बालशैरि रेड्डी दक्षिण के सुप्रसिद्ध लेखक हैं। बालशौरि रेड्डी अपने कार्य के प्रति निष्ठा, कठोर परिश्रम, साहित्य साधना तथा अनवरत संघर्ष के प्रेरणाप्रद उज्ज्वल उदाहरण है। इनकी मातृभाषा तेलुगु है।

तेलुगु हमारे देश की उन भाषाओं में है जिनका साहित्य-भंडार समृद्ध और आकर्षक है। मधुर और संपन्न होने के अतिरिक्त तेलुगु में हमें द्रविड और आर्य इन दो भाषाओं का समन्वयात्मक रूप परिलक्षित होता है। तेलुगु को तेनुगु भी कहते हैं। ‘‘तेलुगु का भावार्थ भी होता है, जो तेने (मधु) अगु (हो) अर्थात मधु की भाँति मधुर हो।’’1 वस्तुत इस भाषा का काव्य साहित्य मधुर है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ‘तेलुगु’ दिशा-वाचक शब्द भी है; जिसका अर्थ होता है ‘दक्षिण’। विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं से समलंकृत हमारे इस देश में अनेक विविधताओं में भी राष्ट्रीय एकता का एक भव्य चित्र समाविष्ट है। भारत की यह अपनी राष्ट्रीयता है और भावनात्मक विशेषता। प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश की इस महिमा और गरिमा का ज्ञान होना चाहिए यह युग की एक आवश्यकता है।

बालशौरि रेड्डी तेलुगु के जाने माने विद्वान है। उन्होंने देश के विभिन्न अंचलों का पर्यटन किया है। अतः उन क्षेत्रों का साहित्यिक सौंदर्य अपनी कृतियों में रखने की चेष्टा की। उन्होंने बड़े मनोयोग द्वारा तेलुगु का साहित्य, सरल और सुबोध रूप से हिंदी में प्रस्तुत किया। इनकी पुस्तक तेलुगु साहित्य का इतिहास में हिंदी भाषा के लालित्य और सौंदर्यता इसका प्रमाण है।

किसी प्रदेश की जीवंत भाषा को देश्या भाषा कहते हैं। संस्कृत भाषा में रचित एक प्राचीन तेलुगु व्याकरण में कहा गया है- ‘नित्या प्रवाहिनी देश्या’ अर्थात भाषा नदी के समान सतत् परिवर्तनशील होती है। आज तेलुगु की व्यवहार भाषा (बोलचाल की प्रचलित भाषा) और साहित्यिक भाषा में बड़ा अंतर है। दक्षिण भारत में यद्यपि मुसलमानों तथा अंग्रेजों ने अपने-अपने साम्राज्यों की स्थापना की थी तथापि तत्कालीन विपरीत परिस्थितियों में हिंदी का विरोध तो उस समय भी हुआ किंतु ऐसी स्थिति में भी अहिंदी भाषियों ने जो सेवा की है वह सराहनीय है।

आंध्र राज्य में हिंदी लेखन की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से ही चली आ रही है। आंध्र राज्य के हिंदी भाषा और साहित्य की समुचित सेवा की है जिनमें बालशौरि रेड्डी प्रमुख है।

उन्होंने अपनी साहित्य यात्रा में मातृभाषा से अधिक महत्व राष्ट्रभाषा को दिया है। वे हिंदी भाषा के प्रति अपार श्रद्धा होने के कारण इस क्षेत्र की उनकी अधिक रूचि दिखाई देती है।

बालशौरि रेड्डी ने अपनी आलोचनात्मक एवं परिचायत्मक गं्रथों द्वारा हिंदी जगत को तेलुगु के विशाल एवं समृद्ध साहित्य से परिचित करवाया। इनकी तेलुगु तथा हिंदी में प्रकाशित कई मौलिक रचनाएँ सर्जनात्मक प्रतिभा के परिचायक हैं। हजारी प्रसाद के शब्दों में- ‘‘रेड्डी जी उत्तर और दक्षिण के बीच वाङ्मय के आदान-प्रदान का श्लाघनीय सेतु निर्माण करने की सक्षम योग्यता रखते हैं।’’2

बालशौरि रेड्डी ने हिंदी भाषा सीखने तथा हिंदी में सृजन कार्य करने का मन में निश्चय किया। यह उनके जीवन में घटित एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है। उन्होंने उत्तर भारत से हिंदी सीखी और हिंदी की सेवा के संपूर्ण भारत देखने की इच्छा जागी। इसी इच्छा द्वारा उन्हें अध्यापन के लिए उत्तर भारत जाना पड़ा। भावात्मक एकता की दिशा में उनका योगदान महत्वपूर्ण स्थान रखता है और भाषा की संकुचित भावना आंध्र में कभी नहीं रही।

बालशौरि रेड्डी जी को बहुमुखी प्रतिभाशाली साहित्यकार के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। वे एक सुलझे हुए आलोचक, प्रतिष्ठित, उपन्यासकार, ख्याति प्राप्त अनुवादक, नाटककार, निबंधकार, अच्छे वक्ता तथा कुशल संपादक है। वे व्यक्तिगत रूप से बहुत ही मिलनसार, परिश्रमी तथा स्पष्टवादी एवं मानवतावादी हैं। इनकी प्रथम पुस्तक पंचामृत है। उसमें उन्होंने तेलुगु के कवियों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया। यह पुस्तक भारत सरकार द्वारा सम्मानित भी हुई। इस परंपरा में उन्होंने तेलुगु की 82 कहानियों तथा 27 नाटकों का हिंदी में अनुवाद किया।

बालशौरि रेड्डी जी की रचनाओं का अनुवाद अनेक भाषाओं की दृष्टिगोचर होता है। इनकी ‘यह बस्ती, ये लोग’ व्यंग्य प्रधान मौलिक आंचलिक उपन्यास है। यह कृति पहले ‘जीवन सूत्रम’ नाम से तेलुगु भाषा में प्रकाशित हुई थी। इस कृति की मूल तेलुगु पांडुलिपि वस्तुतः एक फिल्म के लिए तैयार की गई थी। इस कृति का रेड्डी जी ने रूपांतरण किया। इस उपन्यास का अनुवाद गुजराती तथा तमिल में दृष्टिगोचर होता है। ‘जिंदगी की राह’ और ‘भग्न सीमाएँ’ नामक उपन्यासों का अनुवाद गुजराती भाषा में मिलता है। भग्न सीमाएँ रचनाए आत्मकथात्मक शैली में की गयी है। अतः जिंदगी की राह का अनुवाद लोकप्रिय तमिल साप्ताहिक पत्रिका के संपादक नीलिनाथन ने तमिल भाषा में प्रस्तुत किया और लकुमा का अनुवाद वंशी ने कन्नड़ भाषा में किया। अतः ‘प्रोफेसर’ का रूपांतरण बंगाली भाषा में बोम्मेन विश्वनाथम् ने किया है।

बालशौरि रेड्डी जी की मौलिक तथा अनूदित रचनाओं के अतिरिक्त अनेक कहानियाँ हिंदी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है। इन्होंने 80 से अधिक कहानियों का हिंदी में भाषांतरण किया। इनकी मौलिक हिंदी कहानी ‘चाँदी का जूता’ जिसका प्रकाशन ‘सारिका’ में पहली बार हुआ था, इस कहानी का अनुवाद उर्दू, मराठी, कन्नड़, डोंगरी, गुजराती मलयालम तथा तमिल आदि भाषाओं में किया गया है। कहानी के साथ-साथ हिंदी बाल साहित्य क्षेत्र में उनकी निम्नलिखित पुस्तकें उल्लेखनीय है। ‘बाल साहित्य के विकास के लिए श्री बालशौरि रेड्डी ने बहुविधि सेवाएँ अर्जित की है। इसके अतिरिक्त उन्होंने आंध्र संस्कृति और तेलुगु साहित्य के विविध विधाओं का परिचय हिंदी भाषा के माध्यम से उत्तर के निवासियों को इससे परिचय कराने में सफल रहे।

आंध्र राज्य जो कि एक अहिंदी भाषी राज्य है हिंदी लेखन कार्य द्वारा उन्नति एवं प्रगति की ओर अग्रसर है। डाॅ. भीमसेन निर्मल के शब्दों में ‘उत्तर और दक्षिण संगम-स्थल पर स्थित आंध्रों ने भारत की सामाजिक संस्कृति को अपनाया और संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा हिंदी आदि सार्वदेशिक भाषाओं के साहित्य-भंडार की श्री वृद्धि में सराहनीय सहयोग प्रदान किया।’’3 भारतीय भाषाओं में जो साहित्य लिखा गया है उसे समग्र राष्ट्र के सामने प्रस्तुत करने के प्रमुख उद्देश्य ‘तेलुगु साहित्य का इतिहास’ ेिहंदी में परिलक्षित होता है। भारतीय भाषाओं के साहित्यों से संपर्क स्थापित कर उन साहित्यों में जो कुछ भी महान है उसे समझने की दिशा में किया गया यह प्रयास राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से प्रशंसनीय है। बालशौरि जी की भाषा शैली साहित्य की दृष्टि  से अपना विशिष्ट महत्व रखती है। इनकी रचनाओं में कहीं-कहीं उर्दू, अरबी के शब्दों को देखा गया। श्री रेड्डी जी ने आवश्यकतानुसार मुहावरों का प्रयोग भी किया है। इससे भाषा की गंभीरता भी बढ़ गयी, जहाँ-जहाँ लोकोक्तियों की आवश्यकता होती है, वहाँ-वहाँ उनका उचित रीति से उपयोग कर भाषा को अधिक संपन्न बनाया।

संदर्भ सूची

  1. तेलुगु साहित्य का इतिहास, बालशौरि रेड्डी, पृ.3
  2. नई धारा- प्रो.जी.सुंदर रेड्डी, पृ.20
  3. आंध्र में हिंदी लेखन की परंपरा, डाॅ. भीमसेन निर्मल, पृ.76
डॉ. आर.सपना
हिंदी प्रवक्ता
हिंदी महाविद्यालय
 हैदराबाद

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