प्रतिभा

साहित्य के आदि चरित्र और भारतीय संस्कृति के प्रतीक पुरुष के रूप में राम प्रत्येक देश, काल व परिस्थिति में आदर्श नायक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। धर्म और अधर्म के युद्ध में अधर्म को पराजित करने वाला नायक नि:संदेह जन-जन के साथ कवि का भी प्रिय रहा। भारत में सभी युगों में राम पर सभी भाषाओं में विपुल साहित्य रचा गया। वाल्मीकि के आदि काव्य से लेकर तुलसी के राम तक सदैव साधारण जन ने मर्यादा पुरुषोत्तम को आदर्श और आराध्य के रूप में स्वीकारा। आधुनिक काल में व्यक्ति की स्वाधीन चेतना ने मनुष्य के महत्व को सर्वोच्च माना व पौराणिक पात्रों को मानवीय धरातल पर उतारा, किंतु सद्वृत्ति और असद्वृत्तियों का संघर्ष शाश्वत है।

आधुनिक मनुष्य भी निराशा और पराजय से घिरकर आशा की कामना करता है, जीवन संघर्ष में जय चाहता है। इसी आधुनिक मनुष्य के संघर्ष को अत्यंत सूक्ष्मता से ‘निराला’ चित्रित करते हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ आधुनिक युग के सर्वाधिक मौलिक प्रतिभा संपन्न कवि है। संघर्ष और अंतर्द्वंद उनके साहित्य ही नहीं, जीवन में भी विद्यमान था। अपनी मौलिक सृजनात्मक क्षमता द्वारा ‘निराला’ राम को आधुनिक मनुष्य के धरातल पर प्रस्तुत करते हैं। अपनी ‘राम की शक्तिपूजा’ नामक लंबी कविता को उन्होंने महाकाव्य की उदात्तता व नाट्यता दोनों तत्वों से सुसज्जित कर एक विराट चित्र खींचा है। इसमें उन्होंने मनोविज्ञान के अनेक सूक्ष्म स्तरों को गूंथा है।

‘निराला’ के राम में आधुनिक मनुष्य का संशय, निराशा व पीड़ा उभरकर आती है, अधिकांशतः स्वयं निराला की भी। साथ ही राम-रावण युद्ध में राम की हताश मनोदशा समकालीन राष्ट्रीय दशा से तुलनीय भी है। रावण के पक्ष में शक्ति का होना, निरंकुश और अत्याचारी सत्ता की अपरिमित शक्ति को रेखांकित करता है, तो ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ का संदेश इस सारी असहाय व हताश परिस्थिति में आशा का संचार करता है। ‘निराला’के साहित्य में राम अपनी अलौकिकता त्यागकर आए हैं। वे मर्यादा पुरुषोत्तम रहे हैं, यहाँ भी ‘पुरुषोत्तम नवीन’ कहकर ‘निराला’ उन्हें नवयुग के मनुष्य से जोड़ देते हैं। पौराणिक राम भी अधर्म के अंधकार का छेदन करते हैं व ‘निराला’ के नवयुग के राम भी समस्त संशयों व निराशा का छेदन कर शक्ति का संधान करते हैं। ‘निराला’ के राम आधुनिक मनुष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं।

शोध पत्र:

राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है,

कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।

मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ अत्यंत सहजता व सार्थकता के साथ श्रीराम के स्वरूप का उद्घाटन करती है। भारतीय मनीषा प्रत्येक युग में जब-जब भी एक नायक को ढूँढती है, मुड़-मुड़ कर उनकी दृष्टि श्रीराम तक जाती है। आधुनिक काल के अत्यंत ओजस्वी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने भी श्रीराम में उसी नायक को प्राप्त किया, जो उन्हें अपने युग और परिस्थितियों के सर्वाधिक अनुकूल लगा। ‘निराला’ कृत ‘राम की शक्तिपूजा’ में विशेष रुप से श्रीराम का वर्णन हुआ है। इसके अतिरिक्त ‘पंचवटी प्रसंग’ नामक कविता में भी राम आते हैं। अतः निराला के साहित्य में राम का स्वरूप इन रचनाओं के माध्यम से जाना जा सकता है।

‘राम की शक्तिपूजा’ ‘निराला’ द्वारा 1936 में लिखित एक लंबी कविता है, जो महाकाव्योचित औदात्य से परिपूर्ण है। ‘राम की शक्तिपूजा’ का मूल स्त्रोत कृतिवास कृत ‘बांग्ला रामायण’ है। ‘देवी भागवत’ में भी राम की शक्तिपूजा का उल्लेख मिलता है, किंतु इसके बाद भी ‘निराला’ कृत ‘राम की शक्तिपूजा’ में पर्याप्त मौलिकता है। यह मौलिकता ‘निराला’ की सर्जनात्मक उपलब्धि है। अपनी विशिष्ट भाषा, शिल्प व छंद योजना के रूप में यह हिंदी की अपने जैसी एकमात्र लंबी कविता है। ‘निराला’ ने इसमें शक्तिपूजा नामक मौलिक शब्द का प्रयोग किया है।

‘राम की शक्तिपूजा’ में राम के आगमन दृश्य में राम का स्वरूप चित्रित करते हुए ‘निराला’ कहते हैं-

रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण

श्लथ धनु-गुण है, कटि-बंध त्रस्त-तूणीर-धरण

दृढ़ जटा-मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल

फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल

उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशांधकार;

चमकती दूर ताराएँ त्यों हो कहीं पार।1

स्पष्ट है दिन में युद्ध में अपेक्षित सफलता न मिलने पर वानर सेना के समान ही राम भी शिथिल हैं। यह शिथिलता ना केवल राम की वेशभूषा में है, बल्कि उनके मन में भी है, किंतु साथ ही नक्षत्रों के समान उनके नयन धुंधली आशाओं का आभास भी दे रहे हैं। राम के वेश को निराला जी ने एक अन्य स्थान पर भी चित्रित किया है। यहाँ युद्ध की हलचल नहीं है। राम शक्ति की आराधना कर रहे हैं-

हैं नहीं शरासन आज हस्त-तूणीर स्कंध

वह नहीं सोहता निबीड़-जटा-दृढ़ मुकुट-बंध;

सुन पड़ता सिंहनाद को रण-कोलाहल अपार,

उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी है ध्यान धार;2

युद्ध की पृष्ठभूमि में भी राम का यह साधक के समान स्थिर और ध्यानस्थ स्वरूप राम के स्थिर स्वभाव का परिचायक है।

‘राम की शक्तिपूजा’ को रामस्वरूप चतुर्वेदी ने ‘शक्तिकाव्य’ की संज्ञा दी है- ‘पुनर्जागरण के बंगला मनीषी रामकृष्ण देव, विवेकानंद और रवींद्रनाथ से प्रेरणा लेकर ‘निराला’ साहित्यिक रचनात्मक ऊर्जा में अपनी गुरु परंपरा से आगे निकल जाते हैं। दुर्गा पूजा के देश बंगाल में शक्ति आराधना पर वैसी ऊर्जस्वित रचना नहीं लिखी गई, जैसी ‘राम की शक्तिपूजा’ है।’3 यह वास्तव में शक्तिकाव्य ही है। कविता का मूल भाव शक्ति का संधान करना ही है।

‘निराला’ की इस कृति में राम के द्वारा तत्कालीन विषम परिस्थितियों से जूझ रहे राष्ट्र में अपराजय भाव को भरते हैं। दुर्दांत शक्तिसंपन्न, अत्याचारी सत्ता के विरुद्ध विजय प्राप्त करना सरल नहीं था। पराजित मन को निराशा घेरती है। वैसे ही निराशा राम को भी घेरती है। स्थिरचित्त राम को भी रावण के जय की आशंका विचलित कर देती है-

स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर फिर संशय

रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय भय।4

वही राम जिनका हृदय शत्रुओं का दमन करते करते कभी क्लांत नहीं हुआ, स्वयं को पराजित और असमर्थ मान कर व्याकुल थे। किंतु इस हताशा का भी कारण था। राम जान गए थे कि यह मात्र नर-वानर का युद्ध नहीं रहा क्योंकि स्वयं महाशक्ति रावण के पक्ष में आ गई हैं। उनकी व्याकुलता का कारण है- ‘अन्याय जिधर है उधर शक्ति।’ महाशक्ति के अंक में सुरक्षित रावण न केवल भयानक युद्ध कर वानर सेना को त्रस्त कर रहा है, बल्कि राम महाशक्ति के सम्मुख स्वयं भी स्तब्ध है, युद्ध में असमर्थ है। यह विवशता राम को पीड़ा से अत्यंत भर देती है। उनकी चिंता का कारण है- ‘जानकी हाय उद्धार प्रिया का हो न सका।’ इस पीड़ा में भी ‘निराला’ अपने युग की पीड़ा को भरते हैं। वह पीड़ा जहाँ सीता के समान भारतमाता भी परतंत्र है। ‘ ‘निराला’ की सृजनात्मक प्रतिभा में ढलकर वाल्मीकि और तुलसी के राम आधुनिक स्वतंत्रता संग्राम के संवेदनशील मानव के रूप में मूर्तिमान हो उठे हैं।’5 अतः ‘निराला’ के राम निराशा में भी डूबते हैं। इस बिंदु पर वे अपनी अलौकिक छवि को त्याग कर लौकिक धरातल पर उतरते हैं। सामान्य मानव के समान चिंतित होते हैं। यह सोचकर उद्विग्न होते हैं कि रावण के अधर्म में रत होने पर भी शक्ति उसकी सहायक हैं। यह स्थिति पौराणिक कथा को युगीन परिस्थितियों से जोड़ती है। राम संघर्षशील मानव का प्रतिनिधित्व करते हैं।

‘निराला’ ने इस संघर्षपूर्ण और विषम परिस्थिति में राम के प्रेरक के रूप में सीता को प्रस्तुत किया है। पीड़ा से छल-छल नेत्रों सहित राम की मार्मिक स्थिति होने पर राम के सम्मुख जनक के उपवन में सीता से मिलन का प्रथम दृश्य उपस्थित हो जाता है-

ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत

जागी पृथ्वी-तनय-कुमारिका-छवि अच्युत

देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन

विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतांतराल मिलन….

ज्योति प्रपात स्वर्गीय, -ज्ञात छवि प्रथम स्वीय

जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कंपन तुरीय।6

जीवन के गहन अंधकार में जैसे ज्योति प्रपात उपस्थित हो गया। रावण से युद्ध में घिरे हुए और पराजय से आशंकित मन वाले राम के नेत्रों में तब भी सर्वप्रथम सीता की छवि ही उभरती है- ‘लख शंकाकुल हो गए अतुल बल शेष-शयन; खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन।’ रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं- ‘जीवन के चरम अंधकार के क्षण में जो सर्वाधिक आलोक के समय को स्मरण करना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जितना उपयुक्त है, काव्य में रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से उतना ही कठिन।… वर्तमान की नितांत कठोरता के संदर्भ में यह स्मरण अत्यंत कोमल और तरुण है।’7

निराला के राम भले कुछ स्थानों पर निराश होकर अस्थिर प्रतीत हो, किंतु समग्रतः उनमें संयम और दृढ़ता के ही दर्शन होते हैं। इस संबंध में ‘बांगला रामायण’ से ‘राम की शक्तिपूजा’ की भिन्नता रेखांकित करते हुए बच्चन सिंह लिखते हैं- ‘बंगला रामायण की कथा में वर्णन की स्थुलता, अर्थ का इकहरापन और बंगाली भावुकता है। ‘निराला’ की ‘राम की शक्तिपूजा’ में सूक्ष्मता के अनेक स्तरों पर विचरण करने वाली अर्थ योजना, हिंदी प्रदेश का संयम और पौरुष है।’8 राम विषम परिस्थितियों को देखते और समझते हैं। उससे उत्पन्न कठिनाइयों और आशंकाओं पर चिंतन भी करते हैं, किंतु वह धैर्य नहीं छोड़ते। उनका मूल शांत स्वभाव स्थिर रहता है। विभीषण के ओजपूर्ण आह्वान पर वे शांत रहते हैं-

जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव

उससे न इन्हें कुछ चाव, ना हो कोई दुराव

ज्यों हों वे शब्दमात्र-मैत्री की समानुरक्ति,

पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।9

निरुपाय राम अपनी विवशता में व्यथित अवश्य थे, किंतु उपाय सम्मुख होने पर वे पुनः अपने कार्य के लिए सन्नद्ध हो जाते हैं। जामवंत उपाय सुझाते हैं- ‘आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर।’ वे राम को शक्ति की मौलिक कल्पना करने को कहते हैं। शक्ति का अनुकरण नहीं हो सकता। व्यक्ति मौलिक रूप से यह अपनी आत्मशक्ति का प्रस्फुटन कर सकता है। इस शक्ति का क्या स्वरूप है, इसको निराला जी के निबंध की पंक्तियों से समझा जा सकता है- ‘हम समाज तथा साहित्य में अपनी बहुत दिनों की भूली हुई उस शक्ति को आमंत्रित करना चाहते हैं, जो अव्यक्त रूप से सब में व्यक्त अपनी ही आँखों से विश्व को देखती हुई अपने ही भीतर उसे डाले हुए है।’ कहना न होगा कि राम की शक्ति पूजा बहुत अपनी बहुत दिनों की भूली हुई उस शक्ति को आमंत्रित करने का रचनात्मक प्रयास है।10 राम की शक्ति पूजा में यद्यपि शक्ति की आराधना का नाम, जप, हठयोग पद्धति का चक्र भेदन आदि धार्मिक रूप चित्रित हुआ है, किंतु साथ ही इस विराट प्रकृति में भी राम शक्ति की कल्पना करते हैं- ‘शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुंदर’ भूधर में वे पार्वती की कल्पना करते हैं। इस प्रकार ‘निराला’ ने कथा को दर्शन के अनेक स्तरों पर गूंथा है।

‘निराला’ के राम योद्धा ही नहीं साधक भी है। वे शक्ति की आराधना करते हुए षट्चक्र भेदन करते हैं। आठ दिन तक उनका ध्यान युक्त मन एक-एक चक्र भेदन करते हुए ऊपर की ओर जाता है। अंतिम दिन स्वयं महाशक्ति के पूजा-पुष्प को ले जाने के कारण राम विचलित होते हैं। लक्ष्य के निकट आकर चूक जाने की निराशा में भरकर राम के मन से स्वयं के लिए धिक्कार ही निकलता है- ‘धिक् जीवन जो पाता ही आया विरोध’ जीवन का यह व्यर्थता बोध मानव को बार-बार अनुभूत होता है। यह स्वयं ‘निराला’ का भी बोध था। आघातों को सहते-सहते मनुष्य पराजित मनोदशा को प्राप्त हो जाता है, किंतु ‘निराला’ के राम आघातों को झेलकर भी अप्रतिहत रहते हैं। राम का मन हार मानने वालों में से नहीं है। इस विपरीत परिस्थिति में भी उनका मन शिथिल नहीं होता- ‘वह एक और मन रहा राम का जो न थका’ यह मन दीनता और झुकना नहीं जानता। धर्म-अधर्म के विराट युद्ध को लड़ने का आत्मबल उनमें है, तभी रावण जैसी भीषण शक्तिसंपन्न सत्ता को उन्होंने चुनौती दी है। उनमें आत्मबल भी है और समर्पण भी। भक्ति में समर्पण का महत्व वे जानते हैं। उनकी दृढ़ता ही है कि एक कमल के स्थान पर अपना एक नेत्र महाशक्ति को अर्पित करने को उद्यत हो जाते हैं। इस त्याग भाव से महाशक्ति प्रसन्न होकर प्रकट होती हैं और राम विजय का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं- ‘होगी जय होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन।’

‘राम की शक्तिपूजा’ के अतिरिक्त ‘निराला’ कृत ‘पंचवटी प्रसंग’ में भी राम का वर्णन है। यहाँ ‘निराला’ के राम दार्शनिक रूप में अवतरित हुए हैं। सृष्टि, प्रलय, ज्ञान, भक्ति, कर्म, योग आदि दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देते हैं। भक्ति, योग, कर्म और ज्ञान का समन्वय करते हुए वे कहते हैं-

भक्ति, योग, कर्म, ज्ञान एक ही है

यद्यपि अधिकारियों के निकट भिन्न दिखते हैं

एक ही है, दूसरा नहीं है कुछ-

द्वैत भाव ही है प्रिय भ्रम

तो भी प्रिये,

भ्रम के भीतर से

भ्रम के पार जाना है।11

‘निराला’ स्वयं भारतीय दर्शन वेदांत से प्रभावित थे। उनका दार्शनिक चिंतन ही ‘पंचवटी प्रसंग’ में राम के माध्यम से उभरकर आता है।

निष्कर्षः-

इस प्रकार ‘निराला’ साहित्य में राम एक विशेष रूप चित्रित हैं। उन्होंने राम को युगीन जीवनभूमियों से जोड़ा है। निराला के राम अस्थिर होकर भी स्थिर, निराश होकर भी आशा जगाने वाले, विवश होकर भी समर्थ, समर्पित होकर भी अजेय, आघातों से पीड़ित होकर भी अप्रतिहत हैं। यह अंतर्द्वंद कहे जा सकते हैं, किंतु उससे भी अधिक यह ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ है, जो ‘निराला’ ने ‘राम की शक्तिपूजा’ में किया है। यह ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ ‘निराला’ के व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में विद्यमान है। ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘निराला’ के राम दोनों ही अनुपम हैं।

संदर्भः-

  1. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, अनामिका, भारती-भंडार लीडर प्रेस, इलाहबाद, 1948, पृ० 149
  2. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, अनामिका, भारती-भंडार लीडर प्रेस, इलाहबाद, 1948, पृ० 162
  3. रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोक भारती प्रकाशन, इलाहबाद, 2017 पृ० 109
  4. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, अनामिका, भारती-भंडार लीडर प्रेस, इलाहबाद, 1948, पृ० 150
  5. निर्मला जैन, आधुनिक साहित्यः मूल्य और मूल्यांकन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ० 91
  6. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, अनामिका, भारती-भंडार लीडर प्रेस, इलाहबाद, 1948, पृ० 151
  7. रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोक भारती प्रकाशन, इलाहबाद, 2017 पृ० 124
  8. बच्चन सिंह हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड 2020 पृष्ठ संख्या 352
  9. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, अनामिका, भारती-भंडार लीडर प्रेस, इलाहबाद, 1948, पृ० 157
  10. निर्मला जैन, आधुनिक साहित्यः मूल्य और मूल्यांकन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ० 89-90
  11. नंददुलारे वाजपेयी, कवि निराला, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृ० 110
प्रतिभा
शोधार्थी, हिंदी विभाग
सनातन धर्म महाविद्यालय, मुज़फ्फरनगर