बीसवीं सदी में जनसंचार को नया परिचय मिला जिसमें रेडियों पत्र-पत्रिका, टेलीविजन न सिर्फ मनोरंजन और ज्ञानवर्धन का साधन बना बल्कि इसने ही भारत के जनसंचार के ढाँचे को खड़ा किया। आजादी के बाद विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ-साथ मीडिया भी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनकर उसका मजबूत आधार बना। स्वातंत्र्योत्तर देश में तरक्की विकास के द्वारा मीडिया और ज्यादा मजबूत होता गया। बीसवीं शताब्दी के अंतिम में उदारीकाण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के चलते भारत के संचार माध्यमों में जबरदस्त बदलाव आया जो संचार क्रांति के नाम से जाना गया।
मिडिया जिसका काम सूचना का आदान-प्रदना करना और लोगों को शिक्षित और मनोरंजित करना है। इस क्रांतिकारी बदलाव के बावजूद मीडिया अपने कार्य और जिम्मेदारी को भूला नहीं है बल्कि उसने अपने तर्ज और माध्यम को बदला है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि आज मीडिया ने परम्परागत पद्धति के साथ-साथ कुछ नए माध्यमों को अपनाया है जिसके कारण जनंसचार की परिभाषा बदली है। यही वजह है कि आज उसे मीडिया नहीं बल्कि न्यू मीडिया कहा जा रहा है।
नब्बे के दशक में इंटरनेट के प्रसार के साथ-साथ न्यू मीडिया का युग शुरू हुआ जिसके कारण कम्प्यूटर और इंटरनेट के माध्यम से पूरी दुनिया से जुड़कर भारत ग्लोबल बन गया। यही वजह है कि आज इक्कीसवी शताब्दी में भारत दुनिया के अधिकतर संचार तकनीकों से युक्त है। आज भारत के ग्रामीण अंचलों तक इंटरनेट की पहुँच है तो वहीं दुनिया का सबसे बड़ा मोबाइल उपभोक्ता भारत ही है। यह सब न्यू मीडिया के कारण ही संभव हो सका। ब्लॉग से लेकर न्यूज़ पोर्टल तक और फेसबुक से लेकर गूगल हैंग आउट तक सब न्यू मीडिया का ही स्वरूप हैं। आज जिस माध्यम के द्वारा भारत एक ग्लोबल भारत के रूप में तब्दील हुआ है और हमारी संस्कृति-सभ्यता, राजनीति, व्यापार, शिक्षा, तकनीकी ज्ञान आदि दुनिया के कोने-कोने तक अगर पहुँची है तो उसका एकमात्र कारण न्यू मीडिया ही है।
न्यू मीडिया अपने स्वरूप, आभार और संयोजन में मीडियों के पारंपरिक रूपों से भिन्न है और पारंपरिक मीडिया की तुलना में न्यू मीडिया काफी व्यापक है यही वजह है कि न्यू मीडिया की परिभाषा पारंपरिक मीडिया की तर्ज पर नहीं दी जा सकती। न सिर्फ समाचार पत्रों की वेबसाइटें और पोर्टल न्यू मीडिया के दायरे में आते हैं बल्कि नौकरी ढूँढने वाली वेबसाइट रिश्ते तलाशने वाले पोर्टल, ब्लॉग ऑडियो-वीडियों, ईमेल, चैटिंग, इंटरनेट-फोन, इंटरनेट पर होन वाली खरीददारी, नीलामी, फिल्मों की सीडी-डीवीडी, डिजिटल कैमरे के लिए फोटोग्राफ, इंटरनेट सर्वेक्षण, इंटरनेट आधारित चर्चा के मंच, दोस्त बनाने वाली वेबसाइटें और सॉफ्टवेयर तक न्यू मीडिया का हिस्सा हैं। इस तरह न्यू मीडिया परंपरागत मीडिया का संशोधित रूप है। जहाँ पारंपरिक मीडिया एक से अनेक मॉडल पर आधारित है जबकि न्यू मीडिया अनेक से अनेक के मॉडल पर आधारित है।
सोशल मीडिया जो कि न्यू मीडिया का ही एक रूप है जो आज सबसे अधिक विजिट करने वाला साईट बना गया है इसलिए शायद यह बताने की जरूरत नहीं है कि सोशल मीडिया का प्रभाव समाज में कैसा रहा है आज हर खाली वक्त में फेसबुक व्हाट्स एप, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि पर लोग अपना दोस्त बनाते हैं। इस तरह यह व्यक्तियों और समुदायों के साझा, सहभागी बनाने का माध्यम भी है।
सोशल मीडिया के व्यापक विस्तार के साथ-साथ इसके नकारात्मक पक्ष भी उभरकर सामने आ रहे हैं क्योंकि सोशल मीडिया आपको कभी अकेला नहीं छोड़ता है। आप भले ही किसी कतार में हों, लेकिन हमेशा फेसबुक खंगालने में लगे रहते हैं। नयी तस्वीर खींचते ही उसे फेसबुक या इंस्टाग्राम पर अपलोड कर देते हैं। अपने दास्तों के साथ होते हुए भी ऑनलाइन दुनिया में व्यस्त रहते हैं। एक दूसरे से बातचीत करने के बजाय आपकी नजरें ट्विटर पर होती हैं। यह स्पष्ट है कि आज सोशल मीडिया आपके निजी जीवन में बहुत अंदर तक प्रवेश कर चुका है। इसी कारण हमारे पास खुद के लिए भी समय नहीं होता। पिछले कुछ वर्षों से यह देखने में आया है कि सोशल मीडिया के व्यापक विस्तार के साथ-साथ इसके कई-नकारात्मक पक्ष भी उभरकर सामने आ रहे हैं।
सोशल मीडिया साइट्स के कई सारे नुकसान भी हैं। एक नए शोध में फेसबुक को लेकर चेताया गया है। अमेरिका में सैन डिएगो, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (यू.सी.एस.डी.) के शोधकर्ताओं में 5,208 लोगों से साल 2013 से 2015 के बीच उनके फेसबुक इस्तेमाल का आँकड़ा इकट्ठा किया है शोधकर्ताओं ने फेसबुक गतिविधि शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, जीवन में संतुष्टि और बॉडी मास इंडेक्स के साथ वास्तविक दुनिया की सोशल नेटवर्क गतिविधि की जाँच की। आकड़ों पर शोध करने के बाद पाया कि फेसबुक का अधिक इस्तेमाल करना सामाजिक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य से समझौता करने से जुड़ा है। यूसीएसडी में सहायक प्रोफेसर हॉली शाक्या ने कहा कि जो लोग कभी-कभार सोशल नेटवर्किंग साइट इस्तेमाल करते हैं वे लोग इसका ज्यादा इस्तेमाल करने वालों के मुकाबले खुश और स्वस्थ होते हैं शोध में शामिल अमेरिका के येल विश्वविद्यालय की निकोलस क्रिसटाफिस ने कहा कि फेसबुक का इस्तेमाल करना कुशल मंगल होने से नकारात्मक रूप से जुड़ा हुआ है।
सोशल मीडिया साइट्स धीरे-धीरे ऑनलाइन शोषण का साधन बनती जा रही हैं। ऐसे में कई केस दर्ज किए गए हैं जिसमें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का प्रयोग लोगों को सामाजिक रूप से हानि पहुँचाने, उनकी खिचाई करने तथा अन्य गलत प्रवृत्तियों से किया गया हैै। जून 2016 में ओम थानवी जी ने एक पत्रकार से बातचीत में सोशल मीडिया पर फैलाई जाने वाली अफवाहों पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा- ‘‘सोशल मीडिया की जो तकनीक आई है ये अपने साथ बहुत अच्छाई लेकर आई है। संचार तुरन्त होने लगा है- ज्ञान की जानकारी का। लोग संचार माध्यमों-अखबार और टी.वी. के भरोसे नहीं हैं। सोशल मीडिया के जरिए आपको बारिश तक की जानकारी तुरंत मिलती है।…. पर यह तकनीक जो अभिशाप लेकर आई है, वह है कि आप उसका इस्तेमाल देश में आग लगाने के लिए भी कर सकते हैं दंगे भड़काने के लिए भी कर सकते हैं, चरित्र हनन के लिए भी कर सकते हैं। ये इसका अभिशाप है।’’
ओम थानवी जी का सोशल मीडिया को अभिशाप कहना एक सीमा तक ठीक ही है। सोशल मीडिया पर अनेक तरह के लोग एवं संगठन सक्रिय हैं जिनके द्वारा समाज में हिंसा भड़काने जैसे कार्य किये जाते हैं। पिछले वर्ष से अब तक जम्मू कश्मीर में जो हिंसा का माहौल बना हुआ है उसके पीछे काफी हद तक सोशल मीडिया ही जिम्मेदार है।
कश्मीर के नौजवानों को हिंसा और पत्थर बाजी करने के लिए फेसबुक ट्विटर, व्हाट्स एप आदि का इस्तेमाल किया जाता है। यह स्पष्ट है किं सोशल मीडिया का युवाओं पर सबसे ज्यादा असर हो रहा है। युवाओं पर इसका अधिक प्रभाव होना जायज भी है क्योंकि वे उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के होते हैं तथा दिमाग से चंचल भी होते हैं। वे बिना सोचे समझे किसी भी नई तकनीक का सकारात्मक या नकारात्मक उपयोग करना शुरू कर देते हैं। प्रो. मधुसूदन त्रिपाठी जी का कहना है- ‘‘सोशल साइट्स’’ आज के युवाओं का सबसे प्रिय शगल है। इन्हें डेटिंग-साइट्स ऑैर मित्रता-साइट्स भी कहते हैं। दरअसल ये ऐसी वेबसाइट्स होती हैं जहाँ पर आप अपना व्यक्तिगत विवरण (नाम, पता, दूरभाष संख्या, शौक आदि) डाल कर लोगों से मित्रता कर सकते हैं, उनसे मेलजोल कर सकते हैं। ऐसी कुछ प्रमुख साइट्स निम्नलिखित हैं: ऑरकुट, फेसबुक, फ्रॉयर, हाय 5, बेबो, माई स्पेस, भारत स्टूडेंट……. सामाजिक साइटों के संदर्भ में आज की सबसे बड़ी दिक्कत यह है यहाँ वास्तविक प्रोफाइलों के मुकाबले फर्जी प्रोफाइलों की अधिकता है। विभिन्न सामाजिक साइटों को इस्तेमाल आज साइबर अपराधों के लिए भी हो रहा है।’’
भले ही सोशल मीडिया ने दूरियाँ पाटने का काम किया हे। आज नये नये लागों से बात भी कर सकते हैं कितना कुछ कर सकते हैं। हालाँकि हमें इनके नुकसान भी हैं। हम सारा-सारा दिन नजरें गढ़ाये बस इस दुनिया से दूर किसी दूसरी दुनिया में खोये रहते हैं। सोशल मीडिया वेबसाइटों पर दुनिया भर की जानकारी भरी पड़ी होती है। और इन जानकारियों को खंगालने में हमारा काफी वक्त गुजर जाता है और इस तरह ऑनलाइन ज्यादा जुड़ने से हम असली दुनिया से दूर होते जाते हैं। किसी भी देश के बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए सबसे अहम है शिक्षा। लेकिन अगर आपका बच्चा पढ़ाई के स्थान पर इंस्टाग्राम में अपनी फोटो शेयर करने और दुनिया की फोटो देखने में सारा वक्त बिता देगा, तो पढ़ाई कैसे होगी? इंस्टाग्राम का इस्तेमाल करने से आपके बच्चे की पहुँच उन चीजों तक भी पहुँच सकती है जिससे आप उसे बचाना चाहते हैं। इंस्टाग्राम में पूरी दुनिया के लोग तस्वीरे और वीडियों शेयर करते हैं। इन तस्वीरों और वीडियों में बड़ी में एडल्ट भी होती हैं, हेशटैग के जरिये आपका बच्चा आसानी से इन तस्वीरों तक पहुँच सकता है। अब आप ही सोचे की अगर आपका बच्चा इतनी छोटी उम्र में एडल्ट कंटेट देखने लगेगा तो उसका भविष्य कैसा रहेगा?
पिछले कुछ वर्षों से सोशल मीडिया में लोकप्रिय होने के लिए लोगों में सेल्फी वाली कल्चर के प्रति होड़ सी लग गई है। जरूरत से ज्यादा सेल्फी लेने के इस शौक को सेल्फीसाइड कहा जा रहा है जो की एक तरह से मानसिक बीमारी ही है। ऐसे लोग सेल्फी लेने के लिए बार-बार और लगातार अलग-अलग पोज बनाते है, और फिर भी संतुष्ट नहीं होते तो ये भी सेल्फीसाइड का लक्षण हो सकता है। कई बार तो कुछ लोग सेल्फी लेने के लिए खतरनाक जगहों पर चढ़ जाते हैं, या फिर अपनी जान जोखिम में डालकर सेल्फी लेते हैं।
देश की राजधानी के दो बड़े अस्पतालों यानी एम्स और सरगंगाराम अस्पताल में पिछले तीन महीनों के दौरान सेल्फीसाइड के करीब छह मरीजों का इलाज किया गया है। इन मरीजों को लगातार सेल्फी लेने की आदत थी और जब ये लत बीमारी में बदल गई तो इन लोगों का इलाज उन्होंने किया। उन्हें लगातार अपने मोबाइल फोन से सेल्फी लेने की आदत थी और ये लोग सेल्फी लेकर उसे सोशल मीडिया पर शेयर करते थें ऐेसे में लोगों में ठवकल क्लेउवतचीपब क्पेवतकमत ;ठण्क्ण्क्ण्द्ध पाया जाता है जो बाद में व्इेमेपअम ब्वउचनसेपअम क्पेवतकमत में बदल जाता है।… ठण्क्ण्क्ण् के शिकार लोग अपने शरीर के किसी न किसी अंग को लेकर नाखुश होते हैं और वो पूरे दिन कई घंटे अपनी इसी कमी के बारे में सोचते रहते हैं। कई बार ये कभी काल्पनिक भी होती है। ओर सेल्फी पसंद न आने पर ऐसे लोग अपने शरीर के किसी न किसी हिस्से जैसे नाक, होठ,बाल, त्वचा के रंग और अपनी तोंद को दोष देने लगते हैं।
सोशल मीडिया के द्वारा हमे अपने दोस्तों और जनता के बीच में रहना अच्छा लगता है लेकिन इनका ज्यादा इस्तेमाल आपकी याद्दाश्त पर विपरीत असर डालता है। सोशल मीडिया के इस युग में हर समय ऑनलाइन रहने के साथ ही अन्य कामों में लगे रहने के कारण दिमाग हर समय व्यस्त रहता है और उसे आराम नहीं मिल पाता। जिसका सीधा असर उनकी याद्दाश्त पर पड़ता है। सोशल मीडिया की पहुँच लगातार बढ़ती जा रही है और इसमें ट्विटर की भूमिका अहम है। ट्विटर के माध्यम से कम शब्दों में अपानी बात कहने का हुनर भी लोग सीख रहे हैं ट्विटर के साथ सबसे बड़ी परेशानी इसकी शब्द सीमा है। शब्द सीमा के कारण कई बार लोगो को कुछ ट्विटस समझने में परेशानी होती है और फिर कई बार ट्विटर का अलग अर्थ निकाल लिया जाता है। शब्द सीमा होने की वजह से भी लोग ट्विटर का इस्तेमाल करने से कतराते हैं, क्योंकि हर कोई अपनी बात संक्षिप्त में समझा नहीं सकता। जगदीश्वर चर्तुर्वेदी जी ने अपनी किताब ‘डिजिटल कैपीटलिज्म फेसबुक संस्कृति और मानवाधिकार’ मे ट्विटर की इसी कमी पर व्यंग्य करते हुए कहा है- ‘‘ट्विटर बौने कद का लेखन है। ट्विटर लेखन में वे ज्यादा मशगूल हैं जो लेखन में चूक गए हैं या जिनके पास लिखने के लिए कम से कम है या सारहीन मुहावरे बाजी करने का शौक रखते हैं। ट्विटर ने अभिव्यक्ति का विस्तार नहीं किया बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी और गद्य को कम पढ़़ें और अधिनायकवादी ताकतों के यहाँ बंधक रख दिया है।… ट्विटर के संक्षिप्त लेखन से गद्य विकसित नहीं होगा बल्कि उसका दायरा सिकुड़ेगा। गद्य हमेशा व्यापक लेखन से विकसित होता है। संक्षिप्त गद्य विचारधारात्मक तौर पर अधिनायवाद की मदद करता है। याद करे आपातकाल में दिया नारा-बातें कम और काम ज्यादा।’’
दरअसल ‘सोशल मीडिया’ के विस्पफोट ने अब तक की मान्य परंपराओं को धूल-धूसरित करना शुरू कर दिया है। बेचारे मीडिया की बिसात क्या-धर्म, ईश्वर, राज-सत्ताएँ, शासन-प्रणालियाँ, मुल्क, जातियाँ, प्रजातियाँ सब इस महामारी के शिकार बने हैं। अपने पुरखों की बनाई सभ्यता की अटारी को सोशल मीडिया के शहसवार धराशायी करने पर आमादा हैं। ऐसे में हर उस सख्श की जवाबदेही बढ़ जाती है, जो खुद को जिम्मेदार समझता है। इसीलिए यह हमारी जिम्मेदारी है कि सोशल मिडिया का इस्तेमाल किस सोच के साथ एवं कैसे किया जाये? इतना जरूर है कि हम सबको थोड़ी सावधानियाँ जरूर बतरनी होगी। कोशिश सिर्फ इतना ही करना है कि विज्ञान द्वारा प्रदत्त की गई इस मध्यम का दुरुपयोग न करके इसका सार्थक प्रयोग समाज के हित में करें।

वीरेन्दर
दिल्ली विश्वविद्यालय

 

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