरि कै।“14
गोस्वामी जी ने खान-पान की संस्कृति का भी चित्रण किया है। इनमे सतुआ, रोटी, चना, दूध, भात, मक्खन, आदि अनेक पदार्थो का उल्लेख किया है। जैसे :-
-छोटी मोटी मीसी रोटी चिकनी चुपरि के तू, दै री मैया।15
-छाछी को ललात जे ते राम-नाम के प्रसाद
खात खुनसात सौधे दूध की मलाई है।16
अंततः निश्चय ही तुलसीदास जितने महान कवि थे, उतने ही महान भारतीय जनसंस्कृति के संवाहक भी। इन्होंनें अपने प्रत्येक ग्रंथों में भारतीय संस्कृति का स्वरूप बिखेरा है। संस्कृति का एक पक्ष भी इनसे छूट नहीं सका है। तुलसी के समग्र ग्रंथों का मूल्यांकन किया जाए तो भारतीय जनसंस्कृति को कोई भी व्यक्ति सरलता से आत्मसात कर सकता है। वास्तव में तुलसीदास को भारतीय जनसंस्कृति के सेतु की उपाधि दी जा सकती है। निश्चय ही तुलसी के ग्रंथों का भारतीय जनसांस्कृतिक मूल्य सदैव अक्षुण्ण रहेगा।
संदर्भ :-
- भारतीय साहित्य और संस्कृति -डॉ. मुकेश अग्रवाल, पृ. 419
- रामललानहछू 13
- पार्वतीमंगल 100
- रामचरितमानस- 1/324
- रामचरितमानस – 7
- रामाज्ञ प्रश्नावली – 5/6-3
- गीतावली, उत्तरकाण्ड – 21
- गीतावली 1/41
- रामचरितमानस 1/306
- श्री कृष्ण गीतावली 20
- दोहावली -478
- कवितावली 7/106
- बरवै रामायण – 2
- सुंदरकाण्ड – 26
- श्री कृष्ण गीतावली – 2
- कवितावली, उत्तरकाण्ड – 74
कल्याण कुमार
हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय