बंगाली फिल्मों के बारे में कुछ कहने से पहले मैं समझता हूँ, एक बार बांग्ला साहित्य के बारे में बात कर लेनी चाहिए। बांग्ला भाषा और साहित्य का काल विभाजन एक ही साथ किया जाता है। कथाशिल्प के रूप में जिन साहित्यकारों का साहित्य उस दौर के इतिहास में क्रांति लाया है उनमें बंकिमचंद्र, ईश्वरचंद, विद्यासागर, माइकल मधुसूदन दत्त और गिरीश चंद्र घोष का नाम सामने आता है। बांग्ला साहित्य का आधुनिक काल 1800 ईस्वी के बाद से माना जाता है। उस काल में बंगला साहित्य में जिस साहित्यकार ने पूरे विश्व में अपने साहित्य का बिगुल बजाया है उसमें रवींद्रनाथ टैगोर और शरतचंद चट्टोपाध्याय का नाम अग्रणी है।

आधुनिक बांग्ला साहित्य का आरंभ 1900 वी सदी से माना जाता है। आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय बांग्ला के देन है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर, विवेकानंद तथा रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे रत्नों ने साहित्य एवं समाज को नया रास्ता दिखाया। जबकि माइकल मधुसूदन दत्त, बंकिमचंद्र चटर्जी, गिरीशचंद्र बोस आदि ने भारत के नव निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। बांग्ला साहित्य के तीन महत्वपूर्ण रचनाकारों ने साहित्य व समाज में बहुत परिवर्तन लाए हैं। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, द्विजेंद्रलाल राय तथा काजी नजरुल इस्लाम के साहित्य ने समाज में नव भारत के निर्माण में योगदान दिया है। शरतचंद्र तथा प्रेमचंद की पृष्ठभूमि एक ही रही है। इन दो महान साहित्यकारों ने अपने साहित्य के माध्यम से 1900 वी सदी में जिस बदलाव का दौर शुरू किया था वह क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं था उसमें सारा भारत समाया था। सामंती व्यवस्था का विरोध एवं शोषितों के प्रति सहानुभूति साहित्य के लिए विषय वस्तु बने थे जो एक नए समाज के निर्माण का परिचालक बना।

अब हम अगर फिल्म की बात करे तो भारतीय फिल्में साहित्य की देन है। भारतीय सिनेमा का उद्देश्य भी यही रहा है कि उसने साहित्य दिखाई दे। फिल्म चाहे जिस भाषा का क्यों न हो उसमें साहित्य दिखता है। भारतीय सिनेमा का उद्देश्य पहले कला प्रधान ही रहा होगा। सिनेमा एक ऐसा माध्यम था जिसके माध्यम से शब्द चित्रों को चलचित्र में परिवर्तित किया गया। पहले तो यह कला मूक थी। फिर उसने स्वर आया, फिर संगीत आने के बाद उसमें नृत्य आया। फिर वह लोगों के मनोरंजन का साधन बन गया।  सिनेमा लोगों के मनोरंजन का साधन आज भी है। मगर जहाँ कला फिल्मों की बात होती हैं वहाँ उस फिल्में साहित्य दिखाई देने लगता है। सिनेमा जिस किसी भी भाषा का क्यों ना हो उस में साहित्य दिखता है। हर कला फिल्म का एक उद्देश्य होता है नए समाज के निर्माण में विषय वस्तु से अवगत कराना। समाज का एक ऐसा दृश्य जो रचनाकार के साहित्य में शब्द पिरोया होता है उसे सिनेमा के माध्यम में चलचित्र बन जाता है। जिसका कायदा यह दिखाना होता है कि राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि परिस्थितियों में समाज क्या परिवर्तन चाहता है।

भारतीय कला फिल्म के बारे में बात करें तो हमें यह कहना पड़ेगा कि बांग्ला फिल्म शुरुआत से ही कला प्रधान फिल्म रही है। यह हम कह सकते हैं कि उस दौर की बांग्ला कमर्शियल फिल्म भी कला फिल्म रही है। उस दौर की सिनेमा में सिनेमा का गीत-संगीत, उसमें का नृत्य व फोटोग्राफी, विशेषकर ब्लैक एंड व्हाइट के फिल्मों में उसके लाईट एंड सेड के प्रभावपूर्ण दृश्य मन को मोहित कर ले लेने वाला दृश्य अपने आप में साहित्य होता है। हिंदी कि तमाम पुरानी फिल्में जो अधिकांश  ब्लैक एंड व्हाइट है-आज उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि हम कोई साहित्यिक रचना पढ़ रहे हैं। बांग्ला फिल्म कला प्रधान होने का सबसे बड़ा कारण फिल्मकार का साहित्य के प्रति लगाव का होना है। ऐसे में फिल्मकार महान साहित्य को पढ़कर यह चाहते रहे हैं कि उसी तरह सिनेमा की भी रचना हो। तभी सिनेमा  को भी महान बनाया जा सकता है। इस सोच में जितने भी फिल्मकार हुए हैं फिल्म निर्माण में कहानी की प्रधानता दिए हैं जो किसी-न-किसी साहित्यकार की श्रेष्ठ कृति रही है। जिसने भी शरतचंद्र के उपन्यास ‘देवदास’ पर बनी पहली सिनेमा 1936 और 1955 में बनी सिनेमा ‘देवदास’ जिसमें दिलीप कुमार ने जीवंत अभिनय किया है, जिसे देखते हुए आँखों को यह अनुभव होता है कि हम शरदचंद्र कि वह महान कृति ‘देवदास’ को अपनी आँखों से पढ़ रहे हैं। वही एक और फिल्म का नाम लिया जा सोकता है तीसरी कसम। ‘तीसरी कसम’ (1966) में बनी हिन्दी भाषा की श्रेष्ठ सिनेमा है। सिनेमा का निर्देशन बासु भट्टाचार्य ने और निर्माण प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र ने किया था। यह सिनेमा हिन्दी लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की प्रसिद्ध कहानी ‘मारे गए गुलफ़ाम’ पर आधारित है। अतः उस दौर के जितने भी फिल्मकार रहे हैं, उनकी सिनेमा देखते हुए यह महसूस होता है कि कोई श्रेष्ठ रचना हम अपनी आँखों से पढ़ रहे हैं।

अगर हम बांग्ला फिल्मी इतिहास को बारीकी से अध्ययन करे तो हमारे सामने बांग्ला फिल्म के इतिहास में रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य को सबसे अधिक प्रेरणा स्रोत पाते हैं। भारतीय बांग्ला साहित्य में अगर किसी के हिस्से सबसे अधिक साहित्य पर बनी फिल्मों का भरमार है, तो वह है रवींद्रनाथ टैगोर का साहित्य। आज के बंगला साहित्यकार में सुनील गंगोपाध्याय का नाम लिया जा सकता है जिनके तरकस में बहुत से श्रेष्ठ साहित्य है जिस पर श्रेष्ठ सिनेमा बनाना अभी बाकी है। रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य पर बनी सिनेमा के नाम गिना जाए तो लगभग पचास से भी अधिक ऐसे फिल्म है- जिसके मूल में रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य है। रवींद्रनाथ टैगोर के कहानी और उपन्यास के आधार पर फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों में हम कई नाम ले सकते हैं जिसमें कुछ नाम है- शिशिर कुमार भादुड़ी, मधु बसु, स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेम कुमार, संतोष सेन, सुमन मुखोपाध्याय, पशुपति चटर्जी, हेमचंद्र, सोरेन सेन, देवकी कुमार बोस, तपन सिन्हा, अग्रदूत, सत्यजीत राय, अग्रगामी, पार्थ प्रीतम चौधरी, मृणाल सेन, अजय कर, अरुंधति देवी, शंकर भट्टाचार्य, संतोष घोषाल, पाल जिल्स, आदि से लेकर ऋतुपर्णो घोष तक का नाम लिया जा सकता है। सन् 1957 में आई हिंदी फिल्म ‘मिलन’  यह भी रवींद्रनाथ ठाकुर के उपन्यास ‘नौकाडूबी’ पर ही आधारित है। बांग्ला फिल्म के महानायक उत्तम कुमार अपने समय के रोमांटिक हीरो रहे हैं। जिनकी बहुत से फिल्म रविंद्रनाथ टैगोर के साहित्य पर आधारित है। उन फिल्मों का कुछ नाम इस प्रकार से हैं- ‘दृष्टीदान’ (1948), ‘बहू ठकुरानीर हाट’ (1953), ‘चिरकुमार सभा’ (1956), ‘खोखा बाबू र प्रत्यावर्तन’ (1907), ‘निशीथे’ 1963 आदि फिल्में है जिसके मूल में बांग्ला साहित्य दिखता है।

बंगाली सिनेमा भारतीय सिनेमा का एक महत्वपूर्ण अंग है। बांग्ला में बनने वाली अधिकांश फिल्में मनोरंजन से हटकर एक नए जगत का निर्माण करती नजर आती है। बांग्ला फिल्म में काल्पनिकता के सत्य को वास्तविक सत्य के साथ जिस तरह से परोस कर दिखाया जाता है, वह मन के अंतरंग गहराइयों को छू लेता है।

जिसे देख कर हम यह कह सकते हैं कि हिंदी फिल्मों में ऐसी गंभीरता और कलात्मकता का बहुत अभाव है। सत्यजीत राय ने भी हिंदी फिल्म बनाया है। उनके बनाए फिल्म शतरंज के खिलाड़ी को देखें तो फिल्म छोड़ कर उठने का मन नहीं करता है। तब बांग्ला में ऐसी फिल्में बनाने का एक स्वर्ण युग था, जहाँ सत्यजीत राय जैसे निर्देशक ने ‘पथेर पांचाली’ (1955) जैसे फिल्म बनाकर विश्व में एक नाम दे दिया जो हमें बहुत गहराई तक विश्लेषण करने का प्रयोग देता है। सत्यजीत राय ने जिस स्थान को खाली छोड़ा था, ऋतुपर्णो घोष ने ऐसे बेहतरीन फिल्में देखकर उस स्थान को भर दिया है। ऋतुपर्णो घोष की फिल्में में यह जादू है कि उनकी फिल्म की कहानी अपने समय से आगे की बात कहती नजर आती है। फिल्म के दृश्य क्रम चाहे जो भी हो, जिस रूप से दिखाया गया हो, मगर उस समय की बंदिशों को तोड़ते हुए फिल्म का परिदृश्य कई ऐसी बातें कह जाती है जो कि किसी बुद्धिजीवी के लिए सोचना भी मुश्किल है। ऋतुपर्णो घोष के हिस्से कई श्रेष्ठ फिल्में है।

ऋतुपर्णो घोष ने ज्यादातर फिल्में बांग्ला और अंग्रेजी भाषा में ही बनाई है। हिंदी भाषा में उनकी पहली फिल्म ‘रेनकोट’ (2004) और अंग्रेजी भाषा में दूसरी फिल्म ‘सनग्लास’ है जिसका हिंदी वर्जन ‘ताक-झाँक’ है। बाद में रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास पर हिंदी फिल्म ‘चोखेर बाली’ बनाई। ‘रेनकोट’ के लिए नए देश-विदेश से कई पुरस्कार भी मिले हैं। ऋतुपर्णो के निर्देशन की खासियत यह है कि उन्हें पता होता है कि अपने दर्शकों को कहाँ चौंकाना है, कहाँ उसके दिल और दिमाग में रोमांच पैदा करना है। और कहाँ झटका देकर यह बताना है कि आप जो सोच रहे हैं वह सत्य नहीं है बल्कि सत्य उससे बहुत अलग है। ऋतुपर्णो घोष की ऐसी खासियत है। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत ‘हीरे आंगठी’ बांग्ला फिल्म सन 1992 में बनी थी। उसके बाद यह जो भी फिल्म दिए हैं टॉलीवुड में इनका नाम ऊंचाई पर गूंजता नजर आया है। रवींद्रनाथ के साहित्य में नारी पात्र बहुत ही सशक्त और मजबूत होते हैं। रितुपर्णो घोष के निर्देशन में बनी फिल्म ‘चोखेर बाली’ रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास को देखकर इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके बनाए फिल्मों में क्या जादू है।

साहित्य और फिल्म की बात अगर एक साथ कही जाए तो हम यह कह सकते हैं कि वह फिल्म ही श्रेष्ठ और महान बन जाती है जिसके कथा में साहित्य और हर साहित्य में फिल्म है जब किसी फिल्मकार को दिख जाता है। सिनेमा के इतिहास में कालजई फिल्म बन जाती है और ऐसा होने का दौड़ कभी समाप्त नहीं होता है। हर दौड़  में साहित्यिक फिल्मकार में सत्यजीत राय, मृणाल सेन, अपर्णा सेन, रितुपर्णो घोष जैसे महान फिल्मकार आते रहेंगे।

         एक अच्छे फिल्मकार की खासियत चाहिए होती है कि उसका सिर्फ साहित्य से अभिप्रेरित हो चाहे वह फिल्म किसी भी भाषा साहित्य का क्यों ना हो ऋतुपर्णो घोष की फिल्म ‘रेनकोट’ ओ हेनरी की कहानी से प्रेरित है। वही रवीन्द्रनाथ के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘चोखेर बाली’ स्त्री मन को पढ़ने का एक मार्मिक किताब है।

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दिलीप कुमार शर्मा ‘अज्ञात’ 
हेजलवुड स्कूल
छपरा

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