मनुष्य एक गतिशील प्राणी है, विचरण करना इसका स्वाभाविक कर्म है| जब से मनुष्य इस धरती पर आया वह निरंतर गतिशील रहा है|निरंतरता मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति हैं मनुष्य के इस स्वभाव को प्रवाहमय बनाने में प्रकृति की अहम भूमिका रही है| प्रकृति की ओर दृष्टिपात करें तो हमें इस दुनिया की सारी सजीव वस्तुएँ गतिमान दिखाई देती है |पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद जब एक नन्हे से पौधे ने इस धरती पर अपनी आँख खोली, तो प्रकृति को सम्पूर्णता से जान लेने की अपनी अदम्य लालसा को वह रोक नही पाया और चल पड़ा इस सृष्टि को समझने| इस तरह से वह पौधा अपनी फल-फूलों से लोगों की सेवा करता हुआ निस्वार्थ भाव से देश-परदेश की सीमा से परे सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो गया और उसका अस्तित्व एक बहुमुखी प्रतिभा वाला हो गया| इस नन्हे पौधों की भांति मनुष्य भी अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण किसी एक स्थान पर नही ठहर सका और वह निरंतर कभी इच्छानुसार तो कभी जबरदस्ती प्रवासित होता रहा| प्रवासन की यह प्रक्रिया व्यावहारिक रूप में प्राचीन काल से चलती आ रही हैं| लेकिन सैद्धांतिक तौर पर इसका प्रयोग आधुनिक काल की देन हैं| प्रवासन तथा प्रवासी की अवधारणा भी एक आधुनिक विचार है | हम जानते हैं कि दुनिया के किसी भी भाग में प्रवासन स्वत: अस्तित्व में नहीं आया, इसके आकार-प्रकार के निर्माण में तत्कालीन समय की भौतिक शक्तियाँ (विकास स्थिति, राज्य या राष्ट्र की भूमिका, स्थानीय स्थितियाँ, पूँजी और प्रौद्योगिकी की गतिशीलता, सामाजिक स्थिति, औद्योगिक शक्ति, वैश्विक साख, उपभोग स्थिति आदि) की महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं | इन सब शक्तियों ने नये-नये प्रवासन को जन्म दिया जो आज विश्वभर में अलग-अलग नामों से मशहूर हैं| जैसे-यहूदी डायस्पोरा, चीनी या लेबनानी डायस्पोरा, भारतीय तथा रोमा-जिप्सी डायस्पोरा इत्यादि|विश्व के विभिन्न भागों में फैले ये डायस्पोरा विभिन्न परिस्थितियों की दी हैं| जैसे-जैसे वैश्विक स्तर पर सामाजिक सांस्कृतिक, राजनैतिक घटनायें घटी वैसे ही प्रवासन भी अनेक रुपों में घटित हुआ हैं| समूहों के रूप में अपने जन्मभूमि से पलायन किये हुए व्यक्ति को प्रवासी कहा गया| प्रवासी की परिभाषा विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से व्याख्यायित की है जो निम्न हैं-
कुँवरपाल सिंह और नमिता सिंह के अनुसार –
“अप्रवासी वह व्यक्ति होता है जो निश्चित समय के लिए अपना देश छोड़कर बेगाने देश में निवास करता है और समय बीत जाने के पश्चात् अपने देश को लौट आता है|”[1]
अर्थात प्रवासी वह व्यक्ति और समुदाय होता है जो किसी कारणवश अपनी देश, राज्य, जन्मभूमि को छोड़कर अनिश्चित कल के लिए किसी दूसरे देश में निवास करने का फैसला कर लेता है | प्रवासी की स्थिति अनिश्चित होती है| वह कभी भी स्थिति अनुकूल वापिस अपने देश लौटने का फैसला भी कर सकता है|
डायस्पोरा –हिंदी शब्द ‘प्रवासन’ की तुलना में ‘डायस्पोरा’ शब्द प्राचीन है| यह शब्द मूलतः ग्रीक भाषा का शब्द है| diaspora का संधि विच्छेद ‘dias(दर) और ‘sperien(बिखरे हुए)’ बीजों को बोना, छितराना, या फैलाना आदि से हैं| मूल रूप में इस पद का प्रयोग ईसा पूर्व 586 में बेबिलोनिया से बलपूर्वक यहूदी लोगों के निष्कासन और फ़िलीस्तीन के अतिरिक्त विश्व के अन्य भागों में उनके बिखरे हुए समुदाय के भावनात्मक जुड़ाव को समझने के लिए किया गया|
सिडनीगोल्डस्टीन (sydneygoldstein, 1958) के अनुसार “यदि कोई व्यक्ति किसी नए स्थान में दस साल से कम रहा है तो उसे प्रवासी कहा जाना चाहिए अर्थात्, कोई व्यक्ति दस साल या उससे अधिक समय से रह रहा है, तो उसे नए स्थान का स्थायी निवासी माना जाना चाहिए|”[2]
राजीव रंजन राय ने प्रवासी को परिभाषित करते हुए कहा है- “ एक ऐसा व्यक्ति जो की अपनी स्वभूमि से अन्यत्र अन्य किसी भूमि पर निवास कर रहा हो वह प्रवासी व्यक्ति कहलाता है | यह निवास एक लम्बे समय के अन्तराल का होना चाहिए”[3]
ब्रिटेन की प्रख्यात लेखिका उषा राजे सक्सेना के अनुसार-“प्रवासी शब्द ‘प्रवास’ शब्द का विशेषण हैं| प्रवासी एक मनोविज्ञान है, एक अंतर्दृष्टि है जिसे स्वत: ‘फॉरम्यूलेट’ होने में बरसों बरस लग जाते है| एक तरह से प्रवासी वे कलमें हैं जो अपने पेड़ से कटी हुई टहनियाँ होने के वावजूद बर्षों-बरस किसी और मिट्टी-खाद पानी में अपनी जड़े रोपती हुई अपना बहुत कुछ खोने और नया बहुत कुछ उस नई भूमि से लेने-पाने के साथ अपने अंदर की गहराइयों में नई उर्जा सृजित करती हुई नई चेतना की कोंपले विकसित करती है|”
उपर्युक्त संदर्भो को विश्लेषित करे तो हम पाते है कि प्रवासन में,मनुष्य किसी एक भौगोलिक क्षेत्र से दूसरे भौगोलिक क्षेत्र में सापेक्षतः स्थायी या अस्थायी गमन करता है जो सामान्यत: निवास में बदल जाता है| यह गमन अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया जाता हैं| जैसे अर्थ उपार्जन, विद्या अर्जन,धर्म प्रचार, व्यापार इत्यादि | वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में देखे तो प्रवासी अपने देश,जाति,समुदाय से अलग होते हुए भी दूसरे देश में अपनी एक अलग पहचान के साथ विराजमान है| प्रवासन की पीड़ा,भविष्य की आशंकाए, अपनी मिट्टी का विछोह, प्रवासी मन में गहरी कसक पैदा करती है | इन सबके वावजूद नैतिकता, मिथक, इतिहास, संस्कृति आदि की भावना लिए प्रवासी भारतीय वैश्विक इतिहास में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे है| पूर्व प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने प्रवासियों के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा था कि हम विभिन्न भाषाएँ बोलते हैं, हम विभिन्न धर्मों को मानते हैं, हमारे रीति-रिवाज अलग-अलग हैं| हम सौ करोड़ से अधिक भारत में तथा पच्चीस करोड़ से अधिक सात समंदर पार लगभग एक सौ दस विभिन्न देशों में है लेकिन एक विचार है जो हमें आपस में बांधे रखता है वो है ‘भारतीयता’ | भारतीयता से तात्पर्य भारतीय संस्कृति के प्रति आत्मिक लगाव से है जो मानवता की महत्वपूर्ण जीवनदृष्टि अपने पराये समाजों को पारस्परिकता के सूत्र में रचनात्मक भूमिका निभाने का कार्य करता है|
भारत से दूर विदेशी धरती पर बसे भारतीय अपनी सभ्यता-संस्कृति को लेकर बहुत ही सजग हैं| विदेशी धरती पर सांस्कृतिक अस्मिता का सवाल उन्हें समय-समय पर उद्वेलित करता रहता हैं | प्रवासी चाहे किसी भी देश का हो सबकी संवेदना एक ही हैं | प्रवास की पीड़ा, अपनी धरती के प्रति मोह, अपनी भाषा और संस्कृति की सुरक्षा, नये भूमि में जमने का संघर्ष, वर्तमान परिस्थितयों के प्रति असंतोष,आत्मग्लानि,मानसिक अंतर्द्वन्द्व, विस्थापन इत्यादि बातें आज प्रवासी समाज की प्रमुख समस्याएँ हैं जिसकी अभिव्यक्ति प्रवासी रचनाकार कर रहे हैं| प्रवासी साहित्य में पुरुष रचनाकारों के साथ-साथ महिला रचनाकार भी लेखन में बहुत सक्रिय हैं| हम जानतें है कि जब ब्रिटिश भारत से भारतीय, गिरमिटिया मजदूर के रूप में कैरिबियाई देशों में गये तो उनके साथ महिलाओं ने भी प्रवासन किया था| ये महिलाएं निम्नवर्गीय समाज से थी| जैसे- गरीब, विधवा, वेश्या नर्तकी, इत्यादि| समाज में इनकी स्थिति उपेक्षित थी| जिस शोषण से बचने के लिए इन्होनें प्रवासन किया वहां जाने के बाद स्थिति ढ़ाक के पात के समान ही रही | दिनभर जी-तोड़ मेहनत करने के बाद स्थानीय अधिकारियों द्वारा इनका शारीरिक शोषण भी होता था |इन महिलाओं ने अपनी पीड़ा को गायन के माध्यम से उकेरा जो बाद में शिक्षित महिलाओं द्वारा लिखा गया| ये पीड़ा आजादी से पहले की महिलाओं की हैं| आजादी के बाद भी भारत से बहुत सी महिलाओं ने पत्नी, बहन और छात्र के रूप में विकसित देशों की और प्रवासन किया| इनके प्रवासन के प्रमुख कारण उच्च शिक्षा तथा सम्माननीय जीवन पद्धति थी | ढेरों इच्छाओं- आकाँक्षाओं से लबरेज इन महिलाओं ने जब विदेशी धरती पर पैर रखा तो उन्हें वहां भी अनेक प्रकार के समस्याओं का सामना करना पड़ा जिसमें स्त्री संघर्ष की समस्याएँ प्रमुख थी| इन महिलाओं ने अपनी लेखनी को आधार बनाते हुए अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करना शुरू कर दिया जिसकी विकसित स्वरूप प्रवासी साहित्य के रूप में दिखाई देता हैं| विदेश में बसी इन रचनाकारों को प्रवासी रचनाकार कहा जाता हैं| इसी तरह की प्रमुख रचनाकार हैं दिव्या माथुर जिनकी रचनाओं के माध्यम से प्रवास में स्त्री की स्थिति का जायजा लेंगें|
दिव्या माथुर व्यक्तित्व और कृतित्व
23 मई सन 1949 को दिल्ली में जन्मी प्रवासी लेखिका दिव्या माथुर ब्रिटेन में बसी भारतीय मूल की हिंदी लेखिका हैं|प्रवासी कथा साहित्य में दिव्या माथुर का अग्रणी स्थान हैं| अपार प्रतिभा की धनी दिव्या माथुर अपनी उपन्यास, कहानी और कविता से प्रवासी हिंदी साहित्य में नए मूल्यों, समस्याओं से पाठको को रूबरू करा रही हैं| काव्य संग्रह ‘झूठ, झूठ और झूठ’ के लिए ‘मैथिलीशरण गुप्त प्रवासी लेखन सम्मान’ से सम्मानित दिव्या जी की साहित्यिक प्रतिभा गद्य और पद्य दोनों विधाओं में सामानांतर रूप से गतिशील हैं| दिव्या जी 1984 में भारतीय उच्चायोग से जुड़ी और 1992 से नेहरु केंद्र में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी के पद पर कार्यरत है| वे रॉयल सोसाइटी ऑफ़ आर्ट्स की फेलो हैं| दिव्या जी को आर्ट्स काउन्सिल ऑफ़ इंग्लैंड द्वारा आर्ट्स एचीवर एवार्ड, कथा यू.के. द्वारा पद्यानंद साहित्य सम्मान, यू. के. हिंदी समिति द्वारा संस्कृति सेवा सम्मान और भारतीय उच्चायोग द्वारा हरिवंश राय बच्चन सम्मान मिल चुका हैं| आप कविता के क्षेत्र में इंटरनेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ पोएट्री द्वारा सम्मनित हैं | लन्दन में बसे प्रवासी भारतीय लेखकों के बीच दिव्या जी अहम स्थान रखती हैं| कारण अपनी रचनाओं में वे मानव मस्तिष्क में उठने वाले हर सूक्ष्म गतिविधियों पर कड़ी नज़र रखती है तथा अपने पात्रों को उसमें ढालती हैं| यहीं नहीं लंदन में कहानी मंचन का श्रेय आप को जाता हैं| दिव्या जी की लेखन की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे भारत के बाहर अपनी लेखनी से भारत की संस्कृति की तमाम विशेषताओं को समेट कर एक नवीन भारत का निर्माण करना हैं| इनके लेखन के बारे में वरिष्ठ रचनाकार कमल किशोर गोयनका का कहना है कि
“दिव्या माथुर में मौलिकता के साथ जीवन को नई दृष्टि से चित्रित कराने का कौशल है| उनमें एक बोल्डनेस है, इसी कारण वह ‘नीली डायरी’ जैसी कहानियाँ लिख सकी हैं, उनमें फैंटेसी का सौन्दर्य भी है और साथ ही जीवन–यथार्थ की मार्मिकता भी| उनमें अनछुए प्रसंगों तथा अलिखित जीवन–छवियों के चित्रण की और उन्हें प्रेषणीय भाषा में अभिव्यक्त करने की क्षमता है|”[4]
वरिष्ठ साहित्यकार चित्रा मुदगल का कहना है कि-
“दिव्या माथुर का वैविध्य भरा रचना संसार अपने बहुकोणीय और बहुअयामी पथ के चलते ,सुधी पाठकों की पाठकीय जिज्ञासाओं को नितांत नए अस्वाद से ही नहीं पुरता बल्कि सर्जना की सघन संवेदना और उसकी दृष्टि संपन्न अभिव्यक्ति के माध्यम से कथा वितान को स्वंय उसके अर्जित अनुभवों से सहज ही तब्दील कर देने की क्षमता रखता है, ऐसा तभी संभव होता है जाब उसके पथ का निर्वाह ..गति कौशल …कथ्य के ताने–बाने को पूरी तार्किकता के साथ अपने गहरे समाये हुए चलता हैं, दिव्या जी यू.के. की एक ऐसी रचनाकार हैं जो हिंदी–अंग्रेजी दोनों में ही समान अधिकार से लिखती है|”
दिव्या माथुर की प्रमुख कृतियां निम्नलिखित हैं
कविता संग्रह– अंत सलिला,रेट का लिखा ख्याल,चन्दन-पानी, सितम्बर:सपनों का राख, झूठ और झूठ |
कहानी संग्रह– आक्रोश, पंगा, मेड इन इंडिया और अन्य कहानिया, 2050 और अन्य कहानियां,हिंदी @स्वर्ग.इन,इत्यादि|
अनुवाद–मंत्रा लिंगुआ के लिए बच्चों की कई पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद: औगसटस और उसकी मुस्कराहट, बुकटाइम, दीपक की दिवाली, चाँद को लेकर संग, सैर को मै निकला, चीते से मुकाबला और सुनो भाई सुनो|
भारत हो या विदेश दुनिया के हर कोने में स्त्रियों को शोषण का शिकार होना पड़ता हैं| आज के दौर में सफल भविष्य की आकांक्षा लिए भारतीय स्त्री विदेश की ओर प्रवासित हो रही हैं|करियर और पार्टनर के बीच संबंधो को लेकर जद्दोजहद करती ये युवतियां कई प्रकार के मानसिक,शारीरिक,तथा आर्थिक शोषण की शिकार हैं जिसको दिव्या माथुर ने गहराई से महसूस करते हुए अपनी कहानी का आधार बनाया हैं|दिव्या माथुर की कहानियाँ उस स्त्री का चित्रण करती हैं जिसके लिए देश हो या विदेश सब यातना शिविर हैं। सब विसंगत हैं। सर्वत्र आकाश से गिरा खजूर पर अटका वाली स्थिति है। उन्होंने ब्रिटेन की रंगीनी नहीं, धूमिल छवि प्रस्तुत की है। दिव्या माथुर की लम्बी कहानी‘बचाव‘में निम्न मध्यवर्गीय निंदिया अपनी सहेली रूपा शाह की मदद से असंगत वैवाहिक रिश्ते से बचाव के लिए इंग्लैंड पहुँचती है, लेकिन पराई जमीन की असंगतियाँ और भी वीभत्स हैं। दिव्या तीन सौ पाउण्ड के सीमित वेतन से जीवन यापन करने को विवश है। पाँच साल से वेतन नहीं बढ़ा और न ही आगे बढ़ने की संभावना है। गरीबी इतनी है कि वह खिड़की पर लगे साइज से कहीं बड़े मैले चीकट प्लास्टिक के परदे को काट कर इसलिए छोटा नहीं कर सकती कि अगर कभी कमरा बदलना पड़ा और नए कमरे की खिड़की लम्बी हुई तो नया परदा कहाँ से आएगा ? ठंड के दिनों निंदिया सड़कों और स्टेशन पर भिखमंगों को गर्मकोट, मफलर, दस्तानें पहने देखती है, तो अपना कम वेतन मनःस्थिति को दयनीय बना देता है। सर्दी से बचाव के लिए कोट लेती है तो धीरूबेन उस कोट को किसी मृतक का कह उसे सिहरा देती है। आक्सफेम से पुराने जूते, दस्तानें, मफलर आदि खरीदती है, तो उन्हें पहनते ही असहज हो उठती है। दोपहर को लोग भोजन करते हैं और वह तले आलुओं से पेट भरती है। ट्रेन में चढ़ती है तो उसका सफर अधिकतर डंडे पर लटकते ही व्यतीत होता है। एक स्वप्न है कि निंदिया अलग घर लेगी, जब चाहेगी बत्ती बुझाएगी, मन पसंद संगीत सुनेगी, माँ-बाबा को स्वेटर और पैसे भेजेगी। निंदिया जैसे आपातकालीन कर्मचारियों को बीमारी की छुट्टी तो क्या, सप्ताहांत पर वेतन भी नहीं मिलता। स्थानीय कर्मचारियों से बड़े साहब हैलो करना भी पसंद नहीं करते। मेनका हो या निंदिया – अधिकारी औरत को परोसने की चीज ही समझते हैं। एक समय था कि हीरे मोती दान करने से किस्मत खुल जाती थी, अब तो साहबों को ताजा मादा गोश्त चाहिए। कहानी की धीरूबेन ‘सहारा महिला संगठन’ की मैनेजर है। उन्हें पता है कि भारतीय महिलाएँ जहाँ भी जाएँगी, रहेंगी भारतीय ही। ससुराल वाले उन्हें नौकरानी से अधिक नहीं समझते। घर -दुकान सब संभालने के बावजूद उन्हें पति की गालियों और घूँसों का शिकार होना ही है। भारत से जो अधिकारी वहाँ आते हैं, उनके लिए औरत कर्मचारी या अधिकारी नहीं, सिर्फ शरीर है। लेकिन कहानी की नायिका निदियाँ अपने वसूलों पर जीने वाली स्त्री है वह स्त्री शोषण को अपनी नियति मानकर स्वीकार नहीं करती बल्कि अपने ऑफिस के वरिष्ठ अधिकारी से शारीरिक संबंध के प्रस्ताव को नकार कर अपने इच्छानुसार जीने में विश्वास करती हैं| वह अपनी विचारों के लेकर स्वतंत्र हैं जो स्त्री मुक्ति का प्रारम्भिक चरण हैं|
आधी आबादी की प्रतिनिधित्व करती स्त्री को आज के मानवतावादी युग में नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता| स्त्री और पुरुष दोनो मनुष्य होते हुए भी समान नहीं माने जाते हैं चूँकि पुरुष समाज ने अपनी दादागिरी के बल पर स्त्री को दोयम बनाया है | ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या एक सभ्य समाज में यह व्यवस्था सही है? विशेषकर एशियन समाज में, जहां लिंग के आधार पर पुरुष से स्त्री का रिश्ता प्रायः मालिक गुलाम का ही रहा है| भारत में पति को स्वामी कहा जाना स्वतः ही स्त्री को दासी बना देता है| मालिक गुलाम के रिश्ते का अर्थ है आधी आबादी को गुलाम मानकर सभी मानवीय अधिकारों से वंचित कर देना| वह भी इसलिए नही कि स्त्री धन, बल, बुद्धि, भौगोलिक या दैहिक दृष्टि से कमतर है बल्कि इसलिए कि वह स्त्री है|हिंदी के महान रचनाकार मुक्तिबोध ने कहा था कि हम देश या समाज बदलने की बात तो करते हैं लेकिन अपने परिवार को नहीं बदल पाते है जब हमारा परिवार ही नहीं बदलेगा तो हम समाज में व्याप्त असामानता या कुरीतियों को कैसे बदल पाएंगे| दिव्या माथुर की कहानी संदेह मुक्तिबोध की बातों को चरितार्थ करती हैं| हमारे समाज में स्त्री की संघर्ष की शुरुआत सबसे पहले अपने पारिवारिक स्तर पर करनी पड़ती हैं| आए दिन हम देखतें हैं कि अपने ही रिश्तेदार, पिता या भाई अपनी ही घर की लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनातें हैं| ऐसी प्रवृति के पीछे पुरुषवादी मानसिकता हावी रहती हैं जिसमें स्त्री को वस्तु को समझा जाता हैं| संदेह कहानी की नायिका अनीता अपनी मनोचिकित्सक पति की हवसी प्रवृति को समझ नहीं पाती हैं जो अपनी ही छोटी बच्ची को अपनी हवस का शिकार बना देता हैं| अनीता को लगता हैं की उसका पति उसे काम करने वाली घरेलू नौकरानी समझता हैं जो उसकी जरुरत की हर समान को समय पर मुहैया कराये| और वह उसके षड्यंत्र से बचाव के उपाय ढूंढती रहती हैं लेकिन उसका पति उससे भी बड़ा शातिर निकलता हैं | वह लोगों के सामने अपनी विद्वतापूर्ण बातों से यह साबित करता रहता हैं कि अनीता डिप्रेशन से गुजर रहीं हैं और उसे वह एंटी-डिप्रेशन की जबरदस्ती गोलियां भी देता हैं इतना ही नहीं वह बेटी अन्या को भी ब्लैक मेल करते हुए कहता हैं कि उसने जो कार्य उसके साथ किया हैं अगर इसके बारे में वह अनीता से बताएगी तो उन्हें चूहों की पिंजड़ो में बंद कर देगा| “ ही विल पुट मी इन ऐ केज विद लौट्स ऑफ़र रेट्स’ कहते हुए अन्या ने घबराकर अपनी आँखे बंद कर ली|”[5]अनीता को जब सारी बातें सही-सही पता चलती हैं तो वह चुप होकर नहीं बैठती | अब उसे बच्चों के छिनने और जीविका की चिंता नहीं सताती, वह हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठती | वह अंजन के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाती हैं और अपने बल पर जीने का साहस रखते हुए बेटी अन्या को अंजन के घेरे से मुक्त कराती हैं और उससे डटकर मुकाबला करने का फैसला करती हैं|आज जरुरत है स्त्री को स्त्री होने के कारण थोपी गई गुलामी से मुक्त करने और करवाने की| स्त्री मुक्ति अवधारणा के तहत मात्र भोगी हुई पीड़ा का एहसास होना ही पर्याप्त नहीं है| इस पीड़ा के विरोध में प्रतिरोध का स्वर न उपजे तो वह पीड़ा निरर्थक हो जाती है | लेकिन जैसे ही स्त्री को वर्जनाओं की पीड़ा का एहसास होता है तब वह एहसास उसे हाशियों को उलांघने को प्रेरित करता है| जिसे दिव्या माथुर ने गहराई से समझा हैं|
दिव्या माथुर भारत से दूर रहकर भी अपने मीठे और कटु अनुभवों को गहराई से अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रही हैं| अपनी रचनाओं के माध्यम से वे एक ऐसे समाज और संस्कृति की स्थापना करना चाहती हैं जहाँ स्त्री को समानता का अधिकार मिले और वे सम्मान पूर्वक जीवन-यापन कर सकें | भारत हो या विदेश स्त्री के लिए संघर्ष दोनों जगह है लेकिन वो विभिन्न रूपों में दिखाई देते हैं | भारत की अपेक्षा मेजबान देशों में स्त्री अधिक स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर है लेकिन पितृसत्तात्मक समाज की जकड़न और उससे मुक्त होकर अपने अस्तित्व को सिद्ध करने की चुनौती वहाँ भी हैं|आज भी भारत से आई स्त्रियों का मनोविज्ञान आधुनिक देशों में बसी स्त्रियों से बहुत अलग है | विदेशों में बसी भारतीय स्त्रियों की मानसिकता की जकड़ ढ़ीली नही हुई हैं वे नये आयाम में नये मूल्यों से रूबरू तो है और उनके प्रति आकर्षित भी होती है पर दुविधा में है | उन्हें मुक्ति का अर्थ तो मालूम हो चुका है पर वे अभी या तो उसे अपनाने के लिए हिम्मत जुटाने की प्रक्रिया में है या दुविधा-ग्रस्त | रमणिका गुप्ता इन्हें दुविधा-ग्रस्त पीढ़ी कहती हैं |संजीवन कहानी की नायिका सीमा आर्थिक रूप से निर्भर हैं लेकिन पारिवारिक संस्कारों के दबाव मेंअपने निठल्ले पति समीर और झगड़ालू सास के अत्यचारों को सहती रहती हैं| समीर को सीमा का ज्यादा पढ़ा होना तथा ज्यादा कमाना खटकता रहता हैं | समीर की कमाई से घर में एक वक्त रोटी भी नहीं नसीब होती, दूध फल, टेलीविजन,फ्रिज ये सब सीमा के कमाई से नसीब होता हैं फिर भी पड़ोसियों के सामने अपनी शेखी बघारतें हुए वह हमेसा सुनाता रहता हैं कि“तुम जितना कमाती हों नहीं उससे ज्यादा खर्च कर डालती हो किसे जरुरत है तुम्हारी कमाई की|”[6] खाना, सोना, और क्लेश सीमा के परिवेश के प्रमुख अंग है| पुरानी दिल्ली की उस संकरीनुमा हवेली में सीमा का दम घुटता रहता हैं| सीमा को लगता है उसके विचार, उसकी उमंगें, उसकी आशाएँ, सब कोढ़ी हो गये हैं | सीमा हर दिन कोढ़ी कोठी से मुक्त होने को सोचती रहती हैं| सास और पति को तो वह बर्दाश्त कर लेगी लेकिन क्या उसकी छोटी बच्ची अलका का विकास इस संकरीनुमा माहौल में हो पायेगा | सीमा को ये बात खाए जा रही थी | रमणिका गुप्ता कहती हैं कि स्त्री को मुक्त कराने के लिए उसमें चेतना को जागृत करना होगा जब तक हमारे मन में यह इच्छा प्रबल नहीं होगी की हमें शोषण के खिलाफ आवाज उठानी है तब तक हम मुक्त नहीं होंगे|एक दिन सीमा को उसके दफ्तर की निर्देशिका रेनू गुप्ता एक विज्ञापन देने को कहती है |“उनकी माँ ग्रीन पार्क में अपने बड़े मकान में अकेली रहती है| वह क्रेच चलाती है किन्तु उन्हें किराये से अधिक साहचर्य की आवश्यकता है जो उसकी शांति को भंग न करे|”[7] सीमा अवसर को हाथ से जाने देना चाहती हैं वह अपनी समस्या श्रीमती रेनू को बताती है वह सीमा की स्थिति को देखते हुए किराये पर घर देने को झट तैयार हो जाती हैं तथा सीमा की परिस्थिति को देखते हुए किराया भी कम कर देती है| सीमा के इस निर्णय से समीर तिलमिला उठता और और सख्त शब्दों में मना करता है कि ‘ठीक हैं, मै अम्मा और अलका तुम्हारें साथ नहीं आएँगे’| ससुराल वालों के लाख डराने के वावजूद सीमा अपने निर्णय पर अडिग रहती है और एक दिन दोपहर को अलका के साथ निकल पड़ती है खुले घर के ,खुले आकाश में मुक्ति की साँस लेने | वर्तमान समय आधुनिक काल का हैं | सूचना क्रांति के इस दौर में हाशिए पर धकेले गये वर्ग केंद्र में आने के लिए संघर्षरत हैं स्त्री भी इनमें से एक हैं जो हर स्तर पर स्त्रीविरोधी मानसिकता से संघर्षरत हैं | ये स्त्री विरोधी मानसिकता लिंग आधारित है जिसमें स्त्री और पुरुष के कार्यों को अलग-अलग खाचों में विभाजित किया जाता है| |जैसे- घर के सारे कार्य स्त्रियों को तथा बाहर के सारे कार्य पुरुषों के लिए अनिवार्य हैं| अगर कोई पुरुष कोई घरेलू कार्यों में हाथ बटाता हैं तो उसे ‘जनानी’ कहा जाने लगता है | अब जरुरत है ऐसी मानसिकता से मुक्त होने की जिसे दिव्या माथुर ने शिद्दत से महसूस किया हैं | अपनी कहानी ‘सफ़रनाम’के माध्यम से वे ऐसी मानसिकता पर कुठाराघात कर रही हैं|कहानी की प्रमुख पात्र विजया एक मशहूर लेखिका हैं जो स्त्री मुद्दे पर अपनी बेबाकी के लिए मशहूर हैं| अनूप द्वारा यह पूछने पर कि आपने भारतीय पुरुषों को इतने बेरहमी भरा चित्रण क्यों किया है वह तपाक से कहती कि –“ भारतीय पुरुष, सामाजिक, मानसिक व व्यवहारिक स्वर पर वहीँ खड़ा है जहाँ वो सौ साल पहले था…….प्रगति के नाम पर उन्हें समझदार नौकरी–याफ्ता पत्नी चाहिए ….चाहें पत्नी स्वंय दफ्तर से थकी आई हो पति चाहेगा कि वह शाम को जब लौटे पत्नी सजी संवरी ताजा चाय के कप लिए मुस्कराती मिले ..इन सबके बाद भी आज की नारी न तो एक अच्छी पत्नी साबित हो पाती है न बहू और न एक अच्छी माँ|”[8]अनूप के माध्यम से दिव्या माथुर औरतों में व्याप्त पुरुषवादी मानसिकता पर सवाल उठाती हैं| अनूप विजया की बातों को सुनते हुए कहता है कि “आप ठीक कहती है कि पुरुष वर्ग बदलना नहीं चाहता| इस दोष में बराबर की साझेदारी क्या महिलाओं की नहीं? अपने ही बेटों और भाइयों को बदलना देख वे उनका जीना दूभर कर देती हैं कि जोरू का गुलाम हो गया हैं|”[9]ऐसी सोच के पीछे विजया समाज में व्याप्त लिंग भेद को मानती है | विजया कहती है कि अगर जन्म से ही लड़के-लड़कियों में भेद न किया जाए ,लड़कों को बराबर का दायित्व दिया जाए , लड़कियों को बचपन से यह घुट्टी न पिलाया जाए कि शादी के बाद उसकी अर्थी ससुराल से निकालनी चाहिए इत्यादि | विजया की बातों को सुनकर हमें सीमोंन द बोउवा के कथन सहज ही याद हो उठतें है कि स्त्री पैदा नहीं होती बनायी जाती हैं |यहीं नहीं विजया मानसी और उसके पुत्र अनंत को उसके शराबी पति से छुटकारा दिलाती है तथा आर्थिक सहायता करते हुए सोचती है कि स्त्री को उसके शोषण से मुक्ति दिलाना ही वास्तव में स्त्री मुक्ति हैं|
इस प्रकार हम देखतें है कि दिव्या माथुर के यहाँ स्त्री हर स्तर पर संघर्ष करती हुई अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़ रहीं हैं | ठुल्ला क्लब की मीना हो या आक्रोश की विवेका या पंगा की अनीता अपने समाज से,परिवेश से, तथा पितृसत्तात्मक मानसिकता से संघर्ष करते हुई ये स्त्रियाँ मुक्ति का इतिहास रचती हैं| यहीं नहीं दिशा कहानी की नायिका शमा तमाम सामाजिक वर्जनाओं को नकारते हुए नेत्रविहीन मणि से प्रेम करती हैं और बाद में शादी भी कर लेती हैं | दिव्या माथुर के यहाँ मध्यवर्गीय स्त्रियों का संघर्ष है जो स्त्री मुक्ति की अवधारणा को सशक्त करता हैं|स्त्री मुक्ति के सन्दर्भ में प्रवासी एवं भारतीय पृष्ठभूमि पर रची गयी दिव्या माथुर की कहानियाँ स्त्री समस्याओं को समझने के लिए अद्भुत् कृति है |
संदर्भ-
1-वर्तमान साहित्य, कुँवरपाल सिंह,नमिता सिंह(संपादक, अंक- जनवरी,फरवरी 2006 ,पृष्ठ -45
2-जे.पी.सिंह, समाजशास्त्र: अवधारणाए एवं सिद्धांत, तृतीय संस्करण-2013 PHI लर्निंग प्रा. लि., दिल्ली, पृष्ठ-602
3-राजीव रंजन राय ; भारतीय डायस्पोरा :विविध आयाम,प्रथम संस्करण-2014,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली, पृष्ठ-192
4- माथुर दिव्या ; मेड इन इंडिया और अन्य कहानियाँ ,2013 , हिंदी बुक सेंटर ,नई दिल्ली, प्रथम संस्करण,
5- गोयनका कमल किशोर संपादक ; जोहान्सबर्ग से आगे ,2015 ,विदेश मंत्रालय भारत सरकर साऊथ ब्लाक , नई दिल्ली ,प्रथम संस्करण,पृष्ठ 195
6-माथुर दिव्या ; आक्रोश, 2000 , हिंदी बुक सेंटर , नई दिल्ली ,प्रथम संस्करण , पृष्ठ २१
7-मथुए दिव्या ; आक्रोश , 2000 , हिंदी बुक सेंटर , नई दिल्ली , प्रथम संस्करण , पृष्ठ 3
8- माथुर दिव्या ; आक्रोश , 2000 , हिंदी बुक सेंटर, नई दिल्ली,प्रथम संस्करण, पृष्ठ 44
9- वही
सहायक ग्रंथ–
1.भारतीय डायस्पोरा : विविध आयाम ; संपादक-राजीव रंजन राय,रामशरण जोशी प्रशांत खत्री, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
- वैश्विक रचनाकार: कुछ मूलभूत समस्याएँ : सुधा ओम ढींगरा, 2013,शिवना प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण
3.हिंदी का भारतीय एवं प्रवासी महिला लेखन: मधु संधु , 2013, नमन प्रकाशन, प्रथम संस्करण
4.स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास: रमणिका गुप्ता, 2014, सामयिक प्रकाशन, प्रथम संस्करण
- पंगा : दिव्या माथुर, 2008, मेधा बुक्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण