भवभूति संस्कृत के श्रेष्ठ नाटककार हैं। कालिदास के नाटकों में समतुल्य भवभूती के नाटक माने जाते हैं। भवभूति विदर्भ के पद्मपूर नामक स्थान के निवासी थे। भवभूति ने भट्टश्रीकंठ पछलांछती भवभूतिनामद्वारा अपना उल्लेख किया है। उनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे भट्टगोपाल के पोते थे। उनके पिता का नाम नीलकंठ और माता का नाम जतुकर्णी था। भवभूति के गुरु का नाम ज्ञाननिधी था। श्रीकंठ के गुरू कुमारिल थे जिनका नाम ज्ञाननिधी था। भवभूति ही मिमांसक उम्बेकाचार्य थे। जिनका उल्लेख दर्शन ग्रंथों में प्राप्त होता है। भवभूति का नाम ‘उम्बेक’ प्राप्त होता है। बहुत से विद्वानों का मत है भवभूति, मिमांसक उम्बेक अद्वैतवादी दिक्षीत सुरेश्वराचार्य एक ही है।
“अस्ति दक्षिणपथे पद्मपुर नाम नगरम्। तत्र केचित्तेरीयाः कश्यपाश्चणगुरवः पंक्तिभावनाः पंचाग्नयों धृतव्रताः सोमपिथिन उदुम्बरनामानो ब्रह्मवादिनः प्रतिवसन्ति। तदामुष्यायणस्य तत्रभवतो वाजपेययाजिनो महाकवेः पंचमः सुगृहितनाम्नो भट्टगोपालस्य पौत्रः पवित्रकीर्ते नीलकण्टस्यात्मसम्भवः श्री कण्डपदलाछनः पदवाक्य प्रमाण ज्ञो भवभूतानाम जातकर्णीपुत्रः”
इस व्याख्या के अनुसार भवभूती का नाम श्रीकण्ठ भी माना जाता है। उत्तररामचरित के टीकाकार घनश्याम ने कहा है कि – स्वंय भव (शिव) ने कवि को भूती प्रदान की थी अतः उन्हें भवभूति पुकारा जाता है। भवभूति के तीन नाटक प्राप्त होते है। ‘महावीरचरित’ इसमें रामविवाह से लेकर राज्याभिषेक तक की कथा बताई है। यह वीररसप्रधान नाटक है। ‘उत्तररामचरित’ में राम का पत्नी के प्रति रूदन तथा सीतानिर्वासन की कथा मुख्य है। इस नाटक में करूण रस प्रधान है। ‘मालती माधव’ में 10 अंक है। मालती तथा माधव की कल्पना भरी प्रेमकथा है। युवावस्था का उन्मादक प्रेम का वर्णन उमदा है। इसमें प्रकृति चित्रण भी विशेष है।
भवभूति द्वारा रचित उत्तररामचरित के नायक राम है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं। उनमें शील शक्ति, सौंदर्य गुण दिखाई देते हैं। वे त्याग और तपस्या में विश्वास करते हैं। पिता के वचन को सत्य करने के लिए मिले हुए राज्य को प्रसन्नता से त्याग कर बनवास को अंगीकार करते हैं। राजा होने पर राम एक महान व्रत को स्वीकार करते हैं। और प्रजा के लिए जानकी तक को त्यागने के लिए तैयार होते हैं। राम का राज्य एक आदर्श राज्य है। और उनका जीवन प्रजा के लिए आदर्श है। उस आदर्श में बट्टा न लग जाए इसलिए राम लोकमत की उपेक्षा नहीं करते है। सीता के सती होते समय सबकुछ जानते हुए भी लोकापवाद के कारण निर्वाचित करके अपने आपको सदा के लिए शोक के सागर में डुबो देते हैं। उत्तररामचरित में राम आदर्श पति, आदर्श पिता, आदर्श राजा के रूप में चित्रित किए गए हैं। एकपत्नी व्रत के साक्षात मूर्तिमंत उदाहरण अगर कोई है, तो वह राम है। सीता के निर्वाचित होने पर अश्वमेध यज्ञ में उनकी हिरण्यमयी में प्रतिकृती को सहधर्मचारिणी के रूप में नियुक्त करते हैं। संसार में एकपत्नी व्रत का इससे अच्छा उदाहरण मिलना कठिन है। सीता उनकी गृहलक्ष्मी है उनके नैनो की अमृतशलाका है। वह उसका जीवन है, सीता राम का दूसरा ह्रदय हैं। राम की ऐसी प्राणप्रिया सीता को उत्पत्ति परी पूरा होने पर भी लोकाविवाद के कारण निर्वाचित करके कठोर शब्दों की वेदी पर अपने जीवन के सुख की बलि चढ़ाते हैं।
“अयि कठोर यशः किल ते प्रियं कियमशो धनु घोरमतः परम”३
सीता निर्वाचन में राम के जीवन की महत्ता और अलौकिकता का दर्शन होता है। कर्तव्य पालन का इससे उच्च आदर्श क्या होगा? यह सच है कि राम एक आदर्श पति थे, साथ में आदर्श राजा थे किंतु दो आदर्शों में संघर्ष हो जाने पर बड़े आदर्श के लिए छोटे आदर्श का त्याग करना पड़ता है। राम सीता निर्वाचन रूप अनेक उनसे कर्मों के लिए अपने आप को धिक्कारते हैं। दुख का असहायक वेग उनके ह्रदय को दलता रहता है। वहीं पर ही भीतर धड़कता हुआ तो उनको निरंतर जलाता रहता है परंतु जीवन को समाप्त नहीं करता है। क्योंकि राम के भीतर तो दुख संवेदना के लिए चैतन्य स्थापित है।
“वज्रादपि कठोराणि मृदूनी कुसुमादपि लोकोत्तराणां चेतांसी को नु विज्ञातुमर्हति”४
राम स्वभाव तथा विनय संपन्न में हैं। उन्हें अभिमान उनके मन को छूता तक नहीं है। सीता का एक प्रसंग यहां पर उत्तररामचरित में प्रस्तुत किया गया है। मां सीता जब गर्भावस्था में थी तब राजमहल के भीतर चित्र दर्शन की प्रसंग को चित्र दर्शन के अवसर पर जो परशुराम की वीरता के साथ राम की वीरता के बाद उपस्थित हुई तो उस प्रसंग को सुनाकर भी नहीं सुनना चाहते इसलिए लक्ष्मण को भी वह बीच में ठोक देते हैं और सीता जी खुद राम के विनय के महत्व की सराहना इन शब्दों में करती हैं
“सुष्ठु शोभसे आर्यपुत्र एतेन विनयमाहात्मेन”५
जग लक्ष्मण मंत्रा और कई कई के चित्रों की ओर आकर्षित करते हैं तब तुरंत ही राम उसमें प्रांत की ओर से सीता का ध्यान हटाकर दूसरी चित्र की ओर ले जाते हैं यहां राम की उदारता एवं शिक्षण का अच्छा परिचय मिलता है। मरने मन में प्रतिक्रिया की भावना नहीं व्यक्त होने देते लक्ष्मण की यह उक्ति है
“अये मध्यमाम्वृत्तान्तमन्तरितमार्येण”६
राम सजीवन प्रजा के लिए और उनकी भलाई के लिए समर्पित है उनका राज्य आदर्श है इसमें कोई लाभ न हो इसका भी बराबर से ध्यान रखते हैं। राम प्रजा को खुश रखने के लिए अपना निजी सुख में दया सभी अपने यहां तक की पत्नी को भी त्याग देते हैं।
“स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि
आराधनाय लोकस्य मुचंतो नास्ति मे व्यथा”७
सीता अभी परम पवित्र है शुद्ध है यह बात भलीभाँति जानते हुए राम को यह कठोर निर्णय लेना पड़ता है। और परम सती सीता को निर्वासित करके अपने को सदा के लिए शोक सागर में डुबो देते हैं। इसीलिए भभूति ने उत्तररामचरित में एक आदर्श राजा के रूप में राम को चित्रित किया है। सीता का निर्वासन करके राम अपने आप को कोसते दिखाते हैं। राम के जीवन के दो पक्ष प्रमुख होकर आए हैं एक तरफ अलौकिक सुख यानी अपना राजपरिवार का सुख दूसरी तरफ प्रजा का सुख का ध्यान दोनों अपनी जगह पर सही है। परंतु राम अपने सुख को एकदम छोटा मानते हुए उसका परित्याग करते हैं और सीता को वनवास देख कर अपना महान कर्तव्य पूरा करने के लिए उन्हें बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं। लेकिन प्रजा के लिए विश्व के सारे कष्ट सहते हैं। राम कर्तव्य पालन में बहुत कठोर है दूसरी तरफ वे कोमल संवेदनशील मन के हैं पंचवटी में अपने वनवास काल में पूर्ण परीक्षित भूमि प्रदेश को देखकर उन्हें सीता की याद आती है तो वह मूर्छित होकर बेहोश हो जाते हैं। यहां राम के अति कोमल मन का दर्शन होता है युद्ध के मैदान में प्यारे पुत्र कुश और लव को देखकर राम के मन में वात्सल्य भाव उमडता है। संसार में ऐसे पति का नमूना मिलना असंभव और कठिन है। राम के नजरिया में सीता जी उनके घर की लक्ष्मी हैं राम को जब यह बिरहा वियोग असह्य हो जाता है उसमें भी वह समस्त सुख की बलि चढ़ाते हैं।
भूतनाथ कला का आधार लेकर भरतमुनि की नाटक के सिद्धांतों को महत्व देते हुए अपने नाटक का अंत जो है वह सुखांत में किया है। निवेद और दर्शनशास्त्र का अखाड़ा ज्ञान था। ज्योति ने अपने नाटकों में सिर्फ शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग किया है। इनके नाटकों भवभूति का कालिदास से अलग है। वे अपने कथावस्तु को विस्तार देते हैं। मैं विदूषक नहीं होता फिर भी कई प्रसंगों में आनंद विनोद का सामंजस्य बनाते हैं। नाटकों के भाव हास्य रस प्रयुक्त होता है। करुण रस के धरातल पर नाटकों का ताना-बाना बुना गया है। इनके नाटकों में शिक्षाप्रद शास्त्रीय सिद्धांतों का समावेश हुआ है। जिससे इनके शास्त्रीय ज्ञान का परिचय होता है। हृदय के भाव को व्यक्त करने में असमर्थ है। पंचवटी में राम के वचन को सुनकर सीता की दशा का वर्णन कुछ इस प्रकार से किया गया है
“तटस्थं नैराश्यदपि च कलुषं विप्रियवशात
वियोगे दीर्घेस्मिन झटिति घटनात्स्तम्भितमिव”८
भभूति गुढ़ गंभीर विषय वस्तु को सीधे शब्दों के साथ रखना चाहते हैं उत्तररामचरित में जब दूसरे अंक में राम की भेंट संयोग से होती है तो राम का ध्यान पहाड़ी शोभा की ओर न ले जाकर कुंभीनस साँपों की ओर ले जाते है। भभूति करुण रस का प्रतिपादन करने में बहुत माहिर थे। उत्तररामचरित में मुख्य रूप से करुण रस का आलंबन विभाव सीता का पूर्ण रूप से उद्दीपन विभाव का वर्णन है। यहां अरे के गुणों का बड़ी संजीदगी और विस्तार के साथ वर्णन किया है मानव ह्रदय की कोमल पक्ष का राम के शब्दों के रूप में बड़ा मार्मिक वर्णन दिखाई देता है।
“त्वया जगन्ति पुण्यानि त्वय्यपुण्या जनोक्तया”९
प्रस्तुत नाटक का मूल आधार यद्यपि वाल्मीकि रामायण है यह भी सही है कि वाल्मीकि रामायण का आधार उत्तराखंड है जिसमें राम के जीवन का उत्तर भाग वर्णित है जो दुःख से भरा है। आचार्य भरत मुनि के विचार से रंगमंच पर नाटक का अंत दुखांत में नहीं होना चाहिए ऐसे भाग को ध्यान में रखते हुए नाटककार भवभूति ने अपने रचना कौशल से सजाकर इसे सुख में बना दिया है। भगवती के राम का यह सुखमय कथानक कहाँ उपलब्ध है। साहित्यशास्त्र के नियमों के अनुसार भवभूति में आदर्श पर अपने नाटक का पर्यावरण सुखमय बनाने के लिए भरपूर प्रयत्न किए हैं तथा इसके लिए उन्होंने पद्मपुराण तथा पातालखंड की कथाओं को आधार माना है। पद्मपुराण में अश्वेत के घोड़े का संरक्षण व्रत पुत्र पुष्कल ने किया है किंतु उत्तर रामचरित में लक्ष्मण पुत्र चंद्रकेतु ने किया है। पद्मपुराण के अनुसार वाल्मीकि मुनि ने कुश और लव को अस्त्रविद्या सिखाई थी परंतु उत्तररामचरित में दोनों जन्म से दिव्यास्त्र लेकर ही प्राप्त हो गए थे। पद्मपुराण में लव से पहले विजय प्राप्त करते हैं लेकिन बाद में बंदी बनाए जाते हैं। फिर उनके बड़े भाई कुश युद्ध में उतरते हैं और सारी सेना को हराकर सेनापति को भी बंदी बना लेते हैं किंतु सीताजी बीच-बचाव करती हैं और अश्वमेध घोड़ा को बंधन रहित करा दिया जाता है फिर अश्वमेध यज्ञ पूरा होता है। राम इन बालकों की वीरता के बारे में सुनकर वाल्मीकि के जरिए राम को वास्तविकता का बोध होता है। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या में पृथ्वी देवी प्रकट होती हैं किंतु उत्तररामचरित में वह प्रकट नहीं होती हैं क्योंकि उसके बाद वाल्मीकि की गवाही पर राम सीता को स्वीकार कर लेते हैं और कई वर्षों तक राम सीता के साथ अपना राजकाज देखते हैं। इस प्रकार भवभूति के राम यह एक आदर्श राम माने गए हैं। उत्तररामचरित का अंत सुक्रांत में किया है। राम को सीता के साथ और सीता को राम के साथ दिखाया है। उत्तररामचरित के सात खंडों में से प्रथम तीन खंड में उन्होंने दांपत्य जीवन का बहुत सुंदर महत्व बताया है। यह केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक, आध्यात्मिक स्तर पर भी बहुत सुंदर बनाया है। ठीक इसी के अनुसार भवभूती ने इस नाटक का अंत तक सुखांत में किया है। राम को सीता के साथ और सीता को राम के साथ इस दांपत्य जीवन के सुंदर सुख को प्रस्तुत किया है।
संदर्भ ग्रंथ सूची :-
१) उत्तररामचरितम् व्याख्या – व्याख्याकार आनंद स्वरूप
२) उत्तररामचरितम् अनुवाद -आचार्य पंडित त्रिनाथ शर्मा
3) उत्तररामचरितम्- महाकवि भवभूति
४) उत्तररामचरितम्- महाकवि भवभूति
५) उत्तररामचरितम्- महाकवि भवभूति
६) उत्तररामचरितम् -महाकवि भवभूति
७) उत्तररामचरितम्- महाकवि भवभूति
८) उत्तररामचरितम् -महाकवि भवभूति
९) उत्तररामचरितम्- महाकवि भवभूति