दर्शन की भाषा में कहें तो सचमुच में सब कुछ परिवर्तनशील है। यहाँ तक कि अपनी विचारधारा से नाभिनाल बद्ध और इसी नाते कट्टर कहे जाने वाले कम्यूनिस्ट पार्टियों के स्टैंड भी। भले ही उन्हें बार-बार राजनीतिक मजबूरी में अपना स्टैंड बदलना पड़ता हो। लेकिन जब वे अपने स्टैंड पर कायम रहते हैं तो कुछ इस अंदाज में रहते हैं कि यह ध्रुव सत्य है और कभी नहीं बदलेगा। वैसे भी कम्युनिस्ट पार्टियाँ वोट के लोभ में बाकी राजनीतिक पार्टियों वाला सलूक ताक अब तक का इतिहास तो आंशिक और तुलनात्मक रूप से ही बताता है। पर अब शायद वैसा न हो। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने कैडरों के नास्तिक होने की बाध्यता को हटा दिया है। इसके बावजूद वह धर्म का भाजपा या दूसरे दलों की तरह सत्ता पाने की जुगत के रूप उसका भद्दा यूज न करे मगर धर्म से संघर्ष की वह पुरानी मुद्रा तो त्यागने जा ही रहा है।
माकपा महासचिव ने पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डोमोक्रेसी में धर्म से किसी भी तरह गुरेज से इंकार करते हुए कहा है कि उनकी पार्टी धर्म और आस्था नहीं सांप्रदायिकता के खिलाफ है। धर्म के नाम पर पसरी कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ है । गौरतलब है कि पिछले काफी समय से धर्म के सवाल पर पार्टी केडर के ही कई बड़े नेताओं ने विरोधाभासी बयान देकर लगातार पार्टी को सांसत में डाले रखा। इस तरह बाहर ही नहीं पार्टी के भीतर से भी धर्म के सवाल पर सोचने पर दबाव था और पार्टी के इसी मंथन का नतीजा माकपा यह बदला हुआ स्टैंड है। धर्म के मुद्दे पर पार्टी को हिंदुस्तान के लगभग सभी बड़े धर्म के नोताओं से दो-दो हाथ करने पड़ रहे थे। 14वीं लोकसभा के दौरान केरल में मापका के तत्कालीन सांसद अब्दुल्ला कुट्री ने भी धर्म की स्वतंत्रता की आवाज बुलंद की थी, तो पार्टी ने उन्हें दूसरी बार उसे टिकट के काबिल ही नहीं समझा। धार्मिक आजादी के मुद्दे पर ही ईसाई समुदाय के सांसद के. एस. मनोज ने भी पार्टी छोड़ी है। धर्म के विरोध की बात करने वाली माकपा को करेल में मुसलिम लीग से समझौते करने ही पड़े हैं। जिस बंगाल में उनका तीन दशक से राज है वहाँ की जनता खुद काफी धर्मपरायण है । दशहरे के उत्सव में माकपा नेता बढ़ चढ़ के शिरकत करते ही रहे हैं। इस सबके बाद धर्म से परहेज या विरोध की बात गुल खाना और गुलगले से परहेज करने जैसा ही है। कार्ल मार्क्स का कथन कि धर्म अफीम है काफी लोकप्रिय है और काफी कोट किया जाता है। लेकिन इससे पहले और आगे की पंक्ति छुपा ली जाती है। मार्क्स ने धर्म को अफीम के साथ हृदयहीनों का हृदय भी कहा है। लाखों-करोड़ों जनता के दुखदर्द का संबल भी कहा है। धर्म उसे जगत के अन्याय का ऊपर हिसाब होने का भरोसा भी देता है। इस दुनिया के भेदभाव के दुख की पूर्ति ईश्वर के दरबार में सब बराबर है मानकर करता है। यह सही है कि सभी धर्म उदारता और परोपकार की बात करने के बावजूद अपने स्वरूप, संरचना और प्रैक्टिस में काफी हद तक अमानवीय हैं। हिंदु और इस्लाम दोनों धर्म स्त्रियों के प्रति अमानवीयता की हद तक अनुदार हैं। धर्म के अवैज्ञानिक आधार पर धर्मिक टकरावों के क्रूर रक्तरंजित इतिहासों को तार्किक कसौटियों पर कसकर ही भगत सिंह ने ‘मैं नास्तिक हूँ’ की घोषणा की थी। धार्मिक और जाति से संघर्ष के आधार पर राजनीति मुश्किल है। खास कर चुनावी राजनीति। हिंदी पट्टी में वामपंथियों का आधर लेखकों और कलाकारों तक सिमट जाने का यही कारण रहा है। धर्म का सीधा-सीधा और काफी हद तक एकतरफा विरोध धर्मपरायण जनता को रिएक्शन में ले जाता है और उससे संवाद की संभावनाएँ भी खत्म कर देता है। इस तरह वे धर्म के मामले में और कट्टर हो जाते हैं और सत्ता के लिए धर्म की राजनीति करने वालों के लिए यह वर्ग खुला मैदान हो जाता है। इस आलोक में माकपा के धर्म पर बदले हुए स्टैंड को देर आयद, दुरुस्त आयद कह सकते हैं। लेकिन खतरा यह भी है कि कही पार्टी धर्म के गले तक धंसे जनता को उससे उबारने की चुनौती का ही परित्याग नहीं कर दें।
भारतीय संविधान के अनुसार हम एक धर्मनिपरेक्ष देश हैं। यहाँ के नागरिकों को वह जिस भी धर्म को चाहे मानने की आजादी है। लेकिन धर्मनिरपेक्ष का अर्थ राज्य का धर्म से तटस्थ या निरपेक्ष रहना है। इस अर्थ में भारत को धर्मनिरपेक्ष नहीं कहा जा सकता। देश के सभी बड़ो धर्मों को मानो राजकीय संरक्षण सा मिला हुआ है। धर्म जीवन के लिए भले ही जरूरी हो लेकिन यह एक बड़ी सच्चाई है इस समाज की अधिकांश बुराइयाँ धर्म प्रदत्त हैं। ऐसे में धर्म से हमारे लगाव के साथ एक संघर्ष का भी रिश्ता बनता है। यही धर्म से हमारे संबंधों की द्वंद्वात्मकता है। कबीर जैसे फकीरों को धर्म की ज्यादतियों के खिलापफ खड़े होने की इसीलिए जरूरत पड़ी थीं यह जरूरत आज खत्म नहीं हुई है। बल्कि और बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने है । ऐसे में माकपा का यह कदम इस आशंका को भी बदल देता है कि धार्मिक बुराइयों से लड़ने की चुनौती ही कहीं खत्म न हो जाए।

 

मोहसिना खातून

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *