भारत के सांस्कृतिक क्षितिज पर भक्ति आंदोलन का उदय एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है।  क्योंकि इसकी व्याप्ति किसी एक क्षेत्र या भाषा विशेष तक सीमित नहीं थी। अलग-अलग समय में यह आंदोलन दक्षिण भारत से शुरू होकर पूरे भारत में फैला। भक्ति साहित्य का आधार यही भक्ति आंदोलन था। इसके अखिल भारतीय विस्तार को ध्यान में रखकर यदि हम विचार करें तो लगभग 1000 साल के बीच पसरे इस कालखंड की विशेषताएं एवं उपलब्धियां इसे आंदोलन का दर्जा प्रदान करती हैं। अलग-अलग अनुशासन के महत्वपूर्ण विद्वानों ने इस आंदोलन की विशिष्टताओं पर विचार किया है। इस आंदोलन का असर केवल साहित्य ही नहीं बल्कि कला के अन्य अनुशासनों ऊपर भी दिखाई पड़ता है। यहां पर हमारे विचार के केंद्र में साहित्य पर इस आंदोलन के प्रभाव पर विचार करना है। इस आंदोलन की तमाम विशेषताओं में एक विशेषता यह भी है की इस समय मातृभाषाओं एवं लोकभाषाओं में व्यापक स्तर पर साहित्य प्राप्त होता है। यह बदलाव केवल भाषा के स्तर पर ही नहीं बल्कि साहित्य की अंतर्वस्तु पर भी दिखाई पड़ती है। इतने लंबे कालखंड और साहित्य में एक स्तर पर समानताएं हैं, जो इन्हें एक दूसरे से जोड़ती हैं तो दूसरे स्तर पर इन सब की अपनी निजी विशेषताएं भी हैं।

भक्ति आंदोलन से सीधे और सर्वाधिक प्रभावित होने वाला क्षेत्र साहित्य ही था। यही कारण है कि भक्ति आंदोलन के उदय के संबंध में सबसे पहले साहित्य के क्षेत्र में ही विचार-विमर्श किया गया। हिंदी साहित्य में भक्ति आंदोलन के संबंध में सबसे पहले विचार करने का श्रेय जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन को जाता है। लेकिन उनकी विचार पद्धति पूर्वाग्रहों से ग्रसित थी यही कारण है कि उनकी स्थापनाओं एवं मान्यताओं को साहित्य के क्षेत्र में उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता। हिंदी साहित्य में विधिवत रूप से पहला इतिहास आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा और  उन्होंने भक्ति आंदोलन के उदय पर विचार करते हुए लिखा कि- ‘’देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश ना रह गया। उसके सामने ही उसके देव मंदिर गिराए जाते थे, देव मूर्तियां तोड़ी जाती थी और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वह कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत ना तो वे गा ही सकते थे और ना ही लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जन समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?’’ 1

-शुक्ल, रामचन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ- 57, नागरी प्रचारिणी सभा

सवाल यह है की क्या आचार्य रामचंद्र शुक्ल को भक्ति आंदोलन के दक्षिण भारत में उत्पन्न होने के बारे में पता नहीं था और यदि पता था तो फिर भी उन्होंने भक्ति आंदोलन के उदय को इस्लाम की प्रतिक्रिया के रूप में क्यों व्याख्यायित किया? इतना बड़ा आंदोलन केवल प्रतिक्रिया स्वरूप ही उत्पन्न हुआ था या इसके और भी निहित कारण थे। अपनी बात को आगे स्पष्ट करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्वयं कहा कि- ‘’भक्ति का जो सोता है दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण सुने पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला। रामानुजाचार्य ने शास्त्रीय पद्धति से जिस सगुण भक्ति का निरूपण किया था उसकी ओर जनता आकर्षित होती चली आ रही थी।‘’ 2

  • वही, पृ-58

 

हिंदी साहित्य के दूसरे बड़े इतिहासकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भक्ति आंदोलन के उदय संबंधी आचार्य रामचंद्र शुक्ल की व्याख्या को नकारते हुए लिखते हैं कि- ‘’यह भी बताया गया कि जब मुसलमान हिंदुओं पर अत्याचार करने लगे तो निराश होकर हिंदू लोग भगवान का भजन करने लगे। यह बात अत्यंत उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मंदिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की भावना को उमरना था तो पहले उसे सिंध में और फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था पर हुई वह दक्षिण में। असल बात यह है कि जिस बात को ग्रियर्सन ने अचानक बिजली की चमक के समान फैल जाना लिखा है वह ऐसा नहीं है उसके लिए सैकड़ों बरस से मेघ खंड एकत्र हो रहे थे। फिर भी ऊपर ऊपर से देखने पर लगता है कि उसका प्रादुर्भाव एकाएक हो गया। इसका कारण उस काल की लोक प्रवृत्ति का शास्त्र सिद्ध आचार्य और पौराणिक ठोस कल्पनाओं से मुक्त हो जाना है।  शास्त्र सिद्ध आचार्य दक्षिण के वैष्णव थे। ईसवी सन की सातवीं शताब्दी से और किसी के मत से तो और भी पूर्व से दक्षिण में वैष्णव भक्ति ने बड़ा जोर पकड़ा इसके पुरस्कर्ता अलवार भक्त कहे जाते हैं। इनकी संख्या 12 है, जिनमें कम से कम 9 को ऐतिहासिक व्यक्ति मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है। इनमें अंदाल नाम की एक महिला भी थी। इनमें से अनेक निम्न  जातियों में उत्पन्न बताए जाते हैं। यह स्पष्ट समझा जाता है इन्हीं लोगों की परंपरा में सुविख्यात वैष्णव आचार्य श्री रामानुजाचार्य का प्रादुर्भाव हुआ।‘’ 3

  • द्विवेदी, हजारी प्रसाद- हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास, पृ- 59

ऐतिहासिक दृष्टि से भक्ति आंदोलन के विकास को दो चरणों में बांटा जा सकता है। पहले चरण के अंतर्गत दक्षिण भारत का भक्ति आंदोलन आता है। इस आंदोलन का काल छठी शताब्दी से लेकर 13 वी शताब्दी तक माना जाता है। दूसरे चरण में उत्तर भारत का भक्ति आंदोलन आता है। इस आंदोलन की समय सीमा तेरहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक माना जाता है। इसी चरण में उत्तर भारत इस्लाम के संपर्क में आया। हिंदी साहित्य के भक्ति काल का संबंध उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन से है। भक्तिकालीन साहित्य पर विचार करें तो इसने देश के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न भिन्न मात्राओं में तीव्रता और वेग ग्रहण किया। यह साहित्य विभिन्न रूपों में प्रस्तुत हुआ है। धार्मिक विचारों में भिन्नता के बावजूद जनता की एकता को स्वीकार करना, ईश्वर के सामने सबकी समानता की बात, जाति प्रथा का विरोध, यह विश्वास कि मनुष्य और ईश्वर के बीच तादातम्य प्रत्येक मनुष्य के सद्गुणों पर निर्भर करता है ना की उसकी ऊंची जाति अथवा धन-संपत्ति पर। भक्ति को आराधना का उच्चतम स्वरूप पर जोड़ देना और अंत में कर्मकांड और मूर्ति पूजा तीर्थाटन और अपने को दी जाने वाली यंत्रनाओं की निंदा की गई।  भक्ति कालीन साहित्य में सभी तरह के वर्गगत एवं जातिगत भेदभाव तथा धर्म के नाम पर किए जाने वाले सामाजिक उत्पीड़न का विरोध किया गया है।

भक्ति कालीन साहित्य में सगुण और निर्गुण दोनों काव्यधारा ने अपने-अपने ढंग से सामाजिक विषमताओं, अन्याय, छुआछूत, शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई और पुरोहितों की अकर्मण्यता कर्मकांड आदि का भी जबरदस्त विरोध किया। अमीरी और गरीबी के बीच उपजी खाई को भी पाटने का प्रयास किया और सभी के साथ समानता के व्यवहार पर विशेष जोर दिया। ज्ञातव्य है कि कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा की कविता एक व्यापक आंदोलन से जुड़ी हुई है लेकिन सभी की कविता एक जैसी नहीं है। हर एक की कविता का अपना विशिष्ट रूप-रंग है।  एक की कविता से निकलकर दूसरे की कविता में प्रवेश करना लगभग कविता की दूसरी दुनिया में पहुंचना है।

भक्ति आंदोलन के दौरान रचित साहित्य की व्याप्ति, प्रकृति और चरित्र का अध्ययन विश्लेषण कई महत्वपूर्ण इतिहासकारों, साहित्य के इतिहासकारों और आलोचकों ने किया है। इन विद्वानों ने अपने-अपने नजरिए से इसे व्याख्यायित किया है और इसे समझने के लिए सूत्र भी प्रस्तावित किए हैं।

साहित्य या किसी भी कला रूप के संबंध में यह बात कभी भी पूरी तौर पर लागू नहीं होती है कि किसी खास तरह की रचना एकाएक रुक जाए। कला संसार के भीतर की परिघटना के मद्देनजर यह कहना बेहतर होगा कि सांस्कृतिक इतिहास के एक खास क्षण में उस तरह की रचना का जो महत्व होता है बाद में नहीं रह पाता। भक्ति काल के संदर्भ में इसे कहें तो कहना होगा कि इस कालखंड के बाद भले ही भक्ति साहित्य की रचना होती रही हो (सच है कि ना सिर्फ भक्ति काल के बाद आए कथित रीतिकाल बल्कि तब से लेकर आज तक उस तरह की रचना करने वाले मिल जाएंगे) लेकिन मनुष्य की चेतना के निर्माण में उसका वह महत्व नहीं रह जाता जो तब था। इस बात को मुख्यधारा और हाशिए पर चली गई प्रवृत्ति के खांचे से एक सीमा तक ही समझा जा सकता है। इसके साथ यह भी दिखता है कि इतिहास के खास क्षण में उस रचनाशीलता ने जो भूमिका अदा की थी बाद में वह एक खास तरह की परिपाटी बनकर उससे विपरीत भूमिका में रूपांतरित हो जाती है।

उत्तर भारत में मध्य काल के दौरान भक्ति आंदोलन की इस विराट चेतना पर अनेक दृष्टिकोण से विचार किया गया है। धर्म एवं उसकी गूढ़ताओं में विश्वास रखने वाले लोगों ने भक्ति के इस आंदोलन का अपने रूचियों के अनुसार व्याख्या की है। लेकिन कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जिन्होंने भक्ति के इस विराट प्रवाह के सतही चिंतन से इतर सामाजिक निहितार्थों को समझने का प्रयास किया है। यही विद्वानों के कारण भक्ति आंदोलन की क्रांतिकारी भूमिका का पता चल पाया है।  रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, हरवंश मुखिया, सतीशचंद्र, शिवकुमार मिश्र, नामवर सिंह, इरफान हबीब आदि नाम प्रमुख हैं।

हिंदी साहित्य में भक्ति आंदोलन के अवसान पर केंद्रित बहस को केंद्र में लाने का श्रेय गजानन माधव मुक्तिबोध को है। भक्ति आंदोलन के अवसान पर विचार करते हुए मुक्तिबोध कहते हैं कि ‘’जो भक्ति आंदोलन जनसाधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपंथ के विरुद्ध जनसाधारण की आशा-आकांक्षाएं बोलती थी, उसका मनुष्य सत्य बोलता था, उसी भक्ति आंदोलन को उच्च वर्गीय ने आगे चलकर अपनी तरह का बना लिया और उसे समझौता करके फिर उस पर अपना प्रभाव कायम करके और अनंतर जनता के अपने तत्वों को उसमें से निकाल कर उन्होंने उस पर पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया।‘’ 4

-जैन, निर्मला, सं., निबंधों की दुनिया, पृ-48  

ऐसा प्रतीत होता है कि इतना विराट आंदोलन मुक्तिबोध की नजर में एक मिट्टी का लौदा था जिसे उच्च वर्गों ने अपने अनुसार ढाल लिया। मुक्तिबोध ने इस सवाल का उत्तर नहीं दिया कि क्यों और कैसे ढाल दिया। जब उच्च वर्ग वाले इतने बड़े जनआंदोलन को अपने मुताबिक ढाल  रहे थे, तब अन्य वर्ग वाले क्या कर रहे थे? मुक्तिबोध आगे कहते हैं कि किसी भी साहित्य का ठीक-ठाक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बनने वाले सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक ना जान लें। लेकिन मुक्तिबोध इस अत्यंत हास्यास्पद सरलीकरण का प्रमाण नहीं दे पाते। इससे भी गंभीर सवाल यह है कि एक बार मान भी लिया जाए कि सगुणमत ने निर्गुण मत को खत्म कर दिया तो सगुन मत क्यों खत्म हो गया ? जब यह मत इतना प्रभावी था कि एक व्यापक सामाजिक आधार वाले निर्गुण मत को इसने खत्म कर दिया तो फिर स्वयं क्यों खत्म हो गया? लेकिन ध्यान देने से पता चलता है कि भक्ति आंदोलन के अवसान के लिए सगुण-निर्गुण विवाद या उच्च वर्ग-निम्न वर्ग विवाद जिम्मेदार नहीं है। इस संदर्भ में हमे यह देखने होगा कि इस आंदोलन के उदय के लिए जो सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ जिम्मेदार थीं वे परिस्थितियाँ आगे जारी रह पाती हैं कि नहीं? कहने का तात्पर्य है कि जब तक भक्ति आंदोलन की प्रकृति और चरित्र के बारे में ठीक-ठीक विश्लेषण नहीं किया जाता, उसकी खूबियों के साथ-साथ अंतर्विरोधों की भी बारीक पड़ताल नहीं की जाती तब तक इसके अवसान की तर्कसंगत व्याख्या नहीं हो सकती है।

मुक्तिबोध की स्थापना का जवाब मैनेजर पांडे ने दिया है। वे लिखते हैं कि- ‘’इस विफलता का कारण केवल निर्गुण से सगुण के द्वंद्व में खोजना ठीक नहीं है, क्योंकि अगर हम मान भी लें कि सगुण धारा ने निर्गुण धारा को समाप्त कर दिया तो हमारे सामने एक और सवाल खड़ा होगा कि सगुण धारा को किसने समाप्त किया? असल में निर्गुण सूफ़ी और सगुन अर्थात पूरा भक्ति आंदोलन जिस समाज व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा हुआ था, वह अधिक शक्तिशाली साबित हुई। उसने भक्ति आंदोलन की सभी धाराओं को धीरे-धीरे अपने अनुकूल बना लिया। इससे साबित होता है कि सिर्फ सदाचारवाद से चाहे वह कितना भी क्रांतिकारी क्यों ना हो सामाजिक व्यवस्था नहीं बदलती।‘’5

  • पाण्डेय, मैनेजर, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, पृ- 50-51

भक्ति आंदोलन के अवसान की वजह सगुण निर्गुण विवाद में ढूंढना एक तरह से वैचारिक पूर्वाग्रह है। असल बात यह है कि सामंती युग में वैकल्पिक समाज व्यवस्था की कोई संकल्पना नहीं थी। जिसके अभाव में विचार चाहे जितने प्रगतिशील हो जाएं वह जमीनी स्तर पर किसी बड़े परिवर्तन का सूत्रधार नहीं हो सकते। साहित्यकार एक बेहतर समाज का स्वप्न दे सकता है लेकिन समाज में बदलाव के लिए समाज की अंतर्निहित सामाजिक-आर्थिक पारिस्थतियों का अनुकूल होना बेहद जरूरी है। इतिहासकार हरबंस मुखिया ने निर्गुण भक्ति की कुछ सीमाओं की तरफ भी ध्यान दिलाया है।  उनके मुताबिक ‘’इस आंदोलन के केंद्र में अन्याय के प्रति रोष है। किंतु विद्रोह नहीं है। शायद यही कारण है कि भक्ति आंदोलन के उत्तर भारतीय समाज के सबसे निम्न श्रेणी और जातियों में इतना लोकप्रिय होने के पश्चात भी शासक वर्ग को इससे कोई खतरा दिखाई नहीं दिया। इसके साथ ही मुखिया ने इसके अवसान का विश्लेषण करते हुए यह भी बताया है कि भक्ति आंदोलन के पास स्थापित सामाजिक व्यवस्था के किसी विकल्प की व्यवस्था नहीं थी। केवल उसी समाज को एक आदर्श भाव से चलने की कल्पना थी। आगे हम देखते हैं कि भक्ति आंदोलन में और पहलुओं के समान ही जाति प्रथा का विरोध भी नैतिक धरातल तक ही सीमित था। स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था केवल नैतिक आस्था पर आधारित संस्था नहीं थी इसकी गहरी सामाजिक और आर्थिक नियम थे। जिस पर उस समाज का पूरा ढांचा खड़ा था। ढांचे को तोड़ पाना तब तक असंभव था जब तक कि कोई दूसरी नीव नहीं डाली जाए अर्थात संरचनात्मक बदलाव के लिए आवश्यक था उस बुनियाद को हिलाना, उसकी सामाजिक आर्थिक जड़ों को उखाड़ना जिस पर तत्कालीन समाज टिका था ना कि सिर्फ नैतिक धरातल पर विरोध।‘’6

  • मुखिया हरबंस, भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार (संपादक: गोपेश्वर सिंह), पृ-89 हिंदी समाज में वर्ण व्यवस्था बिल्कुल सुविचारितहै। केवल नैतिक आधार पर इसका विरोध कर कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। समाज में सत्ता की संरचना एवं संसाधनों पर स्वामित्व जाति व्यवस्था के कारण निर्धारित होती है। अतः समाज की निचली जातियों में चेतना उभरने के बावजूद उनके पास संसाधनों पर स्वामित्व नहीं आ सका और वैसे भी वह अपने आजीविका के लिए दस्तकारी अथवा साम्राज्य पर निर्भर थे। जैसे ही अंग्रेजों के आने से भारत में व्यापारिक संरचना एवं संबंध बदले और साम्राज्यों  का पतन होने लगा वैसे ही समाज की तथाकथित निचली जातियों की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी। वह वापस उन्हीं सामंतों के रहमोंकरम पर निर्भर हो गए जिनका वह वैचारिक स्तर पर विरोध कर रहे थे।

इतिहासकार सतीश चंद्र लिखते हैं कि ‘’दक्षिण में भक्ति आंदोलन 10 वीं सदी में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया था। उसके बाद धीरे-धीरे वह पारंपरिक हिंदू धर्म के खांचों में प्रवेश कर गया अर्थात उसने वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और उनकी धर्म विधियों को स्वीकार कर लिया।  आगे वह भक्ति आंदोलन के अवसान की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के सापेक्ष रूप से धीमे विकास अथवा अस्थिरता इसे कमजोर करने के लिए कारगर साबित हुए। अपने तमाम सुधारवादिता के बावजूद भक्ति के आचार्यों ने चले आ रहे दार्शनिक विचारों और शास्त्र सम्मत सामाजिक विधान को ही आगे बढ़ाया। मोक्ष को परम पुरुषार्थ मानते हुए धर्म के अनुरूप समाज को उसे पाने के अलग-अलग रास्ते सुझाए। लोक से अधिक परलोक की चिंता पर जोर दिया। मनुष्य जो कुछ सुख-दुख समाज में भोगता है उसके स्रोत और उसके कारण इस समाज व्यवस्था में ही हैं इस सत्य को ढँकते हुए कर्मफल और ईश्वरीय विधान कहकर उन्हें अदृश्य की मर्जी नियति के हवाले कर दिया। ईश्वर मनुष्य को दुख सहने की शक्ति भले दे उसके दुख दूर नहीं कर सकता इस सच्चाई पर भी पर्दा डालते हुए ईश्वर भक्ति को सारे सांसारिक दुखों से मुक्ति पाने का माध्यम बताया गया।‘’ 7

  • वही, पृष्ठ-101

भक्ति आंदोलन का समय सामंतवादी युग था। सामाजिक क्षेत्र में धर्म की केंद्रीयता सामंतवाद का बुनियादी लक्षण है। यही कारण है कि भक्त कवि सामाजिक विषमताओं धार्मिक आडंबरओं जाति-पाती आदि की पहचान तो कर पाते हैं लेकिन उसके लिए जिम्मेदार तत्वों की पहचान उनके लिए असंभव ही बना रहता है। निर्गुण कवियों के यहां अगर एक स्तर पर प्रतिरोध दिखता भी है तो केवल ब्राह्मणों के खिलाफ जो वर्णाश्रम धर्म में शिखर पर हैं। लेकिन सामंतवादी संरचना में समाज की बागडोर केवल ब्राह्मणों के हाथ में नहीं थी और भी बहुत से लोग सत्ता संरचना से जुड़े हुए थे। सामंतवादी सामाजिक पद्धति में जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति की खोज धर्म के शरण में ही जाकर हो सकती है। यही कारण है कि भक्त कवियों ने अपनी समस्याएं अपने आराध्य को संबोधित किया। भक्ति आंदोलन विचार के स्तर पर सामाजिक बुराइयों का विरोध तो करता है लेकिन इस विरोध की प्रकृति अलग-अलग है। निगुण कवियों के यहाँ प्रतिरोध का स्वर अधिक उग्र है। लेकिन सगुण कवियों के यहाँ सामाजिक बुराइयों का प्रतिरोध उतना दिखाई नहीं पड़ता। सगुण कवि स्थापित समाज व्यवस्था के ही सुचारु रूप से चलाने के पक्षधर दिखाई देते हैं।

 

शिवकुमार मिश्र कहते हैं कि ‘’मध्य युग में धर्म दर्शन के साथ विचारधारा के अन्य सभी रूपों दर्शन, राजनीति, विधिशास्त्र को जोड़ दिया और इन्हें धर्म-दर्शन की शाखाएं बना दिया। इस तरह उसने हर सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन को धार्मिक जामा पहनने के लिए विवश किया।  आम जनता की भावनाओं को धर्म का चारा देकर और सब चीजों से अलग रखा गया। इसलिए कोई भी प्रभावशाली आंदोलन आरंभ करने के लिए अपने हितों को धार्मिक जाने में पेश करना आवश्यक था।‘’8

  • मिश्र, शिवकुमार, भक्ति आन्दोलन और भक्ति काव्य, पृ- 34, लोकभारती प्रकाशन

शिवकुमार मिश्र की बात एक हद तक सही है। लेकिन जैसे ही प्रभावशाली आंदोलन की बात धर्म के जामों में होगी तो कहीं ना कहीं उसकी बागडोर धर्म के पुरोधाओं के हाथ में चली जाएगी। यही बात भक्ति आंदोलन के साथ भी हुआ। धीरे-धीरे वैष्णव भक्ति के माध्यम से वर्णाश्रम व्यवस्था के आदर्श स्वरूप की वकालत की जाने लगी। जब हम मध्यकाल को जानने और समझने का प्रयास करते हैं तो हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मध्ययुग सामाजिक जीवन में सामंतवाद और धर्म की केंद्रीयता को स्वीकार करता है। इस तरह से मध्य युग में कोई भी बात धार्मिक जामे से इतर नहीं की जा सकती थी।

इस विषय में इतिहासकार हरबंस मुखिया अंग्रेजों को दोषी मानते हैं उनका कहना है कि ‘’यदि यह आंदोलन सदा के लिए सामाजिक असमानता और जाति प्रथा से उत्पन्न अन्यायों को खत्म नहीं कर सका तो संभवत इसका कारण यह था कि कारीगर व्यापारी और जो इस आंदोलन का मुख्य आधार थे, अब भी कमजोर और असंगठित थे। और इससे पहले कि उदीयमान पूंजीपति वर्ग एक वर्ग के रूप में अपना पूर्ण विकास प्राप्त करें, ब्रिटिश पूंजीपतियों ने देश को जीत कर अपने कब्जे में कर लिया और उसे ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग बना लिया।‘’ 9

मुखिया हरबंस, भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार (संपादक: गोपेश्वर सिंह), पृ-91

भक्ति काल के उत्तरार्ध में अंग्रेजों का आगमन हो चुका था। धीरे-धीरे अंग्रेज व्यापारियों ने पूरे भारत के महत्वपूर्ण व्यापार पर कब्जा कर लिया था। इस तरह से भारत के उदीयमान पूंजीपति वर्ग का एक वर्ग के रूप में विकास रुक गया। जिससे समाज में मध्यवर्ग के विकास को धक्का लगा। पारंपरिक रूप से दस्तकार वर्ग इस नए परिवर्तन से कमजोर हुआ। ध्यान देने की बात यह है भक्ति आंदोलन की शुरुआत में यही दस्तकार वर्ग आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था। इसी वर्ग से पहली बार कवि पैदा हो रहे थे।

डॉ. नामवर सिंह भक्ति आंदोलन के अवसान में मध्यकालीन लोक एवं शास्त्र के द्वंद्व को दोषी मानते हैं। वह अपनी पुस्तक दूसरी की परंपरा की खोज में लिखते हैं- ‘’किस प्रकार मध्य युग के भारतीय इतिहास का मुख्य अंतर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद है ना कि इस्लाम और हिंदू धर्म का संघर्ष’’ 10

  • सिंह, नामवर, दूसरी परंपरा की खोज, पृ- 55, राजकमल प्रकाशन

नामवर सिंह की व्याख्या आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की व्याख्या की ही अगली कड़ी है। लोक और शास्त्र का द्वंद्व कहकर नामवर सिंह ने युग की गतिमान सामाजिक-आर्थिक परिस्थतियों को नज़रअंदाज़ कर दिया। लोक और शास्त्र का द्वंद्व साहित्य के क्षेत्र के लिए सत्य हो सकता है लेकिन इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना होगा। अतः यह कहा जा सकता है कि इसके अवसान का कारण यह भी था कि ग्रामीण स्तर पर भी भक्ति आंदोलन वर्ण क्रम में कोई बदलाव नहीं ला सका था। क्योंकि अनाज एवं जरूरत के अन्य सामानों का उत्पादन अभी भी पारंपरिक वर्ग आधारित श्रम विभाजन पर ही टिका हुआ था।  शायद यही कारण है कि भक्ति आंदोलन के उत्तर भारतीय समाज के सबसे निम्न श्रेणियों और जातियों में इतना लोकप्रिय होने के पश्चात भी शासक वर्ग को इनसे कोई खतरा नहीं दिखाई दिया। भक्ति आंदोलन ने धर्म के क्षेत्र में सब की बराबरी को तो माना लेकिन सामाजिक स्तर पर यह फलित नहीं हो सका। यहां पर यह ध्यान देने की बात है कि आधुनिक समय से पूर्व किसी भी प्रकार का विद्रोह धार्मिक जामे के भीतर ही होता था इसका सबसे बड़ा कारण तो यह भी था कि पारंपरिक भारतीय समाज में तमाम बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच तो दूर धर्म तक ही समाज के सभी वर्गों की पहुंच नहीं थी। हिंदू धर्म के पुरोधाओं ने भक्ति को मोक्ष पाने का एकमात्र द्वार तो बताया, लेकिन उसके मार्ग सभी के लिए नहीं खोले। भक्ति आंदोलन में भक्ति के मार्ग तो सबके लिए खोल दिया लेकिन सामाजिक समानता की भावना अभी भी सपना ही बना रहा। यहां पर एक और बात महत्वपूर्ण है वह यह है कि भक्ति आंदोलन का आधार मूलतः नगरीय ही रहा। बाद में वह भले ही गांव तक फैला हो लेकिन इसका मूल चरित्र नगरीय ही रहा।  यही कारण है कि इसे व्यापक जनाधार नहीं मिल पाया और कहीं ना कहीं यह भी भक्ति आंदोलन के अवसान के प्रमुख कारणों में से एक है। सत्रहवीं सदी के उतरार्ध में मुग़ल साम्राज्य का भी पतन होने लगा था। उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य नहीं हो रहे थे। इसके कारण समाज का एक बड़ा तबका जो साम्राज्य की गतिविधियों से जुड़ा हुआ था उसकी आय में कमी आई। दस्तकार वर्ग खासतौर पर इससे प्रभावित हुआ। विदेशी अंगरेज व्यापारियों ने इस देश में व्यापार पर कब्जा कर लिया। जिससे मध्यवर्ग के बनने की प्रक्रिया बाधित हुई। वस्तुतः यह कहा जा सकता है कि भक्ति आंदोलन के दौरान भक्त कवियों मे जिस समाज व्यवस्था का स्वप्न समाज के सामने रखा उसके विकास के लिए जरूरी परिस्थितियाँ विभिन्न कारणों से नहीं बन पायी। जिसके कारण एक समय के बाद भक्ति एक परिपाटी बन गई। उसकी ऊष्मा धीरे-धीरे कम हो गई। जिन भकता कवियों ने धर्म के नाम पर धार्मिक आडंबरों, जात-पात का विरोध किया था आगे चलकर उन्हीं कवियों के नाम पर मठ और पंथ बन गए। इस प्रकार भक्ति आंदोलन के विचार उपयुक्त परिस्थितियों के अभाव में आगे चलकर केवल परिपाटी बन कर रह गयी।

संदर्भ ग्रंथ – 

  1. शुक्ल, रामचन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ- 57, नागरी प्रचारिणी सभा
  2. वही, पृ-58
  3. द्विवेदी, हजारी प्रसाद- हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास, पृ- 59, राजकमल प्रकाशन
  4. जैन, निर्मला, सं., निबंधों की दुनिया, पृ-48, वाणी प्रकाशन
  5. पाण्डेय, मैनेजर, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, पृ- 50-51, वाणी प्रकाशन
  6. हरबंस, भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार (संपादक: गोपेश्वर सिंह), पृ-89, जगतराम एंड संस
  7. वही, पृष्ठ-101
  8. मिश्र, शिवकुमार, भक्ति आन्दोलन और भक्ति काव्य, पृ- 34, लोकभारती प्रकाशन
  9. मुखिया हरबंस, भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार (संपादक: गोपेश्वर सिंह), पृ-91, जगतराम एंड संस
  10. सिंह, नामवर, दूसरी परंपरा की खोज, पृ- 55, राजकमल प्रकाशन
श्वेतांशु शेखर
शोधार्थी
हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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