प्रेम एक ऐसा विषय है, जिसमें कभी भी, कोई भी साहित्यकार अपने आपको तटस्थ नहीं रख सका है। हर युग में प्रेम अपने नए कलेवर के साथ चित्रित होता है। विषय तो यही होता है, लेकिन हर बार सन्दर्भ, परिस्थितियाँ और पात्रों के बदलने से बहुत ही परिवर्तन आ जाता है। वर्तमान समय में प्रेम का रूप बदल चुका है, न आज के नायक रोमाण्टिक हुआ करते हैं न नायिकाएँ उतनी कल्पनाजीवी। आज के नायक- नायिका उड़ाने नहीं भरते, वरन् हकीकत की ठोस ज़मीन पर खड़े होते हैं। आज की स्थिति बिल्कुल ही विपरीत है, जिसे पुराने लोग कतई स्वीकार नहीं कर पाते-“ स्टेशन पर खड़ी नायिका, अपने जाते हुए पति को विदा देती हुई आधुनिका हमारे पुराने लेखकों के लिए ‘एक झूठा पात्र’ बनी हुई थी, क्योंकि वे यह स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि लिपस्टिक लगाए और मेकअप किए हुए औरत की भी एक बहुत सच्ची भावात्मक दुनिया है, या वह भी अपने पति के प्रति समर्पित हो सकती है, जितनी कि वह औरत जो दरवाजों की ओट से सर पर आँचल डाले, और माथे पर बिन्दी लगाए अपने परदेश जाते पति को रो- रोकर बिदाई दे रही होगी।‘’[1] आज के नायक और नायिका दोनों ही पुराने रूढ़ नायक- नायिकाओं से बहुत अलग हैं, अतः उनकी समस्याएँ भी अलग हैं और अभिव्यक्ति का ढंग भी अलग है।
आज की प्रेमिका न मीरा की तरह जहर पीने वाली थी, न सीता की तरह अग्निपरीक्षा में से गुज़रनेवाली। हर एक का अपना अलग-अलग व्यक्तित्व है, विश्व है, जहाँ एक- दूसरे के लिए सब कुछ सामान्य नहीं है। प्रेमी या प्रेमिका एक-दूसरे के विश्व से पूर्णतः परिचित ही हों यह आवश्यक भी नहीं, वरन् कहीं-कहीं तो शिष्टाचार के खिलाफ़ भी है। शिष्टाचार में बँधा प्रेम बुद्धिजीवी प्रतीत होने लगता है, ऐसा नहीं है कि भावनात्मक सम्बन्ध नहीं रह गए हैं लेकिन बुद्धिजीवी कितने भावुक हो सकते हैं- आखिर उसकी भी एक सीख थी। आज प्रेम में प्रगाढ़ परिचय के स्थान पर अजनबीपन और अकेलापन है, बन्धन की नहीं मुक्ति की कामना है।
अन्य मान्यताओं के अनुसार ही निर्मल की प्रेम सम्बन्धी अपनी विशिष्ट मान्यता है, वे एक जगह अपने पात्र से कहलवाते हैं- ‘’ मैं समझता हूँ कि प्रेम अगर ऐसी कोई चीज़ है, तो बहुत महत्वहीन और आकस्मिक परिस्थितियों में आरम्भ होता है, और उसका अन्त भी शायद बहुत ही छोटे और अर्थहीन कारणों से हो जाता है।‘’[2] और यह बात उनके साहित्य में कई जगह देखने को मिलती है कि प्रेम आकस्मिक ही शुरू हो जाता है और खत्म हो जाता है- जैसे ‘तीसरा गवाह’ में ‘माँ’ की बीमारी की वजह से नीरजा और रोहतगी में प्रेम हुआ और सिर्फ एक गवाह के देर से आने से खत्म भी हो गया।
निर्मल वर्मा के पात्रों के प्रेम का चित्रण स्मृति के रूप में ही आता है। इसलिए प्रेम का चित्रण होने पर भी बहुत भावुकता देखने को नहीं मिलती। ‘परिन्दे’ की लतिका अपने प्रेमी गिरीश नेगी की ही स्मृतियों में जी रही है, जो फ्रन्ट पर मारा जा चुका है, वह कभी भी अपने मस्तिष्क में से उनकी स्मृति निकाल नहीं पाती तब एक अन्य पात्र डॉक्टर मुकर्जी कहते हैं- ‘’कभी- कभी मैं सोचता हूँ, मिस लतिका किसी चीज़ को न जानना यदि गलत है, तो जान बूझकर न भूल पाना, हमेशा जोंक की तरह उससे चिपटे रहना यह भी गलत है।‘’[3] ‘परिन्दे’ में हमें दो विपरीत दृष्टिकोण दिखाई देते हैं। एक ओर डॉक्टर जैसा जिन्दादिल इन्सान है, जो किसी भी जिद से चिपके रहने को सही नहीं मानता, और दूसरी तरफ लतिका है जो अतीत में जी रही है। लेकिन वक्त एक ऐसा मरहम है जो हर घाव को भर ही देता है, लतिका महसूस करती है- ‘’अब वैसा दर्द नहीं होता, सिर्फ उसको याद करती है जो पहले कभी होता था, तब उसे अपने पर ग्लानि होती है- वह फिर उस घाव को जान- बूझकर कुरेदती है जो मरता जा रहा है…।‘’[4] अर्थात् लतिका स्मृतियों को खोना नहीं चाहती वह उसी में जीना चाहती है।
निर्मल ने प्रणय के प्रथम परिचय को महत्त्व दिया है और बहुत सुन्दर रूप हमारे सामने रखा है। लतिका जूली के लिए सोचती है- ‘’शायद कौन जाने….शायद जूली का यह प्रथम परिचय हो, उस अनुभूति से जिसे कोई भी लड़की बड़े चाव से संजोकर, संभालकर अपने में छिपाए रखती है। एक अनिर्वचनीय सुख जो पीड़ा लिए है, पीड़ा और सुख को डुबोती उमड़ते ज्वार की खुमारी….जो दोनों को अपने में समा लेती है…एक दर्द जो आनन्द से उपजा है और पीड़ा देता है।‘’[5]
प्रेम बहुत मुखर रूप में कम जगह आया है, अधिकतर वह एक मौन के रूप में आता है। जिसे सामनेवाला कहता नहीं, पर पहला व्यक्ति समझता है, वेदना है जो अन्तःसलिला की भाँति बहती है। कोई दुःख या वेदना गोमड़ बनकर ऊपर नहीं उठती, अतः भद्दा नहीं लगता, वेदना का वह बहाव ही सुन्दर बन पड़ता है। ‘वे दिन’ का प्रेमी इसी तरह का है- एक मौन प्रेम जिसके मूल में व्यथा है, वेदना है। जो चुपचाप अपनी गति की ओर अग्रसर होता जाता है, कहीं कोई घटना नहीं घटती, संवेदनाओं की धार में बहते पात्र हैं, जो अपनी- अपनी परिस्थितियों को जानते हैं, और ये भी जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। फिर धीरे- धीरे उनका प्रेम विकसित होता है और चरम सीमा पर पहुँच जाता है।
इन्दी और रायना जो गाइड और टूरिस्ट हैं, उनमें इतने सहज भाव से प्रेम आ जाता है कि लगता ही नहीं कि वह पहले यहाँ नहीं था, और वही स्थिति जब बढ़कर शारीरिक सम्बन्ध तक पहुँचती है, तब भी कुछ ‘आश्चर्यजनक घटना’ सा नहीं घटता- उसी सहज बहाव की सी गति में सब हो जाता है।
प्रेम का यही मौन रूप ‘अंधेरे में’ नामक कहानी में भी बहुत सुन्दर रूप में आया है जहाँ बीरू चाचा के प्रति अपनी माँ के प्रेम को बच्चा भाँप जाता है, जब वह माँ की इस अवस्था को देखता है- ‘‘माँ सड़क के मोड़ पर खड़ी थी, किनारे पर लगी तार पर झुकी हुई, उनकी साड़ी का आँचल हवा से उड़कर कन्धे पर आ गिरा था- अपने में खोई सी वह अपलक नीचे देख रही थी….उतराई के नीचे थी- बीरेन चाचा की कोटेज।”[6]
अक्सर ऐसा होता है कि सब कुछ अपनी गति से होता चलता है, लेकिन कभी- कभी ही अचानक ध्यान आता है कि व्यक्ति सोचता है वह कहाँ है? कुछ समझ नहीं पाता। सामने आने वाली परिस्थितियों को समझकर – उनमें से गुजरना मुमकिन होता है, पर जब परिस्थिति समझ से परे हो तब सब कुछ सम्हालना मुश्किल हो जात है। निर्मल के प्रेमचित्रण में यह चीज़ बहुत आती है अदृश्य शक्ति के हाथ में है और कुछ हो रहा है- ऐसा ही लगता है। ‘परिन्दे’ में लतिका डॉक्टर से पूछती है-‘सब कुछ होने के बावजूद वह क्या चीज है, जो हमें चलाए चलती है, हम रूकते हैं तो हमें अपने रेले में घसीट ले जाती है।‘’[7] प्रेम के अंतर्गत यही स्थिति व्यक्ति को निरीह बना देती है, ‘तीसरा गवाह’ में वह इसी चीज को यूं कहते हैं- ‘’हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं वकील साहब! सच्ची बात उस लड़की के अलावा कोई नहीं जान सकेगा, और मुझे सन्देह है कि क्या वह खुद भी सही कारण जान पाएगी।‘’[8]
प्रेम का एक अलहदा पक्ष ‘पिक्चर पोस्टकार्ड’ में आता है। परेश नीलू से प्रेम करता है। हर बार बोलना चाहता है, पर उसे लगता है कि शब्द बहुत हैं- और वह गलत शब्द चुन लेगा। यह एक सामान्य युवक की त्रासदी है। निर्मल की दृष्टि ने किसी भी पक्ष को एक कोण से नहीं कई कोणों से देखा है। उनकी कहानियों में हम उनकी कहानियों में हम उनके इन्हीं दृष्टिकोणों को देख सकते हैं। कहानी ‘छुट्टियों के बाद’ में प्रेम को कितने हल्के-फुल्के ढंग से किया जा सकता है यह देखने को मिलता है। छुट्टियों का प्रेम अलग और बाद में वही पहले वाला पुनः जारी हो सकता है। ‘वीक एण्ड’ की नायिका अपने विवाहित प्रेमी से प्रेम तो चाहती है, पर वह बँधना नहीं चाहती- मुक्त ही रहना चाहती है।
अतीत की स्मृति के रूप में जहाँ प्रेम का चित्रण हुआ है- उनमें ‘वे दिन’, ‘परिन्दे’, ‘लवर्स’, ‘तीसरा गवाह’ आदि मुख्य हैं। और जिनमें प्रेम अतीत की नहीं वर्तमान की चीज है, वहाँ उसका चित्रण कुछ अलग ढंग से हुआ है।
‘अन्तर’ कहानी में निर्मल ने प्रेम के बहुत ही यथार्थ रूप का परिचय दिया है। नायिका गर्भपात कराने के लिए अस्पताल में भर्ती होती है, नायक वहाँ जाता है- उसके लिए ढेर सारी चीज़ें लेकर। वह उससे कहता है-अब तुम सुखी हो न? वह कहती है, वह पहले भी सुखी ही थी, वह बाहों में उसका सिर थाम कर उसे चूमती भी है- पर उसके जाते ही उसकी लाई हुई सारी चीजें खिड़की में से नीचे फेंक देती है।
प्रेम होना, और व्यक्ति को प्रेम की आदत हो जाना, दोनों अलग-अलग चीजें हैं। पहले प्रेम शुरू होता है- और होते ही रहने से आदत बन जाता है, बाद में सिर्फ आदत रह जाती है। प्रेम मर जाता है और व्यक्ति आदत के अंधेरे में से निकलने के लिए तड़प उठता है। इसी के साथ एक बात और भी है कि अगर तुम किसी व्यक्ति को किसी समय में प्यार करते थे और अब नहीं करते तो तुम उससे सामना भी नहीं कर सकते। ‘पिछली गर्मियों में’ का नायक पहले यहाँ किसी और से प्रेम करता था, अब विदेश में किसी और स्त्री के साथ रह रहा है, वापस आने पर भी वह उससे नहीं मिलता और सोचता है-‘ उसे हल्का सा विस्मय हुआ कि उसे उन दिनों के बारे में पछतावा नहीं है। उसे खुशी हुई कि वह अरूणा से नहीं मिला। तुम उससे नहीं मिल सकते, जिससे तुम कभी बहुत प्यार करते थे, और अब नहीं करते।‘[9]
अन्य सम्बन्धों के साथ ही साथ प्रेम में भी गहराई घटती गई, और सम्बन्धों में अलगाव और अजनबीपन भी उभरकर आने लगा, सिर्फ एक यही सम्बन्ध ऐसा था, जिसे हम अन्य सम्बन्धों से कुछ अलग होने के कारण विशिष्ट मानते थे, लेकिन समय के प्रभाव ने उसे अछूता न छोड़ दिया था।
निर्मल के प्रेम प्रसंगों में हमें यही चीज़ काफ़ी देखने को मिलती है कि प्रेमी युवक या युवती जो कुछ समय पहले बहुत ज्यादा अन्तरंग क्षण गुज़ार रहे थे- कुछ पल बाद ही उनके बीच कहीं कोई सूत्र टूट जाता है, और ऐसा लगता हैः दोनों सम्बन्धों के छोर पर खड़े हैं। यह स्थिति हमें उनके कथासाहित्य में कई जगह देखने को मिलती है। ‘छुट्टियों के बाद’ की मार्था, ‘लवर्स’ का इन्दी, ‘एक चिथड़ा सुख’ के बिट्टी और डैरी में भी कई जगह बीच- बीच में ऐसा लगता है। ‘वे दिन’ का नायक जब रायना चली जाती है, तब सिर्फ कहीं बाहर जाना चाहता है, इसके अलावा उनके तीन दिन के सम्बन्धों के दरमियान भी बीच- बीच में कई बार अजनबीपन झांक जाता है, क्योंकि हर व्यक्ति का अपना अलग अतीत होता है, सिर्फ वर्तमान में प्रेम होने से इस दूरी को ढंका नहीं जा सकता-‘ पहली बार मुझे अपने और उसके बीच अलंघ्य सी दूरी लगी थी। एक गड़हे सा मौन… जिसे शब्दों से ढंका नहीं जा सकता। वह हमेशा खुला रहता है- खाली वह शायद उम्र का अन्तर नहीं था… वह उसके अपने अतीत से जुड़ा था, जिस में देख नहीं सकता था। कुछ घर होते हैं, जिनके भीतर आकर भी लगता है कि हम बाहर खड़े हैं। दरवाजे का खुला रहना कोई भी मानी नहीं रखता।‘’[10] और किसी भी सम्बन्ध में ऐसा अन्तराल आ जाए तो नहीं अखरता, लेकिन प्रेमसंबंधों में जब इस तरह का अलगाव आ जाता है तो बहुत खलता है।
इस तरह हम देख सकते हैं, कि निर्मल वर्मा का संवेदन- विश्व एक आधुनिक मनुष्य का आधुनिक भाव- बोध से भरा हुआ है, जहाँ जिजीविषा के साथ मृत्युबोध भी सिर उठाता। जहाँ होम- सिकनेस और गृहवितृष्णा एक- दूसरे से जुड़ कर आते हैं। अकेलापन, पारिवारिक विघटन, पीढियों का संघर्ष एवं टूटते संबंधों के यथार्थ का नितान्त सही रूप में चित्रित हुआ है। प्रेम को निर्मल वर्मा ने नए दृष्टिकोण से देखा है और अपनी कहानियों एवं उपन्यास के माध्यम से परिभाषित किया है।
संदर्भ ग्रंथ –
[1] निर्मल वर्मा, पिछली गर्मियों में,पृष्ठ संख्या 38
[2] कमलेश्वर, नई कहानी की भूमिका, पृष्ठ संख्या 21
[3] निर्मल वर्मा, परिन्दे, पृष्ठ संख्या 46-47
[4] वही- पृष्ठ संख्या 174
[5] वही- पृष्ठ संख्या 166
[6] वही-पृष्ठ संख्या 165
[7] निर्मल वर्मा, परिन्दे, पृष्ठ संख्या 86
[8] वही, पृष्ठ संख्या 175
[9] पिछली गर्मियों में पृष्ठ संख्या 119
[10] निर्मल वर्मा, वे दिन, पृष्ठ संख्या 141