भूमिका-
भारतीय वाङ्मय में रामकथा की परंपरा अति प्राचीन है। रामकथा सिर्फ भारत में ही नहीं वरन सारे भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण एशिया तथा मध्य एशिया तक विभिन्न रूपों में प्रचारित-प्रसारित होती रही है। भारतीय मनीषियों ने रामकथा पर विभिन्न दृष्टिकोणों और विधाओं में विस्तृत रूप से रचनाएं लिखीं। रामकथा की प्रथम रचना वाल्मीकि कृत रामायण को माना जा सकता है, लेकिन उसके पश्चात भी अद्भुत रामायण, आनंद रामायण, तत्व संग्रह रामायण, कम्ब रामायण, कश्मीरी रामायण, कृतिवास रामायण, भावार्थ रामायण, आनंद रामायण, गोविंद रामायण रामचरितमानस आदि अनेक ग्रंथों में राम कथा विभिन्न दृष्टिकोणों से कही गई। रामकथा की यह अद्भुत परंपरा प्राचीन भारत, मध्यकालीन भारत और आधुनिक भारत में अधर्म पर धर्म की विजय के संदेश को प्रसारित करती हुई; भारतीय जनमानस में अत्यंत लोकप्रिय रही है। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने श्री राम के जन्म का उद्देश्य बताते हुए कहा है-
जब जब होय धरम की हानी, बाढहि असुर अधम अभिमानी ।
तब तब धरी प्रभु मनुज सरीरा, हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा॥
राम कथा इक्ष्वाकु वंशीय दशरथ-पुत्र राम की कथा है, जो अपने पिता के वचनों की रक्षा हेतु अपनी पत्नी सीता तथा छोटे भाई लक्ष्मण के साथ राज्य त्याग कर 14 वर्षों का वनवास स्वीकार करते हैं। वनवास की अवधि के दौरान लंका का राजा रावण उनकी पत्नी सीता का हरण कर लेता है, अपनी पत्नी को पुनः प्राप्त करने के लिए राम वनवासी वानरों, ऋक्षों को संगठित करके राक्षसराज रावण से युद्ध करते हैं और रावण का वध करके सीता को पुनः प्राप्त करते हैं।
स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों की नई निराली प्रवृत्तियों में जहां आंचलिक चेतना, महानगरीय जीवन की विसंगतियों, नारी जीवन की समस्याओं, ऐतिहासिक परिपार्श्वों के साथ आधुनिकता बोध की प्रवृत्तियों को शामिल किया गया वहीं पौराणिक कथाओं को वर्तमान परिदृश्य में उपयोगी सिद्ध करने की प्रवृत्ति का भी समावेश किया गया क्योंकि प्रत्येक समाज अपनी प्रवृत्ति, परंपरा, परिवेश, इतिहास,भूगोल एवं अनुभव के आधार पर जीवन मूल्यों को अंगीकार करता है।[1]
नरेंद्र कोहली की राम कथा-
राम कथा को आधार बनाकर आधुनिक युग में भी अनेक साहित्यकार साहित्य सृजन कर रहे हैं, नरेंद्र कोहली उन साहित्यकारों में अग्रणी हैं। समकालीन हिंदी साहित्य के प्रख्यात लेखक नरेंद्र कोहली का जन्म 1940 में सियालकोट, पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था इन्होंने बी.ए. ऑनर्स (हिंदी) बिहार में किया। बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम..ए और पी.एच.डी. किया। दिल्ली के पी.जी.डी.ए.वी. सांध्य कॉलेज से नौकरी शुरू करके 1965 में मोतीलाल नेहरू कॉलेज पहुंच गए और यहीं से स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण कर लिया। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक और व्यंग में सतत लेखन किया। नरेंद्र कोहली ने राम कथा, कृष्ण कथा, महाभारत कथा और स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित उपन्यास श्रृंखलाओं से साहित्य जगत को अभूतपूर्व रूप से समृद्ध बनाया।
नरेंद्र कोहली जी ने राम कथा पर आधारित 5 उपन्यास लिखे हैं- दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर, युद्ध-1 युद्ध-2। यह सभी उपन्यास स्वतंत्र रूप से प्रकाशित हुए हैं। इसके अलावा दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर इन तीन उपन्यासों का एकीकृत रूप अभ्युदय-1 के नाम से प्रकाशित हुआ तथा युद्ध-1 और युद्ध- 2 का एकीकृत रूप अभ्युदय- 2 के नाम से प्रकाशित हुआ। ये सभी उपन्यास बाद में हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा सात भागों में प्रकाशित हुए-
- दीक्षा
- अवसर
- संघर्ष की ओर
- साक्षात्कार
- पृष्ठभूमि
- अभियान
- युद्ध
राम कथा पर आधारित सात खंडों में ऐसी उपन्यास श्रृंखला है जिसमें अतीत की कथा को वर्तमान संदर्भों में नई दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। दीक्षा में; सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा के लिए, पतन शील समाज के स्थान पर नए समाज की स्थापना के लिए राम की दीक्षा और प्रतिज्ञा की कथा है। इस उपन्यास में विश्वामित्र द्वारा अपने यज्ञ की रक्षा के लिए दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांगने, राम लक्ष्मण द्वारा विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा, ताड़का का वध, सिद्धाश्रम के आसपास के क्षेत्र में राक्षसों के आतंक से मुक्ति, अहिल्या का उद्धार तथा राम के सीता के साथ विवाह की कथा है।
अवसर राम कथा श्रृंखला का दूसरा उपन्यास है जिसमें रूढ़ियों और सड़ी गली मान्यताओं एवं परंपराओं का विरोध किया गया है। राम के माध्यम से नई चेतना का शंख फूंकने और समाज को प्रेरणा देने का प्रयास भी इसमें परिलक्षित होता है। इस उपन्यास में अयोध्या की आंतरिक राजनीति के चलते दशरथ द्वारा राम के राज्याभिषेक की घोषणा, इसके प्रतिरोध में कैकेयी द्वारा शंबर युद्ध में दशरथ की प्राण रक्षा करने के बदले दशरथ द्वारा दिए गए दो वचनों की याद दिलाना, प्रथम वचन में भरत को राजगद्दी और द्वितीय वचन के रूप में राम को चौदह वर्ष का वनवास मांगने की कथा है। तदोपरान्त राम के वन जाने, निषादराज गुह से उनकी भेंट, विभिन्न आश्रमों जैसे; भारद्वाज आश्रम, वाल्मिकी आश्रम आदि से होते हुए चित्रकूट में राम के प्रवास तक की घटनाएं वर्णित हैं।
संघर्ष की ओर राम कथा श्रृंखला का तृतीय उपन्यास है, जिसमें एक ओर अत्रि, शरभंग, सुतीक्ष्ण तथा अगस्त्य आदि ऋषियों से राम की भेंट, उसके बाद राम, सीता, लक्ष्मण का पंचवटी की ओर प्रस्थान आदि परंपरागत घटनाएं हैं; तो दूसरी ओर महाशक्तियों के अत्याचारों से पीड़ित बुद्धिजीवी, खान श्रमिकों का शोषण, कृषकों का भूमि के लिए संघर्ष और इन सब के विरोध में राम द्वारा जन सेना को संगठित किए जाने के आधुनिक प्रसंग भी सम्मिलित हैं। इस उपन्यास में लेखक राम के माध्यम से जनसामान्य की शक्ति में अपना विश्वास प्रकट करते हैं और एक सुखी समाज के लिए समाज के हाशिए पर रह रहे वर्गों के को भी समाज में की मुख्यधारा में सम्मिलित करने का दृष्टिकोण लिए दिखाई देते हैं।
साक्षात्कार राम कथा श्रृंखला का चौथा उपन्यास है, जिसमें शूर्पणखा के षड्यंत्र और सीता हरण को केंद्र में रखा गया है। इस उपन्यास में राम के पंचवटी में प्रवास, जटायु से उनकी भेंट जन स्थान में जनसेना का संगठन, शूर्पणखा के राम के प्रति आकृष्ट होने, उन्हें मोहित करने के प्रयत्नों तथा अंत में असफल होने पर सीता की हत्या करने के प्रयत्न में दंडित होने की घटनायें वर्णित है। इसके प्रतिशोध में खर दूषण के नेतृत्व में राक्षसों के चौदह सहस्त्र सैनिकों की सेना के नष्ट होने तथा जन स्थान पंचवटी में राम द्वारा राक्षसों के अत्याचार को समाप्त करने, शूर्पणखा द्वारा उकसाने पर रावण द्वारा सीता हरण की कथा है। इस उपन्यास में पात्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण तथा कूटनीतिक चक्रों का जीवंत वर्णन हुआ है ।इस उपन्यास खंड में राम कथा के माध्यम से कोहली जी ने लोक कल्याण की वास्तविक पहचान कराई है।
पृष्ठभूमि रामकथा माला का पांचवा क्रम है जिसमें लेखक ने बाली के अत्याचार, सुग्रीव के साथ अनुबंध, राम और सुग्रीव की मैत्री, राम द्वारा बाली के वध आदि प्रसंगों का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। इसमें बाली द्वारा दुंदुभी और मायावी असुरों का वध, बाली का आक्रोश सुग्रीव की पत्नी रूमा का अपहरण, सुग्रीव का राज्याभिषेक आदि घटनाएं वर्णित है। यह मुख्यत: किष्किंधा कांड पर आधारित है। इसमें राम एक जन नायक की तरह उभरकर सामने आए हैं ।
अभियान रामकथा श्रृंखला की छठी प्रस्तुति है; जिसमें लेखक ने सीता की खोज के लिए किए गए संघर्षों का सजीव चित्रण किया है तथा वानर सेना को उसके स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किया है। इस भाग में हनुमान द्वारा सागर संतरण ,लंका में सीता की खोज, लंका दहन, हनुमान रावण संवाद आदि घटनाओं का वर्णन है।
युद्ध राम कथा माला का अंतिम खंड है जिसमें राम रावण युद्ध को न्याय अन्याय का युद्ध घोषित किया गया है। लेखक ने इसे पीड़ित मानव काम अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष कहा है।
स्त्री विमर्श की संकल्पना-
इस्टेल फ्रडमेन के शब्दों में “स्त्री विमर्श वह विश्वास है, जो मानता है कि यद्यपि पुरुष और स्त्री सम महत्व रखते हैं; अधिकांश समाजों में पुरुष को वरीयता दी जाती है, अतः स्त्री पुरुष समानता के लिए सामाजिक आंदोलन जरूरी है क्योंकि लिंग आधारित अंतर अन्य सामाजिक परंपराओं में प्रवेश करता है।“[2] वास्तव में नर और नारी में अंतर होता है, लेकिन स्त्री और पुरुष में कोई अंतर नहीं होता।[3] नर और नारी जैव वैज्ञानिक शब्द है जो शारीरिक संरचना के आधार पर विभिन्न लिंगों में विभेद करते हैं, लेकिन स्त्री और पुरुष मनोसामाजिक शब्द है जो सामाजिक संरचना के आधार पर कुछ कार्यों और स्वभावों को लिंग से संबद्ध कर देते है; जैसे ममता, दया, करूणा, सहृदयता, उदारता, कोमलता आदि स्त्रियोचित गुण मान लिए जाते हैं जबकि ये पुरुषों में भी मिल सकते हैं। इसी प्रकार साहस, पराक्रम, वीरता,कठोरता, उग्रता आदि पुरुषोचित गुण मान लिए जाते हैं जबकि ये स्त्रियों में भी मिल सकते हैं। स्त्री विमर्श मानव होने के नाते, सामाजिक संरचना में स्त्री एवं पुरुषों की समानता का समर्थन करता है।
स्त्री-दृष्टि से साहित्य का पाठ करने पर ज्ञात होता है कि साहित्य में भी स्त्रियाँ कठपुतलियाँ हैं, हाशियाग्रस्त हैं और ‘स्त्रियोचित मूल्यों’ की संवाहक हैं, जबकि मूल्यों को ‘स्त्रियोचित’ विशेषण में बाँधने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि मूल्य मनुष्य के व्यवहार को नियमित करने के लिए हैं, उसे लिंग में बाँट कर ‘छूट’ देने के लिए नहीं।[4] साहित्य में स्त्री विमर्श पितृसत्ता के खिलाफ मुखर होते हुए स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार देने की वकालत करता है, जिससे स्त्रियां अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की पहचान कर पाने में सक्षम हो। भारतीय समाज में अन्याय और शोषण का शिकार बनती हुई स्त्रियों को मुक्ति के लिए साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिंदी साहित्य के उपन्यासों में स्त्रियों से जुड़ी समस्याएं; विशेषकर लैंगिक भेदभाव, स्त्रियों का शोषण, प्रताड़ित स्त्रियों के जीवन के विभिन्न पहलू, स्त्री पुरुष समानता आदि स्त्री उत्थान के लिए मुख्य विषय रहे हैं। मृणाल पांडे के अनुसार; “नारीवाद पुरुषों का नहीं उनकी मानवीयता घटाने वाले उस छद्म मुखौटे का प्रतिकार करता है जो मर्दानगी के नाम पर गढ़ा गया है और जिसके पीछे झूठी अहम्मन्यता और उत्पीड़क प्रवृत्ति के अलावा और कुछ भी नहीं है।“ इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्त्री विमर्श अपने अधिकारों की पैरवी करता है, यह पुरुषों का नहीं बल्कि पशुता की उस बढ़ी हुई सीमा का विरोध करता है जो स्त्रियों का दमन करती है।
राम कथा में स्त्री चरित्र-
नरेंद्र कोहली स्त्री विमर्श को अलग से मान्यता नहीं देते, लेकिन रचना करते समय स्त्री चरित्रों के मन में बैठकर परकाया प्रवेश की तरह वे उनकी पीड़ा और उनके मुद्दों को संवेदनात्मक धरातल पर प्रस्तुत करते हैं और इस प्रकार अलग से स्त्री विमर्श ना करते हुए भी स्त्री विमर्श के तमाम सारे मुद्दे उनकी रचनाओं में उभर कर आते हैं। नरेंद्र कोहली जी ने अपनी रामकथा में पौराणिक स्त्री पात्रों के माध्यम से स्त्री विमर्श के विविध मुद्दों को उठाने की कोशिश की है। उनकी राम कथा में भारतीय समाज के ढांचे को ध्यान में रखते हुए स्त्री पुरुष समानता स्त्री पुरुषों के समान अधिकारों को मान्यता दी गई है। स्त्री विमर्श के संदर्भों की दृष्टि से नरेंद्र कोहली की रामकथा को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं; प्रथम,चार भागों में (दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर, साक्षात्कार), रावण द्वारा सीता के अपहरण होने तक स्त्रियों से संबंधित मुद्दे बहुतायत से उठाए गए हैं। द्वितीय, उत्तरार्ध के भाग (पृष्ठभूमि, अभियान, युद्ध) जिनमें सीता की खोज तथा युद्ध वर्णन अधिक होने के कारण कथा में स्त्री विमर्श के संदर्भ कम हैं और राम कथा प्रमुख हो उठती है।
इस प्रकार रामकथा में जहां मानवों और राक्षसों का युद्ध है, स्त्री विमर्श की एक समानांतर धारा चलती दिखाई देती है। यद्यपि पारंपरिक रामकथा पितृसत्ता का प्रतिनिधित्व करती है तथापि नरेंद्र कोहली की राम कथा में स्त्री मात्र के प्रति करुणा और सद्भावना दिखाई गई है और उसके शक्ति रूप की परिकल्पना की गई है। नरेंद्र कोहली की राम कथा के नारी चरित्र हमारे समाज के विभिन्न वर्गों की नारियों के प्रतिनिधित्व करते हैं। ये स्त्री पात्र पारंपरिक रामकथा के आदर्शों से ग्रस्त, कोमल, धर्मभीरु, लज्जाशील, करुणा, त्याग की भावना से परिपूर्ण देवी की मूर्तियां नहीं वरन हमारे समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करती सामान्य सी स्त्रियां मात्र हैं। ये वे आम स्त्रियां हैं जिनके विषय में पढ़ते हुए हमें अनायास ही ऐसा लगता है कि ऐसी स्त्रियां तो हमने अपने आस-पड़ोस घर परिवार तथा समाज में देखी हैं।
राजा दशरथ की तीन रानियों के रूप में कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा का वर्णन है। ये तीनों स्त्री चरित्र तीन विभिन्न समाजों की विभिन्न स्वभाव की स्त्रियों को दर्शाते हैं। कौशल्या मानव वंश में पितृसत्ता की चरम परिणिति वाले समाज में पली-बढ़ी नारी के रूप में वर्णित है।
…वे जानती थी मानव वंश में नारी पूर्णतः पति के अधीन है। उसका कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं है। यह वंश समाज में पितृसत्ता को उसकी पराकाष्ठा तक ले गया था।… वे व्यक्ति नहीं थी, वे उस वंश की पुत्र-वधू थी और उन्हें वहीं रहना था। परिवार के लिए, उसकी सुख सुविधा के लिए, उन्हें अपने व्यक्तित्व का बलिदान करना था। और कौशल्या ने वही किया था।… वे दरबार के विशिष्ट उत्सवों में साम्राज्ञी थी; राज्य की उत्तराधिकारी की मां थी; रघुवंश की वधु भी थी; किंतु ना तो वे दशरथ की कांता थी, ना प्रेमिका और न संगिनी।[5]
इस प्रकार कौशल्या ऐसी नारी है जिसने परिवार के मान सम्मान के लिए अपने अस्तित्व को शून्य कर लिया है। वे दशरथ की उपेक्षित पत्नी है, जिनका विवाह उनके ससुर अज की इच्छा से हुआ था। हमारे समाज में आज भी ऐसी महिलाएं मिल जाती हैं जिनका विवाह परिवार के बड़े बुजुर्गों द्वारा तय कर दिया जाता है; लेकिन उनके पति ना तो उनका सम्मान करते हैं और ना ही उनसे प्रेम करते हैं। समाज की दृष्टि में विवाहिता होती हैं और ऊपरी तौर पर देखने पर उनका जीवन सुखी और संपूर्ण दिखाई पड़ता है, दाम्पत्य जीवन के प्रवाह में वे संतान भी उत्पन्न कर लेती हैं, लेकिन उनका जीवन प्रेम से शून्य होता है। पितृसत्ता की भेंट चढ़े प्रेम तथा अधिकार से रहित जीवन की दुखदाई स्थिति को कोहली जी ने बड़ी मार्मिकता से वर्णित किया है। कौशल्या के चरित्र के माध्यम से पितृसत्ता के षड्यंत्र की शिकार उन महिलाओं का चित्रण किया गया है; जिनका बचपन पिता के, यौवन पति के तथा बुढ़ापा पुत्र के संरक्षण में बीत जाता है। इनकी स्वयं की कोई आकांक्षा, कोई व्यक्तित्व नहीं होता है वे परिवार में एक शोभा की वस्तु के समान आती हैं और निरुद्देश्य अपना जीवन व्यतीत कर चली जाती हैं।
दशरथ की द्वितीय रानी सुमित्रा आत्मविश्वासी, दृढ, करुण, तेजस्विनी, उग्र, निष्पाप क्षत्राणी के रूप में चित्रित हैं वे एक आदर्श भारतीय नारी का प्रतीक है। दशरथ की सैन्य शक्ति से भयभीत होकर सुमित्रा के पिता ने उनका विवाह दशरथ के साथ कर दिया था, लेकिन सुमित्रा ने पहले दिन ही दशरथ को स्पष्ट रूप से कह दिया कि एक पत्नी और पुत्र के रहते हुए दशरथ का पुनर्विवाह करना उन्हें एकदम पसंद नहीं था।
सुमित्रा सदा ही अन्याय का विरोध करती रही। वह पत्नी तथा कुलवधू की मर्यादा को मानकर चलती रही किंतु रही सदा निडर सिंहनी के समान।[6]
कैकेयी ने अपनी देश की रक्षा के लिए स्वयं से अधिक आयु के व्यक्ति से विवाह किया; किंतु अपने स्वच्छंद व्यक्तित्व के कारण पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री विरोधी मान्यताओं के विरुद्ध विद्रोह करती रही।
कैकेयी साधारण कोमल एवं भीरू राजकुमारी नहीं थी। वह असाधारण थी- हठीली, उग्र तेजस्विनी, महत्वाकांक्षिणी तथा असाधारण सुंदरी। उसने कहा था, वह समाज की भलाई के लिए, देश के कल्याण के लिए, अपने परिवार की रक्षा के लिए, राष्ट्र के सुख के लिए सब कुछ त्याग सकती हैं- मान! सम्मान!! वह अपने प्राण दे सकती हैं। वह कठिन से कठिन दुख उठा सकती हैं।[7]
नरेंद्र कोहली की राम कथा में सीता अज्ञात कुलशीला, भूमिपुत्री के रूप में चित्रित की गई हैं। वे जनक को खेत की मिट्टी पर पड़ी हुई मिली थी, जिसके माता-पिता का कोई पता नहीं था। जनक ने उन्हें पहले राजाश्रय में लिया और अंततः गोद ले लिया। पितृसत्तात्मक समाज में पुत्री का पालन कितना कष्टदाई होता है यह जनक और सीता के संबंधों से पता चलता है। अज्ञात कुल शीला होने के कारण सीता को कोई भी योग्य वर स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं था। ऐसे में अपनी प्रिय पालित पुत्री के लिए उचित वर ना खोज पाने की लांछना से बचने के लिए जनक ने उन्हें वीर्यशुल्का घोषित कर दिया। अज्ञात कुलशीला होने का दंश सहती सीता अत्यंत संवेदनशील नारी के रूप में वर्णित हैं। वे समाज को एक नई दिशा देना चाहती हैं।
… सीता किसी राजभवन में पलंग पर बैठकर, दास दासियों से सेवा करवा, दिन-रात पान चबाना अपने जीवन का लक्ष्य नहीं मानती।… सीता संतान उत्पन्न करने के यंत्र के रूप में किसी राजपरिवार में उपयोगी सिद्ध होना नहीं चाहती…।[8]
सीता आधुनिक नारी का प्रतिनिधित्व करती हैं जो समाज की सड़ी गली मान्यताओं का विरोध करती है और पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहती हैं।
इन प्रमुख पात्रों के अतिरिक्त कोहली जी की राम कथा में अहिल्या, अनुसूइया, लोपामुद्रा, शूर्पणखा, मंदोदरी, वनजा, सुमेधा आदि अन्य स्त्री पात्र आते हैं जो समाज की विभिन्न वर्गों की स्त्रियों और उनकी समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं।
राम-कथा में स्त्री विमर्श के बिंदु-
कोहली के उपन्यास में अधिकांश स्त्री पात्र अलग-अलग प्रकारों से अपने अपने समाज में पीड़ित हैं। पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष अपने शक्ति एवं पुरुष का प्रदर्शन करने हेतु महिलाओं पर अत्याचार करते हैं; यह अत्याचार मानसिक ही हो सकता है और शारीरिक भी। आदिम काल में स्त्री को पुरुष के समान माना जाता था, जननी शक्ति होने के कारण उसकी पूजा भी की जाती थी, किंतु धीरे-धीरे यह व्यवस्था बदलती गई। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ समाज पितृसत्तात्मक होता गया और समाज में नारी का स्थान उपभोग की वस्तु मात्र रह गया। नारी को संपत्ति तथा पशुधन के समकक्ष मानकर उसका क्रय विक्रय भी किया जाने लगा। स्त्री को मानव ना मानकर भोग की वस्तु मानने की मानसिकता पुरुष को स्त्री पर अत्याचार करने के लिए प्रेरित करती है। अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए, स्त्री की असहमति को सहमति में परिवर्तित करने के लिए और कभी-कभी तो मात्र स्वयं के पाशविक आनंद के लिए पुरुष स्त्री पर हिंसा का प्रयोग करता है। कोहली जी की राम कथा में ऐसी पाशविक हिंसा के कई दृश्य सामने आते हैं- प्रथमतः सिद्धाश्रम में वनजा के माध्यम से कोहली जी एक बलात्कार पीड़िता का दर्द सामने रखते हैं, जो राक्षसों द्वारा अपहृत की गई थी तथा किसी राक्षस का गर्भ वाहन कर रही थी। वह स्वयं पीड़ित थी लेकिन समाज उसे अपनाने से अस्वीकार करता है क्योंकि समाज की दृष्टि में वह पतित हो चुकी थी।
अहिल्या के शीलभंग का प्रसंग बलात्कार की पीड़ा को संवेदनात्मक धरातल पर और भी गहराई महसूस करवाता है। किसी स्त्री की सहमति के बिना पशु बल से उसके भोग को अमानुषिक कृत्य मानते हुए भी समाज में बलात्कार के कृत्य को जिस पुरुषवादी नजरिए से देखा जाता है उसे सूक्ष्मता के साथ इस कथा में वर्णित किया गया है। इंद्र अहिल्या का बलात्कार करता है लेकिन पकड़े जाने पर अहिल्या पल पर ही लांछन लगा देता है-
…. पहले तो स्वयं बुला लिया और अब नाटक कर रही है।… यदि एक स्त्री पर पुरुष को काम आह्वान देती है, और पुरुष उसे स्वीकार कर उसके पास आता है, तो समाज उसके लिए स्त्री को ही दोषी ठहराया… इंद्र ने ऐसी ही चाल चली है। अहिल्या को लांछित कर वह अपने आतिथेय ऋषि की पत्नी के साथ बलात्कार जैसे गंभीर अपराध तथा पाप को छिपा जाना चाहता है…।… दोष किसी का भी हो किंतु वह पतित हो चुकी थी। उसका उद्धार नहीं हो सकता था-इंद्र को दंडित किया जाए अथवा ना किया जाए।[9]
आज भी हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति होने वाले यौन अपराधों; जैसे- छेड़खानी, यौन उत्पीड़न, तथा बलात्कार के लिए प्रथम दृष्टया पीड़िता के चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगा कर उसे ही दोषी सिद्ध करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यह पितृसत्ता का षड्यंत्र ही है कि समाज स्त्री की अस्मिता को उसके सतीत्व तक ही सीमित कर देना चाहता है, ऐसा करके स्त्री को एक उपभोग की वस्तु के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। सतीत्व के ऐसे संस्कार पीढ़ियों से दिए जाते हैं जिसके प्रभाववश समाज अपराधी को दंडित करने की बजाय पीड़ित को ही प्रताड़ित करने में गर्व महसूस करता है। दोषी पुरुष अपने अपराध के बावजूद निर्दोष मान लिया जाता है और पीड़िता निर्दोष होते हुए भी समाज बहिष्कृत होकर अहिल्या की भांति पाषाणवत जीवन जीती है। अहिल्या के माध्यम से कोहली जी ने पितृसत्तात्मक समाज की उस विद्रूपता को उजागर किया है जहां पुरुष हमेशा सही होता है और स्त्री गलत।
स्त्रियों के प्रति यौनिक अत्याचार उनके पहनावे, उम्र अथवा शारीरिक बनावट पर निर्भर नहीं करते बल्कि ये अत्याचार विकृत मानसिकता से परिचालित होते हैं। आज भी हम प्रायः ही छोटी-छोटी बच्चियों से लेकर वृद्धओं तक के साथ बलात्कार के मामलों के बारे में समाचार सुनते रहते हैं। बिहार के बस्तर में ऐसी ही घटना हुई थी, जहां बहुत धनी जमींदार के बेटों ने केवटों के गांव में जाकर शराब पीकर दंगा फसाद किया और उनसे कहा कि अपनी बहू बेटियों को उनके हवाले कर दें; और यह भी कहा कि यह होती ही किसके लिए हैं? जब इसका विरोध किया गया तो उन्होंने उन लोगों को बांध कर लोहे की सलाखों से उनके शरीर दाग दिए। हालत यह हो गई कि भय के मारे किसी डॉक्टर ने उनका इलाज नहीं किया और थाने में रिपोर्ट भी नहीं की गई।
ऐसी घटना से प्रेरित होकर कोहली जी ने अपने उपन्यास दीक्षा में केवटों के गांव का प्रसंग डाला है, जहां अयोध्या के सेनापति का बेटा जाकर गहन नामक केवट पर अत्याचार करता है, उसकी पत्नी, पुत्रवधूओं तथा पुत्री का बलात्कार करता है और इस घटनाक्रम में गहन की दस वर्षीय पुत्री और वृद्धा पत्नी की मृत्यु हो जाती है। लेकिन कोहली जी की राम कथा में ऐसे घृणित अपराध के लिए अपराधी छूटते नहीं है बल्कि राम द्वारा उन्हें मृत्यु दंड दिया जाता है।
समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मूल में पूंजीवाद है, पूंजीवाद पितृसत्ता में घरेलू हिंसा को बढ़ावा देता है। उत्पादन के साधनों पर वर्ग विशेष का नियंत्रण एक श्रृंखला के रूप में शोषण को जन्म देता है- पूंजीपति, श्रमिकों का शोषण करते हैं; पितृप्रधान व्यवस्था में पुरुष प्रधान होने के कारण घर के आर्थिक संसाधनों पर पुरुषों का वर्चस्व होता है; मालिकों द्वारा शोषण होने पर गृहस्वामी पुरुष अपने स्वामित्व भाव की पुष्टि के लिए घर पर अपने आश्रितों; विशिष्टतया स्त्रियों पर अत्याचार करता है और उनका शोषण करता है। इस प्रकार सहज सुखी दांपत्य जीवन के स्थान पर घरेलू हिंसा से ग्रस्त नारकीय जीवन श्रमिकों एवं मजदूरों के यहां सामान्य सी बात माने जाने लगती है। कोहली जी ने इस घरेलू हिंसा के वातावरण का अत्यंत भयावह पर वास्तविक दृश्य दिखाया है-
जिस समय राम और सीता के पग झोपड़ी के द्वार पर रुके, भीतर उसी प्रकार की धुआंधार लड़ाई चल रही थी। लगता था इस बीच कई बार पुरुष का हाथ चल चुका था। स्त्री अनेक बार मार खाकर अपना धैर्य खो चुकी थी और अब अपनी सहायता के लिए पड़ोसियों को पुकार रही थी। किंतु आसपास किसी भी झोपड़ी के जीवन पर इस चीत्कार का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। सारे काम दैनिक क्रम के समान ही चल रहे थे। सहायता के लिए लगाई गई स्त्री की गुहार जैसे उनके कानों तक पहुंच ही नहीं रही थी।[10]
लेकिन कोहली जी केवल समस्या की ओर निर्देशित करके शांत नहीं बैठ जाते। दंडक वन में राम संसाधनों का समाजवादी ढंग से सामूहिक वितरण करते हैं जिससे सामाजिक समता आ सके। सामाजिक विषमता में शोषण के अंतिम सोपान पर शिकार स्त्रियां ही होती हैं; राम इस सामाजिक असमानता को समाप्त कर स्त्रियों को सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। दंडक वन में एक वनवासिनी सुधा द्वारा समाज में स्त्री और पुरुष की समानता के बारे में राम से प्रश्न पूछा जाता है, वह राम से पूछती है कि समाज में स्त्री और पुरुष बराबर है या नहीं? इस पर राम का उत्तर महत्वपूर्ण है-
“… क्या एक स्त्री और एक पुरुष की दिनचर्या यह सिद्ध नहीं कर देती कि दोनों समान रूप से समाज के लिए उपयोगी और सार्थक कार्य करते हैं। इसलिए समाज में दोनों का महत्व, सम्मान, अधिकार, दायित्व सब कुछ सामान है।… मैं उन समस्त भेदों का विरोधी हूं, जो एक मानव को दूसरे के शोषण का अधिकार देते हैं। स्त्रियों और पुरुषों के लिए घर और बाहर के कार्य का यह विभाजन भी सर्वथा कृत्रिम है। नए समाज के निर्माण के साथ इसे भी बदलना चाहिए- स्त्री पुरुष दोनों मिलकर घर का काम करें और दोनों ही बाहर का काम करें।“[11]
इस प्रकार में समाज में स्त्री पुरुष की समानता को प्रतिष्ठित करते हैं। समाज में स्त्री के शोषण का मूल आधार ही यह है कि स्त्री को गौण और उसके द्वारा किए गए जाने वाले कार्यों को महत्वहीन समझा जाता है। कोहली जी की रामकथा इस विकृत मानसिकता का विरोध करती है।
अक्सर ही समाज में लड़कियों से कहा जाता है कि वे लड़कों की बराबरी ना करें या पत्नी को सलाह दी जाती है कि वह अपने पति की सेवा करें, उसकी समानता ना करें। किंतु इस रामकथा में राम के वन अभियान में सीता के साथ रहने की प्रशंसा करते हुए भगवती लोपामुद्रा कहती हैं-
“… मुझे तो लगने लगा था कि पति के अभियान में साथ चल पड़ने वाली स्त्रियां जैसे अब रही ही नहीं।… पति युद्ध में जूझ रहा हो, तो या तो पत्नी भी शस्त्र उठाकर जूझे या फिर आहतों का उपचार करे।“[12]
इस प्रकार दांपत्य जीवन में भी स्त्री पुरुष समानता को प्रतिष्ठित करती यह रामकथा भारतीय जन भावना के अनुकूल नारी विमर्श को प्रतिष्ठित करती है।
समाज की एक विडंबना यह भी है; क्योंकि स्त्री शरीर संतानोत्पत्ति में सक्षम होता है अतः स्त्रियों को संतान उत्पन्न करने का यंत्र मात्र मान लिया जाता है। उनके जीवन की संपूर्ण सार्थकता केवल मां बन जाने में ही मानी जाती हैं। इसके अभाव में समाज में उनके किसी भी योगदान को ना तो सराहा जाता है और ना ही उन्हें सम्मान दिया जाता है। इस रामकथा में सीता स्वयं संतान सुख से वंचित हो ताने उलाहने सुनकर भी समाज सेवा कर स्वयं को समाज के लिए उपयोगी सिद्ध करना चाहती हैं। विवाह के चार वर्ष पश्चात भी संतान उत्पन्न करने के कारण सीता, कुलवृद्धओं द्वारा बंध्या होने का आक्षेप झेलती रहती हैं। राम द्वारा उनके जीवन में संतान का महत्व पूछे जाने पर वह बहुत ही संतुलित उत्तर देती हैं-
“ तुम्हारे जीवन में संतान का कोई महत्व नहीं है?”
“ है, पर इतना नहीं कि अपने जीवन का सारा ताना-बाना उसी को केंद्र में रखकर बुनूं।“[13]
उपसंहार-
नरेंद्र कोहली एक ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने पौराणिक कथा वस्तु को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। उन्होंने सर्वप्रथम राम कथा के माध्यम से आधुनिक समस्याओं को सर्वथा नवीन दृष्टिकोण से पाठक वर्ग के सामने रखा। इस नवीन रामकथा में समाज के बदलते परिवेश की विभिन्न राजनीतिक, धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक समस्यओं के साथ ही स्त्री विमर्श के विविध मुद्दे उठाए गए हैं। समाज में स्त्री के दोयम दर्जे की स्थिति, उन पर किए जाने वाले लैंगिक अत्याचार, मानसिक अत्याचार, बलात्कार, घरेलू हिंसा आदि राम कथा में समाजवादी-मार्क्सवादी स्त्रीवाद के स्वर में प्रकट होते दिखाई देते हैं।
रामकथा भारतीय जन जीवन का अभिन्न अंग रही है। राम सीता की जोड़ी दांपत्य जीवन में पति-पत्नी का आदर्श मानी जाती है। यह नवीन रामकथा दांपत्य जीवन में पुरुष की प्रधानता का खंडन करते हुए स्त्री-पुरुष समभाव को स्थापित करती है। सीता, राम की सेविका या अनुगामिनी नहीं ; मित्र व सहचरणी हैं। वे बुद्धिमती, आत्मविश्वासी, साहसी, योद्धा हैं और एक आधुनिक नारी का प्रतिनिधित्व करती हैं। वहीं राम भी उदात्त चरित्र के आधुनिक पुरुष हैं। उन्होंने सीता को केवल वचन में ही नहीं अपितु कर्म में भी सहधर्मिणी माना है। पारंपरिक राम कथा के नायक ‘राम’ की भांति इस आधुनिक राम कथा के नायक ‘राम’, सीता की अग्नि परीक्षा नहीं लेते वरन् इस आशंका के बावजूद कि रावण उनका बलात्कार कर चुका होगा; सीता को मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
‘तुमने एक बार भी नहीं सोचा, राम! कि रावण मेरे साथ बलात्कार कर सकता है। मैं पतित् भ्रष्ट और तुम्हारे अयोग्य हो सकती हूं?’
‘मेरे मन में पूर्ण निश्चय था कि रावण बलात्कार करेगा ही।‘राम बोले, ’इस बात की तो मैंने कल्पना भी नहीं कर सकता था कि तुम पर यह विपदा नहीं आएगी।‘
‘फिर भी तुम मुझे प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे?’ सीता गंभीर थी।
… ‘सतीत्व मन से होता है, मेरी प्रियतमा! शरीर से नहीं। किसी व्यक्ति को घाव लग जाए, उसकी भुजा या टांग कट जाए तो वह पतित या चरित्रहीन नहीं हो जाता।‘[14]
इस प्रकार राम स्त्री शरीर को भोग की वस्तु ना मानते हुए सतीत्व के परंपरागत रूढ आदर्शों को नकार देते हैं। बलात्कार पीड़ितों को निर्दोष मन से जीवन आरंभ करने का संदेश देती इस रामकथा ने भले ही परंपरागत मिथकीय प्रतिमानों का संवहन ना किया हो और पारम्परिक राम कथा से विचलन के लक्षण प्रस्तुत करती हो पर संवेदना के स्तर पर यह स्त्री विमर्श की दृष्टि से सफल सिद्ध हुई है। नरेंद्र कोहली द्वारा रचित यह रामकथा लोक मंगल की भावना से परिपूर्ण है लेकिन इस रामकथा के लोक में स्त्रियों और पुरुषों का समान स्थान है।
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संदर्भ ग्रंथ सूची-
आधार ग्रंथ-
- दीक्षा
- अवसर
- संघर्ष की ओर
- पृष्ठभूमि
- युद्ध
- अभियान
- अभ्युदय खंड-1
- अभ्युदय खंड-2
सहायक ग्रंथ-
- मनोरमा मिश्र, मिथकीय चेतना-समकालीन संदर्भ
- रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास
सहायक लेख-
- साहित्य की स्त्री दृष्टि – रोहिणी अग्रवाल
- नवजागरण के स्त्री मुक्ति के प्रयासों की राह में ‘अभ्युदय’ उपन्यास
-रेखा रानी
सहायक पत्र पत्रिकाएं-
- साक्षात्कार, नरेंद्र कोहली के साथ डॉ. कलानाथ मिश्र की बातचीत,
साहित्य यात्रा, वर्ष-1, अंक-4, जनवरी-मार्च, 2015
स्वतःउदघोषणा– उपरोक्त साहित्य समीक्षा मौलिक शोध कार्य है। इसमें उद्धरणों तथा उद्धृत अंशों का यथाशक्ति, यथास्थान उल्लेख किया गया है।
[1] मिथकीय चेतना; समीक्षा संदर्भ, मनोरमा मिश्र, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,2007 पृष्ठ साथ संख्या 7
[2] Feminism is a belief that although women and men are inherently of equal worth, most ties privilege men as a group. As a result, social movements are necessary to achieve political equality between women and men, with the understanding that gender always intersects with other social hierarchies.
[3] नर-male, नारी-female, स्त्री-woman, पुरुष-man
[4] साहित्य की स्त्री दृष्टि- रोहिणी अग्रवाल
[5] दीक्षा, नरेंद्र कोहली, हिंद पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, 2004, पृष्ठ संख्या- 26, 27
[6] वही; पृष्ठ सं-27
[7] वही; पृष्ठ सं-28
[8] वही; पृष्ठ सं-170
[9] वही; पृष्ठ सं-110,114
[10] संघर्ष की ओर, नरेंद्र कोहली, पराग प्रकाशन, दिल्ली 1983, पृष्ठ सं-47
[11] वही, पृष्ठ सं-173,174
[12] वही, पृष्ठ सं-264
[13] अवसर, नरेंद्र कोहली, हिंद पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, 2004, पृष्ठ सं-30
[14] अभ्युदय खंड-2, नरेंद्र कोहली, पराग प्रकाशन, नई दिल्ली, 1994, पृष्ठ संख्या- 625, 626।