परिवार मानव समाज की सर्वाधिक प्राचीन छोटी किंतु सुसंगठित संस्था है। पति – पत्नी और उनकी संतान इसके निर्मायक होते हैं । वैश्विक सभ्यता और संस्कृति के विकास से प्रभावित आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक परिवेश पारिवारिक व्यवस्था को बदलते हैं । मशीनीकरण की दौड़ में स्वयं मशीन बन गए मनुष्य की जिंदगी में समयाभाव और आर्थिक सीमितता ने उसे स्वार्थी और आत्म केंद्रित बना दिया है। अब संयुक्त परिवार एकल होते जा रहे हैं जिनमें संबंधों के रेशमी धागे उसे उलझाने वाले लगते हैं । वह शीध्रतातिशीध्र उनसे मुक्त होना चाहता है । प्रेमचंद की रचनात्मकता का प्रमुख आयाम परिवार के प्रति उनकी मोहग्रस्तता है। उनके अपरिमित अनुभव परिसर के दर्पण में प्रतिबिंबित उनका कथासाहित्य बहु आयामी पारिवारिक जीवन की सतरंगी चित्रविथियां हैं। उन्होंने स्वयं परिवार में सबके साथ रहते हुए सुख दुःख और उठापटक को अनुभव किया था । परिवार के महत्व से वे भलीभांति परिचित थे और इसीलिए उनकी अधिकांश कहानियां परिवार निष्ठ हैं। प्रेमचंद के कथनानुसार-“हमारी सभ्यता में सम्मिलित कुटुंब एक प्रधान अंग था। पश्चिम सभ्यता में परिवार का अर्थ था-केवल स्त्री और पुरुष। दोनों में बुराइयां और भलाइयां दोनों ही हैं, पर जहां एक में सेवा और त्यागप्रधान है,वहां दूसरे में स्वार्थ और संकीर्णता।”(1)(विविध प्रसंग,भाग 3 ,प्रेमचन्द,पृष्ठ 193 )
प्रेमचंद के समय में संयुक्त परिवार की प्रथा थी। परिवार का वयोवृद्ध पुरुष मुखिया होता था। शेष सभी सदस्य उसके अनुशासन में रहते थे । सबकी कमाई परिवार की कमाई थी जिस पर मुखिया का नियंत्रण होता था। उसकी मृत्यु के उपरांत सारी संपति बिना किसी भेदभाव के उसके पुत्रों में बंट जाती थी। पुरुष वर्चस्व वाले ऐसे परिवारों में स्त्री की स्थिति दोयम होती थी। सामाजिक नैतिक जकड़नों में जकड़ी नारी सामान्य मानवीय अधिकारों से वंचित पशुवत जीवन जीती थी । कौमार्यावस्था में पिता और भाईयों के तथा विवाहोपरांत पति के संरक्षण में जीना उसकी नियति थी । पति परित्यक्त स्त्री की स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी थी जिसे घर -घाट दोनों में केवल लांछित और दुत्कारा जाता था । सतीत्व और मातृत्व उसके आभूषण थे । निसंतान, केवल कन्या की जन्मदात्री नारी को अन्तहीन लांछन सहने पड़ते थे। पर्दा प्रथा , बाल विवाह , दहेज , अनमेल विवाह , वेश्यावृति जैसी कुप्रथाएं प्रचलित थीं जिनमें अपने ही बुने जाल में फंसा मकड़ी की भांति स्त्री घुट -घुटकर जीती थी।
सामंतवादी अर्थव्यवस्था का स्थान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लेते ही संयुक्त परिवार विघटित होने लगे तथा उनका स्थान आणविक और एकल परिवार लेने लगे। प्रेमचंद ने स्वयं भी संयुक्त परिवारों को टूटते देखा था किंतु ग्रामीण अर्थव्यवस्था में संयुक्त परिवारों के महत्व को देख उन्होंने उसका ही पोषण -समर्थन किया । उन्होंने अपनी कहानियों में प्रमुख पात्रों के पारिवारिक जीवन के चित्र बड़े ही मनोयोग से लिपिबद्ध किए हैं । वे मानते थे कि परिवार मनुष्य के जीवनादर्श एवं विश्व दृष्टि को परखने वाला प्रथम स्थान होता है। पारिवारिक संस्कार उसके व्यक्तित्व को गढ़ते हैं और उस पर स्थाई प्रभाव डालते हैं। ‘सप्त सरोज’ (19 17 )में संकलित ‘बड़े घर की बेटी’ की कथा नायिका उच्चकुलोत्पन्न आनंदी में तदनुरुप श्रेष्ठ संस्कार हैं। गौरीपुर के जमीदार बेनी माधव के संयुक्त परिवार की बड़ी बहू के रूप में देवर लाल बिहारी की उद्दंडता , कर्कशता एवं खड़ाऊ खींचकर मारने से उसका स्वाभिमान आहत होता है। उसका सर्वांग जल उठता है और वह उसे उचित मार्ग दिखाने का निश्चय करती है । पति के सम्मुख सारी बात का बतंगड़ बना कर इस प्रकार प्रस्तुत करती है कि वह भी भाई का मुंह ना देखने की कसम खाता है । जहां आग लगी हो वहां जमालो दूर खड़ी तमाशा देखती ही है । जमीदार परिवार की कलह भी तमाशबीनों को जोड़ लेती है । हुक्का चिलम की तलब तो महज बहाना होती है । अपने व्यवहार से ग्लानि से भरा लाल बिहारी घर टूटने की अप्रिय स्थिति से मुक्ति पाने के लिए स्वयं घर छोड़ने का निर्णय लेता है। जाते-जाते भाभी से क्षमा याचना करता है। सामान्यतः ऐसे झगड़ों का अंतिम परिणाम संयुक्त परिवारों का विघटन होता है किंतु आनंदी के बड़े घर के संस्कार उभरते हैं । वह परिवार को टूटने नहीं देती। देवर को क्षमा कर उसके परिताप को महत्व देती है तथा पति के क्रोध को शांत कर बिगड़ी स्थिति को सामान्य कर देती है । कलह की कालिमा छटते ही परिवार में सुख शांति छा जाती हैं। तमाशबीनों की भीड़ भी मनचीता ना होने पर बड़े घर की बेटी के गुण गाते छंट जाते हैं । यह कहानी प्रेमचंद को भी अत्यंत प्रिय थी। वे साहित्य के त्रिविध उद्देश्यों -परिष्कृति, मनोरंजन एवं उद्घाटन में से परिष्कृति को प्रमुख मानते थे। विवेच्य कहानी का ध्येय भी चरित्र परिष्कार है । वे मानते थे कि परिवार एकल हो या संयुक्त , उच्च मध्य या निम्नवर्गीय सबमें समस्याएं होती हैं । जहां चार बर्तन होते हैं वे खड़कते भी हैं पर जहां वे खड़कने के बाद सीधे हो जाएं तो अनिष्टकारी नहीं होते। इसी प्रकार स्वार्थ और उदारता के अन्तःसंघर्ष में उन्नत भावनाएं ही बीस ठहरती हैं। अपनी इसी मान्यता के अनुरूप यथार्थ का निर्मम अंकन करने के उपरांत उन्होंने आदर्श के माध्यम से जीवन की यथोचित दिशा निर्देशित की है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में संयुक्त परिवार का विघटन अत्यंत घातक था । ‘अलग्योझा ‘ कहानी में उसके दुष्परिणामों का अंकन मिलता है। पिता की मृत्यु के पश्चात छोटे सौतेले भाईयों का संतानवत् पालन पोषण करने वाला रघ्घु कलह प्रिय पत्नी मुलिया के कारण चाहकर भी परिवार को टूटने से नहीं बचा पाता। विमाता पन्ना का अलग्योझा करने के निर्णय के साथ आंगन में दीवार ही नहीं खींचती बल्कि बैल बधिए भी बंट जाते हैं । मुलिया की स्वार्थपरता और अदूरदर्शिता के कारण अलग-थलग पड़ा रघ्घु अकेले अपने खेत नहीं संभाल पाता।ऋणग्रस्तता और कठोर परिश्रम से वह रोग ग्रस्त हो प्राण त्याग देता है । मुलिया और उसके दो छोटे बच्चों को निस्सहाय ना छोड़कर पन्ना ही पुनः टूटे परिवार को जोड़ती है । विवेच्य कहानी के माध्यम से लेखक ने बताया है कि व्यक्तिगत स्वार्थ परिवार के बिखराव का कारण बनता है।
कहीं- कहीं यह परिवारिक कलह अत्यंत भयंकर रूप धारण कर लेती है। ‘दो भाई’ कहानी में दो शरीर एक प्राण जैसे दो भाई केदार और माधव का प्रगाढ़ प्रेम केदार की पत्नी चंपा की ईर्ष्याग्नि में खाक हो जाता है । प्रारंभ में एक ही परिवार में दो चूल्हे जलते देख निराहार रह जाने वाले भाई एक दूसरे को देख- देख कर रोते हैं किंतु धीरे-धीरे रोने का स्थान हंसी और ताली ले लेती है। ” दोनों भाई जब लड़के थे, तब एक को रोते देख दूसरा भी रोने लगता था, तब वह नादान बेसमझ और भोले थे।आज एक को रोते देख दूसरा हँसता और तालियाँ बजाता। अब वह समझदार और बुद्धिमान हो गए थे।”(2)(दो भाई, मानसरोवर भाग 7,पृष्ठ 216 )माधव की विपत्ति से भी केदार नहीं पसीजता और उसके हिस्से के घर को रेहन पर रखकर ही उसे पैसा देता है । उनका घर ही नहीं दिल भी बंट जाते हैं ।
पारिवारिक कलह के अतिरिक्त परस्पर सौहाद्र का अभाव आत्मकेंद्रण एवं स्वार्थपरता , स्वामित्व की आकांक्षा तथा किसी सदस्य की अकर्मण्यता भी संयुक्त परिवार को विघटित करने के कारक होते हैं । ‘बैर का अंत ‘ कहानी में रामेश्वर की जमीन , उसमें और विश्वेश्वर में झगड़े का कारण बनती है । मन की खटास कोर्ट कचहरी तक पहुंचती है। विश्वेश्वर की जमीन रेहन रख दी जाती है। घर और स्त्री के गहने बिक जाते हैं तब फैसला उस के पक्ष में हो पाता है पर उसके मन में खटास पूर्ववत बनी रहती है।
संयुक्त परिवार का स्वामित्व कोई हंसी ठट्ठा नहीं होता। ‘स्वामिनी’ कहानी में असमय वैधव्य ग्रस्त पुत्रवधु रामप्यारी को उसका ससुर शिवदास घर की स्वामिनी बना उसके दुःख को कम करना चाहता है । वह सारा दिन सबकी आवश्यकताओं को पूरा करती र ती है। घर चलाने के लिए अपने पर कटौती करने , गहने बेचने के अलावा उसके बाल भी पकने लगते हैं । कमर झुकने लगती है तथा आंखों से कम दिखने लगता है पर स्वामित्व की लालसा , यश और सम्मान उसे जिलाए रखता है। “मगर वह प्रसन्न थी । स्वामित्व का गौरव इन सारे जख्मों पर मरहम का काम करता था।”(3)(स्वामिनी, प्रेमचंद, मानसरोवर भाग 1, पृष्ठ 134)
संयुक्त परिवार में सभी सदस्यों की समान भागीदारी और कर्मठता अनिवार्य होती हैअन्यथा परिवार टूटने में देर नहीं लगती। ‘शंखनाद’कहानी में भानु चौधरी के संयुक्त परिवार का विघटन उनके छोटे पुत्र गुमान के आलस्य और अकर्मण्यता के कारण होता है। उसकी पत्नी परिवार की दासी मात्र बनकर रह जाती है। जेठानियों के व्यंग्यबाण भी उसे निरंतर आहत करते हैं।
परिवार में सदस्यों की परस्पर कटुता भी परिवार को तोड़ती है । सास बहु में यदि छत्तीस का आंकड़ा हो तो परिवार की मजबूत दीवार को भी चटकते देर नहीं लगती।
सास -बहू को बेटी जैसा प्यार नहीं दे पाती और बहू -सास को माता सदृश्य सम्मान नहीं देती । मानसरोवर भाग-2 में संकलित ‘ गृह नीति ‘ कहानी में प्रेमचंद ने बहू- सास और मां के अंतर को स्पष्ट करते हुए लिखा है -” मां प्यार करती है , सास शासन करती है। कितनी ही दयालु , सहनशील सतोगुणी स्त्री हो , सास बनते ही मानों ब्यायी हुई गाय हो जाती है। जिसे पुत्र से जितना ही ज्यादा प्रेम है , वह बहू पर उतनी ही निर्दयता से शासन करती है। ।”(4) ( पृष्ठ 279) अब यह स्थिति और विकट हो गई है क्योंकि पति भी पत्नी की हिमायत लेने लगे हैं । मानसरोवर भाग-1 में संकलित ‘झांसी’ कहानी में पति कहता है -“अगर अम्मा ने अपनी सास की साड़ी धोई है, उनके पांव दबाये हैं, उनकी घुड़कियाँ खाई हैं तो आज वह पुराना हिसाब बहु से क्यों चुकाना चाहती हैं ? उन्हें क्यों दिखाई नहीं देता कि अब समय बदल गया है। बहुएं अब भयवश सास की गुलामी नहीं करतीं। प्रेम से उनके सिर के बाल नोच लो, लेकिन जो रोब दिखाकर उनपर शासन करना चाहो तो वे दिन लद गए।”(5)(झांसी, पृष्ठ 166)
विमाता कभी माता का स्थान नहीं ले पाती किन्तु ‘विमाता’ कहानी की नायिका अम्बा अवश्य इसका अपवाद है । स्वयं प्रेमचंद को विमाता का अपेक्षित स्नेह नहीं मिला और उनकी पहली पत्नी की भी उनसे नहीं बनी। गृहदाह, दूसरी शादी कहानियों में विमाता की विपरीत छवि देखने को मिलती है । मानसरोवर भाग-6 में संकलित गृहदाह कहानी में प्रेमचंद का कटु अनुभव ही व्यक्त हुआ है।”मातृहीन बालक संसार का सबसे करुणाजनक प्राणी है। दीन से दीन प्राणियों को भी ईश्वर का आधार होता है ,जो उनके हृदय को संभालता रहता है । मातृ हीन बालक इस आधार से वंचित होता है ।माता ही उसके जीवन का एकमात्र आधार होता है। माता के बिना वह पंखहीन पक्षी है।”(6)(गृहदाह, प्रेमचंद, मानसरोवर भाग 6, पृष्ठ 174)
‘ विमाता’ कहानी की अम्बा सौतेले पुत्र मुन्नू पर जान देती है। उसका पिता उसे उदास और रोते देख कारण पूछता है तो वह जो कारण बताता है उसे सुनकर पिता भी दंग रह जाता है।”…वह मुझे प्यार करती है इसी कारण मुझे बार बार रोना आता है। मेरी अम्मा मुझे अत्यंत प्यार करती थी।वह मुझे छोडकर चली गई।नयी अम्मा उससे भी अधिक प्यार करती है।इसलिए मुझे भय लगता है कि उसकी तरह यह भी मुझे छोड़कर न चली जाए।”(7)(विमाता, मानसरोवर भाग 8,पृष्ठ 146)
एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती । इसी प्रकार एक ही घर में सौत की अवस्थिति उसे अखाड़ा बना देती है । नारी अपने पति पर एकाधिकार चाहती है । उसमें रंच मात्र भी बंटवारा उसे सह्य नहीं होता । ‘सौत’ और अग्निसमाधि इसी प्रकार की कहानियां हैं। ‘सौत’ कहानी (मानसरोवर भाग 8) में संतान प्राप्ति के लिए गोदावरी स्वयं पति का दूसरा विवाह करने के लिए विवश करती है किन्तु सौत गोमती को मन से स्वीकार नहीं कर पाती। उनकी परस्पर आलोचना प्रत्यालोचना घर की शांति को भंग कर देती है तथा गोदावरी के गंगा में जल समाधि लेने का कारण बनती है।’अग्नि समाधि’ ( मानसरोवर भाग-5) में पति पयाग द्वारा नवविवाहिता सिलिया का पक्ष लेने और अपनी उपेक्षा करने से क्षुब्ध रुक्मिन खेत में पति की मड़ैया में आग लगा देती है।खेतों को आग से बचाने के लिए पयाग मडैया को डंडे में फंसाकर दौड़ता है। अंत में रुक्मिन और पयाग उसी मडैया के नीचे दबकर अग्नि समाधि ले लेते हैं।
भाई बहनों में सहज प्रेम होना सामान्य बात है किन्तु जब इनके मध्य ईर्ष्याभाव जाग्रत होता है तब संबंधों में दरार आते देर नहीं लगती।
‘ दो बहने’ कहानी में रुपकुमारी अपनी सगी बहन रामदुलारी के ऐश्वर्य से इतनी ईर्ष्या और द्वेष करती है कि उसके परिवार की सुख-शांति ही नष्ट हो जाती है । ऐसी ही भयंकर स्थिति दामाद के घरजमाई बनने पर उत्पन्न होती है । ‘घर जमाई ‘ (मानसरोवर भाग-1 )कहानी में विमाता के कारण हरिजन अपनी ससुराल में रहने लगता है। ससुराल में उसक आदरसम्मान दिनोदिन घटने लगता है। ” ज्यों ज्यों दिन गुजरते गए उसका मान सम्मान घटता गया। पहले वह देवता था फिर घर का आदमी , अंत में घर का दास हो गया । रोटियों में भी बाधा पड़ गई । अपमान होने लगा।”(8)( घर जमाई , मानसरोवर भाग-1 , पृष्ठ 149)
उचित संरक्षण और पोषण बच्चों के लिए अनिवार्य होता है। परिवार में रहकर बच्चे न केवल जीवन मूल्यों को समझते हैं उनके अनुरुप अपने व्यक्तित्व का भी निर्माण करते हैं। समुचित विकास के अभाव में उनके अन्दर अनेक ग्रंथियां जन्म ले लेती हैं। ‘ कप्तान साहब'( मानसरोवर भाग-5) में जगत सिंह की बाल सुलभ शैतानी पर पिता द्वारा निर्दयता से पीटा जाना उसे उद्दंड और नशे का आदी बनाता है ।
छोटा परिवार सुखी परिवार होता है। समाज, परिवार, मां के स्वास्थ्य के लिए छोटा परिवार श्रेष्ठ होता है। जनसंख्या की तीव्र वृद्धि विकास में अवरोध उत्पन्न करती है। प्रेमचंद सुनियोजित परिवार के पक्षधर थे। उनके मतानुसार मां के स्वास्थ्य के लिए संतानों के मध्य सात वर्ष का अंतराल होना आवश्यक मानते थे। उनकी अवधारणा आज के युग में प्रासंगिक है।
संयुक्त परिवार में विधवाओं का उचित संरक्षण होना भी प्रेमचंद अनिवार्य मानते थे। पति की मृत्यु उपरांत उन्हें यंत्रणामय जीवन जीना पड़ता था।’ बेटों वाली विधवा’ कहानी की नायिका फूलमती अपने पति की तेरहवीं तथा पुत्री का विवाह भी अपनी इच्छानुसार नहीं कर पाती क्योंकि उसके चारों बेटे ऐसे आयोजनों पर धन का अपव्यय नहीं करना चाहते। वृद्ध से ब्याही गई पुत्री का वैधव्य फूलमती को तोड़ देता है और वह पानी लाने जाने पर पैर फिसलने से नदी के बहाव में डूब कर मर जाती है। ‘ बूढ़ी काकी’ प्रेमचंद की पुरुष वर्चस्व वाले समाज में वृद्धों की आयु जनित परिवर्तित मानसिकता से तालमेल न बिठा सकने वाले पारिवारिक जनों की निर्ममता और उद्दंडता पर आधारित बहुचर्चित उत्कृष्ट रचना है। पति और सात संतानों को खोकर वृद्धावस्था जनित असहायता और असमर्थता झेलती काकी अपनी समस्त जायदाद अपने भतीजे बुद्धि राम को सौंप उसके संरक्षण में शेष जीवन जीने की साध सहेजती है। बुद्धिराम जायदाद अपने नाम कराते समय किए गए वायदों को भुलाकर निष्ठुरता की सीमा तक जाकर निस्पृह और निर्मम हो जाता है। उसकी पत्नी रूपा भी तेज तर्रार और निष्ठुर है। पराधीनता और परावलंबिता में जकड़ी काकी भरपेट भोजन के लिए भी तरस जाती है। केवल बुद्धिराम ही अपनी कृपणता और क्रोध के कारण संयम नहीं खोता अपितु उसके पुत्र भी काकी को चिढ़ाते और तंग करने से बाज नहीं आते। लेखक ने पात्रों का हृदय परिवर्तन कर आदर्श के बिंदु पर कहानी का अंत किया है। पाठक की छलकती आंखें काकी को पूरी तृप्ति के साथ खाते और रूपा को उन्हें खिलाते देंख संतोष से भर जाती हैं । लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि वृद्धावस्था आने पर बुद्धिराम व रूपा शायद किसी विशिष्ट इच्छा या प्रवृत्ति से ग्रसित हो काकी से भी अधिक असह्य हो जाएंगे। कहानी प्रासंगिक है । आज भी अनेक परिवारों में वृद्धों को वृद्धाश्रमों में ही जीवन काटना पड़ता है। उनके प्रति मानवीय सहानुभूति का संचार करना लेखक का उद्देश्य है।
अपनी कहानियों में प्रेमचंद ने सामाजिक जीवन का मूलाधार परिवार को स्वीकार किया है। परिवार के साथ व्यतीत किया जीवन व्यक्ति में संघर्षों से लड़ने की ताकत देता है। तद्विषयक उनकी उक्ति दृष्टव्य है-“गृहस्थी जितनी सेवा कर सकता है, उतनी एकांत जीवी कभी नहीं कर सकता, क्योंकि वह जीवन के कष्टों का अनुभव नहीं कर सकता।”(9)(कर्मभूमि, पृष्ठ 229) परिवार के प्रति प्रेमचंद की आस्था दृढ़ थी।
डॉ. रूचिरा ढींगरा
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभाग, शिवाजी कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय