२१वीं सदी के कई महत्वपूर्ण विमर्शों में एक विमर्श पर्यावरण भी है। अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन से पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता चला जा रहा है जिससे खाद्यान की पैदावार में गुणोत्तर कमी आती जा रही है। इस समस्या से निजात पाने के लिए वैश्विक स्तर पर कई बड़े समीट किये जा चुके हैं किन्तु नतीजा शून्य ही रहा है। प्रकृति और मनुष्य का गहरा रागात्मक संबंध है। प्रकृति के परिवर्तन का जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। मानव जीवन में प्रकृति का मुख्य स्थान रहा है, दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं, मानव द्वारा छोड़ा कार्बनडाइऑक्साइड पेड़-पौधों के लिए भोजन का कार्य करता है तो वहीँ पेड़-पौधों द्वारा छोड़ा गया ऑक्सीजन मानव जीवन के लिए वरदान है। हाल ही में चीन ने अपने देश में गौरैया चिड़िया से परेशान होकर उनको मारने का आदेश जारी किया नतीजा ये हुआ कि चीन में मच्छर-मक्खी के संख्या में काफी इजाफा हो गया और आवाम को काफी समस्या का सामना करना पड़ा और चीन सरकार को गौरैया चिड़िया की जनसंख्या में वृद्धि करने के लिए कई विशेष कार्यक्रम चलाने पड़े। ऐसी ही है हमारी प्रकति! इसलिए यह कहा जा सकता है कि प्रकृति अनादिकाल से मानव की चिरसंगिनी रही है और यही कारण है कि मानव भी प्रकृति के बिना पूर्ण नहीं है। प्रकृति की गोद में पला मानव प्रकृति के प्रति सदैव आकर्षित रहा है। उसके मन में प्रकृति को लेकर तमाम जिज्ञासाएं जन्म लेती रहीं और उन्हीं के फलस्वरूप उसने प्रकृति को अपने काव्य में अभिव्यक्त किया। कवि सुमित्रानंदन पंत प्रकृति के कोमल कवि हैं। उन्होंने कहा भी है कि – “प्रकृति का उग्र रूप मुझे कम रुचता है । यदि , मैं संघर्ष प्रिय अथवा निराशावादी होता तो प्रकृति का रक्तरंजित कठोर रूप जो जीवन विज्ञान का सत्य है, मुझे अपनी ओर अधिक खींचता। कवि पन्त सुन्दरता के कवि हैं और प्राकृतिक सौंदर्य उनका प्रधान विषय है।”
पंत जी के भावुक हृदय पर उत्तराखंड के रमणीय वातावरण का भी गहन प्रभाव दिखाई देता है। स्वयं पंत जी के शब्दों में – “कविता करने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कूर्माचल प्रदेश को है। कवि जीवन से पहले मुझे याद है, मैं घंटों एकांत में बैठा प्राकृतिक दृश्यों को एकटक देखा करता था और कोई आकर्षण मेरे भीतर एक अव्यक्त सौंदर्य का जाल बुन कर मेरी चेतना को तन्मयकर देता था।”
पंत जी से पूर्व प्रकृति या तो आध्यात्मिक भावों को व्यक्त करने के लिए होती थी या वह नीतिपरक उपदेश के लिए या फिर उद्दीपन के लिए । लेकिन, पंत जी ने प्रकृति संबंधी रूढ़ियों को तोड़कर प्रकृति के स्वतंत्र तथा जीवनदायी रूप को स्वीकार किया, उन्हें पता था कि पृथ्वी पर प्रकृति परिवर्तन के दुष्परिणाम भयावह होंगे। यह एक कारण हो सकता है कि उन्होंने अपने काव्य में प्रकृति को महत्व दिया।
पंत जी का पहला काव्य संग्रह वीणा है। वीणा में सुंदर प्रकृति चित्रण है। पंत जी ने इस संदर्भ में कहा भी है कि – “वीणा काल में मैंने प्रकृति की छोटी-छोटी वस्तुओं की अपनी कल्पना की तूलिका में रंग कर काव्य की सामग्री इकट्ठी की है। वीणा में कवि प्रकृति को “मां मेरी जीवन की हार ” कहकर संबोधित करते हैं। पंत का प्रकृति चित्रण अद्भुत है। श्री शांतिप्रिय द्विवेदी ने कहा है – “वीणा में प्रकृति को आलंबन बनाकर जिस प्रकार की कोमल तथा उल्लासमयी अनुभूतियां पंत जी ने प्रकट की हैं वैसी आधुनिक कवियों में दुर्लभ है । ग्रंथि जो उनकी दूसरी रचना है। विरह काव्य होते हुए भी इसमें भी प्रकृति के अनेक सुंदर दृश्य है। यह सत्य है कि पल्लव तक आते-आते कवि का प्रकृति चित्रण जितना आकर्षक नहीं है जितना वीणा और ग्रंथि में मिलता है। पंत जी के प्रकृति चित्रण का बहुआयामी रूप है जो विविध आयामों में विद्यमान है – आलंबन के रूप में, उद्दीपन के रूप में, संवेदनात्मक रूप में, रहस्यात्मक रूप में, प्रतीकात्मक रूप में, मानवीय रूप में, अलंकृत रूप में, वातावरण निर्माण के रूप में, उपदेशिका के रूप में आदि। पर्यावरण और पन्त के बीच के रागात्मक संबंध को समझने के लिए उनके द्वारा चित्रित प्रकृति के हर आयाम पर नजर डालना आवश्यक है जिससे प्रकृति के प्रति पन्त जी की सजगता को देखा जा सकता है।
आलंबन रूप में प्रकृति का वर्णन पंत जी की कविता में अनेक स्थलों पर दिखाई है। उनका प्रकृति का वर्णन साधन रूप में नहीं बल्कि साध्य रूप में दृश्यमान है। आलंबन रूप में प्रकृति का चित्रण करते हुए प्राकृतिक पदार्थों के नाम गिनवा दिए जाते हैं, इसे ही नाम परिगणन शैली कहते हैं। आलंबन रूप में प्रकृति का चित्रण करते हुए वर्णन में संप्रेषणीयता का अभाव रहता है।
ग्राम्या और ग्रामश्री कविताओं में नाम परिगणन शैली के कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
“लहलह पालक, महमह धनियां
लौकी औ, सेम की फैली।
मखमली टमाटर हुए लाल,
मिर्चो की बड़ी हरी थैली”
यही नहीं, अन्य कविताओं में नाम परिगणन न करके प्रकृति के संश्लिष्ट चित्र भी अंकित किए गए हैं। बादल आंसू गुंजन परिवर्तन तथा नौका विहार में प्रकृति के चित्र देखे जा सकते हैं।
प्रकृति के उद्दीपन रूप में अनेक चित्रण पंत के काव्य में उपलब्ध हैं। कवि जब उद्दीपन रूप में प्रकृति का चित्रण करता है तो उस समय प्रकृति की स्वतंत्र सत्ता नहीं रहती तथा पाठक प्रकृति को अपनी भावनाओं के अनुरूप देखता है । प्रकृति यहां मानव के सुखदुखात्मक अनुभूतियों को उद्दीप्त करती हुई दिखाई देती है । प्रकृति का इस प्रकार का वर्णन भी दो प्रकार का होता है । पहला कवि प्रकृति के सुखद क्षणों में भावों को व्यक्त करता हुआ लक्षित होता है। दूसरे प्रकार में वियोग के क्षणों में भावों को उद्दीप्त करता है।
संयोग के अवसर पर भावों को व्यक्त करती हुई कविता –
आज मुकलित कुसमित सब ओर तुम्हारी छवि की छटा अपार,
फिर रहे उन्मद मधु प्रिय भोर नयन पलकों के पंख पसार।
इसके ठीक विपरीत वियोग काल में यही प्रकृति विरह वेदना को उद्दीप्त करती सी जान पड़ती है।
“देखता हूँ जब उपवन पियालों में फूलों के
प्रिये भर-भर अपना यौवन पिलाता है मधुकर को
अकेली आकुलता सी प्राण कहीं तब करती मृद आघात
सिहर उठता कृश गात ठहर जाते हैं पग अज्ञात।”
जहाँ प्रकृति मानव के साथ संवेदना व्यक्त करती हुई मानव की प्रसन्नता एवं हास उल्लास के क्षणों में स्वयं उल्लास व्यक्त करती है तथा दुखद क्षणों में रुदन करती सी प्रतीत होती है, वहाँ संवेदनात्मक रूप स्वयं उभर कर आता है। परिवर्तन कविता की इन पंक्तियों में आकाश और वायु का वियोगमय रूप देखा जा सकता है –
“अचिरता देख जगत की आप, शून्य भरता समीर निश्वास,
डालता पातों पर चुपचाप, ओस के आँसू नीलाकाश”
छायावादी कवियों ने प्रतीकों का प्रयोग भी प्रचुरता से किया है। प्रकृति के उपकरण उन्होंने विभिन्न प्रतीकों के रूप में अपने काव्य में प्रयुक्त किये हैं। उदाहरणार्थ “उर की डाली’ कविता को देखा जा सकता है। जिसमें पन्त जी ने कलि, किसलय, फूल को आनंद एवं उल्लास का प्रतीक मानते हुए लिखा है –
“देखूं सबके उर की डाली, किसने रे क्या क्या चुने फूल ।
जग छवि उपवन से अकूल, इसमें कलि, किसलय, कुसुम शूल।।”
प्रायः सभी छायावादी कवियों ने प्रकृति पर मानवीय चेतना का आरोप करते हुए, प्रकृति को मानव की भाँति हँसते, रोते व विविध क्रिया-कलाप करते हुए चित्रित किया है। पन्त जी छाया, बादल, संध्या, नौकाविहार, चाँदनी आदि अनेक कविताओं में प्रकृति का मानवीय रूप प्रस्तुत किया है। गंगा नदी भी नायिका के समान बालू रूपी शैया पर थककर लेटी हुई दर्शाया है।
“सैकत शैया पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल।
लेटी है श्रांत क्लांत निश्चल।” आदि अनेक उदाहरण हैं जिनके माध्यम से पन्त के प्रकृति चित्रण को रेखांकित किया जा सकता है।
निष्कर्ष रूप में पन्त के प्रकृति चित्रण को मैं आधुनिक समस्या से जोड़ते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा। पन्त जी मानव जीवन के प्रति असंतोष की प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और वे स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि निरंतर पर्यावरण के क्षरण के कारण मानव जीवन में प्रसन्नता नहीं रह गई है। ऐसे में कवि की दृष्टि प्रकृति से मानव पर है और आकाश से अधिक धरती पर। इसलिए, वे प्रकृति को संबोधित करते हुए कहते हैं –
“हार गई तुम, प्रकृति ! रच निरुपन
मानव कृति ! निखिल रूप, रेखा, स्वर
हुए निछावर, मानव के तन मन पर।।”
‘हार गई तुम प्रकृति’ का अर्थ यही है कि वैज्ञानिक प्रगति के कारण तेजी से विकसित हुई इस औद्योगिक समय में कल-कारखानों से पैदावार इतनी अधिक बढ़ गयी है कि वैश्विक स्तर पर हर साल कई गिगाटन कार्बन उत्सर्जन हो रहा है, परिणामतः धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है। इसी ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी पर अचानक तापमान तथा मौसम में बदलाव के फलस्वरूप खाद्यान पैदावार में कमी तथा जनजीवन पर इसका प्रभाव पड़ रहा है । वैश्विक स्तर पर चिंता जाहिर करते हुए विश्व के तमाम देश क्योटो प्रोटोकाल, कोपनहेगन समीट तथा यूनाइटेड नेशन कांफ्रेंस ऑन क्लाइमेट चेंज जैसे बड़े समीटों के माध्यम से कार्बन तथा ग्रीन हाउस गैसेस को नियंत्रित करने का उपाय हरियाली बताया गया है।
प्रकृति के प्रति जो चिंता आज वैश्विक स्तर पर देखी जा रही है वो चिंता पन्त के काव्य में सौ साल पहले दर्ज हो चुकी है इसे पन्त की दूरदृष्टि मानें या उनकी प्रासंगिकता, सच तो यह है कि उनका काव्य प्रकृति के प्रति आशावादी दृष्टि रखता हुआ जीवन का काव्य है।
संदर्भ ग्रंथ –
- आधुनिक कवि भाग -२ -पंत , पृष्ठ १
- कविवर पंत और ग्राम्या, लेखक – आचार्य दुर्गा शंकर मिश्र पृष्ठ – ४३