एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर रहना और अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करना पलायन कहलाता है । पलायन (माइग्रेशन) को किसी व्यक्ति के विस्थापन के अर्थ में परिभाषित किया गया है। पलायन करने वाला व्यक्ति अपनी जन्मभूमि अथवा स्थायी आवास को छोड़कर देश में ही कहीं अन्यत्र रहने चला जाता है। पलायन मूल रूप से आर्थिक प्रक्रिया का ही एक भाग है जिसके अंतर्गत लोग रोजगार की तलाश में एक जगह से दुसरे आते – जाते रहते हैं । इस आर्थिक प्रकिया में शामिल लोगों के जीवन में आर्थिक और बौद्धिक सुधार जैसी सकारात्मक चीजे आयी हैं, वही दूसरी ओर सामाजिक और आर्थिक शोषण जैसी नकारात्मक पहलुओं सभी रूबरू होना पड़ता हैं ।वर्तमान समय में वैश्विकरण, शहरीकरण और आधुनिकीकरण के दौर में पलायन की घटना सामान्य हैं वही इसे विकास का प्रतिक माना जाता हैं ।भारत में यह पलायन की प्रवृत्ति कई रूपों में देखी जा सकती है जैसे ग्राम स्तरीय पलायन जो की एक गांव से दूसरे गांव में होती हैं । दूसरी, ग्राम-पलायनस्तरीय पलायन जो की गाँवों के लोगों के द्वारा आसपास अथवा दूर- दराज के नगरों व् महानगरों में होता हैं,तीसरे प्रकार के पलायन का प्रकार पलायनस्तरीय होता है जिसके अंतर्गत लोग एक पलायन से दुसरे पलायन में पलायन करते हैं । परन्तु भारत में “गांव से शहरों” की ओर पलायन की प्रवृत्ति कुछ ज्यादा है। हाँलाकि गांवों से शहरों की ओर पलायन का सिलसिला कोई नयी समस्या नहीं है। खास कर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले पिछड़े और कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि वाले लोगो में पलायन की समस्या सामान्य रूप से देखी जा सकती हैं ।गांवों में कृषि भूमि के लगातार कम होते जाने, आबादी बढ़ने और प्राकृतिक आपदाओं के चलते रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों-कस्बों की ओर मुंह करना पड़ा। गांवों में बुनियादी सुविधाओं की कमी भी पलायन का एक दूसरा बड़ा कारण है। गांवों में रोजगार और शिक्षा के साथ-साथ बिजली, आवास, सड़क, संचार, स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों की तुलना में बेहद कम है। इन बुनियादी कमियों के साथ-साथ गांवों में भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के चलते शोषण और उत्पीड़न से तंग आकर भी बहुत से लोग शहरों का रुख कर लेते हैं। एक तरफ जहां शहरी चकाचौंध, भागमभाग की जिन्दगी, उद्योगों, कार्यालयों तथा विभिन्न प्रतिष्ठानों में रोजगार के अवसर परिलक्षित होते हैं। शहरों में अच्छे परिवहन के साधन, शिक्षा केन्द्र, स्वास्थ्य सुविधाओं तथा अन्य सेवाओं ने भी गांव के युवकों, महिलाओं को आकर्षित किया है। वहीं गांव में पाई जाने वाली रोजगार की अनिश्चितता, प्राकृतिक आपदा, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव ने लोगों को पलायन के लिए प्रेरित किया है।
भारत में पलायन: एक परिदृश्य
साल 2001 में भारत में अपने पिछले निवास स्थान को छोड़कर कहीं और जा बसने वाले लोगों की संख्या 30 करोड़ 90 लाख थी।कुल जनसंख्या में यह आंकड़ा 30 फीसदी का बैठता है। साल 1991 की जनगणना से तुलना करें तो 2001 में पलायन करने वाले लोगों की तादाद में 37 फीसदी का इजाफा हुआ है। आकलन के मुताबिक साल 1991 से 2001 के बीच 9 करोड़ 80 लाख लोग अपने पिछले निवास स्थान को देश में कहीं और रहने के लिए विवश हुए।
जनगणना 2001 के आंकड़ों को हम देखे तो हमे पता चलता हैं की एक राज्य के अन्दर होने वाले पलायन करने वालों की संख्या पिछले एक दशक में 9 करोड़ 80 लाख तक जा पहुंची हैं । इसमें 6 करोड़ 10 लाख लोगों ने ग्रामीण से ग्रामीण इलाकों में और 3 करोड़ 60 लाख लोगों ने गावों से शहरों की ओर पलायन किया। पिछले एक दशक के पलायन किये हुए लोगों की संख्या को देखे तो यह कह सकते हैं की महाराष्ट्र राज्य देश में अन्य राज्यों से सबसे आगे जो की पलायन करने वाले लोगो की पहली पसंद बना हुआ हैं । महाराष्ट्र देश में पहला स्थान रखता हैं जहाँ पर देश के दुसरे प्रदेशों के लोग अपने निवास स्थान छोडकर वहाँ रहने गए । महाराष्ट्र में आने वालों की तादाद महाराष्ट्र से जाने वालों की तादाद से 20 लाख 30 हजार ज्यादा है। इसके बाद क्रमशः दिल्ली (10 लाख 70 हजार), गुजरात (0.68 लाख) और हरियाणा (0.67 लाख) राज्य का स्थान आता हैं जहाँ लोग पलायन होते हैं । देश में उत्तर प्रदेश और बिहार दो ऐसे राज्य हैं जहाँ से लोगों का पलायन देश में सबसे ज्यादा होता हैं । उत्तरप्रदेश से जाने वालों की तादाद वहां आने वालों की तादाद से 20 लाख 60 हजार ज्यादा है और बिहार से जाने वाली की तादाद बिहार आने वालों की तादाद से 10 लाख 70 हजार ज्यादा है ।
2001 जनगणना के अनुसार देश में कुल पलायन हुए लोगों की कुल संख्या 98,301,342 थी। जिसमे 21 प्रतिशत (20,608,105) अपने पुरे परिवार के साथ अपने मूल स्थान से पलायन कर दुसरे स्थानों पर चले गए थे ।जहाँ पुरुष जनसँख्या 14.7 प्रतिशत रोजगार की तलाश में पलायन किये, वही 43.8 प्रतिशत महिलायों ने ‘विवाह पश्च्यात अपने मूल स्थान से पलायन के किया’। इसी क्रम में 6.7 प्रतिशत जनसँख्या जन्म के बाद ही पलायन क्र गए, शिक्षा प्राप्त करने के लिए 3 प्रतिशत तथा व्यवसाय करने हेतु 1.2 प्रतिशत लोगो देश भर में पलायनकिया ।2001 जनगणना के आकड़ों को देखने से पता चलता हैं की देश में हो रहे पलायन के पीछे जो महत्वपूर्ण कारक मौजूद है वह पुरुषों और महिलायों के लिए अगल-अलग भूमिका निभाते हैं ।जहाँ पुरुष वर्ग में रोजगार प्रमुख कारक था वही महिलायों में विवाह पश्च्यात पलायन ।
सारणी संख्या – एक
भारतवर्ष में पलायन की स्थिति एवं कारक
पलायन के कारक | पलायन हुए लोगो की संख्या | पलायन लोगो का प्रतिशत |
कुल पालयन | 98,301,342 | 100.0 |
कार्य व् रोजगार | 14,446,224 | 14.7 |
व्यवसाय | 1,136,372 | 1.2 |
शिक्षा | 2,915,189 | 3.0 |
विवाह | 43,100,911 | 43.8 |
जन्म पश्चयात चले जाना | 6,577,380 | 6.7 |
पुरे परिवार के साथ चले जाना | 20,608,105 | 21.0 |
अन्य | 9,517,161 | 9.7 |
(स्रोत: भारत की जनगणना, 2001)
परंपरागत रूप से पालयन की स्थिति (गाँवों से शहरों की ओर पलायन)
योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत 11 वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज के अनुसार पिछले तीन दशकों में गांवों में रहने वाले लोगों की संख्या में कमी हुई है और शहरों में रहने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। इस तथ्य से संकेत मिलते हैं कि ग्रामीण जन अपनी गरीबी से निकलने के लिए शहरों का रूख कर रहे हैं। साल 1991-2000 में देश में आप्रवासी मजदूरों की संख्या 10 करोड़ 27 लाख थी। यह एक बड़ी और चौंकाऊ तादाद है। मौसमी तौर पर पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या कम सेकम २ करोड़ होने का अनुमान है।
असंगठित क्षेत्र के उद्यम और रोजगार से संबंधित आयोग यानी नेशनल कमीशन ऑन इंटरप्राइजेज इन अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर (NCEUS) के द्वारा जारी दस्तावेज के अनुसार ग्रामीण श्रमिकों से संबंधित राष्ट्रीय आयोग यानी द नेशनल कमीशन ऑन रुरल लेबर (NCRL (1991) की रिपोर्ट में कहा गया है कि गांवों में ज्यादातर वही लोग मौसमी तौर पर पलायन करते हैं जिनके पास खेती की जमीन कम या नहीं है अथवा जो मजदूरी करते हैं।ऐसे आप्रवासी लोग वंचितों की कोटि में आते हैं क्योंकि ये लोग भयंकर गरीबी से त्रस्त होते हैं और इनके पास अपने काम की एवज में मोलभाव करने की भी कोई खास क्षमता नहीं होती। इन्हें असंगठित क्षेत्र में काम करना पड़ता है जहां उनके हितों की सुरक्षा करने वाला कामकाज का कोई खास नियम नहीं होता।ऐसी स्थिति आप्रवासी मजदूरों को सामाजिक रुप से और भी ज्यादा कमजोर बनाती है।उन्हें सरकारी अथवा स्वयंसेवी संगठनों द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों में उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है,साथ ही ऐसे लोगों से संबंधित श्रम-कानून भी ज्यादा कारगर नहीं हैं।खेतिहर मजदूरों में शामिल महिलाओं के बीच रोजगार के लिए पलायन करने की प्रवृति सबसे ज्यादा है जबकि पुरुषों में सबसे ज्यादा करने वाले गैर-खेतिहर मजदूर हैं।खेती-बाड़ी का काम मौसमी होता है और इस कारण जब खेती का काम नहीं हो रहा होता तो खेतिहर मजदूर दूसरी जगहों पर रोजगार हासिल करने के लिए चले जाते हैं।एनसीआरएल के अनुसार विभिन्न राज्यों में खेती का विकास असमान रुप से हुआ है। इस वजह से जिन इलाकों में मजदूरी की दर कम है उन इलाकों से मजदूर ज्यादा मजदूरी वाले इलाके अथवा राज्यों में पलायन कर जाते हैं। यह बात खासतौर पर हरित क्रांति के बाद हुई। बिहार के मजदूरों ने रोजगार के लिए पंजाब,हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश का रुख किया । कम विकसित इलाकों में खेती के बुनियादी ढांचे पर सरकारी खर्चे की दर कम है।इससे देश के विभिन्न इलाकों के बीच खेती का विकास असमान रुप से हुआ है।एनसीआरएल यानी नेशनल कमीशन ऑन रुरल लेबर के अनुसार देश में मौसमी तौर पर पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या 1 करोड़ से ज्यादा है।साल 1960 के बाद खेती के व्यावसायीकरण की प्रवृति तेज हुई और खेती में उन्नत तकनीक का चलन बढा।इससे खेती के काम में साल की एक खास अवधि में मजदूरों की मांग ज्यादा होती है।इसी अवधि में देश के विभिन्न इलाकों से एक तरफ मजदूरों का पलायन होता है तो दूसरी तरफ स्थानीय स्तर पर मजदूरों को उपलब्ध रोजगार में गिरावट आती है।अगर किसी मजदूर को उसकी परंपरागत वास-भूमि में जीविका के साधन अथवा रोजगार के उचित अवसर उपलब्ध नहीं हो तो इस स्थिति में मजदूर पलायन कर सकता है।यह बात खास तौर पर 1990 के दशक पर लागू होती है जब खेती-बाड़ी के काम में रोजगार के सृजन में ठहराव आ गया जबकि इसी अवधि में ग्रामीण इलाकों में गैर-खेतिहर कामों में विस्तार की गति धीमी रही।गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सामाजिक और आर्थिक रुप से दयनीय दशा में रहने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों ने पिछले दशक में सामूहिक रुप से पलायन किया है।
बिहार राज्य में पलायन की समस्या
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा 2009-10 की एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल 4.42 मिलियन लोग बिहार से बाहर अन्य प्रदेशों में पलायन करते हैं । बिहार से पलायनकरने करने के पीछे बहुत सारे प्रमुख कारण हैं जो इस पलायनकी प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. बिहार राज्य देश के सबसे पिछड़े राज्यों में जीना जाता हैं जो की आर्थिक और शैक्षणिक रूप से बहुत पिछड़ा हैं । जिससे की यहाँ के लोगो को अपनी जीवकोपार्जन हेतु देश के दुसरे प्रदेशों जैसे गुजरात, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र आदि राज्यों में पलायन करना पड़ता हैं ।पलायन के अवधि के अधर पर यह कहा जा सकता हैं की यह पलायन ‘दीर्घकालीन’ तथा ‘अल्पकालीन’ दोनों ही तरह के होते हैं । बिहार में खासकर आर्थिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़े समाजों, वर्गों में पलायन की प्रक्रिया ज्यादा देखी जाती हैं ।बिहार राज्य में अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों में के पलायन की स्थिति के पीछे जो प्रमुख कारक हैं वह निम्नलिखित हैं:-
- परम्परागत जाति व्यवस्था का प्रभाव,
- कृषि कार्य हेतु संसाधनों की कमी,
- राज्य का आर्थिक रूप से पिछड़ापन,
- राजनैतिक स्तर पर विकास के प्रति इच्छा कमी,
- रोजगार और मौलिक सुविधाओं का अभाव,
- शिक्षा और साक्षरता का अभाव,
- राज्य में औद्योगिक इकाइयों की कमी,
- बाढ़ की विभिषिका का होना ।
मुसहर अनुसूचित जाति में पलायन की समस्या
मुसहर समाज परंपरागत रूप से भूमिहीन कृषि मजदूर होते हैं जो गैर-मुसहर जातियों के खेतों में कृषि कार्य कर अपने परिवार की जीविका चलते हैं । इनके द्वारा किये जाने वाले परम्परागत कृषि कार्यों में खेत काटना, मेढ़ बनाना, खेतों को समतल बनाना, फसल की रखवाली जैसे अकुशल कार्य करते हैं । अपनी अकुशल कार्य प्रवृति के कारण वर्त्तमान समय में मुसहर समाज अपनी जीविकापार्जन हेतु आस – पास के शहरों में दैनिक मजदूरी, बोझा उठाना, ईट भट्टों में मजदूरी करते हैं ।वर्त्तमान समय में मुसहर समाजों में अन्य प्रदेशों जैसी पंजाब, हरियाणा, दिल्ली आदि अन्य राज्यों में पलायन करने की प्रवृति में बढ़ोतरी हुई हैं । हाँलाकि यह पलायन पूर्ण रूप से अल्पकालीन अथवा मौसमीय होता हैं ।मौसमी पलायन (‘Seasonal migration’) की प्रवृति ग्रामीण इलाकों में लंबे समय से जारी है-खासकर यह प्रवृति भूमिहीन और भरण पोषण के लिए मजदूरी का सहारा लेने वाले सीमांत किसानों के तबके में लक्ष्य की जा सकती है। कह सकते हैं कि ग्रामीण इलाकों में जीविका के साधनों की कमी और इसकी तुलना में शहरी इलाके में जीविका के साधनों की भरमार पलायन का मुख्य. कारण है।अन्य कारणों में हम बढ़ते सूचना प्रवाह और बड़े शहरों की बढ़ती तादाद का नाम ले सकते हैं।ऐसे बदलाव के बीच गांव के लोग बेहतर अवसर की तलाश में शहरों की रूख करते हैं।जनजातीय इलाकों में बाहरी लोगों की बसाहट, निर्माण कार्यों से होने वाला विस्थापन और जंगलों की कटाई पलायन का मुख्य कारण है। ध्यान देने की बात यह भी है कि विवाह की वजह से एक निवास स्थान छोड़कर दूसरे निवास स्थान पर जा बसने वाले लोगों की संख्या कुल पलायन करने वालों लोगों की ५० फीसदी है।
आज अपने निम्न आर्थिक स्थिति होने के करण तथा क्षेत्र में कार्यों के आभाव के कारण इन समाजों में अब पलायन की समस्या पैदा होने लगी है । हांलाकि इनका पलायन सिमित काल के लिए होता है, पर यह सिमित काल उनके काम के समय से जुडा होता हैं । धन के रोपनी से धन के कटनी तक ये लोग अपने गाँव से बाहर रहते है । ये अवधि लगभग 6 महीने की होती है, इन छ : महीनों में यह अपने परिवार के सदस्यों के साथ पंजाब चले जाते हैं वहाँ वे कृषि कार्य तथा विभिन्न असंगठित क्षेत्रों में नियोजित हो जाते हैं ।
एक मुसहर मजदूर कई तरह के काम से जुड़े होते हैं । इसका कारण है क्षेत्र में मौसमी कार्यों का होना । मुसहर समाजों में गरीबी तथा जागरुकता की स्थिति निम्न स्तर के होने के कारण इनकी आय का स्रोत सिमित होता है । इस कारण इन मुसहर परिवरों में मौसमी काम – काज के कारण दुसरे प्रदेशों में इनका पलायन हो रहा हैं । शोध क्षेत्र के कुल 73 परिवारों में से 25 परिवार (33.3%) प्रत्येक साल उत्तर भारत के पंजाब तथा हरियाणा जैसे राज्यों में जाते हैं । वहां वह खेतों में धान चुनने अथवा अन्य कृषि कार्य करते । साथ ही साथ कुछ परिवार दुसरे प्रदेशों में रिक्शा चलाने का काम तथा होटलों व ढाबों में काम भी करते हैं । मौसमी पलायन हुए 25 परिवारों के सभी सदस्य के साथ पंजाब जाते हैं और साथ ही वापस भी आ जाते हैं । इसके आलावा यहाँ रह रहे सभी परिवारों में से एक सदस्य पंजाब पलायन किये हुए हैं ।
सारणी संख्या – दो
पलायन करने वाले मुसहर कामगार के नियोजन क्षेत्र(कुल सर्वेक्षित संख्या– 500)
क्रम संख्या | कार्यों के विवरण | प्रतिशत (%) |
1. | कृषि क्षेत्र | 62 |
2. | रिक्शा चालक | 12 |
3. | होटल कर्मी | 4 |
4. | भवन निर्माण मजदूर | 14 |
5. | अन्य | 8 |
कुल | 100 |
दुसरे राज्यों में पलायन करने वाले इन मुसहर मजदूरों के नियोजन क्षेत्र एवं उसमे इनकी भागीदारी को जानने के लिए शोधकर्ता द्वारा वैसे 50 लोगों को शामिल किया गया है जो क्षेत्र – कार्य के वक्त वापस अपने निवास स्थान (पखनारी मुसहर टोला) आये हुए थे । शोधकर्ता को उनसे जो जानकारी मिली उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि बाहर जा कर कार्य करने वाले मुसहर कामगारों में से 62 प्रतिशत कृषि कार्य में लगे हुए हैं । इसके आलावा 12 प्रतिशत मुसहर कामगार रिक्शा चालने का कार्य करते है । 4 प्रतिशत होटल कर्मी के रूप में काम कर रहे है तथा 14 प्रतिशत मुसहर भवन निर्माण मजदूर के रूप में काम कर अपनी आजीविका चला रहे थे । अध्ययन से यह स्पष्ट है की यह मुसहर समुदाय के पलायन की स्थिति में भी इनका मूल कार्य की प्रकृति में कोई बदलाव नहीं हो पाया हैं । पलायन किये स्थान पर मुसहर जनसँख्या सर्वाधिक रूप से कृषि क्षेत्र में ही नियोजित है । इसका एक प्रमुख कारण यह है की इन मुसहर कामगारों के पास कोई हुनर न होने के करण दुसरे राज्यों में भी भूमि से सम्बन्धित कार्यों पर ही आश्रित होना पड़ता है ।मुसहर समुदायों की पलायन का मुख्य रूप से तीन कारण पाया गया । वे निम्न हैं –
सीमित कार्य क्षेत्र का होना:
सर्वेक्षित क्षेत्र के मुसहर समुदाय के लोगों के पास सिमित कार्य क्षेत्र का होना इनकी आर्थिक स्थिरता को प्रभावित करता है । इसका करण हैं इन समूहों की आर्थिक जीवन का कार्यभार कृषि आधारित कार्यों पर टिका हुआ है । जिस कारण फसलों की रोपनी से लेकर फसलों की कटनी तक उके पास कोई कार्य नही होता, जिससे उनकी आय का स्रोत बना रहे । इसलिए इन अवधि में ये लोग दुसरे प्रदेशों में कार करने चले जाते हैं । वहाँ वे अनाज चुनने, होटलों में काम करने तथा अन्य मजदूरी कार्यों को करके अपना और अपने परिवार का जीवन निर्वाह करते हैं ।
निम्न मजदूरी का होना :
मुसहर समाज की पलायन के लिए निम्म आर्थिक स्थिति भी बहुत हद तक जिम्मेवार हैं, जो कि बहुत हद तक स्थानीय स्तर पर मिलने वाली मजदूरी का कम होना भी हैं । कृषि कार्य से सम्बन्ध्ति कार्यो के एवज में इन मजदूरों को 200-250 रूपये मजदूरी दिया जाता हैं । यह मजदूरी दर ग्रामों में प्रचलित अन्य कार्यों की मजदूरी दर से कम हैं । गाँव में अन्य कार्यों जैसे बढई का काम, लौहे का काम, गाडी मरम्मत का कार्य आदि स्थानीय कार्यों के लिए 250-300 रूपये तक दिए जाते हैं । कृषि कार्य में निम्न मजदूरी का मिलाना भी इनको दिन – प्रतिदिन गिरती जा रही आर्थिक स्थिति के लिए जिम्मेवार पाई गई ।
कर्ज का बोझ होना :
कम आय वर्ग के सदस्य होने की वजह से मुसहर समुदाय के विभिन्न मौकों पर क़र्ज़ भी लेना पड़ता हैं जैसे शादी – विवाह, श्राद्ध – कर्म, बीमारी इत्यादि । कम आय होने के कारण यह लोग लिया कर्ज समय से चूका नहीं पाते, जिस कारण परिवार पर कर्ज का बोझ भी समय दर समय बढ़ता रहता हैं । स्थानीय स्तर पर काम के अवसर की कमी के कारण इन्हें क्षेत्र से बाहर प्रदेशो में जा कर काम करना पड़ता हैं ।
निष्कर्ष और सुझाव
गांव हमारे देश की रीढ़ हैं, जो कि देश की आधारशिला रखते हैं। जैसे किसी मजबूत इमारत को बनाने की बात करें तो सर्वप्रथम उसकी बुनियाद मजबूत बनायी जाती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि देश की बुनियाद कठोर करने के लिए तथा उसका सम्पूर्ण विकास करने के लिए ग्रामीण संरचना को प्राथमिकता देनी चाहिए। अर्थात ग्रामीण क्षेत्रों को विकास की लहर से जोड़ना चाहिए। यहीं दूसरी ओर यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात करें तो पिछले कुछ दशकों से ग्रामीण क्षेत्रों से हो रहे प्रवास में अधिकता पायी गयी है। जो समय के साथ-साथ पूर्ण प्रवास अर्थात् पलायन में तब्दील हो रहा है।
भारत में पलायन परम्परागत रूप से गाँवो से शहरों की ओर हो रहा है । ग्रामीण जनसंख्या शीघ्रता से शहरों की ओर भाग रही है। क्योंकि अच्छे जीवन की तलाश हर व्यक्ति करता है। इसके अतिरिक्त अन्य कारणों को भी पलायन की समस्या का जिम्मेदार माना जा सकता है। उदाहरण के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से लघु/कुटीर उद्यागों का पतन होना, कृषि की समाप्ति होना, भूमिहीन कृषक, गरीबी की समस्या, सामाजिक अयोग्यतायें, अधिक मजदूरी की इच्छा, नगरों का आकर्षण, बेरोजगारी आदि अनेक कारण अध्ययन क्षेत्र में सामने आये हैं। पलायन की इस विकराल समस्या के कारण क्षेत्रीय असंतुलन भी बढ़ रहा है । जहाँ एक तरफ शहरों में जनसंख्या बढ़ रही है वही दूसरी तरफ गाँवो की जनसँख्या घट रही है जिसके कारण कई गाँवो विलुप्त् हो गए है और कई विलुपति के कगार पे है । इसका साक्षात् उदहारण उत्तराखंड के अनेको गाँवों के जनविहीन हो जाना हैं । इस प्रकार के गाँवों को बचाने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र भारतवर्ष का आधार हैं। अतः गांवों को प्राथमिकता देना अत्यन्त आवश्यक है।
बिहार राज्य में रहने वाले अनुसूचित जातियों खासकर मुसहर समाजों को पलायन से रोकने के लिए जरुरी हैं तथा इनकी मुलभुत समस्याओ के निवारण के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओ के बारे में इन लोगों में जागरूकता फैला ना चाहिए अर्थात लोगो को उनके लिए चलायी जा रही योजना और सुविधा का ज्ञान कराना । ग्रामीणों क्षेत्र में रहने वाले पिछड़े समाजों के लोगो को स्व-रोजगार हेतु प्रशिक्षण एवं आर्थिक सहायता देना, लघु एवं कुट्टिर उद्योग जो बंद हो गए है या बंद होने की कगार पर है उनका जिर्णो-उद्धार करना आदि। गाँवो में स्कूली शिक्षा के साथ – साथ कौशल विकास की भी शिक्षा देना जिस से की वे आत्म निर्भर हो सके । सरकार द्वारा गाँवो में बिजली की व्यवस्था करना चाहिए जिस से की छोटे छोटे कारखाने शुरू किये जा सके और साथ ही साथ पर्यटन को भी बढ़ावा देना चाहिए ।
सन्दर्भ सूची:-
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- मिश्रा, एस0 एन0 (1998) डायनामिक्स ऑफ़ रूरल –अर्बन माइग्रेशन, अनमोल पब्लिकेशन, नई दिल्ली.
- जोशी, के0जी0 (1997), माइग्रेशन एंड मोबिलिटी, हिमालय पब्लिशिंग हाउस, बॉम्बे ।
- जोशी, वी0 (1987) माइग्रेशन लेबर एंड रिलेटेड इश्यूज, ऑक्स्फ़र्ड एंड IBH पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली ।
- काम्बले, एन0 डी0 (1983) लेबर माइग्रेशन इन इंडियन स्टेट, आसिष पब्लिशिंग हाउस, नई दल्ली ।
- शर्मा, जे0 और महतो, आर0 के0 (2009), चाय बागन के प्रवासी जनजातीय मजदूरों की समस्यों का एक मानवशास्त्रीय अध्ययन, वन्यजाति, अंक 57, संख्या 04, पेज संख्या 35-39.
रिपोर्ट:
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- साऊथ एशिया नेटवर्क ऑन डैमस्,रीवरस् एंड पीपल(SANDRP), द्वारा प्रस्तुत लार्ज डैम प्रोजेक्टस् एंड डिस्पलेस्मेंट इन इंडिया (http://www.sandrp.in/dams/Displac_largedams.pdf)
- असंगठित क्षेत्र के उद्यम और रोजगार से संबंधित आयोग यानी नेशनल कमीशन ऑन इंटरप्राइजेज इन अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर(NCEUS) के दस्तावेज-रिपोर्ट ऑन द कंडीशन ऑव वर्क एंड प्रमोशन ऑव लाइवलीहुड इन द अनऑर्गनाइज्ड सेक्टरके दस्तावेज ।
- अमेरिकन इंडिया फाऊंडेशन द्वारा प्रस्तुतमैनेजिंग द एग्जोडस्–ग्राऊंडिंग माइग्रेशन इन इंडिया नामक दस्तावेज ।
- माइग्रेशन इन इंडिया २००७-२००८, नेशनल सैंपल सर्वे, भारत सरकार ।
- http://censusindia.gov.in/Census_And_You/migrations.aspx (http://www.im4org/hindi/खेतिहर-संकट/पलायन-माइग्रेशन-34/print)