हर एक वस्तु की और देखने की प्रत्येक लेखक की अपनी स्वतंत्र दृष्टि होती है। अपने-अपने दृष्टिकोण से किसी चीज को परखने की सूक्ष्मता हर एक लेखक में होती है। प्रेमचंद जैसे ख्यातनाम और प्रतिभाशाली लेखक की दृष्टि से समाज का कोई कोना छूटा नहीं है। रचनाकार समाज की विभिन्न विधाओं की अभिव्यक्ति अपनी रचनाओं में करता है। अपने-अपने समय की परिस्थितियों का सूक्ष्म चित्रण रचनाकार बड़ी ईमानदारी से करता है। रचनाओं के माध्यम से ही मानवीय मूल्य, धर्म, संस्कृति और सभ्यता को नई पीढ़ी तक पहुंचाया जाता है। रचनाकार के पास तत्कालीन समय की अच्छाई-बुराई को नापने की दृष्टि होती है। महानतम भारतीय रचनाकारों में से प्रेमचंद जी एक ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने समाज के हर पहलू को आधार बनाकर रचनाओं का निर्माण किया है। सर्वांगपूर्ण रचनाधर्मी प्रेमचंद जी ने तत्कालीन समाज की विभिन्न समस्याओं को और घटनाओं को अपनी रचनाओं में उतारने का मौलिक कार्य किया है। मानव मन की भावनाओं और संवेदनाओं को कहानी के माध्यम से व्यक्त किया है। मानव धरातल पर लिखी हुई कहानियों में मानवीय समस्याओं को अत्यंत सूक्ष्मता से प्रस्तुत किया है। मानवीय संवेदनाओं के प्रति प्रेमचंद निरंतर प्रतिबद्ध रहने वाले लेखक है। समकालीन परिवेश को उन्होंने कहानियों में उतारा है। शोषकों वास्तविकता का पर्दाफाश करते हुए शोषितों के प्रति सहानुभूति प्रकट की है। शोषितों की विक्षिप्त प्रवृत्ति पर अपनी लेखनी से कठोर प्रहार किया है। अतः समाज के प्रति प्रेमचंद हमेशा सतर्क रहे हैं। समाज के सभी वर्गों की उन्नति के लिए निरंतर लड़ते रहे। “प्रेमचंद की रचना से ज्ञात होता है कि वे ऐसे समाज के समर्थक हैं जो विषमताओं, असंगतियों, विकृतियों से परे हैं, जहां जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और विभाग में सब समान हो, सबको समान सुविधाएं प्राप्त हों।”१ प्रेमचंद समाज के हर एक वर्ग का विकास करना चाहते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज की विषमताओं को केंद्र में रखा है। समाज के हर एक वर्ग को उन्होंने अपनी रचनाओं में स्पष्ट करने का मौलिक कार्य किया है। अपने आस-पास की विभिन्न घटनाओं को रचनाओं में उजागर किया है। सामाजिक रूढ़ियां, परंपराएं, रीति-रिवाजों, अंधविश्वासों आदि की तीव्र आलोचना लेखक अपनी रचनाओं में करते हैं। उसका कठोर विरोध भी करते हैं ।
सामाजिक समस्याएं, पारिवारिक समस्याएं, राजनीतिक समस्याएं, आर्थिक विषमता, आदर्श और यथार्थवाद की सूक्ष्मता, धार्मिक आडंबर आदि अनेक विषयों को केंद्र में रखकर रचनाओं का सृजन करने वाले लेखक प्रेमचंद जी अपने विचारों से ऐसे अनेक विषयों को सार्थक बनाते हैं। प्रेमचंद जी के समय की सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त थी। उसे सुधारने के लिए प्रेमचंद जी ने अपनी लेखनी की धार निरंतर तेज रखी थी। तत्कालीन समाज को अंधविश्वास, कुरीतियां और आडंबर जैसे अज्ञान के अंधकार से बाहर निकाल कर ज्ञान रूपी प्रकाश दिखाने का मौलिक कार्य किया है। आछूतोध्दार, नारी स्वातंत्र्य, दलित-पीड़ित वर्गों का कल्याण आदि अनेक समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया है। उनकी अनेक रचनाओं पर तत्कालीन समय के विभिन्न आंदोलनों का प्रभाव दिखाई देता है। निम्न वर्गीय मानव को ऊपर उठाने का भी उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रयास किया है। उनके बेटे अमृतराय एक स्थान पर प्रेमचंद जी के संदर्भ में लिखते हैं- “मुंशी जी के विचारों की पहली सीमा आर्य समाज है, जिसमें आगे चलकर कुछ रंग शायद गोखले और रानाडे की सोशल रिफार्म्स लोग का भी घुल गया था।”२ समाज में फैली हुई बुरी प्रथाओं का समूल नाश कर नए विचारों के बीज पिरोना तथा नए विचारों की स्थापना करना उनका उद्देश्य था।
प्रेमचंद जी द्वारा लिखित कहानी ‘शांति’ में पति अपनी पत्नी को पाश्चिमात्य विचारधारा के अनुसार रहने के लिए मजबूर करता है। परिणाम स्वरूप पत्नी की प्रदर्शन प्रियता, कर्तव्यशून्यता, अपनों के प्रति प्रेम का अभाव अर्थात पाश्चिमात्य विचारों के अनुसार चलने के कारण वह अपने बीमार पति को देखने तक का भी समय उसके पास नहीं होता है। न तो वह अपने पति को मिलने के लिए समय निकाल पाती है। तब पति क्रोधित होता है। उसका अपेक्षा भंग होता है और भारतीय संस्कृति, विचारों और सिद्धांतों को अपनाने के लिए प्रयास करता है। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में सच्चरित्र पात्रों के द्वारा भारतीय समाज का उत्थान करना चाहते हैं। सत्य, अहिंसा, न्याय प्रियता, मानवता, बंधुत्व, अपनत्व, सेवाभाव, ईमानदारी, समर्पण, एक दूजे का सहयोग, एकता, परोपकार, मदद आदि अनेक पहलुओं को अपनी रचनाओं के माध्यम से पुष्ट करने का प्रयास करते हैं। डॉ रामविलास शर्मा जी ने एक स्थान पर कहां है- “प्रेमचंद का साहित्य राष्ट्रीय उत्थान का साहित्य है। वह भारत की जागृत मानवता और उसके आत्मसम्मान का साहित्य है। उन्होंने वाल्मीकि, व्यास, तुलसी और कबीर से साधना करना, अपने देश और अपनी संस्कृति की उन्नति के लिए कष्ट सहना सिखा था।”३ प्रेमचंद भारतीय समाज की प्रगति के लिए हमेशा प्रयासरत रहे हैं। ‘महाजनी सभ्यता’ नामक उनके निबंध रचना में तत्कालीन युग की आर्थिक परिस्थितियों का सूक्ष्म चित्रण किया है। नई सभ्यता के लोगों का पर्दाफाश किया है। संभ्रांत परिवार के लोगों द्वारा मजदूर, गरीब लोगों पर होने वाले अन्याय के प्रति कठोर प्रहार किया है। किसान, मजदूरों को साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता है। उसी का फायदा उठाकर साहूकार, महाजनी सभ्यता के लोग गरीबों, किसानों को कैसे लूटते हैं। आर्थिक बोझ कैसे बढ़ाते हैं। इसका यथार्थ चित्रण लेखक अपनी रचना के द्वारा करते हैं। गरीबों, किसानों, मजदूरों की व्यवस्था को स्पष्ट करते हैं। वह कहते हैं- “इस महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है….मनुष्य समाज दो भागों में बट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने बस में किए हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हम दर्दी नहीं, जरा भी रु-रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराये और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए। अधिक दुख की बात तो यह है कि हर शासक वर्ग के विचार और सिद्धांत शासित वर्ग के भीतर भी समा गए हैं। जिसका फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उसका शिकार है समाज।”४ तत्कालीन आर्थिक स्तर की यथार्थ अभिव्यक्ति प्रेमचंद जी की रचनाओं में पाने को मिलती है। उनके द्वारा लिखित और लोकप्रिय एवं चर्चित कहानी ‘कफन’ में भी आर्थिक स्थिति को स्पष्ट किया है। घीसू और माधव की आर्थिक विकटता को सूक्ष्मता से कहानी में प्रस्तुत किया है। जो अपना पेट भरने के लिए भी दर-दर भटकते रहते हैं। ऊपर से उनकी व्यसनाधीनता उन दोनों को और भी अधिक लाचार बनाती है। प्रसव पीड़ा से बुधिया दम तोड़ देती है। कफन की भी व्यवस्था घीसू और माधव नहीं कर पाते हैं। गांववालों द्वारा इकट्ठा किए हुए चंदे से भी शराब पीकर अपनी कामना पूरी करते हैं। दोनों निकम्मे, निठल्ले, स्वार्थी और अकर्मण्य बने हुए बैठे रहते हैं। महाजनी सभ्यता पर कठोर प्रहार करते हुए प्रेमचंद कहते हैं- “ये सारी बुराइयां तो दौलत की देन हैं, पैसे के प्रसाद है, महाजनी सभ्यता ने उनकी सभ्यता ने इनकी सृष्टि की है। पैसा अपने साथ यह सारी बुराइयां लाता है। जिन्होंने दुनिया को नरक बना दिया है। इन पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, सारी बुराइयां अपने आप मिट जाएंगी।”५ प्रेमचंद की साहित्यिक कृतियों में हमें नारी के अनेक रुप देखने को मिलते हैं। अनेक स्त्री चरित्रों को विभिन्न परिस्थितियों में उभार कर समाज में स्त्रियों का सम्मान बड़ा कर उसको प्रतिष्ठा का स्थान प्रदान करने का मौलिक कार्य किया है। माता, पत्नी, कन्या, बहन आदि अनेक रूपों में नारी को प्रेमचंद जी ने अपनी रचनाओं में प्रमुख स्थान दिया है। वह नारी के संदर्भ में कहते हैं- “मेरे जहन में, औरत वफा और त्याग की मूर्ति हैं जो…. अपनी बेजबानी से, अपनी कुर्बानी से अपने को बिल्कुल मिटा कर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती है।”६ स्त्री-पात्रों की विभिन्नता को प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में स्पष्ट किया है। उनके स्त्री पात्र अपने आप में एक नया उत्कर्ष निर्माण करते हैं। वेश्या, देवी, सती, सावित्री आदि स्त्री के अनेक रूप के सामने आते हैं। कभी पुत्री, भगिनी, वृद्धा, पुत्रवधू, किशोरी आदि अनेक रूपों में स्त्री देखने को मिलती है। विवाहित है, अविवाहित है, सदवा है, विधवा है, रानी है, दासी है, भिक्षुनी है, राजकुमारी है, स्वच्छंदत, मान मर्यादा का पालन करने वाली भी है। अत: नारी के हर एक पहलू को प्रेमचंद अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं। उनके नारी पात्र हमेशा सतर्क, संवेदनशील, संघर्षशील, सक्रिय, कार्यरत और सचेत दिखाई देते हैं। डॉ. त्रिलोकीनारायण दीक्षित जी भी प्रेमचंद जी के नारी पात्रों के संदर्भ में लिखते हैं- “प्रेमचंद्र का नारी चित्रण भी युग की परिस्थितियों का प्रसाद है। प्रेमचंद अपने युग की चेतना से प्रभावित थे और उन्होंने युग चेतना को भलीभांति आत्मसात कर लिया था।”७ उनके नारी पात्र परिस्थितियों का सामना कर संकटों को दूर करने के लिए प्रयासरत दिखाई देती हैं। महानगरीय परिवेश को भी प्रेमचंद जी ने अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है। वहां के लोगों का रहन-सहन, भाषा, संस्कृति, समाज आदि का भी सूक्ष्म चित्रण किया है। महानगरीय परिवेश की आधुनिकता पर भी कठोर प्रहार किया है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रेमचंद की रचनात्मकता की दृष्टि बहुत ही सूक्ष्म रही है। उन्होंने मानव मन की गहराइयों को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है। सामाजिक विकास के महत्व को प्रस्तुत किया है। निम्न मध्यवर्गीय लोगों के सुख-दुख को अच्छी तरह से समझ कर उच्च संभ्रांत वर्ग के लोगों के जीवन से पाठक को परिचित किया है। उनके जीवन के महत्वपूर्ण तथ्य और यथास्थिति को स्पष्ट किया है। प्रेमचंद जी ने अपनी सुक्ष्म दृष्टि से समाज के एक भी पक्ष को अछूता नहीं छोड़ा है। समाज के हर एक पहलू का परीक्षण कर अपने विचार स्पष्ट किए हैं। उपेक्षित, निरीह और गरीब जनता के साथ अपना आत्मीय संबंध स्थापित किया है। उनके सुख-दुख को अपनी रचनाओं में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। समाज की कई समस्याओं को दूर करते हुए सुधारवादी दृष्टिकोण रचनाओं में व्यक्त किया है। उनकी रचनाएं मानव के जीवन से जुड़ी हुई रचनाएं हैं।
संदर्भ सूची –
१. प्रेमचंद – त्रिलोकी नारायण दीक्षित, पृ.१०९ – साहित्य निकेतन, कानपुर।
२. प्रेमचंद : कलम का सिपाही – अमृतराय, पृ.८९ – हंस प्रकाशन, इलाहाबाद।
३. प्रेमचंद और उनका युग – डॉ. रामविलास शर्मा, पृ. १३७ राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. दिल्ली।
४. प्रेमचंद : स्मृति – संकलित निबंध – महाजनी सभ्यता, पृ. २५७-२५८ सं. अमृतराय, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद।
५. वही, पृ.२६२-२६३
६. गोदान – प्रेमचंद – पृ. १४६ – हंस प्रकाशन, इलाहाबाद।
७. प्रेमचंद : चिंतन और कला – सं. इंद्रनाथ मदान, डॉ. त्रिलोकी नारायण दीक्षित के निबंध प्रेमचंद और भारतीय नारी से