हिंदी भक्ति-साहित्य के अध्ययन क्षेत्र में परशुराम चतुर्वेदी की साहित्य साधना बहुत ही अनुकरणीय एवं श्लाघ्य है। वे साहित्य के क्षेत्र में एक रत्न के समान हैं, जिसके आलोक में संत साहित्य अपने पूर्ण सौंदर्य को उद्घाटित करता प्रतीत होता है। आ. परशुराम चतुर्वेदी ने अपने लेखन के लिए साहित्य के उस पक्ष का चुनाव किया जिस पर अबतक किसी का भी ध्यान पूर्ण रूप से नहीं गया था। इस साहित्य में एक ऐसी धारा मौजूद थी जिसमें जीवन की कठिनाइयों से पार पाकर अमरत्व प्रदान करने की अमृतधारा निहित थी और जिसे आज तक मंदिरों और मठों तक ही सीमित रखा गया था। तत्कालीन समय में संत साहित्य के अतिरिक्त ऐसी कोई धारा नहीं थी जो मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्ति की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती। अध्यात्म की सीपी में छुपे होने के कारण यह साहित्य मौक्तिक साहित्य की मुख्य धारा से विलग होकर लुप्तप्राय होता जा रहा था। इस मूल्यवान निधि को संरक्षित करना बहुत दुष्कर एवं श्रमसाध्य था। इस मौक्तिक को मंदिरों और मठों से निकालकर साधारण जनता के समक्ष लाने का कार्य परशुराम चतुर्वेदी ने किया। अन्यथा यह संपूर्ण साहित्य कब का नष्ट हो गया होता। संत साहित्य की शोध की जो राह चतुर्वेदी जी ने सर्वप्रथम दिखाई थी, अधिकांश लोग आज उसी राह पर चल रहे हैं। और न केवल चल रहे हैं बल्कि वे संत साहित्य के कई अनछुए पहलुओं को उजागर करने में समर्थ भी हो रहे हैं।
ऐसा मानना कि संत साहित्य के वैचारिक एवं दार्शनिक आधार पूर्णतः मौलिक हैं, सत्य नहीं होगा। दरअसल यह अपने पूर्ववर्ती विचारों एवं धाराओं का परिष्कार मात्र है। भक्तिकालीन संतों ने वेद, उपनिषद, बौद्ध, जैन, नाथ, वैष्णव भक्ति, सूफी साधना आदि सभी धाराओं से विचार ग्रहण किए और उसे अपने तरीके से व्यक्त किया। संत साहित्य के सन्दर्भ में परशुराम चतुर्वेदी का मानना है कि “संत साहित्य के निर्माताओं पर उनके द्वारा पहले से अपनाए गए धर्म एवं संप्रदायों का वैसा प्रभाव नहीं जान पड़ता। जिस कारण इसका वर्ण्य-विषय किंचित विपरित एवं विद्रूप बन गया है। उन्होंने सभी प्रकार के मतों को प्रकट करते समय इस बात का ध्यान रखा है कि केवल तथ्य को ही महत्व दें और व्यर्थ के बाह्य
आडम्बरों का पूर्ण बहिष्कार करें, भावातिरेक में बहके नहीं, कथनी और करनी के सामंजस्य को ही सर्वाधिक महत्व दें।”[1]
बात अगर संत साहित्यकारों के प्रेरणा स्रोतों की करें तो सर्वप्रथम हमारा ध्यान हमारे प्राचीनतम साहित्य वेदों की ओर जाता है। संत साहित्य में आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्धों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। यहाँ आत्मा को परमात्मा का अभिन्न अंग माना गया है। वैदिक साहित्य में भी आत्मा-परमात्मा विषयक यही सिद्धांत प्रतिपादित है, जिसे संतों ने पूर्णरूपेण स्वीकारा है, यारी साहब इसी आत्मा-परमात्मा की बात करते हुए कहते हैं-
“उष्ट दल के भीतर बोलता इक सुआ
तोरी पिंजर उड़त चाहत प्रेम परगट हुआ”
हालांकि कई विद्वानों ने संतों की एकत्व भावना को वैष्णव और इस्लामी एकेश्वरवाद का फल माना है, परंतु वास्तव में यह वैदिक विचारधारा का प्रभाव है।
वेदों के अतिरिक्त संत साहित्य पर उपनिषदों का भी प्रभाव दिखाई देता है। संतों ने उपनिषदों में बताए गये आचार पालन, सन्यास, योगाचार्य आदि के मार्ग को ही परमात्मा प्राप्ति का मार्ग माना है:
“पानी ही तै हिम भया, हिम है गया विलाई
जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाए” (कबीरदास)[2]
ज्ञान की भावना को संत कवियों ने जैन विचारधारा से अपनाया है। जैनी तपोमय जीवन को ही मोक्ष का आधार मानते हैं। जैनियों के यहाँ ब्राह्मण धर्म में विद्यमान जाति प्रथा को हीन दृष्टि से देखा जाता है अतः संतों ने जैनियों से जाति प्रथा के प्रति खण्डनात्मक भाव को अपनाया है:
“जे ते वामन वामनी जाया
तो आन बाट ह्वै काहे न आया।” (कबीरदास)[3]
वैदिक धर्म में जब अंधविश्वास, हिंसा, अंधानुकरण, आदि कृत्यों का तीव्रता से प्रसार होने लगा, तब इसके प्रतिवादस्वरूप बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। संत साहित्य पर इसी बौद्ध धर्म का सर्वाधिक प्रभाव लक्षित होता है। डॉ. रामकुमार वर्मा मानते हैं कि “यदि संत काव्य पर विचार किया जाए तो ज्ञात होगा कि इसका दृष्टिकोण बौद्ध धर्म के दृष्टिकोण के अनुरूप ही है, यदि धर्म के विकास का इतिहास देखा जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि संत साहित्य बौद्ध साहित्य की परंपरा से ही अनुप्राणित होता है।”[4]
बौद्धों की तरह संतों ने भी जीव हिंसा का विरोध किया तथा सत्य को परम तत्व की प्राप्ति का प्रधान साधन माना है। संतों ने दार्शनिक सिद्धांत प्रतिपादन, साधना-पद्धति के चयन, भाषा और अभिव्यक्ति के उपकरण तलाशने, पुस्तकीय ज्ञान के खंडन का विवेक पाने, वेद आदि की उपेक्षा करने और हठयोग आदि के निरूपण में नाथ पंथ का अनुकरण किया। संतों की दार्शनिक भावना को नाथ पंथ ने अत्यधिक प्रभावित किया है, उन्होंने ब्रह्म का निरूपण नाथों के समान द्वैताद्वैत विलक्षण ज्योति स्वरूपी तत्व के रूप में किया है।
“जग महे जन्म जहां लग भयउ
एक ब्रह्म से जानत रहउ।”
नाथ पंथ की ही तरह शैव दर्शन का भी प्रभाव संत साहित्य पर पर्याप्त मात्रा में लक्षित होता है। शिव दर्शन का मूल आधार स्वयं शिव का व्यक्तित्व हैं। शैव सिद्धांतवादी वस्तुतः द्वैतवादी है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों में शिव के कई रूपों की चर्चा मिलती है। संत साहित्य पर शैवमत के प्रभाव के प्रश्न पर आचार्य चतुर्वेदी जी कहते हैं कि “संत साहित्य के अंतर्गत जहां कुंडलिनी को उद्बुद्ध कर उसे सुषुम्ना द्वारा ऊपर ले जाने का योग साधनात्मक वर्णन आता है। वहां उसे शक्ति के अपने उच्चतम स्थान तक पहुंच जाने का नाम प्रायः शिव एवं शक्ति का मिलन ही दिया गया है। शक्ति के अंतर्मुख होकर शिव के साथ अदम्य रूप धारण कर लेने को कश्मीरी शिव दर्शन में अंतलीन विमर्श कहा जाता है वही सामरस्थ की दशा भी है।”[5] अगर संत साहित्य पर सूफी विचारधारा के प्रभावों की बात करें तो पता चलता है कि सूफी मत ने विचारधारा की अपेक्षा उसे व्यक्त करने की शैली से ही अधिक मदद प्रदान की है। प्रेम की पराकाष्ठा और विरह की तड़पन, ये सूफी मत की प्रधान विशेषताएं हैं। ये दोनों विशेषताएं संत काव्य में मिलती हैं। कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि संतों ने दांपत्य प्रेम के प्रतीकों को सूफियों से ग्रहण किया है। चतुर्वेदी जी का भी मानना है कि सूफियों के अनुसार प्रेम की चरम परिणति दांपत्य प्रेम में ही होती है और यह अनुभूति पर आश्रित है। इसीलिए सूफ़ी साधक और परमात्मा में पति-पत्नी का संबंध मानते हैं। कबीर ने इसी पद्धति को अपनाकर राम से अपना पति-पत्नी का संबंध जोड़ा है परंतु उन्होंने सूफियों के समान अपने को पुरुष न मानकर हरि की बहुरिया ही माना है।
हरि मेरा पीव माई हरि मेरा पीव
हरि बिनु रहि न सकै मेरा जीव।
हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया
राम बड़ै मैं हरि की लहुरिया।[6]
कबीरदास अपने प्रियतम के विरह में तड़पते दीख पड़ते हैं। परमेश्वर रुपी पति के लिए तड़पने की यह प्रवृति सूफियों की देन है, संत साहित्य में प्रेम, विरह आदि को छोडकर अन्य कोई भी प्रभाव सूफियों से संत साहित्य पर लक्षित नहीं होता है।
संतों के ऊपर वैष्णव भक्ति का सबसे अधिक प्रभाव नजर आता है। वैष्णव धर्म के ग्रन्थों के आधार पर वैष्णव धर्म के सिद्धांत बने हैं। वैष्णव धर्म में भक्ति इस मत का प्रमुख उपादान माना जाता है। संतोष, धैर्य, क्षमा, शील, उदारता, दीनता, सत्य और दया इसके अंग विधान माने जाते हैं। संतों ने भी इन सभी अंग आदि को अत्यधिक महत्व दिया है। कबीरदास भी क्षमाशीलता की बात करते हुए कहतें हैं:
“क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात
कहाँ विष्णु को घटि गयो, ज्यों भृगु मारि लात। (कबीरदास)[7]
संत साहित्य में अगर इस्लाम धर्म के प्रभाव की बात करें तो हम देखते हैं कि इस्लाम धर्म में जिस तरह मूर्ति पूजा एवं अवतारवाद का विरोध किया गया है, उसी प्रकार संत साहित्य में भी मूर्ति पूजा और अवतारवाद का खंडन मिलता है। इस्लाम धर्म के द्वारा ही संतों को हिंदू धारणाओं एवं परंपराओं के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्राप्त हुआ है। डॉ. पितांबरदत्त बड़थ्वाल का मत है कि “मूर्ति पूजा तथा अवतारवाद के बहिष्कार का मूल इस्लाम धर्म में ही दीख पड़ता है।”[8] संत साहित्य में कबीर, दादू, यारीसाहब आदि के यहां मूर्तिपूजा और अवतारवाद का सशक्त खंडन दिखाई देता है।
किसी भी साहित्य के स्वरूप के निर्माण में ‘अनुभूति’ का होना सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। अगर गौर करें तो संतों की बानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह अनुभूति ही है। कहा जाता है कि काव्य में कोई भी भाषागत दोष एक बार के लिए क्षम्य हो सकता है किन्तु भावों की अशोभनीयता कभी भी स्पृहणीय नही समझी जा सकती। इसलिए किसी भी काव्य को श्रेष्ठ अथवा साधारण कहते समय सबसे पहले उसपर भावों की दृष्टि से विचार करना अधिक आवश्यक होता है। इसी को ध्यान में रखकर संत साहित्य की विशेषताओं के बारे में बताते हुए परशुराम चतुर्वेदी कहते हैं कि “संत साहित्य में भाषा की कोई सजावट नहीं दिखती… और ना ही किसी प्रकार के शब्द विन्यास, अलंकार विधान, आदि की ओर उन्मुख किसी प्रयास का पता चलता है….. इसमें कठिन से कठिन विषयों की चर्चा एक विचित्र अर्पण की शैली में की गई मिलती है और गंभीर से गंभीर भाव का सरल उद्घाटन भी मिल जाता है, इनके यहां उस भूल-भुलैया वाली पंक्तियों की भी कमी नहीं जो उलटबासियों के नाम से प्रसिद्ध है और जिनके भाव को समझ पाना टेढ़ी खीर है।”[9] संतमत के भाषागत वैशिष्टय की ओर ध्यान दिलाते हुए शुक्लजी ने कहा है कि “संतमत किसी विशिष्ट श्रेणी, वर्ग आदि तक सीमित न रहकर अपना संबंध सीधे जनसाधारण से जोड़ता है और पतित जनों के उद्धार में अपने ढंग से प्रवृत्त हुआ है इसीलिए उसने वेद-शास्त्र की भाषा को छोड़कर लोक भाषा का सहारा लिया। संतों की हिंदी का रूप बहुत कुछ अंतरप्रांतीय और सार्वदेशिक था।”[10]
संत साहित्य के प्रमुख प्रतिपाद्य विषयों की विशेषताओं की बात करते हुए परशुराम चतुर्वेदी कहतें है कि “उसमें संत व परम तत्व रूपी राम के अनिर्वचनीय रूप का दिग्दर्शन, सात्विक जीवन का महत्व, विडम्बनाओं की क्षमता आदि बहुत सी बातें गिनाई जा सकती हैं। संतों ने सांसारिक प्रपंचो में फंसे मोहाशक्त लोगों का भी वर्णन किया है और उनके यहाँ उपस्थित सामाजिक तथा सांप्रदायिक भेदभाव की आलोचना भी की है। अपनी रचनाओं में वे सदा आदर्शों तथा आध्यात्मिक गुणों की ओर विशेष ध्यान देते दीख पड़ते हैं। वे न तो किसी दार्शनिक तर्क पद्धति को काम में लाते हैं ना कोई व्याख्या करते ही जान पड़ते हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ऐसे परम गूढ़ विषयों का ठीक-ठीक वर्णन हमारी भाषा जैसे सीमित माध्यम के द्वारा कभी संभव नहीं हो सकता। यही कारण है कि उन्हें हम अपनी रचनाओं में एक ही बात को अनेक ढंग से कहते हुए पाते हैं।”[11] आचार्य चतुर्वेदी ने संत साहित्य की व्युत्पत्ति से लेकर संतों के रहन-सहन और उनकी साधनात्मक बातों की जिस तरह व्याख्या की है वह अत्यंत श्लाघनीय है। परशुराम चतुर्वेदी जी की संत साहित्य संबंधी यह नवीनतम व्याख्या इसे समझने के क्रम में पूरक सिद्ध होती है: संत साहित्य भारतीय वांग्मय परंपरा की मूल्यवान निधि है क्योंकि यह प्रधानतः जनता का साहित्य है। संत कवि भारतीय जनता के सच्चे प्रतिनिधि कवि हैं। “आचार्य क्षितिमोहन सेन ने तो संतों की वाणियों को जीवित मशाल कहा है। इन दीपशिखाओं को जलाने वाले संतों का सामान्य जीवन और उनकी दिनचर्या के पवित्र क्षणों की जो आत्मानुभूति प्राप्त हुई है उसे संत साहित्य की संज्ञा मिली है।”[12]
आचार्य चतुर्वेदी जी ने न केवल संत परंपरा और संत साहित्य पर प्रकाश डाला है, बल्कि संत मत का दार्शनिक विवेचन भी प्रस्तुत किया है। पितांबरदत्त बड़थ्वाल ने भी अपनी पुस्तक ‘हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय’ में संतमत के दार्शनिक आधार और संत विचारधारा के सैद्धांतिक एवं भावनात्मक पहलुओं का प्रथम पांडित्यपूर्ण विवेचन करने का श्रेय आचार्य चतुर्वेदी को ही दिया है। चतुर्वेदीजी के संत साहित्य के अध्ययन के मूल्यपरक दृष्टिकोणों को संक्षेप में निम्न बिन्दुओं के द्वारा समझा जा सकता है-
“1- विश्व का मूल्यपरक तत्व एक ओर अद्वितीय है और प्रत्येक व्यक्ति उससे तत्वतः अभिन्न है।
2- उक्त अभिन्नता की अनुभूति तथा स्वानुभूतिपरक आदर्श के आधार पर आध्यात्मिक जीवन का निर्वाह किया जा सकता है।
3- आध्यात्मिक जीवन की सिद्धि के लिए अपना सर्वांगिण विकास अपेक्षित है और इसमें सहायक होने वाली कोई भी साधना अभिनंदनीय है।
4- प्रत्येक दशा में अपनी अनुभूति, अभिव्यक्ति एवं आचरण में पूर्ण सामंजस्य का बना कर रहना भी अनिवार्य है।
5- व्यक्तिगत साधना के द्वारा ही आदर्श मानव समाज का निर्माण किया जा सकता है, जिसके अंत में विश्वकल्याण भी संभव है।”[13]
संत साहित्य की मूल्यपरक दृष्टि में नाम-तत्व और नाम के महत्व आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। चतुर्वेदी जी ने बताया है कि सभी संतों ने नाम-स्मरण को ही श्रेष्ठ साधना स्वीकारा है और उसे ही सभी को अपनाने का उपदेश भी दिया है। अपने गहन अध्ययन एवं अध्यवसाय के द्वारा चतुर्वेदी जी ने संतमत में साधना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए बताया है कि संतमत में नाम अथवा शब्द की महत्ता है। संत मत की ‘सुरति’ शब्द ‘साधना’ और ‘पश्चिमद्वार’ है। संत मत में सुरति, निरति और सहज समाधि की मान्यता है। संत मत में प्रतीक एवं रूपक योजनाओं का महत्व है। संतमत में दान का महत्व है। साहित्य और समाज में संत साहित्य के महत्व की ओर पहली बार चतुर्वेदी जी ने ही प्रकाश डाला था उन्होंने स्वयं कहा है कि “हिंदी वांग्मय के इतिहास में संत साहित्य का अपना एक विशिष्ट स्थान एवं महत्व है, उसकी सरिता का वह प्रमुख मूल स्त्रोत है जो उसके आदिकालीन अपभ्रंश रूप से निरंतर प्रवाहित होता आया है।”[14]
कालजयी संत साहित्य न केवल समय की दृष्टि से दीर्घकालीन है, बल्कि इसका प्रचार क्षेत्र भी व्यापक है। आचार्य जी संत साहित्य की रचनाओं का प्रारंभ बाबा गोरखनाथ से मानते हैं और इसकी पुष्टि वह सप्रमाण अपनी पुस्तक में करते हैं। संत साहित्य के प्रमुख कवियों में चतुर्वेदी जी ने कबीर की चर्चा विस्तार से की है। हिंदी में संत साहित्य के प्रेरणा स्रोतों के रूप में चतुर्वेदी जी ने बाह्य एवं आंतरिक कारणों की खोज की है। बाह्य प्रेरणा के अंतर्गत ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा अंतः प्रेरणा के तहत सैद्धांतिक, साधनात्मक, क्रियात्मक, भावनात्मक एवं सांप्रदायिक कारण निर्दिष्ट किए हैं। संत साहित्य की बाह्य एवं आंतरिक प्रेरणा की ओर इंगित करते हुए चतुर्वेदी जी ने संत साहित्य के गुरुतत्व, सतगुरु का स्वरूप, नामतत्व, नाम साधना, भगवदनाम, श्रम साधना आदि को भी स्पष्ट किया है। संतों ने वादों, संप्रदायों और पंथों से परे रहकर साहित्य के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाई है। यह साहित्य सिर्फ भाव से युक्त या मनोरंजन के साधन के रूप में हमें नहीं दिखता, बल्कि यह अनुभव के विशाल सागर के मोतियों से हमारे समाज, मन आदि में फैले अंधकार को दूर करने के लिए हमेशा प्रकाशपुंज का काम करता है।
यदि हम संत साहित्य के सम्बंध में परशुराम चतुर्वेदी के योगदान को देखें तो निष्कर्ष रूप में हम पाते हैं कि हिंदी साहित्य के इतिहास में पहली बार चतुर्वेदी जी ने ही संत साहित्य का सम्यक मूल्यांकन प्रस्तुत कर एक ऐसी पृष्ठभूमि तैयार की जिस पर अनेक परवर्ती विद्वानों ने अपनी लेखनी चलाई और जिसके आधार पर समय के साथ संत साहित्य को हिंदी साहित्य के इतिहास में एक गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। आचार्य चतुर्वेदी हिन्दी साहित्य के एक युगपुरुष थे। उनके द्वारा साहित्य में किया गया मूल्यांकन-कार्य किसी भी दशा में किसी भी अन्य समालोचक से किंचित कमतर नही है। आचार्य चतुर्वेदी ने एक न्यायधीश की तरह संत साहित्य के सभी पक्षों को पूरी तरह जांचने, परखने और टटोलने के बाद ही उसपर अपना फैसला दिया है। उनकी इसी पारखी दृष्टि की वजह से संत साहित्य को कालांतर में साहित्य में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ और संतों और संत साहित्य को हिंदी साहित्य में स्वर्णिम साहित्य के रूप में जाना गया।
सन्दर्भ ग्रन्थ:-
1) परशुराम चतुर्वेदी, 1975, संत साहित्य के प्रेरणा स्त्रोत, पृ.12 , राजपाल एंड सन्ज. दिल्ली.
2) सम्पादक.श्यामसुंदर दास, 2016, कबीर ग्रंथावली, पृ.33, प्रकाशन संस्थान, दरियागंज, दिल्ली.
3) संपादक.श्यामसुन्दर दास, 2016, कबीर ग्रंथावली, पृ.43, प्रकाशन संस्थान, दरियागंज, दिल्ली.
4) रामकुमार वर्मा, 1958, हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ.189, पुस्तक विक्रेता, इलाहाबाद.
5) परशुराम चतुर्वेदी, 1960, संत साहित्य की भूमिका, पृ. 129, हिंदी प्रेस, हैदराबाद .
6) परशुराम चतुर्वेदी, 1952, संत साहित्य, पृ.198, किताब महल, इलाहाबाद.
7) संपादक. श्यामसुन्दरदास, 2016, कबीर ग्रंथावली, पृ. 56, प्रकाशन संस्थान, दरियागंज, दिल्ली.
8) पीताम्बर दत्त बडथ्वाल, 1950, हिंदी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय (प्रस्तावना भाग), अवध पब्लिशिंग हॉउस, लखनऊ.
9) परशुराम चतुर्वेदी, 1975, संत साहित्य के प्रेरणा स्त्रोत, पृ.12 -13, राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली.
10) रामचंद्र शुक्ल, 2003, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी.
11) परशुराम चतुर्वेदी, 1975, संत साहित्य के प्रेरणास्त्रोत, पृ. 26, राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली.
12) कल्याण, संत अंक, प्रथम खंड, सन 1955, पृ. 2.
13) परशुराम चतुर्वेदी, 1962, भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक रेखाएं, पृ. 35-36, साहित्य भवन,इलाहबाद .
14) परशुराम चतुर्वेदी, 1975, संत साहित्य के प्रेरणा स्त्रोत, पृ. 99, राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली.