भूमिका :

       हिंदी साहित्य में भारतीय किसानों पर जितने उपन्यास लिखे गए हैं उनमें ‘गोदान’ एक अति उत्कृष्ट कृषक जीवन का महाकाव्यात्मक उपन्यास है। पिछले कई दशकों में भारतीय किसान खासकर उसकी त्रासदी और समस्याओं को उद्घाटित करनेवाले उपन्यास बहुत कम मात्रा में देखने को मिलते हैं। वैश्वीकरण का प्रभाव और भारतीय किसानों की त्रासदी को स्पष्ट रूप में अभिव्यक्ति नहीं मिली है। शिवमूर्ति ने अपने उपन्यास ‘आखिरी छलांग’ द्वारा इस कमी की पूर्ति करने का सराहनीय प्रयास किया हैं। इस उपन्यास की अपनी अलग विशेषता यह हैं कि यह उपन्यास अपनी व्याख्या में उस दर्द को समझने की अपेक्षा इसके चरित्र संवादों के संदर्भ में अपना लक्ष्य स्पष्ट करता है। इस उपन्यास का मुख्य चरित्र यह जानते हुए भी कि यह (भूमंडलीकरण और बाजारवाद) व्यवस्था उसके लिए घातक है उसमें फंसता चला जाता हैं और अंत में आत्महत्या करने पर बाध्य होता है।

  • व्यक्तित्व :

      शिवमूर्ति का जन्म 11 मार्च, 1950 ई. को सुल्तानपुर जिले के गांव कुरंग में एक सीमांत किसान परिवार में हुआ। पिता के गृहत्यागी हो जाने के कारण इन्हें अल्प आयु में ही आर्थिक संकट तथा असुरक्षा का सामना करना पड़ा। इसके चलते मजमा लगाने और जड़ी-बूटियां बेचने जैसे काम भी इन्हें करने पडे। कुछ समय तक अध्यापन और रेल्वे की नौकरी करने के बाद उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग से चयनित होकर सन् 1977 ई. में बिक्री कर अधिकारी के रूप में स्थाई जीविकोपार्जन से लगे तथा मार्च, 2010 ई. में एडिशनल कमिश्नर के पद से अवकाश प्राप्त किया। वरिष्ठ साहित्यकार अब्दुल बिस्मिल्लाह के शब्दों में, “शिवमूर्ति एक विचारवान लेखक के रूप में ही सामने आते हैं। ……और एक अजीब बात मुझे लगी जो किसी बडे अधिकारी में नहीं होती। जिस पद पर वे कार्यरत थे वहां तमाम प्रकार की सुख-सुविधाएं हर प्रकार की संपन्नता थी, उसके बावजूद उनके अंदर एक साधारणता थी।”1

      भाषा पर शिवमूर्ति की जबर्दस्त पकड़ रही है। अपनी भाषा से वे पूरा दृश्य खड़ा करते हैं। दूधनाथ सिंह लिखते हैं, “शिवमूर्ति की रचनाओं में कथावस्तु और चरित्र इतने प्रबल हैं कि वे भाषा के किसी भी ऊपरी ताम-झाम और छलावे के बिना अपने को पाठकों के बीच धमाकेदार तरीके से स्थापित कर लेते हैं। उन्होंने बहुत कम लिखा है लेकिन बहुत अच्छा लिखा है।”2

      शिवमूर्ति का व्यक्तित्व प्रगतिशील विचारों से प्रतिबध्द हैं। इनका कथन हैं कि, “सांप्रदायिकता और जातिवाद दोनों प्रमुख सामाजिक बीमारियां हैं। एक नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ। लेकिन जातिवाद सांप्रदायिकता से ज्यादा विभाजनकारी है। सांप्रदायिकता समाज को दो हिस्सों में बांटती है लेकिन जातिवाद उसे खंड-खंड कर देता है। जातिवाद हमारे साथ पैदा होने के दिन से चिपक जाता है और मरने तक नहीं छोडता।”3

      शिवमूर्ति का ‘आखिरी छलांग’ वर्ष 2008 (नया ज्ञानोदय अंक जनवरी) में प्रकाशित तीसरा महत्वपूर्ण उपन्यास है। जिसकी पृष्ठभूमि अवध का ग्रामांचल है। किसान जीवन और ग्रामीण समाज की कारूणिक यथार्थ पर केंद्रित यह उपन्यास गांवों की वर्तमान वास्तविक दुर्दशा का जीवंत दस्तावेज है। प्रखर आलोचक प्रियम अंकित ने लिखा हैं, “शिवमूर्ति का उपन्यास ‘आखिरी छलांग’ कल्पना से कहीं अधिक भयावह यथार्थ को पकडने की ईमानदार कोशिश है। शिवमूर्ति के कथा साहित्य में ग्रामीण जीवन के भरोसेमंद दृश्य मिलते हैं। कायदे से देखा जाए तो ग्रामीण परिवेश की जीवंत दृश्यात्मकता में पुनर्रचना करना शिवमूर्ति की ऐसी खासियत है जो समकालीन कथाकारों को उनसे रश्क करने पर बाध्य कर सकती है।”4

  1. भारतवर्ष में किसानों की स्थिति :

        भारतवर्ष में किसानों की स्थिति में कोई बडा बदलाव नहीं हुआ हैं। स्वाधीनता पूर्व जो हालात थे कमोबेश मात्रा में बरकरार है। ‘आखिरी छलांग’ उपन्यास का पहलवान कहता हैं, “पिता बताते थे कि दस-पांच रूपये ही देना होता था लेकिन इतनी छोटी रकम भी नहीं जुटती थी। गाली गुप्ता मार-पीट सुनना सहना पडता था। वह जमींदारी का जमाना था। आज इतने दिनों बाद भी किसान के जिंदगी में बहुत कुछ नहीं बदला, जितना बदलना चाहिए था।”5 यह ‍स्थिति जमींदारी प्रथा में थी, पर लोकतंत्र में भी पूंजीपतियों की अपेक्षा किसानों के साथ नाइंसाफी हुई है। “इधर तीन-चार साल में ऐसा कोई साल नहीं गुजरा जब वे किसी बडे खर्चे की चपेट में न आए हों। अभी-अभी तो बेटे की इंजीनियरिेंग की फीस जमा करने में घर की सारी लेई पूंजी साफ हुई। पिछले साल बेटी ब्याहने के लिए खेत गिरवी रखना पडा। उसके पिछले साल ट्यूबवेल की बाकी रह गई किस्तों के चलते बैंक वाले मोटर और पंखा खोलकर ले जाने की धमकी दे गए तो ब्याज सहित आठ बकाया किस्तें एक साथ चुकानी पडी। खाद का यह लोन उसके भी एक साल पहले का है। सोचा ही नहीं था कि बीस-बाइस सौ का यह कर्ज इतना भारी पडेगा कि जेल जाने की नौबत आ जायेगी।”6 देश के अन्नदाता किसानों की यह स्थिति जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं।

  1. हिंदी-उपन्यास परंपरा में कृषक जीवन :

      प्रेमचंद युग पूर्व से ही किसान जीवन की समस्याओं को लेकर उपन्यास लिखे जाते रहे हैं। परंतु उन्हें एक मजबूत आधार प्रेमचंद-युग से ही प्राप्त हुआ। प्रेमचंद के आगमन ने ही हिंदी उपन्यास को मनुष्य जीवन की सच्चाइयों से रूबरू करवाया। मानव जीवन की अनेक समस्याओं में से प्रमुख रूप से किसान जीवन की समस्याओं को प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं का मुख्य आधार बनाया। “वे किसान-जीवन के हर कोने से परिचित थे। जैसी उनकी जानकारी असाधारण थी वैसा ही किसानों से उनका स्नेह भी गहरा था। किसानों के संपर्क में आनेवाली शोषण की जंगी मशीन के हर कल-पुर्जे से वे वाकिफ थे।”7 अर्थात् किसान और उनके जीवन की समस्याओं पर जो भी उपन्यास लिखे गए हैं उनके प्रेरणास्रोत प्रेमचंद बने हुए हैं। जितेंद्र श्रीवास्तव ने बिल्कुल सही लिखा हैं, “किसानों का प्रेमचंद के लेखन के साथ कुछ वैसा ही रिश्ता है, जैसा सांसों का जिंदगी के साथ होता है। प्रेमचंद अपने समय के संभवत: अकेले ऐसे रचनाकार थे जिन्होंने हिंदुस्तान के समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र- दोनों को ठीक समझा था।”8

      आज भी किसान कई समस्याओं से जूझ रहा हैं, केवल उनके शोषण का तरीका बदला हैं। वर्तमान समय में किसानों को केंद्र में रखकर लिखें गए प्रमुख उपन्यास निम्नांकित हैं – जमीन (भीमसेन त्यागी), सल्तनत को सुनो गांव वालों (जयनंदन), हलफनामे (राजू शर्मा), आखिरी छलांग (शिवमूर्ति), काली चाट (सुनील चतुर्वेदी), कंदील (राजकुमार राकेश), अकाल में उत्सव (पंकज सुबीर), आदिग्राम उपाख्यान (कुणाल सिंह), तेरा संगी कोई नहीं (मिथिलेश्वर), फांस (संजीव), यह गांव बिकाऊ है (एम. एम. चंद्रा), बहुत लंबी राह (कर्मेंद्रु शिशिर), हिडिम्ब (एस. आर. हरनोट), चलती चाकी (सूर्यनाथ सिंह), ताकि बची रहे हरियाली (अनंत कुमार सिंह), उल्टी उड़ान (मिथिलेश अकेला), आग ही आग (प्रह्लाद चंद्र दास), एक थी मैना एक था कुम्हार (हरि भटनागर), माटी-राग (हरियश राय), ढलती सांज का सूरज (मधु कांकरिया), ओह रे ! किसान (अंकिता जैन) आदि।

  1. प्राकृतिक आपदा और किसान :

      किसानों के सामने प्राकृतिक आपदा एक ऐसी समस्या है, जिससे किसान कभी बच नहीं पाता। बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि से किसान संकट में आ जाता है। उसे कभी बाढ़ तो कभी आंधी आदि समस्याओं से गुजरना पड़ता हैं। कभी फसल की बुआई के समय उसके सामने पानी की समस्या आती हैं तो कभी फसल पकने पर अत्यधिक बारिश से उसकी फसलें खराब हो जाती हैं। प्राकृतिक आपदा ऐसी समस्या है जिससे किसान कभी नहीं बच सकता है।

      ‘आखिरी छलांग’ इस उपन्यास में किसानों के सम्मुख सुखे की स्थिति उत्पन्न हो गई है। बारिश का कहीं कोई आसार नहीं नजर आ रहा है। किसानों की फसल सूख रही हैं, “लगता था, इस साल कही धान रखने की जगह नहीं बचेगी, लेकिन उत्तरा नक्षत्र ने धोखा दे दिया। झकझोर पुरवा बहने लगी। नीले आसमान में सफेद बगुलों की तरह बादलों के टुकड़े दिखते और गायब हो जाते‌। भीषण सूखे के सारे लक्षण प्रकट हो गये। राजधानी तक हल्ला मच गया। एक चौथाई फसल सूख गई तो करीब दस दिन बाद नहर में पानी आया।”9

  1. सरकारी तंत्र और किसान :

      हमारे समाज में किसानों की स्थिति में गिरावट का मुख्य कारण सरकारी तंत्र हैं। इस देश में लगभग 85% किसान लघु एवं सीमांत किसान की श्रेणी में आते हैं। इनके पास पहले से ही जमीन कम होती है। जिसके कारण इन्हें अपना जीवनयापन करने के लिए बहुत-सी कठिनाइयों से गुजरना पड़ता हैं। इनके पास खेती करने के लिए पर्याप्त साधन न होने के कारण इन्हें औरों के पास जाना ही पड़ता हैं।

      शिवमूर्ति ‘आखिरी छलांग’ इस लघु उपन्यास में भारतीय किसान की बदहाली को मूलतः सरकार की किसान विरोधी नीतियों का परिणाम मानते हैं और साथ ही इस उपन्यास का प्रमुख चरित्र पहलवान को केंद्र में रखकर किसान की व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्याओं के माध्यम से कृषि की दुर्दशा और पांडे बाबा की आत्महत्या के प्रसंग के माध्यम से किसानों से आत्महंता बनने के कारणों की पड़ताल करते हैं।

      शिवमूर्ति इस उपन्यास की कथा पहलवान के जीवन से आरंभ करते हैं। जिन्हें अखाड़े, कुश्ती में कुशलता प्राप्त नहीं है, बल्कि उन्हें आलू उत्पादन में ‘कृषि रत्न’ का सम्मान मिला है। वह पांच-छह एकड़ के जोरदार सामंती किसान है। “पहलवान तो पूरे गांव की ‘नाक’ हैं। ऐसे गांव जिसमें डी.एम., एस.डी.एम., डॉक्टर, इंजीनियर और जज से लेकर दर्जनों लेक्चरर, वकील दरोगा तक पैदा हुए हैं।”10 गांव में उनका मान-सम्मान हैं। “पर इधर कुछ दिनों से पहलवान को एक-एक करके इतने ‘झोड़’ लगे कि उनकी एक ढर्रे पर चलने वाली आत्मतुष्ट दिनचर्या में खलल साफ़ दिखने लगा है। कितने दिन हो गए सगरे में नहाये। अब अपने दरवाजे के कुएं से ही दो-चार लोटे पानी दायें-बायें डालकर नहान पूरा करने लगे हैं।”11 समय और परिस्थितियां पहलवान के ऊपर अपना प्रभाव छोड़ने लगी है। वे सोचते हैं कि, “सयानी बेटी के लिए दो साल से वर खोज रहे हैं लेकिन कहीं कामयाबी नहीं मिली। पिछले साल तो किसी तरह बेटे की इंजीनियरी की फीस भर दी गई। इस साल कोई रास्ता नहीं दिखता। तीन साल हो गए गन्ने का बकाया अभी तक नहीं मिला। सोसाइटी से ली गई खाद का कर्ज न चुका पाने के चलते पिछले साल पकड़ लिए गए थे। हर दूसरे महीने ट्यूबवेल के बिल की तलवार सर पर लटक जाती है। बेटी का विवाह कहीं तय भी हो जाए तो उसके खर्च का इंतजाम कैसे होगा? यह सब स्थाई चिंता के कारण बने हुए हैं। मन रोज-रोज छोटा होता जा रहा है।”12 लडकी को अच्छा वर ढूंढने में जब पिता हताश हो जाता हैं तो उसकी असहाय स्थिति पहलवान के रूप में अभिव्यक्त होती हैं, “बेटी का बाप बन कर जितनी बार कोई किसी लडके के बाप के दरवाजे जाता है, उतनी बार उसका चुल्लु भर खून घटता है।”13 कोई भी मनुष्य जब कर्ज के तले दब जाता हैं तो इसकी मति निष्प्रभ हो जाती हैं। “उनसे एक हाथ छोटे मरियल से अमीन ने ऐसा चित किया वे कराह भी नहीं पा रहे हैं। अखाडे में सीखे सारे दांव जिंदगी के इस रणक्षेत्र में बेकार साबित हो गए।”14 इस सामंती किसान की सोच में बदलाव आने लगा है। खेत बेचकर बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई करायें या फिर अतिरिक्त दहेज दे कर बेटी का विवाह करें। यह दोनों चीजें वर्तमान समय में तीव्र से तीव्रतर हुई है। ऐसे में पहलवान का चिंताग्रस्त होना लाजिमी है। यदि भारतीय गांवों में पहलवान जैसे बड़े किसानों की यह स्थिति है तो छोटे किसानों का क्या हस्र या स्थिति होगी इसका हमें अंदाजा आ जाता हैं। उपन्यास की कथा में यह विचारणीय बिंदु है।

  1. अर्थव्यवस्था का शिकार किसान-अन्नदाता :

      भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था का पहला और अंतिम शिकार भारत का आम किसान है। “जिस परिवार में बाहर से नगदी की आमदनी नहीं है उसका आज के ज़माने में गुजर होना मुश्किल है। जैसे गड्ढे से खोदी गई मिट्टी उसी गड्ढे को भरने के लिए पूरी नहीं पड़ती उसी तरह खेती-किसानी की आमदनी खेती-किसानी भर को भी नहीं अंटती। और कहां से अंटे ! डीजल, बिजली, खाद, कीटनाशक, जोताई-मड़ाई मजूरी-सबका रेट तो हर साल दस पांच रुपए बढ़ जाता है। नहीं बढता तो किसान की पैदावार का दाम। इसलिए जितनी लंबी खेती उतना ही लंबा घाटा। जितनी ज्यादा पैदावार उतना ज्यादा घाटा।”15 यूरिया, खाद, नहर-रेट, जुताई से लेकर स्कूल कॉलेज और इंजीनियरिंग की फीसों में बढोंत्तरी की सीधी मार किसानों पर पडती है क्योंकि किसानों के लिए योजना बनानेवाले तमाम पूंजीपति हैं, जिन्हें कृषि-कर्म से कोई मतलब नहीं है। उन्हें यह भी नहीं पता होता कि आलू जमीन के नीचे आता है या ऊपर। पहलवान को ऐसा महसूस होता हैं कि इज्जत चली गई खेलावन भाई। खेलावन पहलवान को समझाते हैं, “पागल न बनिए। इज्जत जाती है घटियारी काम करने से। किसी की बहन-बेटी को गलत निगाह से देखने से। लेन-देन तो सारी दुनिया करती है। समझिए एक झूठा सपना था जो बीत गया।”16 इस प्रकार का दृढ विश्वास ही अन्नदाता को जीवन जीने का साहस देता हैं, “किसान के घर में जन्म लेकर न कोई पहले कोई सुखी रहा है न आगे कोई रहेगा। इन्हीं परिस्थितियों में जिंदगी की नाव खेना है।”17

      देश-दुनिया की अच्छी जानकारी खेलावन को है। वह अपनी बातों से पहलवान को समझाने का प्रयास करते हैं। जो उपन्यास में आधुनिक दुनिया की ओर खुलनेवाली खिडकी की तरह अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। वह व्यवस्था के गुण-दोषों को जानते हैं। वे अपनी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अनुभवों से ग्रामीण लोगों में जागरूकता निर्माण करते हैं। वे कहते हैं, “पश्चिम के देशों में किसानों को भारी सब्सिडी दी जाती है। सस्ती दर पर खाद, बिजली, बीज, दवा वगैरह। मैंने कहीं पढा था, अमेरिका अपनी गायों को रोज चौबिस डालर की सब्सिडी देता है।”18 किसानों के लिए पूंजीपतियों की तर्ज पर अच्छा कानून बनाना चाहिए। खेलावन कहता हैं, “उनका कानून बनाने में आला दर्जे का दिमाग लगा है। वे लिमिटेड कंपनी बनाते हैं। करोडों नहीं, अरबों का लोन लेते हैं। सब्सिडी लेते हैं। फिर भी अगर उनकी कंपनी ‘सिक’ हो जाए अर्थात डूबने लगे तो उसकी सेहत सुधारने के लिए बी.आई.एफ.आर. है, डिफरमेंट है।”19 इस देश के किसानों को बचाना हैं तो इनकी उन्नति हेतु सरकार को अच्छे-से-अच्छे कानून बनाने पडेंगे। तभी तो फौज के रिटायर सूबेदार हरदयाल कहते हैं, “यह देश करोडपतियों से नहीं, निरहू-घुरहू लोगों से ही जिंदा है खेलावन।”20 यदि किसानों के लिए सरकार ने कुछ सकारात्मक नहीं किया तो इनका भविष्य अंधकारमय रहेगा, “निरहू-घुरहू नहीं बचेंगे तो दश-बीस साल में पूरा देश कटोरा लेकर भीख मांगता नजर आएगा। मेरी बात गलत साबित हो जाए तो गधे के पेशाब से मूंछ मुडा दूंगा।”21 यह कहीं-न-कहीं सामाजिक अर्थव्यवस्था से उपजा हुआ क्षोभ और रोष है जो साफ-साफ यह कह रहा है पूंजीपति सत्ता के शीर्ष पर और किसान सत्ता के पैरो के नीचे।

  1. ऊंच-नीच यानी जाति-पांति की भावना :

      वर्तमान समय में किसानों में जागृति हुई है उनमें आपसी शक्ति का दायरा बढा है। पर यहां भी जातिवाद मुख्य है। जिस एकता की कमी के कारण किसान कोई बडी लडाई नहीं लड पा रहा है। उपन्यास की कथा में जब गांव के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करके ज्ञापन देने की बात निर्धारित हुई तो केवल पच्चीस-तीस लोग इकट्ठा हुए। खेलावन के जबानी, “ज्यादातर ठाकुर बाभन इसलिए नहीं आये क्योंकि इस प्रदर्शन का कार्यक्रम खेलावन जैसी पिछडी जाति के आदमी ने बनाया है।”22 कारण कि प्रदर्शन का यह कार्यक्रम खेलावन जैसे पिछडी जाति के आदमी कर रहे थे। ऐसे में स्वर्ण अपने को इससे दूर रखना चाहते थे। पर सच तो यह हैं कि किसानों को स्वर्ण-अवर्ण के भेदभाव से कोसों दूर जा कर सरकारी व्यवस्था के खिलाफ व्यापक आंदोलन करना होगा, तभी किसानों की मुक्ति संभव हैं। अन्यथा पहलवान की ही बात सच साबित होगी, “पहलवान को लगता है कि इतनी पढाई लिखाई करने और देश दुनिया घूमने के बाद भी गांव का आदमी सामूहिक हित के काम के लिए एकमत होने के मुद्दे पर भी जाति-पांति की भावना से उबर नहीं पाता। इसी तरह की बात उन्होंने एक बार अखबार में पढी थी कि जिनकी नीतियों और षडयंत्रों के चलते किसान का जीना दूभर हो रहा है, उनसे लडना तो दूर, किसान को उनकी पहचान ही नहीं है।”23 किसानों का जातिवादी होना भी इनकी दुर्गति का एक कारण रहा हैं, “जातिवादी अलगाव न होता तो कितनी मजबूती आ जाती गांव में ! फौलाद जैसी मजबूती।”24 बावजूद पहलवान में अदम्य जिजीविषा और आत्मविश्वास की कमी नहीं है, “किसानों की कब्र के लिए गड्डा खोदनेवाले बहुत हैं तो उनके जिंदा रहने की राह खोजनेवाले भी कम नहीं है।”25

  1. कृषि पर निर्भर किसानों की दुर्दशा :

      आज किसान पूरी तरह से हाशिये पर है। उसके जीवन में किसानी कर्म के साथ-साथ बेटे की ऊंची शिक्षा और बेटी के विवाह के लिए दहेज की समस्या मुंह बाये खड़ी है। उपन्यास की कथा में पहलवान जब बेटी के लिए रिश्ता देखने जाते हैं तो उन्हें निराशा हाथ लगती हैं। युगीन बाजारवादी व्यवस्था ने इन दोनों स्थितियों में किसानों की कमर तोड़कर रख दी है। उपन्यास की कथा में, “क्या है इनके पास जो बाबू जी इस तरह लट्टू हुए जा रहें हैं। न कोई कोटा परिमिट न कोई कालेज भट्टा, न कोई टरक ट्रैक्टर न कोई ठेका पट्टा। कहां से संभालेंगे हमारी हजार लोगों की बारात ? शादी का बजट कितना है ? कौन सी गाड़ी देंगे ? साफ-साफ बात होनी चाहिए।”26 वह आज के दहेज परंपरा का जीवंत प्रमाण हैं, जहां लोग मुंह खोलकर अपनी मांगें मनवा रहे हैं, जिसमें उन्हें दूसरे के आर्थिक मन:स्थिति का ख्याल रखना आवश्यक नहीं लगता हैं। पहलवान अपनी बेटी के लिए इसी दहेज की समस्या से चिंतित है। वहीं बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई में उनके सारे खेत मानो हाथ से निकल जाएंगे तभी उसकी पढ़ाई संभव है। पहलवान का चिंतित होना स्वाभाविक है, “उनके जैसा चार एकड़ की जोत वाला किसान अगर साल की दोनों फसलों की कुल पैदावार बेच दे तो भी खाद, बीज, सिंचाई, मजदूरी का खर्च घटाने के बाद जो कुछ हाथ लगेगा उससे एक साल की फीस का इंतजाम होना मुश्किल है। चार साल तक इस तरह की फीस भरिए तब कहीं बेटा इंजीनियर कहलाने लायक होगा। अगर लगातार पास करता चले तब। लगभग सभी ने माना कि आज के जमाने में सिर्फ खेत के भरोसे किसी भी किसान के लिए बेटे को इंजीनियरिंग पढ़ाना संभव नहीं है।”27 इस देश का किसान आज भी आत्मनिर्भर नहीं बना है। उन्हें कई समस्याओं से निरंतर संघर्ष करना पडता है। पहलवान के शब्दों में, “सचमुच हम तब भी भिखारी थे जब अंग्रेजों का, नवाबों का, जमींदारों का राज था और आज भी भिखारी हैं, इस राज में भी जिसे सब सुराज कहते हैं।”28

  1. किसान विरोधी भू-अधिग्रहण नीति :

      भारत सरकार की किसान विरोधी नीति जो भू-अधिग्रहण की वकालत करती हैं, वास्तव में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इन बाजारवादी नीतियों का खुला समर्थन करती हैं जो किसानों को कमजोर बनाने के लिए कटिबध्द है। ‘आखिरी छलांग’ इस उपन्यास में हमें बाजारवाद के इसी संकट की आहट मिलती है। चाहे हरे भरे बाग की जगह समतल भीटा बनने का प्रसंग हो या बैल के खुर में नकली दवा डालने का प्रसंग। इस उपन्यास का एक पात्र सदैव प्रथम श्रेणी में पास होनेवाला राजेश्वर उर्फ पी.सी.एस. जिसने एम.ए. फिलासफी में टॉप किया है। पहलवान के शब्दों में, “जहां गांव के ज्यादातर लडके कालेज और बाजार में लडक‍ियों का दुपट्टा खींचने और हा-हा, ठी-ठी करने में लगे हैं, झोपडी जैसे अपने घरों में ऐश्वर्या राय और शाहरूख खान का पोस्टर चिपकाने में लगे हैं, वहीं राजेश्वर जैसा लडका भी उनके गांव में पैदा हुआ है – इस पर उन्हें गर्व है।”29 राजेश्वर किसानों को पांच तरह के खतरों से अवगत कराता हैं, “बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बीज पेटेंट कराने से पैदा खतरा। किसानों की जमीन हडपकर उद्योगपतियों को दिए जाने का खतरा। सडकों का जाल बिछाने में किसान की जमीन माटी के मोल कब्जा करने का खतरा। किसानों के लिए जरूरी चीजों पर सब्सिडी बढाने की बजाय घटाते चले जाने का खतरा। कितनी आंख खोल देनेवाली बात बताई कि दूसरे उत्पादकों के उत्पाद के लिए एम.आर.पी. तय होता है यानी मैक्सिमम रिटेल प्राईस। जबकि किसान के उत्पाद के लिए मिनिमम। सपोर्टिंग प्राईस न्यूनतम समर्थन मूल्य। बाकी के हिस्से में मैक्सिमम और किसान के हिस्से में मिनिमम। इतना मिनिमम कि लागत का आधा मिलना भी पहाड।”30 यहीं वे खतरें हैं जो बडे पैमाने पर अन्नदाता को आत्महंता बनने पर मजबूर करते हैं।

  1. किसानों में अदम्य जिजीविषा :

      किसानों में अदम्य जिजीविषा होती है। वह निरंतर सर्जक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करते रहता है। परिणाम स्वरूप वह कितना भी बडा संकट आने पर डगमगाता नहीं, तो बडी चालाकी और हिम्मत से रास्ता निकालने का प्रयास करता है। खेलावन कहता हैं, “नहीं लडेगा तो मरेगा, मर तो रहा ही है और जल्दी मरेगा। देश-दुनिया के नक्शे से गायब हो जायेगा। कोई रोक नहीं सकता। बहुत सारे मुद्दे हैं जिनसे लडना जरूरी है। जैसे सरकार की नीतियां। गेहूं पैदा करने में लागत बारह रूपये किलो आती है लेकिन गेहूं बिकता है सात रूपये किलो, आलू और प्याज किसान के घर पैदा होता है तो दो रूपये किलो बिकने लगता है। दो महीने बाद जैसे किसान के घर से बाहर निकला, दस रूपये किलो हो जाता है। पिछले पैंतिस साल में जमीन सौ गुनी महंगी हो गई। सोना पचहत्तर गुना, डीजल पचास गुना जबकि गेहूं सिर्फ सात गुना। सारी मंदी किसानों के लिए ही है। पिछले दिनों बजट की खबर अखबार में छपी थी, उसमें जो चीजें सस्ती की गई थी उसमें भी कार, कम्प्यूटर, कालीन और कोकाकोला और जो चीजें महंगी की गई थी उनमें थी बीडी-माचिस, चाय-बिस्कुट, पोस्टकार्ड। बडे पूंजीपतियों के कारखाने में बननेवाली और अमीर लोगों के उपयोग में आनेवाली चीजें सस्ती हो गई और कुटीर उद्योग में बननेवाली या गरीब के काम में आनेवाली चीजें महंगी। जिस सरकार की नियत ऐसी गरीब विरोधी, किसान विरोधी हो, उसके खिलाफ गरीब नहीं खडा होगा, किसान नहीं खडा होगा तो कौन खडा होगा ?”31 किसानों को आत्मरक्षा के लिए संघर्ष करना आवश्यक हैं। यदि किसान संघर्ष छोड दे तो उसकी स्थिति बिल्कुल मृत प्राणियों की तरह हो जाएगी। खेलावन फिर कहता हैं कि, “जगना तो पडेगा। लडना तो पडेगा। जिंदा रहना हैं तो अपने मारनेवालों के सामने उठना तो पडेगा। वरना जैसे हजारों जातियां, जनजातियां, पशु-पक्षियों की प्रजातियां इस दुनिया से उछिन्न हो गई, वैसे ही किसान नाम की प्रजाति भी विलुप्त हो जायेगी।”32

  1. किसानों में अंधविश्वास का बोलबाला :

      शिवमूर्ति के जीवन में कृषी-कर्म का यह व्यापक अनुभव कोश है जो बदलते समय में किसानों की कथा को उसी रूप में सृजित करते हैं। गांव की ऐसी जबर्दस्त पकड प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु के लेखन को भी कभी-कभी असंमजस में खडा कर देती हैं। इनके लेखन की बडी विशेषता यह हैं कि वे अपनी कथा में पूरे गांव के यथार्थ को ला खडा कर देते हैं बिना किसी लाग-लपेट के तथा वहां का यथार्थ और मुखरित रूप में अभिव्यंजित हो पडता है। गांव के मनुष्य में अनुभव का गहरा चिंतन होता हैं। कम शब्दों में जीवन का व्यापक फलसफा बताना इनकी खासियत होती है। पहलवान का मिडिल स्कूल का सहपाठी मुरली जब उन्हें मिलता हैं तो पुरानी यादों को तरोताजा करते हुए कहता हैं, “जवानी का खाया-पिया ही बुढापे में काम आता है भइया। कहते हैं कि घोडे का, पहलवान का और वेश्या का बुढापा बहुत खराब गुजरता है।”33

      ग्रामीण अंध-विश्वास को भी वे कथा में लाते हैं जो बदलाव की प्रक्रिया में गांव से गायब होने का नाम ही नहीं ले रहा है। पहलवान जानता हैं कि, “सचमुच, क्या है किसान की जिंदगी ? एक कोना ढांकिए तो दूसरा उघार हो जाता है।”34 दलिद्दर के प्रतीक पुराने सूप का हाथ-पैर तोडकर उसे ऐसे गड्ढे में फेंकना जहां से वह वापस न लौट सके। “इस्सर (ऐश्वर्य) आवै, दलिद्दर जावै।”35 कोई राह नहीं इस दुष्चक्र से बाहर निकलने की। माचे पर लेटे-लेटे पहलवान याद करते हैं – आज के सपने में पांडे बाबा हंस रहे थे। उनके साथ अलग-अलग रस्सियों में टंगे बीसों घंट भी हंस रहे थे। व्यंग्य की हंसी। किसी के सिर पर महाराष्ट्रीयन पगडी थी। किसी के सिर पर काठियाबाडी। कोई ओडिया बोल रहा था कोई कन्नड। ये लोग कौंन हैं बाबा ? आप लोग इस तरह मुझे देखकर क्यों हंस रहें हैं ? “हम विभिन्न प्रांतों के आत्महत्या करनेवाले किसान हैं बच्चा। एक घट बोला, हंस रहे हैं तुम्हारी इस बचकानी सोच पर कि तुम हिंदुस्तान में रहकर किसानी जीवन के दुख और दरिद्रता से मुक्ति का सपना देख रहे हो। यह सपना कभी पूरा नहीं होनेवाला बच्चा।”36

      उपन्यास के अंत में पहलवान स्वयं को सभी चिंताओं से मुक्त करते हैं। लेकिन यह छलांग नहीं है। इस छलांग की प्रेरणा पांडे बाबा की बरसी पर आयोजित जनसभा से मिलती है। पहलवान में बरखी के दिन वाले नेताजी के भाषण से बदलाव आता है। घर वापसी के क्रम में, “उन्हें लगता हैं कि उनके साथ उनचासों पवन दौड पडे हैं। मुंढे से हुमककर हवा में छलांग लगाते हैं तो उन्हें लंका के लिए छलांग लगाते हनुमान जी याद आ जाते हैं।”37 अर्थात्‍ पहलवान बेटी के विवाह की चिंता, बेटे के फीस की चिंता, टयूबवेल के बिल की चिंता इन सभी को दरकिनार कर यह मौत के खिलाफ लगाई गई छलांग हैं। ………..आखिरी छलांग।

  • निष्कर्ष :

      सारांश रूप में कहा जा सकता हैं कि किसान महंगे बीज, खाद, कीटनाशक एवं सिंचाई जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पा रहा है। बीज बोने से लेकर बेचने तक उसे कई समस्याओं से गुजरना पडता है। सरकार की योजनाएं जो किसानों के सामने लुभावने रूप में आती हैं और उनके प्राण लेकर ही जाती हैं। कर्ज का जाल ही किसानों के लिए मौत का फंदा साबित हो रहा है। वर्तमान कृषि प्रणाली एवं कृषक समाज पूरी तरह से सामंती और जमींदारी प्रथा से मुक्त नहीं हो पाया है। प्रथाएं तो समाप्त कर दी गई, पर कृषक समाज आज भी उनके दुष्परिणामों को भुगत रहा है। प्राकृतिक आपदा उसकी स्थिति को और भी बदतर बना देती हैं। और अंत में इनके दुर्गति का सबसे बडा मुख्य कारण किसानों का संगठित न होना ही रहा हैं। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में किसान एकजुट होकर उन्नति करेंगे।

  • संदर्भ :

 

  1. Shivmurti.blogspot.com से
  2. उपर्युक्त
  3. उपर्युक्त
  4. उपर्युक्त
  5. शिवमूर्ति, आखिरी छलांग, NotNul Online PDF Book, पृ. 15
  6. उपर्युक्त, पृ. 15
  7. डॉ. रामविलास शर्मा, प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (5वां सं. 2008), पृ.177
  8. प्र.सं. रवींद्र कालिया, प्रेमचंद: दलित एवं स्त्री विषयक विचार, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली (प्र.सं.2012),पृ. 9
  9. शिवमूर्ति, आखिरी छलांग, NotNul Online PDF Book, पृ. 3
  10. उपरर्युक्त्‍, पृ. 13
  11. उपर्युक्त, पृ. 1
  12. उपर्युक्त, पृ. 2
  13. उपर्युक्त, पृ. 54
  14. उपर्युक्त, पृ. 15
  15. उपर्युक्त, पृ. 8
  16. उपर्युक्त, पृ. 17
  17. उपर्युक्त, पृ. 16
  18. उपर्युक्त, पृ. 16
  19. उपर्युक्त, पृ. 16
  20. उपर्युक्त, पृ. 17
  21. उपर्युक्त, पृ. 17
  22. उपर्युक्त, पृ. 4
  23. उपर्युक्त, पृ. 5
  24. उपर्युक्त, पृ. 5
  25. उपर्युक्त, पृ. 54
  26. उपर्युक्त, पृ. 18
  27. उपर्युक्त, पृ. 25-26
  28. उपर्युक्त, पृ. 52
  29. उपर्युक्त, पृ. 52
  30. उपर्युक्त, पृ. 52
  31. उपर्युक्त, पृ. 28-29
  32. उपर्युक्त, पृ. 29
  33. उपर्युक्त, पृ. 57
  34. उपर्युक्त, पृ. 32
  35. उपर्युक्त, पृ. 31
  36. उपर्युक्त, पृ. 49
  37. उपर्युक्त, पृ. 59

डॉ. मजीद शेख
सहयोगी प्राध्यापक एवं शोध निर्देशक,
हिंदी विभाग, प्रतिष्ठान महाविद्यालय, पैठण