हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल को ‘स्वर्ण-युग’ का दर्जा प्राप्त है। भक्ति के आरंभ और विकास को लेकर अनेक मत प्रचलित हैं, लेकिन भारतीय साहित्य में भक्तिकाल के महत्व को लेकर अब किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रह गया है। अपने आंदोलनधर्मी मिजाज के कारण कुछ लोग इसे प्रथम नवजागरण, देशज आधुनिकता, तथा प्रथम जातीय उत्थान जैसे विशेषणों से अभिहित करते हैं।
भारतीय साहित्य के संदर्भों को ध्यान में रखा जाए तो ‘भक्तिकाल’ तथा ‘मध्यकाल’ शब्द विरोधाभासी प्रतीत होते है। आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी मध्यकाल को जबदी हुई मनोवृत्ति का काल कहते हैं। वे लिखते हैं कि – ‘‘मध्ययुग या मध्यकाल शब्द भारतीय भाषाओं में नया ही है। आजकल इस शब्द का प्रयोग एक ऐसे काल के अर्थ में होने लगा है जिसमें सामूहिक रूप से मनुष्य एक जबदी हुई स्तब्ध मनोवृत्ति का शिकार हो जाता है।’’
भक्ति आंदोलन के जनवादी होने का सबसे बड़ा कारण क्या है? साहित्य की लोकोन्मुखता। यह लोकोन्मुखता सामान्य नहीं है। हम किस साहित्य को लोकोन्मुखी साहित्य कहेंगे? ऐसा साहित्य जो अपनी ऊर्जा लोक से ग्रहण करता हो तथा उसमें लोक का दुख, दर्द, आशाएँ, अभिलाषाएँ अभिव्यक्ति पाती हो। इन सबको संभव बनाने के लिए लोकभाषा का साहित्य-माध्यम होना अनिवार्य है। हिंदी साहित्य के इतिहास में जिस काल को भक्तिकाल कहा जाता है, उस समय तथा उस समय के पूर्व के भाषिक परिदृश्य पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। आ. रामचंद्र शुक्ल कहते हैं – ‘‘असंदिग्ध सामग्री जो कुछ प्राप्त है, उसकी भाषा अपभ्रंश या प्राकृताभाश हिंदी है। इस अपभ्रंश या प्राकृताभाश हिंदी का अभिप्राय यह है कि यह उस समय के ठीक बोलचाल की भाषा नहीं है, जिस समय की रचनाएँ मिलती हैं। यह उस समय के कवियों की भाषा है।’’ संत कवि यहाँ पर परंपरा से केवल शब्दावलियाँ लेते हैं, लेकिन उनकी भाषा आम जनता के बोलचाल की भाषा ही है। आदिकाल के अंत तक आते-आते देशभाषा का आग्रह बढ़ने लगा। ऐसा क्यों हुआ? इसके कारण को भक्तिकाल के उदय के कारणों में ढूँढे जा सकते हैं। इस संदर्भ में डाॅ. बच्चन सिंह लिखते हैं – ‘‘भक्ति आंदोलन के साथ देश के विभिन्न अंचलों में जातीय संघटन की शुरूआत भी हो जाती है। संस्कृत और अपभ्रंश का पल्ला छोड़ भक्तों ने देश भाषा में लिखना आरंभ कर दिया। सबसे पहले आलवार भक्तों के माध्यम से तमिल जाती बनी। 12वीं-13वीं में कन्नड़ जाति का उदय हुआ। बंगला, गुजराती और हिंदी जाति का उदय लगभग एकसाथ हुआ – 15वीं शताब्दी में। इसके कुछ पहले मराठी जाति अस्तित्व में आ गई थी। हिंदी प्रदेश में कबीर पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने संस्कृत को कूपजल और भाखा को बहता नीर कहा। तुलसीदास ने जोखिम उठाकर भी संस्कृत को छोड़कर अवधी भाषा में लिखना आरंभ किया।’’
ऐसा नहीं है कि अपभ्रंश या संस्कृत या प्राकृत की रचनाशीलता कुंद हो गयी थी। भक्तिकाल ने रचनाकर्म का जनतांत्रीकरण किया। इसके कारण समाज में अभिव्यक्ति को नये आयाम प्राप्त हुए। यही कारण है कि आ. रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में आदिकाल में देशभाषा की रचनाओं का वर्णन अलग से किया गया है।
हर दौर अपनी भाषा गढ़ता है। पुरानी भाषा से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी भंगिमा एवं शैली के स्तर पर भाषा अपने आप को बदलती है। भक्तिकाल में देशभाषाओं का आग्रह इसी कड़ी में देखा जा सकता है। कबीर ने पुरानी भाषा और नयी भाषा के इस अंतर की बारीकी को इस तरह बयां किया – ‘‘संसकिरत है कूप जल भाखा बहता नीर।’’ आदिकाल और भक्तिकाल के संक्रमणकालीन दौर में तीन प्रकार की काव्यभाषाएँ स्पष्ट रूप से उत्तर-भारत के रचनात्मक क्षितिज पर दिखाई पड़ती है। आ. रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में इस तथ्य को उदाहरण के साथ दिखलाया है।
शारंगधर
चलिउ वीर हम्मीर पाअभर मेइणि कंपई।
दिगमग णह अंधार धूलि सुररह आच्छाइहि।।
अमीर खुसरो –
एक नार ने अचरज किया।
साँ मार पिंजरे में दिया।।
कबीरदास –
अगिन जो लागी नीर में कंदो जलिया झारि।
उरत दक्षिण के पंडिता रहे बिचारि-बिचारि।।
सारांश यह है कि अपभं्रश की यह परंपरा विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य तक चलती रही। एक ही कवि विद्यापति ने दो प्रकार की भाषा का व्यवहार किया है – पुरानी अपभ्रंश भाषा का और बोलचाल की देशी भाषा का। इन दोनों भाषाओं का भेद विद्यापति ने स्पष्ट रूप से सूचित किया है।
देशिल बअना सब जन मिट्ठा।
तें तैसन जंपओं अवहट्ठा।।
अर्थात् देशी भाषा (बोलचाल की भाषा) सबको मीठी लगती है, इससे वैसा ही अपभ्रंश (देशी भाषा मिला हुआ) मैं कहता हूँ।
उत्तर भारत में भक्तिकाल का आरंभ निर्गुण संत कवियों की बाणी से हुआ। निर्गुण कवियों की बाणियाँ कई मायनों में अनूठी थी। उसमें नाथों और सिद्धों की परंपरा से शब्द तो आए थे, लेकिन भाषा का मिजाज ताजगी से भरा हुआ था। लोकजीवन की प्रतिच्छवियाँ उनकी कविताओं में प्रतिबिंबित होते हैं। किसी भी भाषा की ताकत उसकी संप्रेषणीयता की शक्ति से पता चलती है। इस संदर्भ में निर्गुण संत कवियों की भाषा अत्यंत प्रभावशाली है। उनके सामने भाषा लाचार सी नजर आती है। उन्होंने जैसे जिस बात को कहना चाहा वैसे कहा। इस संदर्भ में कबीर के विषय में आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत ध्यान देने योग्य है। ‘‘भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया है – बन गया तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नजर आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवा फक्कड़ की किसी फरमाइश को नाहीं कर सके और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है, वैसी बहुत कम लेखकों में पाई जाती है।’’
निर्गुण कवि केवल कथ्य और कहन की शैली ही नहीं बदलते बल्कि वे एक नयी भाषा भी लेकर आते हैं। यह भाषा हिंदी साहित्य में बहुत अच्छी नहीं मानी गई। लेकिन भाषा की ताकत के स्तर पर आज भी यह भाषा अत्यंत जीवंत है। आ. शुक्ल जैसे आलोचकों ने भी निर्गुण कवियों की काव्यकला और काव्यभाषा को उपेक्षित भाव से देखा है।
मध्यकालीन काव्यभाषा के विषय में डाॅ. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं – हिंदी की मध्यकालीन काव्यभाषा की शक्ति और वैविध्य प्रायः अतुलनीय है। वैविध्य उसके अर्थ वैभव का एक प्रधान स्रोत है। कबीर और दकनी के कवियों से लेकर भिखारीदास तक हिंदी काव्यभाषा मंे न जाने कितनी भंगिमाएँ तथा अर्थ क्षमताएँ विकसित होती हैं। व्याकरणिक प्रयोग, शब्द-समूह अप्रस्तुत तथा छंद योजना और बिंब विधान में यह भाषिक प्रवाह एकरस चलता है।’’
निर्गुण संत कवियों की काव्यभाषा के विषय में संधा भाषा की चर्चा अक्सर सुनाई पड़ती है। संधा भाषा की परिभाषा और अवधारणा को लेकर विद्वानों में मतभेद है। प्रो. नंदकिशोर पांडेय लिखते हैं – ‘‘महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री का नाम सर्वाधिक प्रतिष्ठा के साथ ‘संधा भाषा’ से जुड़ा है। शास्त्री जी हस्तलेखों से चर्यापदों की प्रतिलिपि कराई थी। लिपिकार ने ‘संधा भाषा’ को संध्या भाषा लिखा। शास्त्री जी ने बौद्ध गान औ दोहा के ‘मुखबंध’ में ‘संधा भाषा’ ही लिखा। शास्त्री जी ने इस भाषा की गूढ़ता और रहस्ययुक्तता को देखकर यह अनुमान किया कि संध्या का अर्थ ‘धूप-छाँही’ शैली हो सकता है।
तात्पर्य यह है कि संधा भाषा का प्रयोग मूल रूप से रहस्यमयी शैली से युक्त भाषा के लिए किया गया है। इसे आधुनिक भाषा में प्रतीक भाषा भी कहा जा सकता है। यह शैली व्यक्त के माध्यम से अव्यक्त को कहने की शैली है। इस प्रकार संत साहित्य का एक बड़ा हिस्सा संधा भाषा में है। उसके गूढ़ार्थ हैं, जिन्हें समझने के लिए काव्य-संदर्भों तथा प्रतीकों का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। निर्गुण संत कवियों की संाकेतिक भाषा के विषय में डाॅ. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने लिखा है कि – ‘‘निर्गुण संप्रदाय के संत कवि इसी सांकेतिक भाषा में कथन किया करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में पर्दापण करने वाले सभी कवियों को सांकेतिक भाषा की ही शरण लेनी पड़ती है।’’
निर्गुण संत कवियों की भाषा जिसे कई बार सहजता के लिए संधा भाषा भी कहा जाता है, का एक बड़ा भाग परंपरा से आया है। यह परंपरा है सिद्धों और नाथों की। निर्गुण संतों के यहाँ जब भी योग तथा दर्शन की बात होती है, तब अत्यधिक, पारिभाषिक शब्द जैसे अलह, आगम, अमल-अमलि, अरध-उरध, अवधूती, अमर वारुणी, अवधूत, उन्मनि, उल्टी गंगा, उलूक, उल्टा बान, उलटबाँसी, कर्म, कल्पलता, कैलास, करहा, खटकरम, खसम, खेचरी मुद्रा, गगनगुफा, गोमांस, गगनमंडल, गोमांस भक्षण, घरनी, चादर, चोर, चुनरी टंटा, तिलक, त्रिवेणी, दोजग आदि। संत कवि इन शब्दों का प्रयोग प्रतीकों के रूप में करते हैं। वे कई मौकों पर इन शब्दों को अर्थ विस्तार करते हैं तो कई मौकों पर अर्थ संकोच। संतों के द्वारा प्रयुक्त प्रतीकों के अर्थ की परिवर्तनशीलता पर डाॅ. नंदकिशोर पांडेय लिखते हैं – ‘‘इन प्रतीकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके अर्थ परिवर्तशील हैं। बौद्ध सिद्धों के पदों में मुद्रा और मैथुन संबंधी बहुत अधिक पद प्राप्त होते हैं। इनकी प्रतीक योजना में नायक और नायिका आते हैं।
निर्गुण संतों ने परंपरा से जिन शब्दों को ग्रहण किया उसका वही अर्थ उन्होंने नहीं रखा जो परंपरा से था, उन्होंने कई शब्दों को नई अर्थछवियाँ प्रदान कीं।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं – ‘‘कबीरदास आदि साधकों ने नामपंथियों और सहजयानियों के बहुत से शब्द, पद और दोहे ज्यों के त्यों स्वीकार कर लिए थे। इनमें यत्र-तत्र नाममात्र के परिवर्तन भी हैं। इस प्रकार यह बात स्पष्ट है कि कबीर आदि ने अनेक बातें पूर्ववर्ती साधकों से ग्रहण की थीं, फिर भी कबीर की साधना वही नहीं थी, जो इन योगियों या सहजयानियों की थी। कबीर आदि ने योगियों और सहजयानियों के पादिभाषिक शब्दों की अपने ढंग पर व्याख्या की।’’
अक्सर ऐसा कहा जाता है कि संतों ने सायास कवि-कर्म नहीं किया। कविता उनके लिए दोयम दर्जे की बात थी। यह बात अपने आप में संत कवियों की सहज संप्रेषणीय एवं भावपूर्ण काव्य को खारिज करने का उद्यम है। यहाँ तक कि हजारी प्रसाद द्विवेदी भी कहते हैं कि – ‘‘यद्यपि कबीर ने कहीं काव्य लिखने की प्रतिज्ञा नहीं की, तथापि उनकी आध्यात्मिक रस की गगरी से छलके हुए रस से काव्य की कटोरी में भी कम रस इकट्ठा नहीं हुआ है।’’
संत साहित्य का बारीकी से अवलोकन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निर्गुण कवियो की कविता एक सायास, सहज और सफल कविता है। क्योंकि उनके पास अपनी बात को आमजन तक पहुँचाने का कोई अन्य साधन नहीं था। निर्गुण संतों की कविता कालजीवी होते हुए हम तक पहुँची है तो उसका सबसे बड़ा कारण कविता में जीवन की अनुभूति, युगसत्य तथा उसकी भाषा है। उनकी भाषा परंपरा के बंधन को तोड़ते हुए एक नए काव्य क्षितिज का सृजन करती है। एक कवि या सर्जक के लिए इससे बड़ा जोखिम क्या होगा कि वह स्थापित भाषा शैली को नकार दे और अपनी नयी लीक बनाए। इस विषय में संत कवियों की भाषा भक्तिकाल को एक नया आयाम प्रदान करती है।
संदर्भ ग्रंथ –
- द्विवेदी, हजारी प्रसाद, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 12.
- शुक्ल, रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, वाणी प्रकाशन, पृ. 16.
- सिंह बच्चन, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृ. 75.
- शुक्ल, रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, वाणी प्रकाशन, पृ. 16.
- द्विवेदी, हजारी प्रसाद, कबीर, राजकमल प्रकाशन, पृ. 170.
- चतुर्वेदी, रामस्वरूप, मध्यकालीन हिंदी काव्यभाषा, लोकभारती प्रकाशन, पृ. 173.
- पांडेय, नंदकिशोर, संत साहित्य की समझ, यश पब्लिकेशन, पृ. 249.
- बड़थ्वाल पीतांबरदत्त, हिंदी काव्य की निर्गुण धारा, तक्षशिला प्रकाशन, पृ. 266.
- पांडेय, नंदकिशोर, संत साहित्य की समझ, यश पब्लिकेशन, पृ. 251.
- द्विवेदी, हजारी प्रसाद, हिंदी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, पृ. 46-47.
- द्विवेदी, हजारी प्रसाद, कबीर, राजकमल प्रकाशन, पृ. 170