शोध सार – भक्ति परम्परा का विकास प्राचीनकाल से ही आरम्भ हो गया था। राम भक्त कवियों ने अपनी मधुर वाणी के द्वारा जनसाधारण के हृदय में राम भक्ति का संचार किया। वेदों में कुछ स्थलों पर ‘राम’ शब्द का उल्लेख किया गया है, परन्तु राम के जीवन से संबंधित प्रथम महाकाव्य ‘वाल्मीकि रामायण’ को माना जाता है। ‘वाल्मीकि रामायण’ ने केवल देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी ख्याति प्राप्त की। फलस्वरूप देश के साथ-साथ विदेशों में भी रामकाव्य रचा जाने लगा। वाल्मीकि रामायण में राम को अवतार नहीं बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में स्वीकार किया गया है। जबकि उपनिषद् मे राम को अवतार के रूप में स्वीकार किया गया है। पुराणों में भी रामकाव्य के प्रंसग दिखाई देते हैं। इन धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में भी रामकाव्य की सुदीर्घ परंपरा परिलक्षित होती है। वास्तव में राम भक्ति काव्य का आधार संस्कृत साहित्य में रचित राम काव्य और नाटक रहे हैं, परन्तु हिन्दी में रामभक्ति काव्य का सूत्रपात भक्तिकाल में ही हुआ था। यद्यपि वीरगाथा काल में भी रामकाव्य का कतिपय वर्णन मिलता है तथापि इसका विस्तृत और वास्तविक वर्णन रामानुजाचार्य और रामानन्द से माना जाता है। इस परम्परा के सर्वश्रेष्ठ कवि गोस्वामी तुलसीदास जी हुए हैं जिन्होंने वाल्मीकि के पश्चात् भक्तिकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रबन्धकाव्य ‘रामचरितमानस’ की रचना करके हिन्दी साहित्य में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया और इनके परवर्ती कवियों ने हिन्दी साहित्य में रामभक्ति काव्य परम्परा को आगे बढ़ाया। रामकाव्य धारा में समन्वय की भावना के दर्शन होते हैं। इस काव्यधारा के कवियों ने अपने समय में प्रचलित विभिन्न मतों एवं विचारों का
समन्वय स्थापित करके लोक कल्याण के मार्ग को आगे बढ़ाया। भक्तिकालीन कवियों ने
रामभक्ति काव्यधारा के द्वारा मर्यादावादिता, आदर्शवादिता, समन्वय की भावना और जनसाधारण में भक्ति भावना का संचार किया तथा इन कवियों ने लोकमंगल की भावना मानवतावाद, परमार्थ और जनकल्याण के द्वारा मानव समाज को उपकृत किया।
शोधालेख – हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का महत्वूपर्ण स्थान है। आदिकाल
के पश्चात् आए हुए इस काल को ‘पूर्व मध्यकाल’ भी कहा जाता है। सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य के भक्ति से संबंधित श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएँ इसी काल में पाई जाती है। भक्ति की प्रधानता के कारण ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल को ‘भक्तिकाल’ नाम दिया है। दक्षिणी भारत में आलवार बन्धु नाम से कई कवि विख्यात थे जो नीची जाति से संबंधित थे और ज्यादा पढ़े-लिखे भी नहीं थे परन्तु वे अनुभवी थे। इनकी संख्या बारह थी और इन्होंने कहा कि भगवान की भक्ति करने का सबको समान अधिकार प्राप्त है। ये तमिल प्रदेश से संबंधित थे। इनके लगभग चार हज़ार पदों का संकलन ‘दिव्य प्रबंधम’ नाम से संकलित किया गया था और यह ग्रन्थ भक्ति व ज्ञान का अनमोल भण्डार है। आलवारों के पश्चात् दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। इन्हीं रामानुजाचार्य की परपंरा में रामानन्द हुए जिन्होंने रामभक्ति काव्य की परपंरा को आगे बढ़ाया। रामकाव्य धारा के कवियों में समन्वय का विशद रूप देखा जा सकता है, विशेष रूप से तुलसीदास में। इन्होंने दो विरोधी प्रतीत होने वाली बातों या विचारों का परस्पर समन्वय कर दिया है जो कि ‘रामचरितमानस’ में स्पष्टतः देखा जा सकता है। इन्होंने द्वैत और अद्वैत के बीच सगुण और निर्गुण के बीच समन्वय किया जिसे निम्न उदाहरण द्वारा देखा जा सकता है –
(1) ‘‘सगुनहिं अगुनहिं नहिं कुछ भेदा।
गवहिं मुनि पुराण बुध वेदा।।’’
(2) ‘‘अगुन सगुन दुई ब्रह्म स्वरूपा।
अकथ अगाध अनादि अनुपा।।’’
इसी तरह इन रामभक्त कवियों ने सत्यता और असत्यता के बीच भी सुन्दर समन्वय स्थाापित किया। भक्तिकालीन साहित्य में रामभक्ति शाखा के अनेक कवि हुए है जिनमें से
प्रमुख है- शठकोप, रामानन्द, गोस्वामी तुलसीदास, अग्रदास, नाभादास, ईश्वरदास,
हृदयराम इत्यादि। इन कवियों ने अपने काव्य में राम का वर्णन बड़े ही भक्ति-भावमय रूप में किया है।
- शठकोप – आलवार भक्तों में शठकोप को राम भक्ति का प्रथम आचार्य माना जाता है व इन्हें राम की चरणपादुका का अवतार माना जाता है। इनका रामभक्ति से संबंधित ग्रन्थ ‘सहस्रगीत’ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनके बारे में कहा है, ‘‘उन्होंने अपनी ‘सहस्रगीत’
में कहा है- ‘‘दशरथस्य सुतं तं बिना अन्यशरणवान्नास्मि।’’1
- रामानन्द – रामानन्दी संप्रदाय (वैरागी संप्रदाय) के प्रवर्तक श्री रामानन्द वैष्णव संप्रदाय के प्रधान आचार्य राघवानन्द जी के शिष्य थे। ये रामानुजाचार्य के मतावलम्बी थे। ‘‘तत्वतः रामानुजाचार्य के मतावंवबी होने पर भी अपनी उपासना पद्धति का उन्होंने विशेष रूप रखा।
उन्होंने उपासना के लिए बैकुण्ठ निवासी विष्णु का स्वरूप न लेकर लोक में लीला विस्तार
करने वाले उनके अवतार राम का आश्रय लिया।’’2 इनका मूल मंत्र ‘राम नाम’ था परन्तु इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि रामानन्द से पहले रामभक्त होते ही न थे। रामानन्द से पहले भी राम भक्ति परंपरा चली आ रही थी परन्तु इसका सम्यक प्रवर्तन रामानन्द से ही माना जाता है। इन्होंने विष्णु के अन्य रूपों में से ‘रामरूप’ को ही लोगों के लिए कल्याणकारी मानकर इन्हें भक्ति का आधार बनाया और एक सबल संप्रदाय का प्रवर्तन करके जनता को रामभक्ति की ओर अग्रसर किया। इनके विषय में यह प्रचलित कहावत है- ‘‘भक्ति द्रविड़ उपजी, लाए रामानन्द।’’ रामानन्द ने रामभक्ति का द्वार सभी जातियों के लिए खोल दिया था और एक उत्साही विरक्त दल का प्रवर्तन किया जो ‘वैरागी दल’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इनके दो प्रसिद्ध ग्रन्थ थे (1) वैष्णवमताब्ज भास्कर और (2) श्री रामार्चन पद्धति। इसके अतिरिक्त इनके अन्य ग्रन्थ हैं- रामरक्षा स्रोत, योगचिंतामणि, ब्रह्मसूत्रों का आनन्द भाष्य और भगवद्गीता भाष्य।
- गोस्वामी तुलसीदास – स्वामी रामानन्द जी के पश्चात् इनके अनेक शिष्यों ने देश के अनेक भागों में रामभक्ति परम्परा को आगे बढ़ाया और ये भक्त फुटकल पदों में रामभक्ति का परमोज्ज्वल प्रकाश गोस्वामी तुलसीदास जी की वाणी द्वारा ही स्फुरित हुआ। तुलसीदास जी का जन्म 1532 ई॰ में हुआ था। इनके जन्म स्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। किसी विद्वान ने रामपुर तो किसी ने राजापुर, किसी ने कौशल देश तो किसी ने सोरों (एटा) को इनका जन्म-स्थान माना है। परन्तु अधिकतर विद्वानों ने इनका जन्म बाँदा जिले के राजापुर ग्राम को ही माना है। बचपन से ही ये माता-पिता के सुख से वंचित हो गए थे। डॉ. माता प्रसाद गुप्त के अनुसार, ‘‘तुलसीदास के माता-पिता का देहान्त उनके जन्म के कुछ ही समय बाद हो गया।’’3 बाबा नरहरिदास ने इन्हें अपने पास रख लिया और कुछ शिक्षा-दीक्षा दी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है, ‘‘इन्हीं गुरु से गोस्वामी जी रामकथा सुना करते थे।’’4 पंद्रह वर्ष तक विद्याध्ययन करके गोस्वामी जी अपने गाँव राजापुर लौटे। तुलसीदास जी का विवाह रत्नावली से हुआ। तुलसीदास जी अपनी पत्नी पर इतना अनुरक्त थे कि एक बार रत्नावली अपने मायके गई तो तुलसीदास उनके पीछे-पीछे बढी़ नदी को पार करके उनसे जाकर मिले । इस पर रत्नावली ने एक दोहा कहा-
‘‘लाज न लागत आपको दौरे आयहु साथ।
धिक-धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौ मैं नाथ।।
अस्थि चर्ममय देह मम तामे जैसी प्रीत।
तैसो जौ श्रीराम महँ होति न तौ भयभीत।।
‘‘यह बात तुलसीदास जी को ऐसी लगी कि वे तुरंत काशी आकर विरक्त हो गए।’’5 इन्होंने रामभक्ति को ही अपने जीवन का मूल आधार बना लिया। तुलसीदास के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं। इनके द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ तुलसीदास की अमर-कीर्ति’’ का आधार स्तम्भ है। इस महाकाव्य में रामकथा सात काण्डों में विभक्त है। तुलसीदास की भक्ति भावना में राम के शील, शक्ति और सौन्दर्य तीनों रूपों का समावेश मिलता है। कबीरदास ने भी राम की ही उपासना की थी। परन्तु कबीर के राम तुलसी के राम से भिन्न हैं। कबीर के राम निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं जिसे न कोई देख सकता है और न ही उसका कोई रूप, रंग या आकार है, जबकि तुलसीदास के राम सगुन साकार ईश्वर के समान हैं जिन्होंने अयोध्या के राजा दशरथ के घर अवतार धारण किया है। तुलसीदास ने अपने महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ में राम के आदर्श मानव, आदर्श राजा, आदर्श पति, आदर्श पुत्र, आदर्श पिता इत्यादि रूपों को चित्रित किया है। तुलसीदास के राम विष्णु के अवतार और परमब्रह्म हैं। तुलसीदास ने राम के स्वरूप को इस तरह से वर्णित किया है कि वह जीवन और साहित्य का अनिवार्य अंग बन गए हैं। तुलसीदास ‘मानस’ में कहते है-
‘‘एक अनीह अरूप अनामा। जब सच्चिदानंद परधामां।।
व्यापक बिस्वरूप भगवाना। ते हिं धरि देह चरित कृत नाना।।’’6
‘रामचरितमानस’ के राम, सीता और लक्ष्मण हास्य-विनोद नहीं करते। ‘रामचरितमानस’ के पात्रों के विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है, ‘‘रामचरितमानस’ के भीतर राम, भरत, लक्ष्मण, दशरथ और रावण, ये कई पात्र ऐसे हैं जिनके स्वभाव और मानसिक प्रवृति की विशेषता गोस्वामी जी ने कई अवसरों पर प्रदर्शित भावों और आचरणों की एकरूपता दिखाकर प्रत्यक्ष की है।’’7 तुलसी के राम ने बाल्यावस्था में जितनी प्रसन्नता से समय व्यतीत किया वनवास के दौरान उनको उतने ही कष्टों का सामना करना पड़ा परन्तु फिर भी वे कभी धैर्य को नहीं खोते। उनका स्वभाव धीर, गंभीर और संयमी है और उनमें खिन्नता व उदासीनता लेश मात्र भी नहीं है। इस प्रकार तुलसीदास ने अपने आराध्य श्रीराम का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली, महान और विशद बताया है कि कोई साधारण लेखक भी उनके साथ जुड़कर किसी महाकाव्य या मुक्तक काव्य की रचना कर सकता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तुलसीदास की बारह प्रामाणिक रचनाएँ मानी हैं। (1) वैराग्य संदीपनी (2) दोहावली (3) रामाज्ञाप्रश्न (4) रामलला नहछू (5) जानकी मंगल (6) गीतावली (7) बरवै रामायण (8) रामचरितमानस (9) विनय पत्रिका (10) कवितावली (11) पार्वती मंगल (12) कृष्ण गीतावली।
4.नाभादास – भक्ति काल के रामभक्त कवियों में नाभादास का स्थान विशिष्ट है। ये
अग्रदास के शिष्य थे। ये बड़े भक्त औ साधु स्वभाव के थे। ब्रजभाषा पर इनका अच्छा अधिकार था और पद रचना में अच्छी निपुणता थी। इनकी दो प्रसिद्ध रचनाएँ हैं- (1) भक्तमाल (2) अष्टयाम। ‘भक्तमाल’ में 200 कवियों का जीवन-वृत और उनकी भक्ति-विषयक बातों का वर्णन किया गया है। ‘अष्टयाम’ में राम और सीता के मिलन के आठों पहरों का वर्णन किया गया है। यह श्रृंगार भक्ति और रसिक भावना को लेकर लिखा गया है। यह गद्य और पद्य शैली में लिखा गया है। नाभादास सगुणोपासक रामभक्त कवि थे। इनकी भक्ति उस समय की प्रचलित रामभक्ति से कुछ भिन्न थी। उसमें मर्यादा के स्थान पर माधुर्य का आधिक्य था।
5.अग्रदास – रामभक्ति शाखा के कवियों में अग्रदास का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया
जाता है। ये स्वयं को जानकी की सखी मानते थे और इन्होंने रामभक्ति परपंरा मे सर्वप्रथम
माधुर्य भावना या रसिक भावना का समावेश किया। ये कृष्णदास पयहारी के शिष्य थे और इन्होंने रसिक संप्रदाय की स्थापना की। इनकी प्रमुख रचनाओं में (1) हितोपदेश (2) उपासना बावनी (3) ध्यान मंजरी (4) रामध्यान मंजरी (5) रामाष्याम (अष्टयाम) (6) पदावली और (7) कुण्डलियां प्रमुख हैं। इनमें से रामाष्टयाम (अष्टयाम) में राम के ऐश्वर्य रूप की भव्य झांकी मिलती है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है- ‘‘इनका एक पद भी देखिए-
पहरे राम तुम्हारे सोवत।
मैं मति मंद अंध नहिं जोवत।
अपमारग मारग महि जान्यो।
इंद्री पोषि पुरुषारथ मान्यो
औरनि के बल अनत प्रकार।
अगरदास के सम आधार।’’8
6.प्राणचंद चौहान– प्राणचन्द चैहान भक्तिकालीन रामकाव्य पंरपरा के प्रसिद्ध कवि माने जाते हैं। इन्होंने राम के सगुण साकार रूप की आराधना की थी। संस्कृत साहित्य में रामचरित संबंधित कई नाटक मिलते हैं। जिनमें से कुछ तो नाटक के साहित्यिक निमयों का अनुसरण करते हुए प्रतीत होते हैं परन्तु कुछ केवल संवाद प्रधान होने के कारण ही नाटक की श्रेणी में आ गए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ‘‘इसी पिछली प़द्धति पर संवत् 1667 में इन्होंने रामायण महानाटक लिखा। रचना का ढगं नीचे उद्धृत अंश से ज्ञात हो सकता है –
कार्तिक मास पच्छ उजियारा। तीरथ पुन्य सोम कर वारा।।
ता दिन कथा कीन्ह अनुमाना। शाह सलेम दिलीपति थाना।।’’9
7.हृदयराम – हृदयराम पंजाब के रहने वाले थे और कृष्ण दास के पुत्र थे। ये अनन्य रामभक्त कवि थे। इनके अधिकतर कविता और सवैये में बड़े अच्छे संवाद हैं। तुलसीदास के समय से ही इनकी ख्याति और इनकी रामभक्ति की विचारधारा देश के विभिन्न भागों में फैल गई थी। इन्होंने ‘हनुमन्ननाटक’ लिखा जो कि लगभग डेढ़ हज़ार छदों को अपने भीतर समाए हुए है। इसमें केवल हनुमान का चरित ही नहीं अपितु राम के चरित का भी बखूबी वर्णन किया है जो कि जानकी स्वयंवर से आरम्भ होकर राम के राज्याभिषेक तक प्रस्तुत है।
8.ईश्वरदास – राम भक्ति काव्यधारा में ईश्वरदास का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। इनकी सुप्रसिद्ध कृति ‘सत्यवती कथा’ मानी जाती है। रामकथा से संबंधित इनकी दो रचनाएँ ‘भरत-मिलाप’ और ‘अंगद पैज’ हैं। ‘भरत मिलाप’ में राम वनगमन के पश्चात् राम और भरत की भेंट को कोमल व करूण प्रसंग में पद्यबद्ध किया गया है। इनकी एक अन्य रचना ‘अंगद पैज’ में रावण की सभा में अंगद द्वारा अपने पैर जमा कर डटने का वीरतापूर्वक वर्णन किया गया है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भक्तिकालीन साहित्य में रामभक्त कवियों ने अपनी लेखनी के द्वारा राम भक्ति परंपरा की जो अविरल धारा बहाई है वह हिन्दी साहित्य के लिए अविस्मरणीय रहेगी। राम भक्ति काव्यधारा के कवियों ने सगुण भक्ति की मूल संवेदना को लोक-भावभूमि पर दृढ़ता से प्रतिष्ठित किया है। दक्षिण भारत से आरम्भ होकर यह भक्तिधारा उतर भारत में फैली और जनसाधारण में भक्ति चेतना का संचार किया। जहाँ शठकोप को रामभक्ति काव्यधारा का प्रथम कवि माना जाता है, वहीं रामानन्द को इस भक्तिधारा का मेरूदण्ड माना जाता है। रामानन्द का रूढ़िवाद-पुरोहितवाद विरोधी चिन्तन ही कबीर और तुलसीदास में रचनात्मक निष्पत्ति पाता हैं। रामानन्द ने संस्कृतगर्भित व शास्त्रसम्मत भाषा का प्रयोग न करके तत्कालीन समय में प्रचलित भाषा में ही काव्य सृजन किया। इसी का अनुसरण ही परवर्ती रामभक्त कवियों ने किया। भक्तिकालीन साहित्यकारों ने राम कथा को ऐतिहासिक, पौराणिक या काल्पनिक रूप में प्रस्तुत किया है इस प्रश्न का सप्रमाण उत्तर देना कठिन जान पड़ता है। रामकाव्य परंपरा का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि राम भारतीय साहित्य के भाव नायक हैं। इन भाव नायक की कथा का आधार तो वाल्मीकि रामायण है परन्तु हर युग का कवि/लेखक ने इसमें कुछ-न-कुछ जोड़ता ही
आया है। देशकाल के परिवर्तन चक्रों में पड़े राम को लोकनायक बनने में हज़ारों वर्ष लग गए। रामकाव्य परंपरा में आदिकवि वाल्मीकि की रामायण से पहले रामकथा आख्यानों के
रूप में ही मिलती थी। लिपिबद्ध रूप में सर्वप्रथम वाल्मीकि ने रामायण की रचना की। तत्पश्चात् हिन्दी साहित्य के कवियों ने राम का वर्णन करना आरम्भ किया और राम के मर्यादापुरूषोत्तम रूप का ही वर्णन सहजता से किया है। परन्तु धीरे-धीरे समय के साथ मर्यादा का स्थान श्रृंगार और सौन्दर्य वर्णन ने ले लिया और विधि काव्य शैलियों के माध्यम से जनता में रामभक्ति काव्य धारा को प्रवाहित करने में इस युग के कवियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है और राम के चरित वर्णन द्वारा समाज का उद्धार भी हुआ है।
संदर्भ –
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रभात पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृ॰ 113.
- वही, पृ॰ 112
- डॉ॰ माता प्रसाद गुप्त, तुलसीदास, पृ॰ 172.
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रभात पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृ॰ 119.
- वही, पृ॰ 120
- तुलसीदास, रामचरितमानस, पृ॰ 13
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, गोस्वामी तुलसीदास, पृ॰ 93
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रभात पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृ॰ 133.
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रभात पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृ॰ 135.